Sunday, December 14, 2008

माफीकी दरकार है !

मैंने कलही एक लेख लिखा, किसीकी असंवेदन शीलतापे....तपशील अधिक नही दिए, क्योंकि पूरी बात जानना चाहती थी.....जो आज जानी। अब दिमाग थोडा ठंडा हुआ...वरना तिलमिला उठी थी.....!
" पुलिस वालों का मोटा पेट कहीं तो काम आया", ये वो अल्फाज़ मैंने मेरे बेहद क़रीबी व्याक्तिसे सुने, फोनेपे...ये व्यक्ति हमेशा सही बात बताता/बताती है। यही व्यक्ति इस मेह्कमेसे किसीके द्वारा जुडी हुई है। उनकी कठिनाईयाँ उसे ब-ख़ूबी पता हैं। जैसे आम लोग पुलिस के बारेमे बिना जाने कह देते हैं, या मीडिया और अखबार कहते हैं , उसे पूर्ण सत्य मान लेते हैं, उन्हीं मेसे एक निकली। अख़बार या मासिक पत्रिका मे छप गया तो वो पत्थरकी लकीर।
अफ़सोस की उस व्यक्तीने कोट करते समय , यही अल्फाज़ इस्तेमाल किए। और मैंने उसे मानके लिख दिया...असंवेदनशीलता तो थीही, लेकिन उस व्याकिके मस्तिष्क्मे।
एक आलेख था,' इंडिया टुडे' मे। उसके अल्फाज़ थे," मुम्बईके पुलिस मेहेकमे को , वहाँ कार्यरत सुरक्षा कर्मियों की,
उनके मोटापे को लेके चिंता करना छोड़ देनी चाहिए !सच तो ये है कि ऐसेही दस बारह पुलिस वालों का मिला जुला मोटापाही शायद कसबको पकड़नेमे काम आया! वो कसब जिसने CST और कामा अस्पताल मे ह्त्या काण्ड मचाया और भाग निकला।"
उसे ज़िंदा पकड़ना बेहद ज़रूरी था, ये उस निहत्ते इंस्पेक्टर को खूब अच्छी तरहसे पता था...AK ४७ । वो उसकी समयसूचकता थी...किसीका आर्डर नही था...अपनी जानपे खेलके उसने AK ४७ की नली अपने तरफ मोडके मज़बूती से पकड़ रखा...इसी कारन उसके साथियोंको मौक़ा मिला कसबको पकड़ लेनेका, और वोभी जिंदा। तुकाराम खुदके बचावमे बन्दूक घुमाके कसबको मार सकता था, या अन्य लोगोंको मरने दे सकता था...पर नही, उसने अपने देहकी एक दीवार बना दी...लाठी और ढृढ़ निश्चयके आगे कसब हार गया। मुम्बई पुलिसकी ये सबसे बड़ी उपलब्धि हुई।उसने अपनी इस बहदुरीके कारन कसबको आत्महत्या करनेसे रोक लिया गया । पूरी दुनिया मे बेमिसाल कर्तव्य परायणता , समयसूचकता और निर्भयता... ...!जो बात US के सु सज्ज कमान्डोस नही कर पाते, वो करिश्मा एक निहत्ते सुरक्षा करमीने कर दिखाया।
अव्वल तो यहाँ मोटापे का सन्दर्भ देनेकी ज़रूरत ही नही थी। ठीक है, ये लेखन स्वातंत्र्य हो गया ! छपी हुई किसीभी चीज़को आजभी लोग पत्थरकी लकीर मानतें हैं, चाहे वो अख़बार मे हो, पत्रिका मे हो या समाचार वाहिनियों पे हो..!
अब मै सबसे अधिक गलती उस व्यक्ती की कहूँगी, इस घटनाको लेके, जिसने मुझे ये बात फोनपे सुनाई। मेरी उस वक्त ये बेहेसभी हो गई कि, उनके विचारसे, कांस्टेबल आदि, सुबह व्यायामके लिए समय निकालही सकतें हैं...और कारन जो कुछ हो मोटा पेट ये सच है..! और मेरा कहना था कि उन्हें बन्दूक पकडनेकी तक ट्रेनिंग देनेकी मोहलत मिलती नही , ऐसे लोग कब तो योग करेंगे और कबतो अपनी ड्यूटी पे पोहोचेंगे...कितने पोलिस वाले कोईभी त्यौहार घरमे मन सकते हैं ? नही...दूसरे उसे सड़क पे खुले आम हुड दंग मचाते हुए मन सकें, इसलिए उन्हें तैनात होना पड़ता है। एकेक कांस्टेबल से लेके पोलिस आयुक तक गणेश विसर्जनके दिन ४८/ ४८ घंटें जगहसे हिल नही सकता...यही बात नवरात्रों मेभी ! बीच बीछ मे मंत्रीगण अपने श्रद्धा सुमन चढाने आ जाते हैं...तो उनके लिए तैनात रहो...! वो वर्दीधारी किस हद तक थक जाता होगा कभी जनताने सोचा है पलटके ?
लातूर के भयंकर विनास्शी भूकंप के बाद मल्बेमे कई लाशें दबी रही हुई थी। पोलिस की मददके लिए अर्म्य्को प्रचारण किया गया। वहाँ की लाशोंकी सड्नेकी बू सूँघ आर्मी ने ये काम करनेसे इनकार कर दिया। यही बात आंध्र प्रदेश मेभी हुई थी, जहाँ साइक्लोन के बाद सदी हुई लाशें पोलिस नही हटाई, आर्मी ने मना कर दिया।
ऐसे पोलिस कर्मियों के बारेमे उठाई ज़बान लगाई तालुको, ये आदत-सी पड़ गई है। जिस व्यक्तीने ये बात जो मुझे फोनपे सुनाई, उसकी आवाजमे वही हिकारत भरी हुई थी...अपने मोटे पेट तो इनसे संभाले जाते, ये अतिरेकियों क्या पकड़ पाएंगे....और जब अतिरेकी पकड़मे आए तो , दिल खोलके तारीफ करनेके बजाय अपने मनसे अर्थ निकाल लिया और सुना दिया...ये जानते हुए कि मै डॉक्युमेंटरी बनाने जा रही हूँ, सही डाटा, सही घटनायोंका ब्यौरा जमा कर रही हूँ, और उनके वक्ताव्य्को पेश कर सकती हूँ, उस व्यक्तीने सोच लेना चाहिए था...मैंने उसी वक्त उन से येभी कहा कि आपको पेपर का नाम, तारीख, किसने लिखा ये सब पता है तो बताया गया कि, उन्हों ने अबतक जो कहा है, उतना तो सही है, सिर्फ़ तारीख देखनी होगी।
आज जब उनसे बात हुई तो पाक्षिक था "इंडिया टुडे, टाईम्स ऑफ़ इंडिया नही...!लेखमे इस्तेमाल किए गए अल्फाज़ तो मुझे अब भी सही नही लगे, लेकिन जो अल्फाज़ उस व्यक्तीने निकाले, और अपने पूरे विश्वास साथ कहे, मै दंग रह गई, इतना कहना काफी नही...मै स्तब्ध हो गई....इस तरह का मतलब क्योँ निकाला उस व्यक्ती ने ? क्या हक़ बनता है, ऐसे समयमे, ऐसी बहादुरीसे लड़ी जंग, जहाँ अपना कर्तव्य, देशके प्रती, मूर्तिमंत बना खड़ा हो गया, कोईभी टिप्पणी कस देनेका ?
मुंबई मे एकेक कांस्टेबल को अपने कार्य स्थल पोहोचनेके लिए सुबह ५ बजे घरसे निकल जाना पड़ता है..कमसे कम २ घंटे, एक तरफ़ के , और कुछ ज़्यादा समय लौटते वक़्त। उसे सोने या खानेको वक़त नही मिलता वो व्यायाम कब करेगा ? बच्चे अपने पिताका दिनों तक मूह नही देख पाते...घरमे कोई बीमार हो तो उसकी ज़िम्मेदारी पत्नी पे आ पड़ती है। कैसा होता है उसका पारिवारिक जीवन, या कुछ होताभी है या नही ?घरमे बीमार माँ हो या बच्चे....उस व्यक्ती का कम मे कितना ध्यान लग सकता है??कमसे कम उनकी मेडिकल सेवाका तो कोई जिम्मेदार हो ! समाजको बस उनसे मांगना ही माँगना है, पलटके देना कुछ नही और एक शहीद्के बारेमे ऐसे अल्फाज़ के उसका मोटा पेट कहीं तो काम आया...!
आज मेरी गर्दन शरमसे गाडी जा रही है कि मैंने उस व्याक्तिपे इस क़दर विश्वास रखा और सुना हुआ असह्य लगा तो पाठकों के साथ बाँट लिया। खैर, ये तो सच है कि, उस व्यक्तीने अपने लेखमे तो इतना सीधा वार नही किया, जितनाकी उस मतलब निकालनेवाले वाले व्यक्तीने..!...! ऐसे लोगोंके लिए ईश्वरसे दुआ करती हूँ कि उन्हें हमेशा सन्मति मिले...!
कल जल्द बाज़ीमे की गई भूलके लिए हाथ जोडके माफ़ी चाहती हूँ। वादा रहा कि आइन्दा बिना दोबारा खुदकी तसल्ली किए बगैर मै कुछ नही लिखूँगी।

Saturday, December 13, 2008

हद है....! भाग १

एक प्रतिथयश और पुराने अग्रेज़ी अख़बार मे आज किसीने बडेही असंवेदनशील ढंगसे कुछ लिखा है। जैसेही उसे कॉपी पेस्ट करनेका मौक़ा मुझे मिलेगा मै करुँगी।
मुम्बईमे हुए आतंकवादी हमलेमे एक सब-इंसपेक्टर ने गज़बकी जांबांज़ी दिखलाई। नाम है, तुकाराम ओम्बले।
ख़ुद मुम्बई की जनता तो इसकी गवाह थीही, लेकिन मुम्बई के डीजीपी ने , जो इस से पहले मुम्बई के पुलिस आयुक्त रह चुके हैं, और जिनकी गणना हिन्दुस्तानके बेहतरीन और ईमानदार अफसरोंमे की जाती है, कलके टाईम्स ऑफ़ इंडिया (पुणे) मे एक लेख लिखा है।( परसोंके मुम्बई एडिशन मे)। लेख पढ़ के मन और आँखें दोनों भर आतीं हैं। तुकाराम के बारेमे लिखते समय वे कहते हैं," मै अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि, जब तुकारामने अपनी लाठी हाथमे लिए AK -47 का सामना किया होगा तो उसके मनमे कौनसे ख़याल गुज़र गएँ होंगे उसवक्त ! AK-47 की और लाठी की क्या कहीं किसी भी तौरपे तुलना की जा सकती है ? मुक़ाबला हो सकता है? तुकाराम मौक़ाये वारदात पे दौड़ा और अपने हाथोंसे उस आतंकवादी की बंदूक़ पकड़ ली जो उसके पेटमे गोलियाँ चलता रहा !उसकी इस कमालकी हिम्मतकी वजहसे कसब ज़िंदा पकड़ा गया ! कितना ज़रूरी था उसे ज़िंदा पकड़ना। तुकाराम की इस बहादुरी और समयसूचकता के कारण उसके अन्य साथी कसबको घेर के, ज़िंदा कब्ज़ा करलेने मे कामयाब रहे ! आज इस एक आतंकवादी के ज़िंदा पकड़मे आनेकी वजहसे कितनीही आतंकवादी घटनाओं का सुराग़ सुरक्षा यंत्रणा लगा पा रही है। आज इन जैसोंकी जाँ बाज़ी के कारण हमारी यंत्रणा फ़क्रसे सर उठाके खडी है !"ये अल्फाज़ हैं एक डीजीपी के जिसने अपने सहकारियों को खोया, उन्हें अश्रुपूर्ण नयनोंसे बिदा किया। वे गए तो हर परिवारको मिलने लेकिन एक हर्फ़ अपने मुहसे सांत्वना का निकाल नही पाये...केवल अपने आपसे एक वादा, एक निश्चय करते रहे कि हम इनमेसे किसी कीभी शहादत फुज़ूल जाने नही देंगे। उन्होंने औरों के बारेमे भी जो लिखा है उसे मै बादमे बता दूँगी। इसवक्त सिर्फ़ तुकारामकी बात कह रही हूँ, जिसकी एक ख़ास वजेह है। बल्कि एक अमेरिकन सिक्युरिटी अफसरने, न्यू योर्कर, इस अख़बारको बताया, " ये इतना भयंकर और जाँ बाज़ मुक़ाबला था , जिसकी बराबरी दुनियाका सबसे बेहतरीन समझा जानेवाला US का कमांडो फोर्स , द Naval SEALs भी नही कर सकता!"
अब सुनिए, इन जनाबकी, जिन्हों ने इसी अखबारमे ( The Times Of India) मे किस भद्दे तरीक़े से इसी वाक़या के बारेमे लिखा," चलो कहीं तो किसी पोलिस वालेका मोटा पेट काम आया "! कहनेका मन करता है इनसे, कि आपका तो कोई भी हिस्सा देशके किसी काम ना आता या कभी आयेगा ! शर्म आती है कि लिखनेवाला सिर्फ़ इस देशका नही महाराष्ट्र का रहनेवाला है ! अपने आपको क्या समझता है ? कोई बोहोत बड़ा बुद्धी जीवी ? गर हाँ, तो फ़िर हर बुधीजीवी के नामपे ये कलंक है...! इसतरह सोचने से पहले ये व्यक्ती शर्म से डूब कैसे नही गया ?
मै अधिकसे अधिक पाठकों की इस लेखपे प्रतिक्रया चाहती हूँ, उम्मीद है मेरी ये इच्छा आप लोग पूरी करेंगे !
इसके दूसरे भागमे मै अन्य शहीदों के बारेमे कुछ जानकारी दूंगी, जो अधिकतर लोगों को शायद पता नही होगी।
इंतज़ार है।
क्रमशः

Sunday, December 7, 2008

एक हिन्दुस्तानिकी ललकार, फिर एक बार !

