Monday, October 29, 2007

दयाकी दृष्टी: सदाही रखना ! १०

(कुछ जगाहोपे एडिटिंग नही हो पाई है....क्षमा चाहती हूँ)

ऐसी कितनीही छुट्टियाँ आयी और गयी। आशा बच्चों का साथ पाने के लिए तरसती रही और बच्चे उसे तरसाते रहे। माँ का त्याग उनके समझ मे आयाही नही,बल्कि माँ-बापने अपनी जिम्मेदारी झटक के सेठना आंटी पे डाल दी,यही बात कही उनके मनमे घर कर गयी। बारहवी के बाद राजीव मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया। मिसेस सेठना सारा खर्च उठाती रही। बादमे संजूभी मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया।
पोस्ट ग्राजुएशन के लिए पहले राजू और फिर संजू इस तरह दोनो ही अमेरिका चले गए। मिसेस सेठ्नाने फिर उनपे बोहोत खर्च किया।

राजू एअरपोर्ट चलने से पहले दोनो पती-पत्नी राजूको विदा करने मिसेस सेठना के घर गए। आशाकी आँखों से पानी रोके नही रूक रहा था। राजूको गुस्सा आया,बोला,"माँ लोगों के बच्चे परदेस जाते हैं तो वे मिठाई बाँटते हैं, और यहाँ तुम हो कि रोये चली जा रही हो!!अरे मैं हमेशाके लिए थोडेही जा रहा हूँ??लॉट कर आऊँगा। एक बार कमाने लगूँगा तो अच्छा घर बना सकेंगे, और कितनी सारी चीजे कर सकेंगे। ज़रा धीरज रखो।"
"बेटा,अब तुम्हारीही राह तकती रहूँगी अपने बच्चों से बिछड़ कर एक माँ के कलेजेपे क्या गुज़रती है,तुम नही समझोगे ,"आशा आँचल से आँसू पोंछते हुए बोली।
अपूर्ण

Sunday, October 28, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ९

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढ़ईके लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य,ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली बार बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँसे माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर अंटी सोनेके लिए कमराभी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना,आदी कारण बता कर बच्चे रात मे लॉट गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बोहोत कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पोहोंच गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी मान ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बोहोत अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "

क्रमशः


दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ८

मुख्याध्यापिकाने कहा,"आशा, बच्चों का इसीमे कल्याण है। ऐसा सुनहरा अवसर इन्हें फिरसे नही मिलेगा। तुम दोनो मिलकर इनको कितना पढा लोगे?और मिसेज़ सेठना अगर इसी शहर मे किसी बडे स्कूल मी प्रवेश दिला दें, सारा खर्चा कर दें, फिरभी अगर तुम्हारे बच्चों के मित्रों को असली स्थिती का पता चलेगा तब इनमे बेहद हीनभाव भर जाएगा। ज्यादा सोंचो मत। "हाँ" कर दो। "

आशा ने "हाँ" तो भर दी लेकिन घर आकर वो खूब रोई । बच्चे उससे चिपक कर बैठे रहे। कुछ देर बाद आँसूं की धाराएँ रूक गयी। वो अपलक टपरी के बाहर उड़नेवाले कचरे को देखती रही। उसमे का काफी कचरा पास ही मे बहनेवाली खुली नाली मे उड़कर गिर रहा था........

हाँ!! उसका बंगला,उसका सपनोंका बंगला,उसका अपना बंगला, कभी अस्तित्व मे थाही नही। वो हिना, वो जूही का मंडुआ ,बाम्बू का जमघट, उससे लिपटी मधुमालती, वो बगिया जिसमे पँछी शबनम चुगते थे,जिस बंगले की छतसे वो सूर्योदय निहारती ,कुछ,कुछ्भी तो नही था!

बच्चे गए। उससे पहले मिसेस सेठना ने उनके लिए अंग्रेजीकी ट्यूशन लगवाकर बोहोत अच्छी तैय्यारी करवा ली। उनके लिए बढिया कपडे सिलवाये! सब तेहज़ीब सिखलाई। एक हिल स्टेशन पे खुद्की जिम्मेदारी पे प्रवेश दिलवा दिया। वहाँ के मुख्याध्यापक तथा trustees उनके अच्छे परिचित थे। सब ने सहयोग किया।

बच्चों पर शुरू मे खास ध्यान दिया गया। मिसेस सेठना ने पत्रव्यवहार के लिए अपना पता दिया। अपने माँ-बाप देश के दुसरे कोने मे रहते हैं, तथा उनकी तबादले की नौकरी है, इसलिए हम सेठना आंटी के घर जाएँगे तथा हमारे ममी-पापा हमे वहीं मिलने आएँगे, यही सब क्लास के बच्चों को कहने की हिदायत दी गयी। शुरुमे बच्चे भौंचक्के से हो गए, लेकिन धीरे,धीरे उन्हें आदत हो गयी।
अपूर्ण

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ७

आशाने एक पार्ट time और एक फुल time ऐसी दो औरते कामके लिया रखही ली थी। अस्मिता दादीका आँचल नही छोड़ती थी।