कुछ अरसा पहले लिखी गई कवितायें, यहाँ पेश कर रही हूँ। एक ऑनलाइन चर्चामे भाग लेते हुए, जवाब के तौरपर ये लिख दी गयीं थीं। इनमे न कोई संपादन है न, न इन्हें पहले किसी कापी मे लिखा गया था...कापीमे लिखा, लेकिन पोस्ट कर देनेके बाद।

एक श्रृंखला के तौरपे सादर हुई थीं, जिस क्रम मे उत्तर दिए थे, उसी क्रम मे यहाँ इन्हें पेश कर रही हूँ। मुझे ये समयकी माँग, दरकार लग रही है।

१)किस नतीजेपे पोहोंचे?

बुतपरस्तीसे हमें गिला,
सजदेसे हमें शिकवा,
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
वोभी तय करनेमे गुज़ारे !
आख़िर किस नतीजेपे पोहोंचे?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...

फ़सादोंमे ना हिंदू मरे
ना मुसलमाँ ही मरे,
वो तो इंसान थे जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना ज़िंदगी, ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है
हमारा,हम जो बच गए?
ज़िंदगीके चार दिन मिले...

देखती हमारीही आँखें,
ख़ुद हमाराही तमाशा,
बनती हैं खुदही तमाशाई
हमारेही सामने ....!
खुलती नही अपनी आँखें,
हैं ये जबकि बंद होनेपे!
ज़िंदगीके चार दिन मिले,
सिर्फ़ चार दिन मिले..!


२) खता किसने की?


खता किसने की?
इलज़ाम किसपे लगे?
सज़ा किसको मिली?
गडे मुर्दोंको गडाही छोडो,
लोगों, थोडा तो आगे बढो !
छोडो, शिकवोंको पीछे छोडो,
लोगों , आगे बढो, आगे बढो !

क्या मर गए सब इन्सां ?
बच गए सिर्फ़ हिंदू या मुसलमाँ ?
किसने हमें तकसीम किया?
किसने हमें गुमराह किया?
आओ, इसी वक़्त मिटाओ,
दूरियाँ और ना बढाओ !
चलो हाथ मिलाओ,
आगे बढो, लोगों , आगे बढो !

सब मिलके नयी दुनिया
फिर एकबार बसाओ !
प्यारा-सा हिन्दोस्ताँ
यारों दोबारा बनाओ !
सर मेरा हाज़िर हो ,
झेलने उट्ठे खंजरको,
वतन पे आँच क्यों हो?
बढो, लोगों आगे बढो!

हमारी अर्थीभी जब उठे,
कहनेवाले ये न कहें,
ये हिंदू बिदा ले रहा,
इधर देखो, इधर देखो
ना कहें मुसलमाँ
जा रहा, कोई इधर देखो,
ज़रा इधर देखो,
लोगों, आगे बढो, आगे बढो !

हरसूँ एकही आवाज़ हो
एकही आवाज़मे कहो,
एक इन्सां जा रहा, देखो,
गीता पढो, या न पढो,
कोई फ़र्क नही, फ़ातेहा भी ,
पढो, या ना पढो,
लोगों, आगे बढो,

वंदे मातरम की आवाज़को
इसतरहा बुलंद करो
के मुर्दाभी सुन सके,
मय्यत मे सुकूँ पा सके!
बेहराभी सुन सके,
तुम इस तरहाँ गाओ
आगे बढो, लोगों आगे बढो!

कोई रहे ना रहे,
पर ये गीत अमर रहे,
भारत सलामत रहे
भारती सलामत रहें,
मेरी साँसें लेलो,
पर दुआ करो,
मेरी दुआ क़ुबूल हो,
इसलिए दुआ करो !
तुम ऐसा कुछ करो,
लोगों आगे बढो, आगे बढो!!


३)एक ललकार माँ की !

उठाये तो सही,
मेरे घरकी तरफ़
अपनी बद नज़र कोई,
इन हाथोंमे गर
खनकते कंगन सजे,
तो ये तलवारसेभी,
तारीख़ गवाह है,
हर वक़्त वाकिफ़ रहे !

इशारा समझो इसे
या ऐलाने जंग सही,
सजा काजलभी मेरी,
इन आँखोमे , फिरभी,
याद रहे, अंगारेभी
ये जमके बरसातीं रहीं
जब, जब ज़रूरत पड़ी

आवाज़ खामोशीकी सुनायी,
तुम्हें देती जो नही,
तो फिर ललकार ही
सुनो, पर कान खोलके
इंसानियत के दुश्मनों
हदमे रहो अपनी !

चूड़ियाँ टूटी कभी,
पर मेरी कलाई नही,
सीता सावित्री हुई,
तो साथ चान्दबीबी,
झाँसीकी रानीभी बनी,
अबला मानते हो मुझे,
आती है लबपे हँसी!!
मुझसे बढ़के है सबला कोई?

लाजसे गर झुकी,
चंचल चितवन मेरी,
मत समझो मुझे,
नज़र आता नही !
मेरे आशियाँ मे रहे,
और छेद करे है,
कोई थालीमे मेरी ,
हरगिज़ बर्दाश्त नही!!

खानेमे नमक के बदले
मिला सकती हूँ विषभी!
कहना है तो कह लो,
तुम मुझे चंचल हिरनी,
भूल ना जाना, हूँ बन सकती,
दहाड़ने वाली शेरनीभी !

जिस आवाज़ने लोरी,
गा गा के सुनायी,
मैं हूँ वो माँ भी,
संतानको सताओ तो सही,
चीरके रख दूँगी,
लहुलुहान सीने कई !!
छुपके वार करते हो,
तुमसे बढ़के डरपोक
दुनियामे है दूसरा कोई?

Wednesday, December 3, 2008

ये जज़्बा सलामत रहे !

इस वक़्त मुंबई के गेटवे ऑफ़ इंडिया पार उमड़ा हुआ जनसागर, टीवी पे देख रही हूँ...मन भर आया है...सलामत रहे ये जज़्बा...सलामत रहे मेरा देश...! कहीं ये बात सिर्फ़ आयी गयी न हो जाए..लोग बोहोत जल्दी हर बात भूल जाते हैं....डरती हूँ, कहीं ऐसा न हो...! हमें अब हमारा जोश, हमारी दिलेरी हमारी एकता हर हालमे बनाये रखनी है...आज हमारी रखवाली हमही कर सकते हैं...हमारे चुने गए नेतागण किसी काबिल नही...जबकि येभी सच है की उनका निर्माण किसी प्रयोगशालामे नही हुआ...ये हमारीही माँ बेहनोंके जाये हैं....!तो फिर हम कहाँ चूक गए...चूक रहे हैं ? क्या हमारे परिवारोंमे देशभक्ती के संस्कार नही होते ? क्या हमारी शिक्षा प्रणाली हमारे बच्चों को अच्छे नागरिकत्व की शिक्षा नही देती ? क्या सिर्फ़ इतिहास भूगोल, गणित आदिकी शिक्षा लेके हम अपने आपको शिक्षित कहलाने लगते हैं??

मै अपनी श्रंखला"......एक......दुविधा ", बंद नही करनेवाली, शायद थोड़े धीमी गतीसे आगे बढे। उसके लिखनेके पीछे एक निश्चित मक़सद था....एक भारतीय नारीके प्रति उसके परिवारका, विशेषतः, उसके पतीका दृष्टिकोण...न की मेरा दुखडा रोना....वो तो उस कहानीका एक हिस्सा बनके उभर आया...पाठक सवाल पूछते गए और ये श्रंखला आकार लेती गई।
यही दृष्टिकोण , जब मै अपनी डॉक्युमेंटरी, जो पूरी तरहसे मेरे देशवासियों को समर्पित होगी , बनाने जा रही हूँ, मेरे आड़े आ रहा है...! हैरान हूँ कि जिस व्यक्तीने अपने ३५ साल पोलिस के मेह्कमेमे गुज़ारे, उस मेह्कमेके सवालोंको लेके ही ये डॉक्युमेंटरी बनेगी...उसमे, जातीयवाद, आतंकवाद और सुरक्षा करमी, जिनके हाथ कानून ने किसतरह बाँध रखे हैं, इन सभी मुद्दोकोका विश्लेषण होगा, और देशके एहम व्याक्तियोंके इंटरव्यू लिए जायेंगे...जानकारोंका इन मुद्दोंको लेके क्या कहना है, जो इन मुद्दोंसे जुड़े रहे हैं, वो इस समय क्या कहना चाहते हैं....ये सब का जायजा लिया जाएगा...ये केवल भावनात्मक खेल नही है...एक अभ्यासपूर्ण, लेकिन लोगोंको गहरायीतक सोचनेको मजबूर करनेवाली, झकझोर के रखनेवाली पेशकश होगी। मुझे ज़बरदस्त मेहनत करनी होगी...हर ओरसे सहायताकी दरकार कर रही हूँ...उम्मीद रख रही हूँ...उम्मीद्से बढ़के पा रही हूँ...लेकिन अफ़सोस ! इसी मेहेकमेसे निवृत्त हुए मेरे पतीसे, जो ख़ुद इन शहीदोंको खोके दुखी हैं, मदद्की उम्मीद किसीभी हक़्से नही रख सकती ! दे दी तो एहसान समझना होगा वरना, वे अपनेआपको दुर्लक्षित महसूस करते हैं ! मेरा प्रथम कर्तव्य केवल उनके प्रती होना चाहिए, ये बात मुझे पलभर के लिएभी भूलने नही दी जाती.....खैर...इसी दृष्टीकोन को मै अपनी मलिका मे उजागर कर रही हूँ...ओर इस दृष्टिकोण का असर बच्चों पे होता है, इसलिए इसे उजागर करना ज़रूरी हो गया है...ये मिसालभी मैंने बड़ी सोंच समझके दी है, कि ऐसे गंभीर हालातमे भी एक औरत अगर अपने देशवासियोंके प्रती, पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ पूर्णतया निभाते हुएभी, अपना कर्तव्य निभाना चाहे तो कितनी कठिनाई से उसे गुज़रना पड़ता है, एक अपराधबोध के तले दबके काम करना पड़ता है....कितनी अफ़सोस की बात है...! न जाने ऐसी कितनी महिलाएँ होंगी जो दबके रह जाती होंगी !! उन्हें एक प्रेरक तरीक़ेसे साहस दिलाना चाहती हूँ...!उठो, कि और कोई नही तो मै हूँ ! मै हूँ ना...! आओ, मेरे साथ हाथ मिला सकती हो तो मिलाओ....एक ज्योतसे दूसरी जलाओ...शायद अनंत ज्योतियोंकी एक श्रृंखला हम बना पायें.....! नाउम्मीद ना हो...आज नही तो कल, हमारी दख़ल हमारे परिवारोंको लेनीही पड़ेगी ! हमें येभी ज़िम्मेदारी निभानी है ! एक जागरूक माँ से बढ़के कौन अपने बच्चों को सही राह दिखा सकती है? कोई नही...!
जब सारे देशका प्रतिनिधित्व मुम्बई कर रही है, निर्भयतासे, और वो तीनो ठाकरे अपनी "सेना" के साथ किसी दड्बेमे घुसे हुए हैं, मेरी बहनों, तुम उठो...उठो कि हमारे बच्चों को एक दिशा दिखानी है...कहीँ वो फिर एकबार भटक ना जायें....उन्हें धोकेमे डालके कोई ख़ुद गर्ज़ भटका ना दे ...हमें सतर्क रहना है...हमारे तिरंगेको आकाशमे गाडे रखना है.....वरना ये बारूद्के ढेर पे बैठी हुई दुनिया, बमोंके धमाकोंसे हमें डराती हुई दुनिया, हमारे हर शहीद के बलिदानको बेकार बना सकती है, हर बलिदान ज़ाया जा सकता है....गांधी के पहलेसे लेके आजतक का हर बलिदान निरर्थक हो जाएगा...वो माँ यें, वो वीरांगनाएँ, उनके भाई, बेहेन सब निराश हो तकते रह जायेंगे और दरिन्दे आतंक की आड्मे हमें निगल जायेंगे...!

Thursday, November 27, 2008

मेरी आवाज़ सुनो !

मेरी आवाज़ सुनो !

आज अपनी श्रृंखला छोड़ एक पुकार लेके आयी हूँ...एक पीडामे डूबी ललकार सुनाना चाहती हूँ...एक आवाहन है.....अपनी आवाज़ उठाओ....कुछ मिलके कहें, एकही आवाज़ मे, कुछ करें कि आतंकवादी ये न समझे, उनकी तरह हमभी कायर हैं.....अपनेआपको बचाके रख रहे हैं...और वो मुट्ठीभर लोग तबाही मचा रहे हैं.....हम तमाशबीनोंकी तरह अपनीही बरबादीका नज़ारा देख रहे हैं !एक भीनी, मधुर पर सशक्त झंकार उठे....अपने मनकी बीनासे...पता चले इन दरिन्दोंको की हमारी एकता अखंड है...हमारे दिलके तार जुड़े हुए हैं....!
एक चीत्कार मेरे मनसे उठ रही है....हम क्यों खामोश हैं ? क्यों हाथ पे हाथ धरे बैठे हैं ? कहाँ गयी हमारी वेदनाके प्रती संवेदनशीलता??? " आईये हाथ उठाएँ हमभी, हम जिन्हें रस्मों दुआ याद नही, रस्मे मुहोब्बतके सिवा, कोई बुत कोई ख़ुदा याद नही..."!अपनी तड़प को मै कैसे दूर दूरतक फैलाऊँ ? ?क्या हम अपाहिज बन गए हैं ? कोई जोश नही बचा हमारे अन्दर ? कुछ रोज़ समाचार देखके और फिर हर आतंकवादी हमलेको हम इतिहासमे दाल देते हैं....भूल जाते हैं...वो भयावह दिन एक तारीख बनके रह जाते हैं ?अगले हमले तक हम चुपचाप समाचार पत्र पढ़ते रहते हैं या टीवी पे देखते रहते हैं...आपसमे सिर्फ़ इतना कह देते हैं, "बोहोत बुरा हुआ...हो रहा...पता नही अपना देश कहाँ जा रहा है? किस और बढ़ रहा है या डूब रहा है?" अरे हमही तो इसके खेवनहार हैं !
अपनी माता अपने शहीदोंके, अपने लड़लोंके खूनसे भीग रही है.....और हम केवल देख रहे हैं या सब कुछ अनदेखा कर रहे हैं, ये कहके कि क्या किया जा सकता है...? हमारी माँ को हम छोड़ कौन संभालेगा? कहाँ है हमारा तथाकथित भाईचारा ? देशका एक हिस्सा लहुलुहान हो रहा है और हम अपने अपने घरोंमे सुरक्षित बैठे हैं ?

कल देर रात, कुछ ११/३० के करीब एक दोस्तका फ़ोन आया...उसने कहा: तुम्हारी तरफ़ तो सब ठीक ठाक हैना ? कोई दंगा फसाद तो नही?
मै :" ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ? कहीँ कुछ फ़साद हुआ है क्या?"
वो :" कमाल है ! तुमने समाचार नही देखे?"
मै :" नही तो....!
वो : " मुम्बईमे ज़बरदस्त बम धमाके हुए जा रहे हैं...अबके निशानेपे दक्षिण मुंबई है....."
मैंने फ़ोन काट दिया और टीवी चला दिया...समाचार जारी थे...धमाकोंकी संख्या बढ़ती जा रही थी ...घायलोंकी संख्यामे इज़ाफा होता जा रहा था, मरनेवालों की तादात बढ़ती जा रही थी....तैनात पोलिस करमी और उनका साक्षात्कार लेनेके लिए बेताब हो रहे अलग, अलग न्यूज़ चॅनल के नुमाइंदे...पूछा जा रहा था रघुवंशीसे( जिन्हें मै बरसों से जानती हूँ...एक बेहद नेक और कर्तव्यतत्पर पोलिस अफसर कहलाते हैं। वर्दीमे खड़े )...उनसे जवाबदेही माँगी जा रही थी," पोलिस को कोई ख़बर नही थी...?"
मुझे लगा काश कोई उन वर्दी धारी सिपहियोंको शुभकामनायें तो देता....उनके बच्चों, माँ ओं तथा अन्य परिवारवालोंका इस माध्यमसे धाडस बंधाता...! किसीकेभी मन या दिमाग़मे ये बात नही आयी॥? इसे संवेदन हीनता न कहें तो और क्या कहा जा सकता है ? उन्हें मरनेके लिए ही तो तनख्वाह दी जा रही है! कोई हमपे एहसान कर रहें हैं क्या??कहीँ ये बात तो किसीके दिमागमे नही आयी? गर आयी हो तो उससे ज़्यादा स्वार्थी, निर्दयी और कोई हो नही सकता ये तो तय है।
गर अंदेसा होता कि कहाँ और कैसे हमला होगा तो क्या महकमा ख़ामोश रहता ?सन १९८१/८२मे श्री. धरमवीर नामक, एक ICS अफसरने, नेशनल पोलिस कमिशन के तेहेत कई सुझाव पेश किए थे....पुलिस खातेकी बेह्तरीके लिए, कार्यक्षमता बढानेके लिए कुछ क़ानून लागू करनेके बारेमे, हालिया क़ानून मे बदलाव लाना ज़रूरी बताया था। बड़े उपयुक्त सुझाव थे वो। पर हमारी किसी सरकार ने उस कमिशन के सुझावोंपे गौर करनेकी कोई तकलीफ़ नही उठाई !सुरक्षा कर्मियोंके हाथ बाँधे रखे, आतंकवादियोंके पास पुलिसवालोंके बनिस्बत कई गुना ज़्यादा उम्दा शत्र होते, वो गाडीमे बैठ फुर्र हो जाते, जबकि कांस्टेबल तो छोडो , पुलिस निरीक्षक के पासभी स्कूटर नही होती ! २/३ साल पहलेतक जब मोबाईल फ़ोन आम हो चुके थे, पुलिस असफरोंको तक नही मुहैय्या थे, सामान्य कांस्टेबल की तो बात छोडो ! जब मुहैय्या कराये तब शुरुमे केवल मुम्बईके पुलिस कमिशनर के पास और डीजीपी के पास, सरकारकी तरफ़ से मोबाइल फोन दिए गए। एक कांस्टबल की कुछ समय पूर्व तक तनख्वाह थी १५००/-.भारतीय सेनाके जवानोंको रोजाना मुफ्त राशन मिलता है...घर चाहे जहाँ तबादला हो मुहैय्या करायाही जाता है। बिजलीका बिल कुछ साल पहलेतक सिर्फ़ रु. ३५/- । अमर्यादित इस्तेमाल। बेहतरीन अस्पताल सुविधा, बच्चों के लिए सेंट्रल स्कूल, आर्मी कैंटीन मे सारी चीज़ें आधेसे ज़्यादा कम दाम मे। यक़ीनन ज़्यादातर लोग इस बातसे अनभिद्न्य होंगे कि देशको स्वाधीनता प्राप्त होनेके पश्च्यात आजतलक आर्मीके बनिसबत ,पुलिस वालोंकी अपने कर्तव्य पे तैनात रहते हुए, शहीद होनेकी संख्या १० गुनासे ज़्यादा है !आजके दिन महानगरपलिकाके झाडू लगानेवालेको रु.१२,०००/- माह तनख्वाह है और जिसके जिम्मे हम अपनी अंतर्गत सुरक्षा सौंपते हैं, उसे आजके ज़मानेमे तनख्वाह बढ़के मिलने लगी केवल रु.४,०००/- प्रति माह ! क्यों इतना अन्तर है ? क्या सरहद्पे जान खोनेवालाही सिर्फ़ शहीद कहलायेगा ? आए दिन नक्षल्वादी हमलों मे सैंकडो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं, उनकी मौत शहादत मे शुमार नही?उनके अस्प्ताल्की सुविधा नही। नही बछोंके स्कूल के बारेमे किसीने सोचा। कई बार २४, २४ घंटे अपनी ड्यूटी पे तैनात रहनेवाले व्यक्तीको क्या अपने बच्चों की , अपने बीमार, बूढे माँ बापकी चिंता नही होती होगी?उनके बच्चे नही पढ़ लिख सकते अच्छी स्कूलों मे ?
मै समाचार देखते जा रही थी। कई पहचाने और अज़ीज़ चेहरे वर्दीमे तैनात, दौड़ भाग करते हुए नज़र आ रहे थे...नज़र आ रहे थे हेमंत करकरे, अशोक आमटे, दाते...सब...इन सभीके साथ हमारे बड़े करीबी सम्बन्ध रह चुके हैं। महाराष्ट्र पुलिस मेह्कमेमे नेक तथा कर्तव्य परायण अफ्सरोंमे इनकी गिनती होती है। उस व्यस्ततामेभी वे लोग किसी न किसी तरह अख़बार या समाचार चैनलों के नुमाइंदोंको जवाब दे रहे थे। अपनी जानकी बाज़ी लगा दी गयी थी। दुश्मन कायरतासे छुपके हमला कर रहा था, जबकि सब वर्दीधारी एकदम खुलेमे खड़े थे, किसी इमारतकी आड्मे नही...दनादन होते बम विस्फोट....दागी जा रही गोलियाँ...मै मनही मन उन लोगोंकी सलामतीके लिए दुआ करती रही....किसीभी वार्ताहरने इन लोगोंके लिए कोई शुभकामना नही की...उनकी सलामतीके लिए दुआ करें, ऐसा दर्शकों को आवाहन नही दिया!
सोचो तो ज़रा...इन सबके माँ बाप बेहेन भाई और पत्निया ये खौफनाक मंज़र देख रही होंगी...! किसीको क्या पता कि अगली गोली किसका नाम लिखवाके आयेगी?? किस दिशासे आयेगी...सरहद्पे लड़नेवालोंको दुश्मनका पता होता है कि वो बाहरवाला है, दूसरे देशका है...लेकिन अंतर्गत सुरक्षा कर्मियोंको कहाँसे हमला बोला जाएगा ख़बर ही नही होती..!