कुछ ही दिनोंमे मायाको बेटा हुआ। लड़केके नामोंकी लिस्ट बनी। 'कुशल' नाम सभीको अच्छा लगा। नामकरण हो गया। अस्मिता के सामने अगर आशा कुशलके लाड करती तो वो तूफान मचा देती। आशा और उसका पती दोनो तृप्त थे। ज़िंदगी उन्हें इतना कुछ देगी ऐसा कभी सोचाही नही था।
यथासमय संजूकाभी ब्याह हो गया। बादमे शुभदाभी बालरोग विशेषज्ञ हो गयी और उसकाभी एक विशिष्ट दैनिक क्रम शुरू हो गया। संजू-शुभदा उसी अस्पतालमे काम करने लगे जहाँ राजू करता था। बच्चे,बहुएँ आपसमे हिलमिलकर रहते, आशाने सबको एक डोरमे बाँध रखा था। सबने मिलकर घरको अन्दर बाहरसे सुन्दर बना रखा था। और फिर शुभदानेभी खुश खबरी सुनाई। उसे जुडवाँ बच्चे हुए। दोनो लड़के। इस कारण अस्मिता सभीकी औरभी लाडली हो गयी।
आशा हमेशा "दयाकी दृष्टी सदाही रखना..."गाना गुनगुनाया करती। कई बार राजू-संजू जब वो रसोयीमे होती और ये गाना गुनगुना रही होती तो उसके गलेमे बाहें डालकर कहते,"माँ,ऊपरवालेकी दया तो हैही लेकिन तेरी मेहनत कई गुना ज्यादा। उसके बिना ये दिन हमे देखने कोही नही मिलते।"
अब भी उसके कान्धोंको कोई स्पर्श कर रहा था। "राजू?संजू?" वो बुदबुदा रही थी।
"माजी!मैं लीलाबाई!चलिए,मैं आपको बाथरूम ले चलती हूँ। कुल्ला कीजिए,फिर चाय लीजिये,"व्रुधाश्रम मे खास आशाके लिए तैनात की गयी लीलाबाईने कहा।
"लीलाबाई? तू कौन??राजू,संजू कहाँ हैं??अभी तो मुझे पीछेसे आकर गले लगाया। कहाँ गए?,"आशाने कुछ न समझते हुए कहा।
"माँ जी,पहले उठिए तो। राजू, संजूको बादमे बुलाएँगे,"लीलाबाईने कहा।
नियतीकी कैसी विडम्बना थी! आशा वास्तव और कल्पना इसमेका फासला पूरी तरह भूल गयी थी। पिछले दो सालोंसे इस आश्रम मे पडी हुई थी। उसे तो आगे पढ़नेको भी नही मिला था। गराजमे काम करने वाले पतीने इजाज़त दीही नही थी। पती को पढ़नेका बिलकुल शौक नही था। उनको दो लड़के हुए थे ये वस्तुथिति थी। दोनो डाक्टर बने थे येभी वस्तुस्थिति । लेकिन किसतरह?ये अलग कहानी थी.......

आशा जिस स्कूलमे सफाई का काम करती थी, वहाँ की मुख्याध्यापिकाने उसके बच्चो की स्मार्टनेस देख ली और उसे एक अपत्यहीन ,बोहोत दौलतमंद,लेकिन उतनीही नेकदिल पारसी औरतके पास ले गयी।
"मैं बच्चों का सब खर्च करुँगी उन्हें बोहोत अच्छे बोर्डिंग स्कूलमे भरती करवा दूँगी बच्चे बोहोत होशियार है। उनका भविष्य उज्वल हो जाएगा। तुम्हे पछताना नही पड़ेगा,"उस दयालु पारसी औरत,मिसेज़ सेठना ने आशासे कहा।

आशाको क्या कहा जाय कुछ सूझ नही रहा था। क्या अपने पतीको पसंद आएगा ये सब? उनको छोडो, उसका मन लगेगा इन कलेजोंके टुकडों के बिना? वो स्तब्ध खडी हो गयी। बच्चे उसका आँचल थामे खडे थे। उस पारसी औरतका बड़ा-सा बंगला फटी-फटी आँखों से देख रहे थे।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ६

साल भरमे उनके द्वारपर एक और खुशीने दस्तक दी। मायके पैर भरी हो गए। आशा फिर सपनोके दुनियामे खो गयी। मैं ऐसा करूंगी,मैं वैसा करूंगी,मायाकी सहेलियोंको बुलाऊंगी ,मायाकी खूब खबर रखूंगी। इश्वर मेरे आंचल मेभी समां न सके इतना भर भरके दान तू मुझे दे रहा है। बच्चे अलग रहने चले जाते है,बूढे माँ-बाप निराधार हो जाते है,पोते,पोतियोंका लाड प्यार करनेकी किस्मत कितनोको मिलती है?वो बार इश्वर के चरणों मे नतमस्तक हो जाती।
माया को यथासमय लडकी हुई। आशाको लड़कीका बेहद शौक था। लड़कियोंको सजाने-सवारनेका कुछ औरही मज़ा होता है। चलने लगेगी तो रुनझुन पाजेब बजेंगे। क्या करू और क्या न ,ऐसी उसकी हालत हो गयी। नामों की सूची बनती गयी। 'अस्मिता'नाम सबको अच्छा लगा।
नामकरण की तैय्यारी,फ़ोन,दिन महीने सरकते गए। अस्मिता बैठने लगी, चलने लगी, पाज़ेब बजने लगे,तोतले बोल और किलकारियाँ घरमे गूँजने लगीं.....

अबतक आशा तथा उसका पती सेवानिवृत्त हो चुके थे। फिर अस्मिताकी नर्सरी ,उसका खान पान,उसे पार्क मे घुमाना, लोरी गा कर सुलाना,सारा,सारा सुख वो भोग रही थी.......

इस सबके चलते एक दिन संजीव अपनी माँ को बताया कि उसे एक लडकी पसंद आयी है। उसीके कॉलेज मे पढ़ ने वाली लेकिन उसकी जूनियर । संजू बालविभागमे पोस्ट ग्राजुएशन कर रहा था। आशाने किसी भी किस्म की आपत्ती नही दिखाई,बल्कि खुद लड़किवालोंको आमंत्रित किया। लडकी के माँ-बाप दोनोही डाक्टर थे। लडकी स्मार्ट थी। उसकी एम्.बी.बी.एस के बादकी internship रह गयी थी। internship के बाद ब्याह तय हुआ।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ५