मुझे याद आ रहा था वो हेमंत करकरे जब उसने नयी नयी नौकरी जोइन की थी। हम औरंगाबादमे थे। याद है उसकी पत्नी...थोड़ी बौखलाई हुई....याद है नासिक मे प्रशिक्षण लेनेवाला अशोक और दातेभी...वैसे तो बोहोत चेहरे आँखोंकी आगेसे गुज़रते जा रहे थे। वो ज़माने याद आ रहे थे...बड़े मनसे मै हेमंतकी दुल्हनको पाक कला सिखाती थी( वैसे बोहोतसे अफसरों की पत्नियोंको मैंने सिखाया है.. और बोहोत सारी चीजोंसे अवगत कराया है। खैर)औपचारिक कार्यक्रमोंका आयोजन करना, बगीचों की रचना, मेज़ लगना, आदी, आदी....पुलिस अकादमी मे प्रशिक्षण पानेवाले लड़कोंको साथ लेके पूरी, पूरी अकादेमी की ( ४०० एकरमे स्थित) landscaping मैंने की थी....!ये सारे मुझसे बेहद इज्ज़त और प्यारसे पेश आते...गर कहूँ कि तक़रीबन मुझे पूजनीय बना रखा था तो ग़लत नही होगा...बेहद adore करते ।
इन लोगोंको मै हमेशा अपने घर भोजनपे बुला लिया करती। एक परिवारकी तरह हम रहते। तबादलों के वक़्त जब भी बिछड़ते तो नम आँखों से, फिर कहीँ साथ होनेकी तमन्ना रखते हुए।
रातके कुछ डेढ़ बजेतक मै समाचार देखती रही...फिर मुझसे सब असहनीय हो गया। मैंने बंद कर दिया टीवी । पर सुबह ५ बजेतक नींद नही ई....कैसे, कैसे ख्याल आते गए...मन कहता रहा, तुझे कुछ तो करना चाहिए...कुछ तो...

सुबह १० बजेके करीब मुम्बईसे एक फ़ोन आया, किसी दोस्तका। उसने कहा: "जानती हो न क्या हुआ?"
मै :"हाँ...कल देर रात तक समाचार देख रही थी...बेहद पीड़ा हो रही है..मुट्ठीभर लोग पूरे देशमे आतंक फैलाते हैं और..."
वो:" नही मै इस जानकारीके बारेमे नही कह रहा....."
मै :" तो?"
वो :" दाते बुरी तरहसे घायल है और...और...हेमंत और अशोक मारे गए...औरभी न जाने कितने..."
दिलसे एक गहरी आह निकली...चंद घंटों पहले मैंने और इन लोगोंके घरवालोने चिंतित चेहरोंसे इन्हें देखा होगा....देखते जा रहे होंगे...और उनकी आँखोंके सामने उनके अज़ीज़ मारे गए.....बच्चों ने अपनी आँखोंसे पिताको दम तोड़ते देखा...पत्नी ने पतीको मरते देखा...माँओं ने , पिताने,अपनी औलादको शहीद होते देखा...बहनों ने भाईको...किसी भाई ने अपने भाईको...दोस्तों ने अपने दोस्तको जान गँवाते देखा....! ये मंज़र कभी वो आँखें भुला पाएँगी??
मै हैरान हूँ...परेशान हूँ, दिमाग़ काम नही कर रहा...असहाय-सि बैठी हूँ.....इक सदा निकल रही दिलसे.....कोई है कहीँ पे जो मेरा साथ देगा ये पैगाम घर घर पोहचाने के लिए??हमारे घरको जब हमही हर बलासे महफूज़ रखना पड़ता है तो, हमारे देशको भी हमेही महफूज़ बनाना होगा....सारे मासूम जो मरे गए, जो अपने प्रियजनोको बिलखता छोड़ गए, उनके लिए और उनके प्रियाजनोको दुआ देना चाहती हूँ...श्रद्धा सुमन अर्जित करना चाहती हूँ...साथ कुछ कर गुज़रनेका वादाभी करना चाहती हूँ....!या मेरे ईश्वर, मेरे अल्लाह! मुझे इस कामके लिए शक्ती देना.....

Wednesday, November 26, 2008

क्षमा चाहती हूँ...!

मुझे बीछ मेही लिखना बंद करना पड़ गया...transliteration काम नही कर रहा था। इसका उत्तराद्ध कुछ ही देरमे लिखने जा रही हूँ, जो छोटासाही होगा शायद...क्योंकि मै सीधे नेटपे लिख लेती हूँ...किसी copybookme कोई लेखन नही होता....
शमा

Monday, September 1, 2008

क्या ये मेरीही कहानी है??

कई बार अचंभित हो जाती हूँ, जब पीछे मुडके देखती हूँ...अपने आपसे सवाल करती हूँ, क्या ये मेरीही कहानी है??वाकई कोई नन्हा-सा दिया, कोई छोटी-शमा एक तूफ़ान का सामना करते हुए जिंदा है??या बुझी-बुझी-सी है, इसलिए लगता है की इसमे जान है??आगे "एक बार फिर दुविधामे" काफी कुछ लिखना बाकी है...अभी तो शायद मैंने दस प्रतिशतभी नही लिखा...अबतक तो इन बतोंके दूरगामी दुष्परीनाम नही लिखे...जब की अपनी जिंदगीके बारेमे इस ब्लॉग पे कितना कुछ लिख चुकी हूँ...फिरभी, कितना कुछ हिमनग की तरह अपने अंतरमे छुपाके रास्ता तय कर रही थी/हूँ!एक अथांग महासागर मे ,जो मेरा मन है, क्या कुछ दबा पड़ा है...शायद जानके दबाये रखा है...अपनी अस्मिताके लिए...क्या वो सब मै बाहर निकाल स्वीकार कर पाउंगी?? नही...उस हदको पार करना मेरे लिए कठिन होगा...जितनी हिम्मत दिखा चुकी हूँ, मुझे उसीमे समाधान मान लेना होगा। उस हद्के अन्दर रहकर ही आगेका किस्सा बयां करना होगा।
लिखते, लिखते ये एक अंतराल ले लिया था। जब, जैसा मौक़ा मिलेगा आगे लिखती रहूँगी। माँ को कैंसर हुआ है। अभी, अभी पता चला है। वो ज़िम्मेदारी मुझपे है। दो दिनोबाद उनकी शल्य चिकित्छा है। मेरे पाठकों ये बताना ज़रूरी समझा वरना अगर मै अचानक ब्लॉग पेसे गायब हो गयी तो ग़लतफ़हमी हो सकती है। और मेरे दोस्तों की शुभकामनाएं भी चाहती हूँ!

Saturday, July 26, 2008

आजसे मेरा मकसद !

मैंने हालहीमे एक मूवी मेकिंग का कोर्स किया। अपनीही कहानी(जो मेरे ब्लॉग पे मौजूद है) एक छोटी फिल्मभी बना डाली। उसीका सम्पादन आजकल कर रही हूँ।
कल बंगलौर मे हुए बम धमाकों का समाचार मिला और आज शामसे सुनती जा रही हूँ अहमदाबाद मे हो रहे बम धमाकोंके बारेमे। इस फिल्मका सम्पादन करते, करते सोंचमे पडी थी की आगे अपने इस नए माध्यम का कैसे प्रयोग करूँ। एक और कहानी," दयाकी दृष्टी सदाही रखना " पे मेरा ध्यान केंद्रित हो रहा था। शायद वो मै बनाभी लूँगी क्योंकि उसमे जाने अनजाने कुछ ऐसे विषयों पे लिख बैठी हूँ, जो आजके ज़मानेमे काफी सुसंगत हैं। ( ये कथाभी मेरे ब्लॉग पे मौजूद है)। पर आजके बादसे मेरा मुख्य मक़सद रहेगा, आतंकवाद्के ख़िलाफ़ तथा जातीयवाद्के ख़िलाफ़ अपने हर माध्यम का उपयोग करना।
आप सभीसे गुज़ारिश है की मेरा "प्यारकी राह दिखा दुनियाको" ये लेख अवश्य पढ़ें। ये गुजरात मे हुए क़ौमी फसादों के बाद लिखा था। मेरे विचार से ये लेख आज उतनाही सुसंगत है, जितनाकी तब था। बडेही अफसोसकी बात है। काश! ऐसा न होता!!लेकिन इस राह्पे मेरे साथ कोई चले न चले मुझे चलनाही होगा। मेरे दादा-दादी ने अपना जीवन इस मुल्क की आज़ादीकी लड़ाई मे समर्पित कर दिया। हम आजभी आतंकवाद के शिकंजेमे जकडे हुए हैं। मुझे अपना जीवन इस शिकंजेसे मेरे देशको मुक्त करनेकी सहायतामे बिता देना है।
मुझे नही मालूम के मै इस मक़सद मे कितनी सफल रहुँगी, लेकिन शुरुआत तो करनीही है।

क्या करूँ, क्या जवाब दूँ??

July 26, 2008

क्या करूँ और क्या जवाब दूँ???