अब राजूकी शादीके सपने वो देखने लगी। अपनेपर,इस घरपर,राजूको दिल दे सकनेवाली,प्यार करनेवाली लडकी वो तलाशने लगी। अव्वल तो उसने राजूको पूछ लिया कि उसने पहलेही किसीको पसंद तो नही कर रखा है। लेकिन वैसा कुछ नही था। एक दिन किसी समरोह्मे देखी लडकी उसे बड़ी पसंद आयी। उसने वहीं के वहीं थोडी बोहोत जानकारी हासिल की। लडकी दूसरे शेहेरसे आयी थी। उसके माँ-पिताभी उस समारोह मी थे। उसने खुद्ही लडकी की माँ को अपने मनकी बात बताई। लड़कीकी माँ को प्रस्ताव अच्छा लगा। दोनोने मिलकर लड़का-लडकी के बेमालूम मुलाक़ात का प्लान बनाया। रविवारके रोज़ लडकी तथा उसके माता पिता आशा के घर आये। राजू घरपरही ही था। सब एक-दूसरेके साथ मिलजुल कर हँसे-बोले। लडकी सुन्दर थी,घरंदाज़ दिख रही थी,और बयोलोजी लेकर एम्.एससी.किया था।
जब वे लोग चले गए तो आशा ने धीरे से बात छेड़ी। राजू चकित होकर बोला,"माँ!!तुमभी क्या चीज़ हो! क्या बेमालूम अभिनय किया! पहले लड़कीको तो पूछो। और इसके अलावा हमे कुछ बार मिलना पड़ेगा तभी कुछ निर्णय होगा!"
"एकदम मंज़ूर! मैं लड़कीकी माँ को वैसी खबर देती हूँ। हमने पहलेसेही वैसा तय किया था॥ लड़कीको पूछ्के,मतलब माया को पूछ के वो मुझे बताएंगी। फिर तुम्हे जैसा समय हो,जब ठीक लगे,जहाँ ठीक लगे, मिल लेना, बातें कर लेना,"आशा खुश होकर बोली। उसे लड़कीका बोहोत प्यारा लगा,'माया'।
राजू और माया एक -दूसरेसे आनेवाले दिनोमे मिले। कभी होटल मे तो कभी तालाब के किनारे। राजीवने अपने कामका स्वरूप मायाको समझाया। उसकी व्यस्तता समझाई। रात-बेरात आपातकालीन कॉल आते हैं,आदि,आदि सब कुछ। अंत मे दोनोने विवाह का निर्णय लिया। आशा हवामे उड़ने लगी। बिलकुल मर्जीके मुताबिक बहू जो आ रही थी।
झटपट मंगनी हुई और फिर ब्याह्भी। कुछ दिन छुट्टी लेकर राजीव और माया हनीमून पेभी हो आये। बाद मे माया ने भी घरवालोंकी सलाह्से नौकरीकी तलाश शुरू की और उसे एक कॉलेज से कॉल आया,वहीं पर उसने फुल्तिमे के बदले पार्ट टीम नौकरी स्वीकार की,अन्यथा घरमे सास पर कामका पूरा ही बोझ पड़ता।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ४

राजू दो सालका हुआ न था कि आशाके पैर फिर भारी हुए। उसे फिर लड़काही हुआ। वो थोडी-सी मायूस हुई। लडकी होती तो शायद आगे चलके सहेली बन गयी होती...... इस लड़केका नाम इन लोगोंने संजीव रखा। राजू-संजूकी जोड़ी!
उसने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलमे डाला। बच्चे आज्ञाकारी थे। माँ-बाप तथा दादीका हमेशा आदर करते। समय पर पढाई खेल कभी कभार हठ्भी, जो कभी पूरा किया जाता कभी नही। दिन पखेरू बनके सरकते रहे......

इस बीच उसने बी.एड.भी कर लिया। पतीने बैंकिंग की औरभी परीक्षाएँ दी तथा तरक़्क़ी पाई। राजू दसवी तथा बारहवी कक्षा तक बहुत बोहोत बढिया नमबरोंसे पास होता गया और उसे सहजही मेडिकल कॉलेज मे प्रवेश मिल गया।
जब संजू बारवी मे था तब आशा की माँ गुज़र गयी। सिर्फ सर्दी-खाँसी तथा तेज़ बुखार का निमित्त हुआ और क्या हो रहा है ये ध्यान मे आनेसे पहलेही उसके प्राण उड़ गए। न्युमोनिया का निदान तो बादमे हुआ।

बोहोत दिनोतक माँ की यादों मे उसकी पलके नम हो जाती। आशा स्कूलसे आती तो माँ चाय तैयार रखती। खाना तैयार रखती। सासकी इस चुस्ती पर उसका पतीभी खुश रहता। धीरे,धीरे खाली घरका ताला खोल के अन्दर जानेकी उसे आदत हो गयी।
संजूको भी बारहवी मे बोहोत अछे गुण मिले राजू के बाद वोभी मेडिकल कोलेजमे दाखिल हो गया। देखतेही देखते राजू एम्.बी.बी.एस.हो गया।
internship पूरी करके सर्जन भी बन गया। उसकी प्रगल्भ बुद्धीमत्ता की शोहरत शहरभर मे फ़ैल गयी और एक मशहूर प्राइवेट अस्पताल मे उसे नौकरी भी मिल गयी। इस दरमियाँ पतीके पीछे लगके उसने छतपे दो सुन्दरसे कमरे भी बनवा लिए थे। राजू संजूके ब्याह्के बाद तो ये आवश्यक ही होगा।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3

ये सुनकर उसका अपनी अशिक्षित माँ के प्रती आदर एकदम से बढ़ गया। कितने धीरज से ज़िंदगी का सामना किया था उस अनपढ़ औरत ने!
आशाके दिन पूरे हो गए। सरकारी अस्पताल मी उसका प्रसव हुआ। सबकुछ ठीक ठाक हो गया। नामकरण के समय पतीने कहा,"नाम मे कहीं तो 'राजा' होना चाहिए। यथानाम तथा गुण। मन से धन से वो राजा बनेगा। अंत मे "राजीव"नाम रखा और उसका राजू बन गया। सबकुछ कैसा मनमुताबिक चल रहा था। भगवान्! मेरे नसीब को कहीँ नज़र न लग जाये, कभी,कभी आशाके मनमे विचार आता।