कुछ महीनो पहले अमेरिकासे आयी बिटिया (अब तो जानेका समय आ गया है) और परसों पोहोंचे मेरे दामाद्से मेरा अक्सर एक बातपे टकराव हो जाता है! उनके मुताबिक हिन्दोस्तान रहने लायक जगह नही रही है!!मेरा कहना है की जो बाहर जाके बस गए हैं, उन्हें ये टिपण्णी देनेका कोई इख्तियार नही!!हाँ, यहाँ रहें, इस देशके लिए कुछ करें, तभी कुछ टीका करनेका हक बनता है!!
कुछ रोज़ पहले बिटियाके पेटमे दर्द उठा। किडनी स्टोन का निदान हुआ। दोक्टार्स जो मेरे मित्र गन हैं, सलाह देने लगे की खूब पानी पिके देखो शायद खुदही बाहर आ जाए। खैर एक दिन मैंने उस से कहा की, अच्छा हुआ जो होना था, हिन्दोस्तान मे अपनी माँ के घर हुआ। बिटियाने मचलके घुस्सेसे कहा," क़तई नही ! वहाँ होता तो अच्छा होता!अबतक तो मुझे आपातकालीन रूम मे ले गए होते और पत्थर बाहर आ गया होता"!
मै खामोश हो गयी। इस दरमियान कुछ दिनोके लिए वो अपने ननिहाल रहके आयी थी। छाया चित्रकारीका नया नया शौक़ और खूब सारी तस्वीरें खींचना ये उसकी दिनचर्यामे शामिल हो चुका है। वास्तुशात्र छोड़ वो पूरी तरह इसीको अपना व्यवसाय बनाना चाहती है। और क्यों नही??बेहद अच्छी तस्वीरें उसने खींच रखी हैं...हजारों की तादात मे...अपना ब्लॉग और वेबसाइट दोनों बना रखा है। मुझे नेटपे बैठा देख, उठ्नेका तुंरत आदेश मिल जाता है!!(अभी इत्तेफाक से बिजली है और बेटी- दामाद बाहर घूमने गए हुए हैं)!
खैर ! जब अपने नानिहालसे लौटी तो पटके दूसरे हिस्सेमेभी दर्द शुरू हो गया। उसकी दोबारा सोनोग्राफी करनेका मैंने तुंरत इन्तेजाम कर दिया। वहाँसे लौट ते हुए वो रिपोर्ट लेके हमारे डॉक्टर मित्रके पास सीधा पोहोंच गयी। उधरसे फोन करके मुझे कहा,"माँ! मुझे अपेंडिक्स का ओपेराशन करवाना होगा। डॉक्टर ने तुंरत करवाना है तो अभी एकदमसे अस्पताल पोहोंच जाओ! मै वहीं जा रही हूँ।"
मैंने कहा," बेटे, मैभी आउंगी तुम्हारे साथ। तुम बघार आके मुझे लेते जाओ।"
उसने कहा," घर तो मै आही रही हूँ। अपनी कुछ पाकिंग करूंगी तथा पहलेके रिपोर्ट्स आदी साथ ले लूंगी। पन्द्रह मिनिटों मे पोहोंच रही हूँ। आप तैयार रहिये। झटसे चलेंगे।"
मै स्नानकी तैय्यारीमे थी। मैंने कहा," बेटा मुझे कमसे आधा पौना घंटा तो लगेगाही...."
"तुम्हे इतनी देर लेने की क्या ज़रूरत है??वो इतनी देर नही रुक सकते! उन्हों ने ओपरेशन थिएटर बुक कर दिया है। एक घंटेमे मेरी सर्जरी भी तय की है!आप तुंरत निकल पडो!"
मै बोली," बेटे, मुझे बैंक सेभी कुछ रक़म निकालनी होगी...औरभी कागज़ात जो बोहोत ज़रूरी हैं, साथ लेने होंगे, मेरे अपने रहनेके लिहाज़ से कपड़े आदी रखने होंगे ...मुझे कुछ तो समय लगेगाही। तुम ऐसे करो, आगे चलो, अपना खून आदी तपस्वाना शुरू कर दो, ड्रायवर को वापस भेज दो, मै पोहोंच जाउंगी।"
बिटिया जब घर पोहोंची तो मै स्नान करके अपने कपड़े आदी रख रही थी। उसने अपनी चीज़ें इकट्ठी की और वो निकल गई। ड्राईवर लौट आया। मै रास्तेमे बैंक हो ली। अस्पताल पोहोंची तो पता चला सर्जरी का समय दोपहर ३ बजेका तय हुआ है। मेरी सांसमे साँस आयी! चलो और पूरे दो घंटे हाथमे हैं!
मैंने कमरेमे ठीकसे सामान लगा लिया। उसके टेस्ट आदी चलते रहे। शामतक सर्जरी हो गयी। रातमे बिटिया दर्दमे थी। मै जागती रही। कभी नर्सको बुलाती तो कभी उसके सूखे होंट पानी घुमाके तर करती। सुबह उसका कथीटर निकाला गया। मैंने उसे bedpan देना शुरू किया।
चार दिन पूरी सतर्क तासे गुज़ारे। कभी अजीब जगाह्पे इव लगते तो मै शिकायत लेके दौड़ पड़ती...मेरी बेटी तक्लीफ्मे है...IV बाहर हो गयी है...जहाँ डाली है वो जगह ठीक नही है...उँगली के सान्धो पे डालनेकी क्या ज़रूरत है? आदी , आदी शिकायतें जारी रहती!!माँ का दिल जो ठहरा!!
जब घर आना था उस रोज़ उसके पिता मुम्बई से पोहोंचे। हालाँकि उसे अस्पताल उस दिन छोडा जाएगा इसकी मुझे ख़बर नही थी, लेकिन क्योंकि एक पलभी न उसे न मुझे वहाँ आराम मिल रहा था, मैंने डॉक्टर से गुजारिश ज़रूर की थी। मेरे पती आए तो मैंने कहा," मै घर जाके इसके लिए ढंग का सूप और पतली खिचडी बना लाती हूँ।"
मै जैसेही घर पोहोंची, खाना चढ़ा दिया, कपडों की मशीन चला दी। ये सब करही रही थी के फोन आया," उसे डिस्चार्ज मिल रहा है!"
मै खुश हो गयी। भागके उसका कमरा ठीक किया। तकिये रचाए। बिटिया घर पोहोंची तो सब तैयार था। वो पहले मेरे कमरेमे आयी। मैनेही विनती की। मुझे उसी कमरेमे सोके उसका ध्यान रखना ज्यादा आसान होगा।
वहाँ पे तकिये आदी रचाके उसे बिठाया और मै सूप और खिचडी ले आयी। जैसेही पहला कौर मुहमे गया, मेरी लाडली चींख पडी," माँ!! ये क्या है??इसमे कितना नमक पडा है!"
मैंने हैरान होके खिचडी चखी। नमक तो ठीक था!!इनसेभी चख्वा ली । इन्हों नेभी कहा,"हाँ! नमक तो ज़्यादा नही लग रहा!"
लेकिन बिटियाने खिचडी हटा दी। सूप पिया। खिचडी मे मैंने बादमे और चावल मिला दिए। कुछ देरके बाद बिटियाने कहा," मुझे मेरेही कमरेमे ले चलो। मुझे यहाँ आराम नही लग रहा"।
मै उसे वहाँ ले गयी। कई रानते उसके साथ सोती रही। अस्पतालमे अगर मेरे सोनेवाले सोफेका हल्का-साभी आवाज़ होता मेरी लाडली दहाड़ उठती ,"माँ!! आप कितना शोर करती हो! मुझे क़तई आवाज़ बर्दाश्त नही होता! आप क्यों ऐसा करती हो?"
मै खामोश रहती। कोई बात नही। अपने नैहरमे आयी लडकी है। माँ पे कुछ तो अपनी चलायेगी!!
मैंने एकदिन उसे कह दिया," बेटा इसतरह का आराम तुम्हे अमेरिकामे कोई दे सकता था? न तुम्हे बाज़ार जानेकी फ़िक्र, न घरका कोई दूसरा काम...तुम जो चाहती हो मै हाज़िर कर देती हूँ...ड्राईवर तैनात है....कपड़े धुले धुलाये, इस्त्री होके मिल जाते हैं....एक दिनमे मैंने तुम्हारे लिए दो नाईट गाऊन सी दिए...जो तुम मुहसे निकालती हो मै दौड़के उसका इंतेज़ाम कर देती हूँ...ये सुख परदेसमे तुम्हे हासिल होता?? "
इस बातका उसके पास जवाब नही था। वो मान गयी। पर जैसे कुछ ठीक हुई, हिन्दोस्तान और माँ दोनोपे टिप्पणी कसना शुरू हो गया! वैसे किडनी स्टोन को क्रश किए बिना वो भारत छोड्नाभी नही चाहती!!
और माँ का दिल जानता है की मै उसे कितना याद करूंगी जब वो लौट जायेगी....! अपनी पैठनी साडियां कटवा रही हूँ उसके कुरते सीनेके लिए, कढाई करकेभी सिलवा राहीहूँ ...! दिनरात मेरी लाडली के खिदमत मे लगी हूँ...पर कभी, कभी रातोंमे, जब कुछ बोहोत कड़वा बोल जाती है तो चुपचाप आँसू भी बहा लेती हूँ!!
जवाब खुदही सूझ गया,ये माँ का दिल है...ऑलाद कुछभी कह जाय, वो दुआ ही देगा!!सिर्फ़ अपने देशकी नुक्ता चीनी बार-बार नही सह पाती!!

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Friday, July 25, 2008

बिजली गुल !!

मै तो शमा बनके जल उठी पर मेरे जलनेसे संगणक तो चालू नही हो सका!!अब कोई क्या करे जब बारह, बारह घंटे बिजली गुल रहे??इनवर्टर पे नेट कनेक्ट किया पर इनवर्टर बिना बिजलीके चार्ज कैसे हो!!इसलिए मेरे दोस्तों आपकी क्षमा मांगती हूँ के न तो किसी औरके चिट्ठेपे जाके आनंद उठा पा रही हूँ, नाही अपने चिट्ठेपे लिख पा रही हूँ! अपनी बनाई छोटी-सी फ़िल्म काभी संपादन रुक गया है क्योंकि पेशेवर संपादक रातको तो आ नही सकते !दूसरे कई सारे ब्लॉग से जुड़कर बड़ी खुश हो रही थी के अब आसानीसे जी चाहे वहाँ फुदक फुदक के चली जाया करुँगी ! खैर, इस नए दिनक्रम की आदत पड़ने मे कुछ वक़्त ज़रूर लगेगा। जहाँ चाह वहाँ राह, तो कुछ दिनोमे इसकाभी कुछ न कुछ हल तो निकालाही जाएगा!
अब शब्बा ख़ैर कहते हुए अलविदा लेती हूँ! दो पलही सही, कुछ तो संवाद साध सकी!

Tuesday, July 22, 2008

जल उठी शमा....!

शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया,
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
पर सुना, चंद राह्गीरोंको
थोड़ा-सा हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
शमा

शायद आइन्दा ज़्यादा लगन से लिख पाउंगी...अब तो कुछ ज़रूरी कामोने घेर रखा है,जो नज़रंदाज़ नही किए जा सकते!!

Sunday, July 20, 2008

Sunday, July 6, 2008

जा,उड़ जारे पंछी!६)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

और फिर तेरे सिंगारके दिन शुरू हो गए!!तुझे शोर शराबा पसंद नही था। संगीत जैसे किसी कार्यक्रमका आयोजन नही था,लेकिन इस मौके के लिए मौज़ूम हों, ऐसे कुछ ख़ास गीत CDs मे टेप करा लिए थे...सब पुराने, मीठे, शीतल, कानोको सुहाने लगनेवाले !धीमी आवाजमे वो बजते रहे,लोग आते जाते रहे, खानपान होता रहा। मेरी अपनी कुछ सहेलियों को तथा कुछ रिश्तेदारों को मै वर्षों बाद मिलनेवाली थी!
तेरी हथेलियों तथा पगतलियों पे हीना सजने लगी तो मेरी आँखें झरने लगी। इतनी प्यारी लगी तू के मैंने अपनी आंखों से काजल निकाल तेरे कानके पीछे एक टीका लगा दिया। हर माँ को अपनी बेटी सुंदर लगती है,और हर दुल्हन अपनी-अपनी तौरसे बेहद सुंदर होती है।
हीना लगनेके दूसरे दिन बंगलोर के लिए प्रस्थान। वहाँ के अलग रीतरिवाज...तेरे कपड़े,साडियां,ज़ेवरात,कंगन-चूडियाँ, तेरा सादा-सादा लेकिन मोहक सिंगार....यही मेरी दुनिया बन गयी!!मैंने बिलकुल अलग ढंगसे तेरी चोलियाँ सिलवायीं थी। काफी पुराने बंगाली ढंग का मुझपे असर था। मेरी बालिका वधु!!ये ख़याल जैसा मेरे मनमे आया वैसाही तेरी मासी के मनमेभी आया। तेरी साडियां,चोलियाँ,जेवरात सबकुछ बेहद सराहा गया।
फेरे ख़त्म हुए और मेरे मनका बाँध टूट गया!! अपनी माँ के गले लग मैंने अपने आसूँओ को राहत देदी। उस वक्त की वो तस्वीर....एक माँ,दूसरी माँ के गले लग रो रही थी...एक माँ अपनी बिटियासे कह रही थी...यही तो जगरीत है मेरी बच्ची ...आज तेरी दुनिया तुझसे जुदा हो रही है...सालों पहले मैनेभी अपनी दुनियाको ऐसेही बिदा कर दिया था!....
मेरे वो रिमझिम झरते नयनभी तेरे गालों पे कुछ तलाश रहे थे....बस एक बूँद जो बरसों पहले तूने मुझे भेंट की थी....बस एक बूँद अपनी तर्जनी पे लेके कुछ पल उसे मै तेरी तरफसे मुझे मिला सबसे हसीन तोहफा समझने वाली थी!!सिर्फ़ एक मोती!!पर उस वक्त मै वो तोह्फेसे वंचित रह गयी....
और मुंबई का वो स्वागत समारोह! उसके अगलेही दिन तू फिर बंगलोर, अपनी ससुराल चली गयी। तेरे लौटने के दो दिनों बाद राघव आ गया।
तुम्हारी बिदायीके उन आखरी दो दिनोमे मै लगातार बातें करती रही। कबके भूले बिसरे प्रसंग,किस्से याद करती रही...उस बडबड के पीछे कारण था.....मुझे अपने मनकी अस्वस्थता,चलबिचल, तेरे बिरह्के आँसू, और न जानू क्या कुछ छुपाना था....तुझे हवाई अड्डे पे से लाने गयी थी, तब भी मैंने इसीतरह लगातार बातें की थी,साथ आयी तेरी मासी के पास....अति उत्साह और हजारों शंका कुशंकाएँ....सब मुझे दुनियासे छुपाना था!!
क्या अब तू सच मे पराई हो गयी?तुझे एक किसी इख्तियारसे कुछ कहनेके दिन बीत गए??
"चलो,चलो सामान नीचे ले जाना शुरू करो....!"तेरे पिताकी आवाज़। आख़री वक़त मैंने तेरी ९ वार की कांजीवरम से दो खूबसूरत रजाईयाँ बना डाली!!कमसे तुम दोनों उसे देख तो सकोगे इस बहने, इस्तेमाल तो होंगी...वरना वहाँ पड़े,पड़े उनका क्या हश्र होता??राघव ने ख़रीदी हुई किताबे निकालके इनकी बक्सों मे जगह बना ली। मैंने बादमे सी-मेल से उन किताबोंको भेज देनेका सोंच लिया।
हम सब परिवारवाले तुझे बिदा करने नीचे आ गए। विमान सुबह ४ बजे उडनेवाला था। मुझे सभी ने हवाई अड्डे पे जानेसे रोका। तेरे पिता और भाई गाडीमे बैठे, साथ तू और राघव भी। उस एक मोतीकी चाह अधूरी ही रह गयी...अब तेरा मेरा ये बिरह कितने दिनोका??गाडी चल पडी तो मन बोला, जा मेरे प्यारे पंछी...जा उड़ जा....उड़ जा अपने आसमान मे दूर,दूर, ऊचाईयों तक पोहोंच जा...!लेकिन मेरी चिडिया,जब कभी माँ याद आए,इस घोंसलेमे उडके चली आना...मेरे पंखोंसे अधिक सुरक्षित,शीतल जगह तुझे दुनिया मे दूसरी कोई नही मिलेगी। थक जाए तो विश्राम के लिए चली आना। अब तो हमारे आकाशभी अलग-अलग हो गए हैं...तेरे आकाशमे मुक्त उड़ान भर ले मेरे बच्चे!!पर इस घोंसलेको भुला न देना!!
जब तेरी दुनिया मे सूरज पूरबमे लालिमा बिखेरेगा,तब मेरे यहाँ सूनी-सी शाम ढलेगी...तभी तो लगता है, हमारे आसमान,हमारे क्षितिज अब कितने जुदा हो गए??

समाप्त

Saturday, July 5, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!५)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

मै घरके बीछो बीछ खडी रहती और नज़र हर ओर तेज़ीसे घुमाती। रसोई मे नारंगी रंगका लैंप शेड..और दीवारपे नीला कैंडल स्टैंड...कोनेमे ये चार फ्रेम्स, सिरेमिक टाइल पे लगी ये खूंटी रसोई के सिंक के पास...पीले तथा केसरिया रंगों की पैरपोंछ्नियाँ... ...!!और,हाँ...स्नानगृह भी बैठक जितनाही सुंदर दिखना चाहिए....!!तो ये यहाँ बड़े तौलिये, ये छोटे तौलिये, यहाँ भी छोटी-छोटी फ्रेम्स ...नयी साबुनदानी लानी होगी...कांचके शेल्फ पे फूलदान...स्नेहल से कहूंगी ...उसके नीचेवाले फूलवाले को ख़बर देनेके लिए....रोज़ लम्बी टहनी के फ़ूल ला देगा , कभी पीले गुलाब,कभी सेवंती,साथ ताज़े पत्ते भी...
तेरी चोलियाँ सीने के लिए मै नासिक से पुराना दर्जी बुलानेवाली थी...आके यहीं रहने वाला था...बक्सों मेसे सारी-के सारी किनारे बाहर निकाली गयी,लेसेस निकली, जालियाँ निकली, ज़रीके फूल निकले....हाँ, इस चोलीपे ये लेस अच्छी लगेगी,इसवालेपे ये किनार...इसकी बाहें इसतरह सिलवानी हैं...पीठपे ये ज़र सजेगी....ओहो!!राघव के लिए अभी चूडीदार पजामे-कुरते लाने हैं !!
दिनभर का सब ब्योरा मै तुझे इ-मेल करती। एक दिन तूने लिखा,माँ अब बसभी करो तैय्यारियाँ....!!
और मैंने जवाब मे लिखा, मुझे हर एक पल पूरी तरह जीना है..."इस पलकी छाओं मे उस पलका डेरा है, ये पल उजाला है, बाकी अँधेरा है,ये पल गँवाना ना, ये पलही तेरा है,जीनेवाले सोंच ले,यही वक्त है,करले तू पूरी आरज़ू ...
आगेभी जाने ना तू, पीछेभी जाने ना तू, जोभी है, बस यही एक पल है"!(पंक्तियों का सिलसिला ग़लत हो सकता है!)
सच, मेरी ज़िंदगी के वो स्वर्णिम क्षण थे...कभी ना लौटके आनेवाले लम्हें...भरपूर आनंद उठाना मुझे उन सब लम्हों का...!
अरे, तुझे कौनसी फ्रेम्स अच्छी लगेंगी सबसे अधिक?? मै पूछ ही लेती!!तू कहती सारीके सारी...लेकिन ले नही जा पाउंगी...!!
उफ़!!चूडियाँ औरबिंदी लानी है है ना अभी!!
और अचानक से किसी संथ क्षण, मनमे ख़याल झाँक जाता...पगली!!होशमे आ...संभाल अपनेआपको...सावध हो जा...चुटकी बजातेही ये दिन ख़त्म हो जायेंगे...फिर इसी जगह खडी रहके तू इन सजी दीवारों को भरी हुई आंखों से निहारेगी...चुम्हलाया हुआ घर सवारेगी-संभालेगी..वोभी कुछ ही दिनों के लिए....इनका सेवा निवृत्ती का समय बस आनेही वाला है...बंजारे अपने आख़री मकाम के लिए चल देंगे....!इनके DGPke हैसियतसे जो सेवा काल रहा, उसमे मैंने कुछ एहेम ज़िम्मेदारियाँ निभानी थी..एक तो तेरी शादी, जिसमे गलतीसे भी किसीको आमंत्रित ना करना बेहद बड़ी भूल होगी...IPS अफसरों के एसोसिशन की अध्यक्षा की तौरपे मैंने, हर स्तर के अफ्सरानके पत्नियोंको अपने संस्मरण लिख भेजनेके लिए आमंत्रित किया था। इस तरह का ये पहला अवसर था,जब अफसरों की अर्धान्गिनियाँ अपने संस्मरण लिखनेवाली थीं...और वो प्रकाशित होनेवाले थे.." WE THE WIVES".द्विभाषिक किताबकी मराठी आवृत्ती का नाम था,"सांग मना, ऐक मना"। हिन्दीमे," कह मेरे दिल,सुन मेरे दिल"। साथ ही मेरी किताबोंका प्रकाशन होना था। नासिक मे स्टेट पोलिस गेम्सका आयोजन करना था। और उतनाही एहेम काम...पुनेमे रहनेके लिए फ्लैट खोजना था।
जैसा मैंने सोंचा था, वैसाही हुआ। एक तूफानकी तरह तुम दोनों आए, साथ मेहमान भी आए, घर भर गया, शादीका घर, शादीकी जल्दबाजी!!सारा खाना मैही बनाती...फूल सजते...चादरें रोज़ नयी बिछाती....बैठक मेभी हर रोज़ नयी साज-सज्जा करती। ये मौक़ा फिर न आना था....
क्रमशः।

Friday, July 4, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!४)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संभाषण.)

सितम्बर के माह मे तेरे पिता का महाराष्ट्र के डीजीपी के हैसियतसे बढोत्री हुई। इत्तेफाक़न उस समय मै अस्पतालमे थी और इस खुशीके मौकेका घरपे रहके आनंद न उठा सकी !पर सपनेभी जो बात मुझे सच न लगती वो बात हो गयी!हमें सरकारकी ओरसे वही फ्लैट मिला जिसमे हम १० वर्ष पूर्व मुंबई की पोस्टिंग मे रह चुके थे...वही बेहद प्यारे पड़ोसी, जिन्हें मै अपना हिदी कथा संग्रह समर्पित कर चुकी थी!!हमें इस फ्लैट मे रहनेका ७ माह से ज्यादा मौक़ा नही मिलनेवाला था, लेकिन मेरी खुशीकी कोई सीमा न थी!!हम पड़ोसियों के दरवाज़े हमेशा एक दूसरेके लिए खुलेही रहा करते थे!
अस्पताल से लौटतेही मैंने अपना साजो-सामा नए फ्लैट मे सजा लिया। कुल दो दिनही गुज़रे थे की एक खबरने मुझे हिला दिया। हमारे पड़ोसी, जो IAS के अफसर थे,और निहायत अच्छे इंसान उन्हें कैंसर का निदान हो गया। पूरे परिवार ने इस बातको बोहोत बहादुरी से स्वीकारा। उनकी जब शल्य चिकित्छा हुई तब उनके घर लौटने से पहले,मैंने उस घरको भी उसी तरह सजाके रखा,जैसे वो घरभी शादीका हो!! वे घर आए तो एक बच्चे की तरह खुशी से उछल पड़े !मैंने और उनकी पत्नी, ममता ने मिलके लिफ्ट के आगेकी कॉमन लैंडिंग भी ऐसे सजायी के आनेवाले को समझ ना आए किस फ्लैट के लिए मुड़ना है! छोटी-सी बैठक, गमले,फूलोंके हार, निरंजन, रंगोली,.....पता नही और क्या कुछ!!उनके घरके लिए मैंने वोल पीसेस भी बनाये थे। नेम प्लेट भी एकदम अलग हटके बनायी। कॉमन लैंडिंग मे भी मैंने फ्रेम किए हुए वाल्पीसेस सजा दिए। ममता ने अपनी माँ की पुरानी ज़रीदार साडियोंको सोफा के दोनों और सजा दिया। कभी भी इससे पहले नए घरमे समान हिलानेमे मुझे इतनी खुशी नही हुई थी जितनी के तब! सिर्फ़ दिलमे एक कसक थी....रमेशजी का कैंसर!!उन्हें तेरे ब्याह्का कितना अरमान था। ऐसी हालत मेभी वो बंगलौर आनेकी तैयारी कर रहे थे। महारष्ट्र मे विधानसभाका सर्दियोंका सेशन नागपूर मे होता है। वे सीधा वहीं से आनेवाले थे। हम सोचते क्या हैं और होता क्या है....!वो दोनों हमारे घर तेरी मेहेंदीके समारोह के लिएभी न आ सके!उनका कीमोका सेशन था उस दिन!मुंबई के स्वागत समारोह मेभी आ न सके क्योंकि नागपूर का सेशन एक दिन देरीसे ख़त्म हुआ। तेरे ब्याह्के कुछ ही दिनोबाद उनके लिवर का भी ओपरेशन कराना पडा। आज ठीक एक वर्ष पूर्व उस अत्यन्त बहादुर और नेक इंसान का देहांत हो गया। खैर! उनकी बात चली तो मै कहाँ से कहाँ बह निकली....लौटती हूँ गृहसज्जा की ओर...
घर हर तरहसे,हर किस्म से श्रृंगारित करने लगी मै। शादीके दिनोमे मेहमान आयेंगे, तू आयेगी, बल्कि तुम दोनों आयोगे इस लिहाज़ से घर साफ़- सुंदर दिखना था। क्या करुँ ,क्या न करूँ....हाँ लिफ्टके प्रवेशद्वारपे जहाँ servant क्वार्टर की ओर सीढीयाँ जाती थी , वहांभी परदे लग गए...बीछो-बीछ खूबसूरत-सी दरी डाली गयी...शुभेन्द्र तथा पुन्यश्री , ममताके दोनों बच्चे , उन्हेभी उतनाही उत्साह था। मेरे भी सरपे एक जुनून सवार था। तेरे पिता तो नागपूर मे थे...काफी जिम्मेदारियाँ मुझपे आन पडी थी। आमंत्रितों की फेहरिस्त बनाना...हर शेहेर्मे किसी एक नज़दीकी दोस्तको अपने हाथोंसे पत्रिका बाँट नेकी बिनती करना...उसी समय,उनको तोह्फेभी पोहोचा देना...बंगलोर की BSF मेस के कैम्पस मे किसको कहाँ ठहराना ...किसकी किसके साथ पटेगी ये सब सोंच -विचारके!! जबकी मेस मैंने देखीही नही थी... सब कागज़ के प्लान देखके तय करना था!!
और तेरे आनेका दिन करीब आने लगा....जिस दिन तू आयेगी...उस दिन तुम्हारे कमरेमे कौनसा बेड कवर बिछेगा??कौनसे परदे लगेंगे??कौनसा गुलदान,कौनसे फूल??पीले गुलाब, पीली सेवंती, साथ लेडीस लैस...यहाँ सिरामिक का गुलदान,यहाँ,पीतल का,यहाँ ताम्बेका...ये राजस्थानी वंदनवार। कब दिन निकलता और कब डूबता पताही नही चलता।
क्रमश

Thursday, July 3, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!३)अपनी बेटीसे माँ का मूक संभाषण...