दयाकी दृष्टी सदाही रखना...! २

और एक दिन बाप गुज़र जानेकी खबर आयी। उन दिनों वो गर्भवती भी थी। मायके जाकर अपनी माँ को अपने एक कमरे के घर मे ले आयी। पती को बैंक की ओरसे घर बनवानेके अथवा खरीदनेके लिए क़र्ज़ मिलने वाला था। दोनोने मिलकर घर ढूढ़ ना शुरू किया। शहर के ज़रा सस्ते इलाकेमे मे दो कमरे और छोटी-सी रसोई वाला,बैठा घर उन्हें मिल गया। आगे पीछे थोडी-सी जगह थी। दोनो बेहद खुश हुए। कमसे कम अब अपना बच्चा पत्रे के छत वाले, मिट्टी की दीवारोंवालें , घुटन भरे कमरेमे जन्म नही लेगा!
वो और उसकी माँ , दोनोही बेहद समझदारीसे घरखर्च चलाती । कर्जा चुकाना था। माँ नेभी अडोस पड़ोस के कपडे रफू कर देना,उधडा हुआ सी देना, बटन टांक देना, मसाले बना देना तो कभी मिठाई बना देना, इस तरह छोटे मोटे काम शुरू कर दिए। वो बेटीपर कतई बोझ नही बनना चाहती थी और उनका समयभी कट जाता था।
एक दिन आशाने कुतुहल वश उनसे पूछा,"माँ, मैं तेरी कोख से सिर्फ एकही ऑलाद कैसे हूँ? जबकी आसपास तुझ जैसों को ढेरों बच्चे देखती हूँ?"
माँ धीरेसे बोली,"सच बताऊ? मैंने चुपचाप जाके ओपरेशन करवा लिया था। किसीको कानोकान खबर नही होने दी थी। तेरा बाप और तेरी दादी"बेटा चाहिऐ"का शोर मचाके मेरी खूब पिटाई लगते थे। मेहनत मैं करूं,शराब तेरा बाप पिए, ज्यादा बच्चों का पेट कौन भरता?बोहोत पिटाई खाई मैंने,लेकिन तुझे देख के जी गयी। तेरी दादी कहती,तेरे बाप की दूसरी शादी करा देंगी , लेकिन उस शराबी को फिर किसीने अपनी बेटी नही दी। "

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.....1

शीघ्र सवेरे कुछ साढ़े चार बजे,आशाकी आँखे इस तरह खुल जाती मानो किसीने अलार्म लगाके उसे जगाया हो। झट-से आंखों पे पानी मारके wo वो छत पे दौड़ती और सूर्योदय होनेका इंतज़ार करते हुए प्रनायाम्भी करती। फिर नीचे अपनी छोटी-सी बगियामे आती। कोनेमेकी हिना ,बाज़ू मे जास्वंदी,चांदनी,मोतियाकी क्यारी, गेट के कमानपे चढी जूहीकी बेलें,उन्हीमे लिपटी हुई मधुमालती। हरीभरी बगिया। लोग पूछते, क्या डालती हो इन पौधों मे ? हमारे तो इतने अच्छे नही होते? प्यार! वो मुस्कुराके कहती।

हौले,हौले चिडियांचूँ,चूँ करने लगती।पेडों परके पत्तों की शबनम कोमल किरनोमे चमकने लगती! पंछी इस टहनी परसे उस टहनी पर फुदकने लगते। बगियाकी बाड्मे एक बुलबुलने छोटा -सा घोंसला बनाके अंडे दिए थे। वो रोज़ दूरहीसे झाँक कर उसमे देखती। खुदही क्यारियोंमेकी घाँस फूँस निकालती। फिर झट अन्दर भागती। अपनेको और कितने काम निपटाने हैं,इसका उसे होश आता

नहा धोकर बच्चों तथा पतीके लिए चाय नाश्ता बनाती। पती बैंक मे नौकरी करता था। वो स्वयम शिक्षिका। बच्चे डॉक्टरी की पढाई मे लगे हुए। कैसे दिन निकल शादी होकर आयी थी तब वो केवल बारहवी पास थी बाप शराबी था। माँ ने कैसे मेहनत कर के उसे पाला पोसा था। तब पती गराज मे नौकरी करता था।

शादी के बाद झोपड़ पट्टी मे रहने आयी। पड़ोस की भाभी ने एक हिन्दी माध्यम के स्कूलमे झाडू आदि करने वाली बाई की नौकरी दिलवा थी । बादमे उसी स्कूलकी मुख्याध्यापिकाके घर वो कपडे तथा बर्तन का काम भी कर ने लगी। पढ़ने का उसे शौक था। उसे बाहर से बी ए करने की सलाह दी। वो अपने पतीके भी पीछे लग गयी। खाली समयमे पढ़ लो,पदवीधर बन जाओ,बाद मे बैंक की परीक्षाएँ देना,फायदेमे रहोगे। धीरे,धीरे बात उसकी भी समझ मे आयी। कितनी मेहनत की थी दोनो ने! पढाई होकर,ठीक-से नौकरी लगनेतक बच्चों को जन्म न देनेका निर्णय लिया था दोनोने। पती को बैंक मे नौकरी लगी तब वो कितनी खुश हुई थी !

Tuesday, October 16, 2007

किसी राह्पर 7

इतनेमे फिर दरवाज़की घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला। एक जोडा अन्दर आया। संगीताने उनका परिचय कराया,"आप है मिस्टर और मिसेस राय ,और ये है मिस्टर साठे।"
फिर राय दम्पतीकी ओर मुखातिब होके बोली,"हमे चलना चाहिऐ, हैना?मि.साथे, हम लोग जब्भी मौक़ा मिलता है,पास के व्रुधास्रम मे जाते है,वहाँ पर भिन्न,भिन्न संस्कृतिक कार्यकम करते हैं, गाते बजाते हैं,उन्हें घुमानेभी ले जाते हैं। हमारा बैंक ऐसे कई कार्यक्रम स्पोंसर करता है। कुल मिलके बडे मज़से वक़्त कटता है हमारा!" उस पूरी शाम मे संगीता पहली बार इतना उल्लसित होकर बतिया रही थी,लेकिन उसका "मि.साठे"संबोधन सागर को झकझोर गया।
पर्स लेकर वो दरवाज़के पास खडी हो गयी,सागर के लिए बाहर निकल जानेका ये स्पष्ट संकेत था। सागर बाहर निकला । संगीता अपने साथियोंके साथ कारमे बैठी और निकल गयी। शायद आगे ज़िन्दगीमे उसे उसके लायक कोई मीत मिल जाये क्या पता.....ऐसा कि जिसे संगीता जैसे रत्न की परख हो! सागर ने एक आह-सी भरी....उसके हाथोंसे वो हीरा तो निकल ही गया था....उसीकी मूर्खता के कारण।
जिस मोड़ पे सागर ने संगीता को छोड़ा था वहाँसे वो कहीं आगे, दूर और बोहोत ऊंचाई पे पोहोंच गयी थी !
समाप्त।

किसी राह्पर 6

जब वो पुणे आया तो उसने माँ से पूछा,"माँ,मैंने तुम्हे बड़ी मुद्दत से पैसे नही दिए, और तुमनेभी नही मांगे। ये सब खर्च किस तरह चला रही हो तुम?"उसके बाहर रहते उसके पिताभी पनद्रह दिनोके लिए अस्पतालमे भर्ती थे। माँ के लिए रखी हुई दिन भरकी कामवाली बाई भी आती थी। सारे बिल चुकाए जा रहे थे। सागर को कुछ समझ मे नही आ रहा था। माँ खामोश रही।
"कुछ बोलोना माँ! तुमने अपने जेवर तो नही बेचे?" सागर ने फिर पूछा।
"सागर,तुम्हे याद है,मैंने कहा था, संगीताने घर छोड़ा है,लेकिन हमे नही छोड़ा?सब घर-गृहस्थी उसीकी वजह से चलती रही,"माँ ने जवाब दिया।
"क्यों? क्यों लिए उससे पैसे??"सागर चीखने लगा।
"तो क्या तुम्हारे पिताको मरनेके लिए छोड़ देती?और मेरे घुट्नोमे इतना दर्द रहता है,मुझे उठने बैठ्नेमे इतनी तकलीफ होती है,मैं कर सकती घर का सारा कामकाज?तेरे पास समय था हमारी पूछताछ करनेका?"माँ ने भी उंची आवाज़ मे जवाब दिया तो सागर चुप कर गया।
उसके मनमे पश्चात्ताप की भावना जाग उठी। अनजानेही उसके मनने स्वीकारा के संगीता उससे बढ़कर अभिनेत्री बन सकती थी। वो सुन्दर भी थी,बेहद फोटोजेनिक भी थी। उसके अभिनय का लोहा सभी ने माना था। सिर्फ उसके कारण उसने नौकरी की सुरक्षितता थामी थी और उसने क्या किया था संगीता के लिए,जिसके साथ उसने जीवनभर साथ निभानेका वादा किया था, सात फेरे लिए थे? एक बेहद कठिन मोड़ पर,जहाँ संगीताको उसकी सख्त ज़रूरत रही होगी, उसका साथ छोड़ दिया था।
इतवारकी शाम थी। संगीता अपने घर मे बैठी टी.वी.देख रही थी, तभी दरवाज़ेपर घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला। सामने सागर खडा था।
"आयिये!" ,बिना कोई अचरज दिखाए उसने कहा। पहले वो उसको"तुम"करके संबोधित करती थी। सागर बैठा। उसने फ़्लैट मे इधर उधर नज़र दौड़ाई । वही कलात्मकता जो संगीता के स्वभावका एक अंग थी, यहाँ भी दिखाई दी।
"संगीता,मुझे ये "आप"करके क्यों संबोधित कर रही हो? क्या मैं इतना पराया हो गया हूँ?"
"ये सवाल आप अपने आपसे कीजियेगा। मुझे सिर्फ बतायिये,चाय या कोफी ?"
उसे सिर्फ कोफी ही पसंद थी और मूड आता तो दोनो एक दूजेसे कहते ,"चलो कोफी हो जाय"।
"मैं लेकर निकला हूँ,मुझे कुछ नही चाहिए",सागर ने कहा। सच तो ये था के वो कोफी के लिए कभीभी मन नही करता था इस बातसे संगीता अच्छी तरह अवगत थी।
"ठीक है,मैं अपने लिए बनाने चली थी ,सोंचा आपसेभी पूछ लूँ,"कहकर वो ड्राइंग तथा डायनिंग की बगल मे जो ओपन किचन था ,वहाँ गयी और अपने लिए कोफी बनाके ले आयी। वो उसे निहारता रहा। प्रसव के बाद उसका किंचित-सा वज़न बढ़ गया था,लेकिन अब वो किसी कॉलेज कन्या की तरह दिख रही थी।
"कैसा चल रहा है तुम्हारा काम धंदा?"सागरने पूछा।
असलमे उसकी तटस्थ तासे वो चकरा गया था। वो सोंचता था की संगीता इस तरह के सवाल करेगी के,"इधर कैसे आना हुआ?"
फिर वो उससे क्षमा मांग के ,पिछली बाँतें भूलनेके लिए कहेगा ,इसतरह का मन बना के वो आया था।
"बिलकुल मज़ेमे चल रहा है सबकुछ,"उसका जीवन कैसा चल रहा है,ये तो उसने पूछा ही नही। वैसे उसे सब पताही था। उसके पास क्यों आया येभी संगीता ने उससे पूछा नही।
"संगीता,मैं किसलिए आया हूँ ये तुम ने मुझसे पूछा ही नही?"पूछ ते हुए उसकी ज़बान सूख रही थी।
"ये बात मैं क्यों पूछू ?आप आये है ,आपही बताएँगे!"संगीताने कहा।
"संगीता,मुझे ये आप,आप कहना बंद करो,"अचानक सागर ने ऊंचे स्वरमे कहा।
"देखिए,चिल्लायिये मत। आप मेरे घर अपनी मर्ज़ीसे आये है,और मुझसेही ऊंचे स्वरमे बात कर रहे है?कमाल है!"संगीताने अबभी संयत स्वरमे कहा।
"सुनो संगीता.......,मैं तुम्हे फिरसे घर ले जाने के लिए आया था,क्या तुम आओगी,ये पूछने आया हूँ। जो हुआ उसके लिए मुझे बेहद अफ़सोस है। मैं पश्चात्ताप की अग्नीसे झुलस रहा हूँ। मुझे तुमसे बोहोत सारी बातें करनी हैं,एक नए सिरेसे ज़िंदगी शुरू करनी है.........संगीता...,"सागर इल्तिजा करने लगा ।
संगीताने उसे बीछ मेही रोक दिया,"देखिए,मैं कभीभी वापस लौटूंगी , ये ख़याल आप अपने दिमाग से पूरी तरह निकाल दीजिए। आप मेरे निरपराध बच्चे का क़त्ल कर ने निकले थे। ऐसे आदमी के साथ ज़िंदगी गुज़ारनेकी मूर्खता मैं फिर कभी नही करूंगी।" वो अभीभी सादे स्वरमे बतिया रही थी,उसके लह्जेमे बर्फीली ठंडक थी।