दिन महीने बीतते गए और तेरी पढाई भी ख़त्म हुई। तुझे अवोर्ड भी मिला। मुझे बड़ी खुशी हुई। बस उसीके पहलेका तेरा शादीके बारेमे वो फ़ोन आया था। तेरे ब्याह्के एक-दो दिनों बाद ई मेल द्वारा मैंने तुझसे पूछा," यहांसे जो साडियां ले गयी थी, उनमेसे ब्याह के समय कौनसी पहनी तुने? और बाल कैसे काढे थे...जूडा बनाया था या की...?"
"अरे माँ, साडी कहाँ से पहेनती? समय कहाँ था इन सब का?? शर्ट और जींस पेही रजिस्ट्रेशन कर लिया।और जूडा क्या बनाना... बस पोनी टेल बाँध ली...."! तेरा सीधा,सरल,बडाही व्यावहारिक जवाब!
सूट केसेस भर-भर के रखी हुई दादी-परदादी के ज़मानेकी वो ज़रीकी किनारे, वो फूल,वो लेसेस, .....और न जाने क्या कुछ...जिनमेसे मै तेरे लिए एक संसार खडा करनेवाली थी...सबसे अलाहिदा एक दुल्हन सजाने वाली थी...सामान समेटते समय फिर एकबार सब बक्सोमे करीनेसे रखा गया, मलमल के कपडेमे लपेटके, नेपथलीन बोल्स डालके.....
कुछ कलावाधीके बाद तुने और राघव ने लिखा की तुम दोनोका वैदिक विधीसे विवाह हो, ऐसा उसके घरवाले चाहते हैं। अंतमे तय हुआ की १५ दिसम्बर, ये आखरी शुभ मुहूर्त था, जो की तय किया गया। उसे अभी तकरीबन ७/८ महीनोका अवधी था। पर मुझमे एक नई जान आ गयी। हर दिन ताज़गी भरा लगने लगा। तू मुझे फेहरिस्त बना-बनाके भेजने लगी....माँ, मुझे मेरे घरके लिए तुम्हारे हाथों से बने लैंप शेड चाहियें..., और हाँ,फ्युटन कवर का नांप भेज रही हूँ...कैसी डिजाईन बनाओगी?? परदोंके नांप आए...मैंने परदे सी लिए...उन्हें बांधनेके लिए क्रोशियेकी लेस बनायी। माँ! मै तुम्हारी दीवारोंपेसे मेरे पसंद के वालपीसेस ले जाऊंगी....!(ज़ाहिर था की वो सब मेरेही हाथों से बने हुए थे)!अच्छा, मेरे लिए टॉप्स खरीद्के रख लेना ,हैण्ड लूम के!.....मैंने कुछ तो पार्सल से और कुछ आने-जाने वालों के साथ चीज़ें भेजनेका सिलसिला शुरू कर दिया। बिलकुल पारंपारिक, ख़ास हिन्दुस्तानी तौरतरीकों से बनी चीज़ें...कारीगरों के पास जाके ख़रीदी हुई....ये रुची तुझे मेरेसेही मिली थी।
तेरे ब्याह्के मौकेपे मुझे बोहोतसों को तोहफे देनेकी हार्दिक इच्छा थी...तेरे पिताके दोस्त तथा उनके परिवारवालों को, उनके सह्कारियोंको , मेरे ससुराल और मायके वालों को, मेरी अपनी सखी सहेलियों को...मैंने कबसे इन बांतों की तैय्यारी शुरू कर रखी थी... समय-समय पे होनेवाली प्रदर्शनियों से कुछ-कुछ खरीद के रख लिया करती थी...हरेक को उसकी पसंद के अनुसार मुझे भेंट देनी थी.....बोहोतसों को अपने हाथोसे बनी वस्तुएं देनेकी मेरी चाह थी.....किसीकोभी, कुछभी होलसेलमे खरीदके पकडाना नही था। कई बरसोंसे मैंने सोनेके सिक्के इकट्ठे किए थे...अपनी कमायीमेसे...उसमेसे तेरे लिए मै ख़ुद डिजाईन बनाके गहने घड़वाने लगी, एकदम परंपरागत ...माँ के लिए एक ख़ास तरीकेका गहना,जेठानीकी कुछ वैसासाही... तेरी मासीके लिए मूंगे और मोतीका कानका...रुनझुन के लिए कानके छोटे,छोटे झुमके...!तेरी सासुमाने तेरे लिए किस किस्म की साडियां लेनी चाहियें,इसकी एक फेहरिस्त मुझे भेज रखी थी। उनमे सफ़ेद या काला धागा ना हो ये ख़ास हिदायत थी!!फिरभी मै और तेरी मासी बार-बार वही उठा लाते जो नही होना चाहिए था, और मै दौड़ते भागते लौटाने जाया करती...!
क्रमशः

Tuesday, July 1, 2008

जा, उड़ जारे पंछी! २)

मेरी लाडली, तुझे पता है तेरा मुझे दिया सबसे बेहतरीन तोहफा कौनसा है, जो मै कभी नही भूल सकती? तुझे कैसे याद होगा? तू सिर्फ़ ३ वर्षकी तो थी। बस कुछ दिन पहलेही स्कूल जाना शुरू हुआ था तेरा। एक दिन स्कूलसे फोन आया के स्कूल बस तुझे लिए बिना निकल गयी है। मै भागी दौड़ी स्कूल पोहोंची। स्कूलके दफ्तर मे तुझे बिठाया गया था। सहमा हुआ -सा चेहरा था तेरा। मैंने तुझे अपने पास लिया तो तेरे गालपे एक आँसू अटका दिखा। मैंने धीरेसे उसे पोंछा तब तूने मुझसे कहा," माँ! मुझे लगा तुम्हे आनेमे अगर देर हो गयी तो मै क्या करुँगी? तब पता नही कहाँ से ये बूँद मेरे गालपे आ गयी?"
जानती है, आज मुझे लगता है, काश! मै उस बूँद को मोती बनाके एक डिबियामे रख सकती! तूने मुझे दिया सबसे पेशकीमती तोहफा था वो!!सहमेसे,भोले, मासूम गालपे बह निकली एक बूँद!
क्या याद करूँ क्या न करूँ??तेरा दसवीं का साल, फिर बारवीं का साल। तुझे हर क़िस्म की किताबें पढ़नेका बेहद शौक़ था/है। साहित्य/वांग्मय मे बोहोत रुची थी तुझे और समझभी। उसीतरह पर्यावरण के बारेमेभी तू बड़ी सतर्क रहती और उसमे रुची तो थीही। वास्तुशात्र भी पसंदका विषय था। हमें लगा, वास्तुशास्त्र करते हुए तू पहले दो विषयोंपे ज़रूर ध्यान दे सकेगी, लेकिन साहित्य करते,करते वास्तुशात्र नही मुमकिन था। अंतमे बारवीं के बाद तूने वास्तुशास्त्र की पढाई शुरू कर दी।
वास्तुशास्त्र के तीसरे सालमे तू थी और तभी तेरा और राघव का परिचय हुआ। उसके पहले मै मनोमन तेरी किसकिस से जोड़ी जमाती रहती, गर तू सुनले तो बड़ा मज़ा आएगा तुझे! तू और राघव एक दूजेके बारेमे संजीदा हो ये सुनके मुझे असीम खुशी हुई। अव्वल तो मै समझी के राघव पूनेकाही लड़का है...फिर पता चला की उसके माता-पिता बंगलौर मे रहते हैं और राघव छात्रावास मे रहके इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। हल्की-सी कसक हुई दिलमे। हम पूनेमे स्थायिक होनेकी सोंच रहे थे,लेकिन वो कसक चंद पलही रही। मै बोहोत उत्साहित थी। उसमे मुझे मेरी दादीका मिज़ाज मिला था! ना जाने कबसे उन्हों ने अपनी पोतीओं के लिए तरह तरह की चीज़ें बनाना तथा इकट्ठी करना शुरू कर दिया था!!वही मैंने तेरे लिए शुरू कर दिया!!अपने हाथों से चादरे बनाना, किस्म-किस्म के कुशन कवर्स सीना,patchwork करना , अप्लीक करना ,कढाई करना और ना जाने क्या,क्या!खूबसूरत तौलिये इकट्ठे किए, परदे सिये, अपनी सारी कलात्मकता ध्यान मे रख के वोलपीसेस बनाये,सुंदर-सुंदर दरियां इकट्ठी कर ली। हाथके बुने lampshades ,सिरामिक और पीतल तथा ताम्बे के फूलदान......कितनी फेहरिस्त बताऊँ अब!!दादी-परदादीके ज़मानेकी सब लेसेस, किनारे,कढाई किए हुए पुर्जे, पुराने दुपट्टे, जिनपे खालिस सोनेसे कढाई की गयी थी, जालीदार कुर्तियाँ.....इन सबका इस्तेमाल करके मै तेरे लिए चोलियाँ सीनेवाली थी!!सबसे अलग, सबसे जुदा!!३/४ बक्से ले आयी, उनमे नीचे प्लास्टिक बिछाया, हरेक चीज़की अलग पोटलियाँ बनी, प्लास्टिक के ऊपर नेप्थलीन balls डाले गए, और ये सब रखा गया। बस अब तेरी पढाई ख़त्म होनेका इन्तेज़ार था मुझे! नौकरी तो तुझे मिलनीही थी!!सपनों की दुनियामे मै उड़ने लगी।
और एक दिन पता चला के राघव आगेकी पढाई के लिए अमरीका जानेवाला है और तूभी आगेकी पढाई वहीं करेगी और फिर नौकरीभी वहींपे......मेरे हर सपनेपे पानी फिर गया....आगेकी पढ़ईके लिए पहले राघव और एक सालके बाद तू,इसतरह दोनों चले गए....हम पती- पत्नीकी तरह वो बक्से भी बंजारों की भांती गाँव-गाँव, शेहेर-शेहेर घुमते रहे।
सालभर के बाद तू कुछ दिनोके लिए भारत आयी। हम सब तेरे भावी ससुराल, बंगलोर, हो आए। शादीकी तारीख तय करनेकी भरसक कोशिश की पर योग नही हुआ।
अमरीका जानेके पहलेसेही मुझे तेरे मिज़ाजमे कुछ बदलाव महसूस हुआ था। तू जल्दी-से छोटी-छोटी बातों पे चिड ने लगी थी। तेरी सहनशक्ती कम हो गयी थी। मै गौर कर रही थी पर कुछ कर नही पा रही थी। क्या इसकी वजह मेरी बिगड़ती हुई सहेत थी? तेरे दूर जानेके खायालसे दिमाग मे भरा नैराश्य था? जोभी हो, तू आयी और और उतनीही तेजीसे वापसभी लौट गयी। दोस्त-सहेलियां, खरीदारी,इन सबमेसे मेरे लिए तेरे पास समय बचाही नही। पहलेकी तरह हम दोनोमे कोई अन्तरंग बातें या गपशप होही नही पाई।
क्रमशः

Monday, June 30, 2008

जा, उड़ जारे पंछी १)(एक माँ का अपनी दूर रहनेवाली बिटिया से किया मूक sambhashan

याद आ रही है वो संध्या ,जब तेरे पिताने उस शाम गोल्फ से लौटके मुझसे कहा,"मानवी जनवरी के९ तारीख को न्यू जर्सी मे राघव के साथ ब्याह कर ले रही है। उसका फ़ोन आया, जब मै गोल्फ खेल रहा था।"
मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"
तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तुने कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती।
सन २००३, नवेम्बर की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएं लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....
मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आंखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी।
तेरे जन्मसेही तेरी भावी जिंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊंगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।
छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया। याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता की कहीं तुझे किसीकी नज़र न लग जाए। तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही। अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई। मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी। आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??
जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की। तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए। ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण । तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया? जिंदगीके इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीं मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत जो संजीदगीमे न जानू कब तबदील हो गयी....!अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोंमे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पोहोंच पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनिया तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!
क्रमशः