किसी राह्पर 5

एक सुबह उठके उसने बच्चे को छुआ तो उसे निष्प्राण पाया। उसने कोई शोर नही मचाया। साथ सोये सागर को भी नही जगाया। बच्चे को गोद मे उठाकर वो अपनी सास के पास गयी तथा उन्हें बताया। सागर कोभी उन्होनेही जगाया, जहाँ,जहाँ, फ़ोन करने थे किये। जो जो क्रिया कर्म ,विधियाँ होनी थी शुरू हो गयी। अडोसी,पड़ोसी,रिश्तेदार आ गए। जब उस नन्ही जान की अन्तिम यात्रा का समय आया,बस तब संगीता अपनी सास तथा माके गले लग के रोली। फिर अपने ससुरकी ओर मुड़कर बोली ,"बच्चे का क्रिया कर्म आप करेंगे।" समझने वाले बात को समझ गए।
उसने बैंक मे जाना शुरू कर दिया। सागर एक हिरोइन के साथ मुम्बई मे घूमता फिरता है ,ये बात उसके पढ्नेमे तथा सुननेमे आ गयी थी। सागर कुछ दिनोके लिए पूना आया था। एक दिन सुबह उठा तो उसे पास मे पड़ा एक कागज़ दिखा। आँखें मलते हुए उसने पढा,
"सागर,
हमारा साथ बस इतनाही था। मैंने बैंक द्वारा दिया गया फ़्लैट कुछ दिन पहलेही कब्ज़मे ले लिया था। मेरी ओरसे अब तुम पूर्ण तया स्वतंत्र हो। जब चाहो तलाक़ ले सकते हो।
संगीता"
सागर काफी दिनों के बाद पुणे आया था अपनी माँ के पास जाके उसने पूछा,"संगीता तुम्हे बताके गयी?"
"हाँ! बताके गयी",माँ ने शांत भाव से जवाब दिया।
"तुमने उससे कुछ कहा नही?मतलब रोका नही?"सागर ने पूछा।
"क्यों और किसके लिए? तुमने तो अपनी उससे अलग अपनी ज़िंदगी बानाही ली है। वैसेभी उसने घर छोड़ा है,मुझे या तुम्हारे बाबूजी को नही छोड़ा है,"माँ ने कहा।
सागर खामोश हो गया। मनही मन निश्चिंत भी हो गया। अब वो पूरी तरह अपनी मनमानी कर सकता था। वो हिरोइन भी उसके मुम्बई के फ़्लैट मे रहने लगी। दिन बीतते गए और सागर की कुछ फिल्मे एकदम फ्लॉप गयी। कुछ फिल्मों मे उसकी अदाकारीभी घटिया थी, येभी अलग,अलग अखबार तथा पर्चियों मे छपके आया। बचत नाम की आदत तो सागर के जीवन मे थी ही नही। सागर की ये प्रवृत्ती देख करही संगीताने अपने बैंक का खाता अपने ही नाम पे रखा था। सागर उसकी उस हिरोइन के साथ परदेस भ्रमण कर आया था। फिल्मी दोस्तो के साथ पंच तारांकित होटलों मे मेहेंगी पार्टीस ,मेहेंगे कपडे,मेहेंगे तोहफे ये सब कुछ वो करताही चला गया और फिर वो दिनभी आया जिस दिन उसे एहसास हुआ के संगीता नामक सपोर्ट सिस्टम अब उसकी ज़िन्दगी मे नही है। वो चिडचिडा हो गया, और उसके पसेसिव बर्ताव के कारण वो हिरोइन भी उसे छोड़ के चल दी....

अब क्या किया जाय उसकी समझ मे नही आ रहा था। गुमनामी के अँधेरे से बचने के लिए उसने कुछ बड़ी ही घटिया फिल्मोंमे ,घटिया किर्दारोंको निभाया। इससे उसकी औरभी बदनामी हुई। उसे एक दिन एक और बात याद आयी के पिछले कुछ महीनोसे उसने अपनी माँ को पैसेभी नही दिए है। पेंशन वाले पिताके पैसोंसे माँ घर किस तरह चला रही होगी?
क्रमशः

Sunday, October 7, 2007

किसी राह्पर 4

"सागर इधर आओ!"कोनेमे खडे सागरको उसकी माने बुलाया। सागरने सब सुनही लिया था। वो आगे आया लेकिन किसीसे नज़रें मिल नही पाया। नीचे मूह लटकाए बोला,"कौन देखभाल करेगा ऐसे बच्चेकी??मैं सभीके भलेकी खातिर कह रहा था।"
"भलेकी खातिर? अरे हत्या करनेवाला था तू उस निरपराध जीवकी?? बाप होते हुए? तुझे शर्म नही आयी?"सागरकी माँ घुस्सेसे बोली।
सागर सागर संगीतासे कुछ्भी बात किये बिना बाहर निकल गया। संगीताने मनही मन निश्चय किया,वो अपने आगेका भवितव्य स्वीकार करेगी।,चाहे उसे जोभी कीमत चुकानी पडे। बच्चे को कमसे कम एक महीना अस्पताल मे रखना ज़रूरी था। दुसरे दिन जब डाक्टर ने उसे चलनेकी इजाज़त दीं तो incubator मे रखे अपने उस असहाय जीव को उसने देखा । वो ज़्यादा दिन जिंदा नही रह सकता ये कोयीभी बता सकता था,लेकिन जबतक जियेगा,वो अपनी जान निछावर करेगी,ये उसने तय कर लिया।
महीनेभर के बाद वो और उसका बच्चा घर आये। संगीताने अपने बैंक वालोंको पहलेही स्थिती बता दीं थी। बैंक ने उसे हर प्रकार से सहायता दीं।
आजकल सागर और उसके बीच बातचीत ना के बराबर ही होती थी। लेकिन सास उसकी बेहद मदद करती लगभग छ: महीनोके बाद वो बालक संगीताकी नज़दीकी का एहसास करने लगा। संगीता उसके पलनेके पास आती तो उसके होटों पे हल्की-सी मुस्कान आती। ये देख कर संगीता का दिल भर आता। उसे लगता,कुछ्ही दिनोके लिए क्यों ना हो, उसकी मेहनत सार्थक हुई है।