Saturday, June 14, 2008

मेरे जीवनसाथी ...7

विनयको खाना बनानेका भी शौक़ है। इसलिए खानेके चिकित्छक भी हैं!! और शायद इसीलिए मैभी ढेरों व्यंजन बनाना सीख गयी....इस हदतक के पाक कलाके वर्गभी लेती रही!!
विनयने अपने माता-पिताकी उनके अंत तक सेवाभी खूब की। मेरी सासू माँ, उनकी उम्र के आखरी छः -सात साल नाबीना हो गयी थीं, फिरभी मैं उन्हें भाग्यशाली समझती हूँ, क्योंकी वे अपने बेटेके नज़रों से दुनिया देख सकतीं थीं। इस मामले मे विनयको मैं श्रवणकुमार कहूँगी।
इनके स्वभावविशेष का एक और पहलू ना बताऊँ तो बात बड़ी अधूरी-सी रहेगी। इनका बचपन तथा नौकरी लगनेतक का समय बेहद तंगी और अनिश्चितता के माहौल मे गुज़रा। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय मेरे ससूरजी की सारी जायदाद पाकिस्तान(लहौरमे तथा रावलपिंडी)मे रह गयी। गरीबी क्या होती है, इस बात का एहसास इन्हे हमेशा रहता था। इसी सन्दर्भ मे मुझे एक बात याद आ रही है। दिवाली के दिनों मे लख्मी पूजन के रोज़ हम दोनों लोगों-दोस्तों को मिलमिला के घर लौट रहे थे। मैंने एक फटेहाल जोडेको ठेला ढोते हुए देख लिया। अपनी पर्स मैं साथ लेके नही चली थी, इस बातपे मुझे बडीही कोफ्त हुई!तभी मानो जैसे इन्हों ने मेरे मनकी बात भाँप ली हो, गाडी रुकवा दी। अपनी जेब टटोली और जितने रुपये मिले, उस जोडेको दे दिए और बोले,"अब मेरा असली लक्ष्मीपूजन हुआ!"
मैं हँस के बोली,"तो इधर भी कुछ कृपा हो जाए!"(क्यों कि मेरा जन्म लक्ष्मी-पूजन के दिन हुआ था, मेरे दादाजी ने मेरे नाम के साथ "लक्ष्मी "जोड़ दिया था, और गृहलक्ष्मी तो मैं थी ही!)
हमारी तू-तू, मैं-मैं की ये कुछ खट्टी-मीठी यादें हैं। हमारे सहजीवन की बातें करती हूँ तो ये गीत याद आता है,"यूँ चल पड़े हैं राही सफरमे, जैसे नदी और किनारा, प्यासे ही रहते हैं फिरभी किनारें, लिपटा करे उनसे धारा....!"साथ-साथ चलते हुएभी कभी-कभार जो अकेलापन मुझे लगा, वो इन्हेभी लगा होगा।जब भी दो भिन्न-भिन्न माहौल मे पले बढे व्यक्ती हमसफ़र बनतें हैं तो कुछ विचारों का संघर्ष लाज़मी होता है।कई बार मैंने अपनेआपको टूटकर बिखरा हुआ पाया,लेकिन सफर जारी रहा। ऐसे अनुभवों ने मुझे तोडा लेकिन परिपक्व और अंतर्मुखी भी बना दिया।
भविष्य किसने देखा है? मैं हमेशा चाहुँगी के ये मुझे इस दुनियासे पहले बिदा कर दें। इसमे मेरा अपना स्वार्थ है। मैं अकेले रह नही सकती। विनय तो शायद मुझे स्मशान मे छोड़, सीधा गोल्फ खेलने चले जाएं( ये गोल्फ़र्स का घिसा-पिटा विनोद है), लेकिन मैं! मैं सती तो नही जाऊँगी, हरेक एक दिन मेरे लिए तिल-तिल मरनेके बराबर होगा!
सम्पूर्ण

Friday, June 13, 2008

मेरे जीवनसाथी...6

विनय को हमेशा मुझसे ये शिकायत रही के मैं उनके युनिफोर्म पे कितने स्टार लगे हैं, कैसे लगे हैं, पदक किस तरह से लगाए जाते हैं, हरेक तरक्की के बाद स्टार्समे क्या फर्क पड़ता है, आदी बातों को ठीकसे याद नही रखती। इसकी एक वजह शायद ये होगी के जब हमारी शादी हुई तबसे के हम औरंगाबाद आए तबतक(तकरीबन ९ साल) विनय डेप्युटेशन पे थे। वहाँ युनिफोर्म नही पेहेनना होता था। मुझे उन्हें रोज़मर्रा के कपडों मे देखने की आदत-सी हो गयी थी।
और फिर मेरे मनमे एक धारणा बैठ गयी थी की मैंने तो विनय नामके एक इन्सानसे प्यार किया है, उससे शादी की है, नाकी किसी अफसरसे!इनके क्या, सारे घरके कपड़े मैं हमेशा अपने हाथों से धोती, ख़ुद इस्त्री करती,(डेप्युटेशन पे वैसेभी उस ज़मानेमे कोई अर्दली नही होते थे), बल्कि घरका साराही काम,सफाई से लेके खाना बनानेतक खुद्ही करती थी। अब जब ख़ास युनिफोर्म तैयार करने के लिए अर्दली हाजिर हैं, तो सिर्फ़ दो पल पहले विनय एकबार चेक कर लें की सब ठीक-ठाक अपनी जगह पे है तो कितना अच्छा हो!!मुझे मिगरैन की काफी तकलीफ रहने लगी थी। बच्चे छोटे थे,सास-ससुरकी पूरी देखभाल करती थी तो ये एक काम हर अफसरने ख़ुद करना चाहिए ऐसा मेरा मानना था। लेकिन ये बात मैं इनके सामने कभी नही कह पायी, येभी एक सच है...डाँट ज़रूर चुपचाप सुन लेती थी!!और येभी सच है की इतने बरसों बादभी ये एक काम मेरी समझ मेही नयी आया !!
आजभी अगर कोई मुझसे पूछे की पोलीसकी अत्युच पोस्ट्से सेवा निवृत्त होंते समय इनका युनिफोर्म कैसा दिखता था, तो मेरा जवाब रहेगा, भाई मैं तो विनय कोही निहारती रहती उनके युनिफोर्म को थोडेही!! अभिमान तो मुझे एक अत्यन्त कार्यक्षम अफसरपे था, नाकी उसके युनिफोर्म के रखरखाव का!युनिफोर्म तो हर कोई पोलिस मे भर्ती हुआ अफसर अपनी श्रेणी के अनुसार पेहेनता है, पर पेहेनके अपनी ड्यूटी कैसे निभाता है...फर्क तो सिर्फ़ यहाँ है!!कई बार ऐसे प्रसंग आए की ऊपरी दबाव और अपनी ईमानदारी इन दोमेसे एक चुनना अवश्य था। हर बार मैं विनयसे कहती, कश्मकश का कोई प्रश्न हैही नही। जो अपनी सद्सद विवेक बुद्धी को मान्य हो वही करना है, चाहे इस्तीफा क्यों ना देना पड़े। मैं उनके साथ झोंपड़े मेभी रेहनेको हरहालमे तैयार थी। खैर! ईश्वरकी कृपा कहूँ या बडों का आशीर्वाद, इनका सेवाकाल सन्मान के साथ बीत गया। महाराष्ट्र का पोलिस महकमा जिन गिने चुने अफसरान पे नाज़ करता है, विनय ज़रूर उनमेसे एक हैं। हम दोनोंने , बल्कि हमारे बच्चों नेभी सब कष्ट उठाये पर कुर्सीका अपमान कभी बर्दाश्त नही किया।
क्रमशः

Thursday, June 12, 2008

मेरे जीवनसाथी .....5

हाँ! तो सुनिए जूतोंका ये वाला किस्सा !सोलापूर मे रहते,जनवरी के महीनेमे विनयको प्रमोशन मिला D. I. G. के तौरपे। वो पुणे पोहोंचे "अडिशनल कमिशनर" के पद पे। क्योंकि ये स्कूलोंके मिड्सेशन के समय का तबादला था, पुणेमे घर खाली नही था। ये पुणे मे पुलिस मेस मे रहने लगे और मैं शोलापूरहीमे अपने बच्चे और सासू माँ के साथ पीछे रुक गयी। कुछ महीनों पहले इन्हे राष्ट्रपती पदक मिलनेकी घोषणा हो चुकी थी । २६ जनवरीको पदक प्रदान समारोह मुम्बई के राजभवन मे होनेवाला था। ऐसे समारोह बडेही formal होते हैं। एकसाथ कई पदक प्रदान होते हैं। एक मिनिट कीभी देरी जायज़ नही होती।
मैं अपनी बेहेन के घर, जो मुम्बई मे रहती है, सीधे शोलापूरसे पोहोंची। विनय पुणेसे पोहोंचे। जब इनके तैयार होने का समय आया तो सबने कमरा खाली कर दिया। मैभी बाहर निकल आयी। बेहेन,बहनोई और मैं तो कबसे तैयार खड़े थे। कुछ्ही पलोंमे इनकी दहाड़ सुनाई पडी,"what the bloody hell!"
हम सब एक दूसरेका मुँह ताकने लगे!!अब क्या हो गया??सभीके चेहरों पे सवाल था!!समय तो बोहोत कम बचा था। समारोहमे देरसे पोहोंचनेका सवालही नही उठता था!!मैंने घबराते हुए कमरेपे दस्तक दी। दोनों जूते एकही पैरके थे और अबके packing भी इन्होंनेही की थी!किसीपे चिंघाड़ नेका मन तो बोहोत हो रहा था इन्हे, सो मैही मिली!!जैसेही मैंने कुछ कहना शुरू किया,इन्होने एकदमसे मुझे खामोश रेहनेको कह दिया। ये तेज़ीसे घरके बाहर निकल गए!!हमलोगों ने दौडके taxee बुलाई। शुक्र था के हमारे पासेस हमारेही पास थे!!ज़ाहिर था की विनयने रास्तेमे कहीं जूते खरीद लिए क्योंकी वो हमारे पहले जूतों सहित हाज़िर थे! लेकिन जबतक मैंने इन्हे देखा नही, मैं बेहद परेशान हो उठी थी!!इतनी के राजभवन के द्वारपे जब एक अधिकारीने हमारे पासेस मांगे तो मैंने अपना goggles का केस उसे थमा दिया!
क्रमशः

मेरे जीवनसाथी...4

एक बार विनय किसी कारण हमारे ४ सालके बेटेको डाँट के दफ्तर चले गए। बेटा उनके जानेके बाद आखों मे आँसू भरकर मेरे पास आया और बोला," माँ जी तुमने इस "आदमी के" साथ शादी क्यों की....क्यों की??मैं बोलता ल्हेता,बोलता ल्हेता था,मत करो,मत करो, फिरभी तुमने की!!"उस पूरे दिन वो अपने पिताको "वो आदमी" इस नामसे संबोधित करता रहा!!देर शाम जब ये घर आए तो फिर मेरे पास आके बोला,"आ गया वो आदमी फिरसे!"
जब मैंने ये किस्सा अपने पीहर मे सुनाया तो सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए!!
एक और वाकया याद आ रहा है। तब भी मेरे बेटेकी उम्र ४ ही वर्षकी थी। एक दिन बडेही भोलेपनसे उसने मुझे पूछा," तुमने शादी क्यों की?"
मैंने कहा,"मेरा मन था शादी करनेका इसलिए की!"
उसने हैरतसे पूछा,"तुम्हारा मन था या तुम्हे कोई सरकारी ओल्दल था शादी कल्नेका?"
मैं हँस ने लगी और बोली,"बेटा ऐसे कोई सरकारी ऑर्डर से थोडेही शादी करता है?"
उसकी आँखें औरभी गोल,गोल हो गयी,बोला,"तो तुमने अपने मल्ज़ीसे शादी की?"
मैंने उसके भोलेसे मुखडेको चूमते हुए कहा," हाँ बेटा! मैंने अपनी मर्जीसे शादी की!"
"माजी!!तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया था?"
अब इस मासूमियत को क्या कहिये!!जिस-जिसने ये किस्सा सुना ठहाके मारके हंस पड़े!!समेत विनय के!!वैसेभी विनय उसके भोलेपनसे कही बातों पे नाराज़ नही होते थे। बेटी क्योंकी तुतलाती नही थी, उसकी भोली बातोंकाभी वो अक्सर बुरा मान जाते और उस नन्ही जानको छोटी-सी उम्रमेही काफी डाँट सुननी पड़ती थी। खैर!
जैसे,जैसे अपने अतीतमे झांक रही हूँ, कई यादें उभर रही हैं। उनमेसे कुछ तो बयान कर सकती हूँ।
हम शोलापूरमे थे तबकी ये घटना है। औरंगाबाद मे स्टेट पोलिस गेम्स आयोजित किए गए थे। हम लोग बच्चों के साथ कारसे औरंगाबाद के लिए चल पड़े। रास्तेमे मेरे मायकेमे एक रात रुकनेका कार्यक्रम था। सुबह-सुबह हम फिर औरंगाबाद्के लिए