Saturday, October 6, 2007

किसी राह्पर 3

जब उसे धीरे धीरे होश आने लगा तो तपते तेलकी तरह उसके कनोमे शब्द पड़ा,'retarded'."डाक्टर,संगीताको आप बताये ही मत। उसे बतायें कि बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। हमे ये नही चाहिऐ। इस भयंकर चीज़ को कौन संभालेगा?"ये आवाज़ सागर की थी। संगीताकी आँखें अभीतक खुल नही पा रही थी। मुहसे शब्द भी नही निकल रहे थे,लेकिन वो सबकुछ सुन पा रही थी।
"स्श! धीरे बोलिए!संगीता किसीभी समय होशमे आ सकती है और बच्चा कैसाभी हो ,वो तुम्हारी ऑलाद है। डाक्टर के नाते मैं इसे मर्नेके लिए नही छोड़ सकता। तुम्हारी दृष्टी से वो सिर्फ एक मांस का गोला होगा लेकिन उसमे प्राण हैं,"डाक्टर की आवाज़ धीमी लेकिन सख्त थी।
"आपसे ग़र नही हो सकता तो मैं इसका खात्मा करता हूँ,"सागर की घृणा भरी आवाज़।
"खबरदार! ऐसा कुछ किया तो मैं तुम्हे पुलिस के हवाले कर दूंगा,"डाक्टर की तेज़ आवाज़।
अब संगीता की आँखें धीरे,धीरे खुलने लगीं। पलकें थरथराने लगीं। उसने सबसे पहले ,"माँ" कह कर पुकारा। डाक्टर पास आकार बोले,"कहो कैसा लग रहा है?मैं बुलवाता हूँ तुम्हारी माँ को।"
माँ और सास दोनोही अन्दर आयी और उसकी दोनो ओर बैठ गईँ। माने उसका हाथ हाथ मे लिया तथा सासुमा उसके सरपर हाथ फेरने लगी।
"माजी,"वो अपनी सास की ओर देखते हुए बोली,"हमारा बच्चा नॉर्मल नही है?"
"हमे मालूम है बेटी,भगवान् की ऐसीही मर्जी। तुम चिन्ता मत करो। येभी दिन हम काट लेंगे,"सास प्यारसे बोली।
"लेकिन माजी सागर ने जो कहा वोभी मैंने सुन लिया है,"कहते,कहते संगीताकी आँखें भर आयीं।
"क्या कहा सागर ने?"माजीने पूछा।
सागरने जो कहा था,वो संगीताने उन्हें बता दिया। सुनकर उसकी सास और माँ दोनोही दंग रह गयी।

किसी राह्पर 2

बी.कॉम.की परीक्षा हो गयी। कुछ दिन मौज मस्तीमे गए और फिर संगीताकी एम्.बी.ए.की पढी,कॉलेज,और एक विशिष्ट दिनचर्या शुरू हो गयी। सुबह्से शामतक,कभी,कभी,रातमे दस बजेतक उसके क्लासेस चलते रहते। उसके बनिस्बत सागरके पास अपनी ड्रामा की प्राक्टिस के अलावा काफी समय रहता। वो संगीता को मिलनेके लिए बुलाता रहता,लेकिन संगीताके पास एक रविवारको छोड़कर ,और वोभी कभी कभार,समय रेह्ताही नही। इसतरह की दिनचर्या देख सागर चिढ जाता,"येभी कोई ज़िंदगी है?"वो संगीतासे पूछता।
"देखो सागर,ज़िन्दगीमे अगर कुछ पाना हो तो कुछ खोनाभी पड़ता है। ये मैं नही कह रही,हमारे बुज़ुर्गोने कह रखा है,"संगीता उसे समझानेकी भरसक कोशिश करती।
"तुम्हे सभी क्लासेस अटेंड करना ज़रूरी है?कभी मेरे ड्रामा की प्राक्टिस देखनेका तुम्हारा मन नही करता?ऐसीभी क्या व्यस्तता की जो ज़िन्दगीका सारा मज़ाही छीन ले?" सागर बेहेस करता।
"तुम्हारे ड्रामा की प्राक्टिस देखने का मेरा बोहोत मन करता है, लेकिन इसलिये मैं अपने क्लासेस मिस नही कर सकती,"संगीता को हल्की-सी सख्ती जतानी पड़ती।
एक बार सागर को एक फिल्म्के स्क्रीन टेस्ट की ऑफर आयी। उस समय संगीता उसके साथ जा पायी। टेस्ट सफल रहा और सागर को एक फिल्म मे काम करनेका मौका मिला। अबतक संगीताका एक साल पूरा हो चुका था लेकिन गर्मियोंकी छुट्टी मे उसे कोर्स के एक भाग के तौरपर
किसी कम्पनी मे काम करना ज़रूरी था। उसने मार्केटिंग लिया था। पूनामेही उसे दो महीनेका काम मिल गया।
एक दिन शाम को सागर अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर संगीता के घर पोहोंचा। उसके रोल के बारे मे बता कर उसने संगीता की राय मांगी,तो संगीता बोली,"सच कहूं सागर?चिढ मत जान। कहानी बिलकुल बेकार है। कुछ्भी दम नही, वही घिसी पीती। अब तुम अपना रोल किस तरह निभाते हो इसपे शायद तुम्हारा भविष्य कुछ निर्भर हो।"
"मुझे लगाही था कि तुम इसी तरह कुछ कहोगी। मेरी यह पहली शुरुआत है, कम से कम मेरा चेहरा तो जनता के सामने आयेगा, लोग मेरा अभिनय देखेंगे। अन्यथा कब तक इंतज़ार करूंगा मैं?"सागर खीझ कर बोला।
"चिढ़ते क्यों हो? तुम्ही ने मेरी राय पूछी। निर्णय तो तुम्ही को लेना है!"संगीता बोली।
उसका दूसरा साल शुरू हुआ और सागर की शूटिंग भी। सागर अलग अलग लोकेशन्स पर घूम ने लगा। फिल्म रिलीज़ होनेतक संगीता का दूसरा सालभी ख़त्म होने आ रहा था और उसे कैम्पस इंटरव्यू मेही बोहोत अच्छी ओफर्स आयी थी। उन्ही मेसे उसने एक प्रतिष्ठित बैंक की नौकरी स्वीकार कर ली क्योंकि काम पूनामेही करना था। बढिया तनख्वाह, कार तथा फ़्लैट, ये सब उसी पाकेज का हिस्सा थे।
सागरकी फिल्म तो पटकी खा गयी लेकिन उसका अभिनय तथा व्यक्तित्व कुछ निर्माता निरदेशकोंको भा गया।
सागर का घर पूनामेही था। वो अपनी माँ-बापकी इकलौती ऑलाद था। उसने और फिल्मे साईन करनेके बाद पेइंग गेस्ट्की हैसियत से मुम्बैमे जगह लेली। सागर संगीता का अब ब्याह हो जाना चाहिए ऐसा दोनोके घरोंसे आग्रह शुरू हो गया और जल्द होभी गया। संगीताके सास ससुर दोनोही बडे ममतामयी और समझदार थे। उन दोनोको अधिक से अधिक समय इकठ्ठा बितानेका मौक़ा मिले ऎसी उनकी भरसक कोशिश रहती।
सागर की व्यस्तता बढती जा रही थी। अब उसने मुमबैमे अपना एक छोटासा फ़्लैट भी ले लिया,जिसे संगीताने बड़ी कलात्मक्तासे सजाया। समय तथा छुट्टी रेहनेपर वो कभीकभार सागर की फिल्मी दावतोंमे भी जाती। हमेशा पारम्परिक कलात्मक वेशभूषामे। उसके चेहरेमे उसकी बातचीत के तरीके मे कुछ ऐसा आकर्षण था,जो लोगोंको उसकी ओर खींच लाता। अर्धनग्न फिल्मी अभिनेत्रियों को छोड़ लोग उसके इर्द गिर्द मंडराते।
इसी तरह तेज़ीसे दिन बीत ते गए। देखतेही दो साल हो गए और संगीता के पैर भारी हो गए। मायका और ससुराल दोनो ओर सब उस खुशीके दिनका इंतज़ार करने लगे जब किसी नन्हे मुन्ने की किलकारियाँ घरमे गूंजेंगी।
"तुम्हे बेटा चाहिए या बेटी?"एक बार सागर ने संगीता को पूछा।
"मुझे कुछ भी चलेगा। बस भगवान् हमे स्वस्थ बच्चा दे,"संगीता बोली,और फिर प्रसूती का दिन भी आ गया। सागर अपनी शूटिंग कुछ दिन मुल्तवी रख के संगीता के पास पूना मेही रूक गया। संगीता को प्रसूती कक्ष मे जाया गया। काफी देर के इंतज़ार के बाद डाक्टर ने बताया के सिज़ेरियन करना पड़ेगा। होभी गया। जब उसे कमरेमे लाए तब तक वो बेहोश थी।

Friday, October 5, 2007

किसी राह्पर 1

सागर और संगीता कॉलेज की कैंटीन मे बैठ के गपशप कर रहे थे। साथ गरमा गरम काफ़ी भी थी। इस जोडी से अब पूरा कैम्पस परिचित हो चुका था । शुरुमे जब उनके ग्रूपके अलावा दोनो मेलजोल बढ़ाते तो बाकी संगी साथी उन्हें ख़ूब छेड़ते ,लेकिन अब सबने जान लिया था कि ये अलग होनेवाली जोडी नही है।
इन दोनोका परिचय कॉलेज के ड्रामा के कारण हुआ था। दोनोको अभिनयका शौक़ था और जानकारिभी। दोनोही अपनी भूमिका जीं जान लगाके करते और देखने वालोंको लगता मानो वे बिलकुल मंझे हुए कलाकार हो। दोनोही इस समय बी.कॉम.के आखरी सालमे थे। पढाई मे संगीता सागरसे बढकर थी। बी.कॉम.के बाद वो एम्.बी.ए .करना चाहती थी। हालहीमे उसका सी.ई.टी.का रिजल्ट निकला था तथा वो उसमे दूसरे स्थान पे आयी थी। ये अपने आपमें एक बड़ी उपलब्धी थी। उसे पूनाके किसीभी प्रातिथ यश एम्.बी.ए. के कॉलेज मे प्रवेश मिल सकता था। दोनो इसी बारेमे बतिया रहे थे। सागरने अभिनयका क्षेत्र चुन लिया था तथा स्वयमको उसीमे पूर्णतया समर्पित करना चाहता था। वो संगीताकोभी यही करनेके लिए प्रेरित कर रहा था।
"देखो सागर,नाटक सिनेमा आदी क्षेत्रोमे किस्मतका काफी हिस्सा होता है,सिर्फ मेहनत या लगन काम नही आती। लोटरीकी तरह है ये सब। लग गयी तो लग गयी,वरना इंतज़ार ही इंतज़ार। हम दोनोमेसे एक को तो सुनिश्चित तनख्वाह की नौकरी करनीही पडेगी। अभिनय के क्षेत्रमे कितनेही चहरे उभरते,और प्रतिभाशाली होकरभी सिर्फ हाज़री लगाके ग़ायब हो जातें है।"संगीता सागर को बडीही संजीदगीसे समझा रही थी। वैसेभी उसकी विचारधारा बडीही परिपक्व थी। उसके पिता,जब वो बारहवी मे थी ,तभी चल बसें थे। उसकी और दो छोटी बहने थी। उसके चाचाने अपने भाईके परिवारको हर तरह्से मदद की थी और संगीता इस कारण उनकी सदैव रुणी थी।
"संगीता,तुम जो कह रही हो,वो मैं समझता हूँ, लेकिन ज़िंदगी हमे अपनी मर्ज़ीसे जीनी चाहिऐ। इसके लिए अगर थोडा रिस्क ले लिया जाये तो क्या हर्ज है? थोडी आशावादी बनो। प्रसार माध्यमोने हमे अच्छी प्रसिद्धी दी है। आंतर महाविद्यालयीन स्पर्धाएं हमने जीती है। अच्छी,अच्छी पत्रिकायोंमे ,अखबारोंमे हमारी मुलाकातें छपी हैं। मुझे अपना भविष्य उज्वल नज़र आ रहा है,"सागर उसे मनानेकी भरसक कोशिश कर रहा था।
संगीता उसके हाथ थामके,मुस्करा पडी और बोली,"नही सागर,एम्.बी.ए.करनेका ये अवसर मैं कतई नही गवाना चाहती । तुम करो नाटक सिनेमा। तुम्हारे यशमे मैं अपना यश मनके संतोष कर लूंगी। कहते है ना कामयाब पुरुष के पीछेकी स्त्री!"
सागर समझ गया कि इस मामलेमे संगीता अडिग रहेगी। कैंटीन से उठके दोनो अपने अपने घर चले.....
क्रमश: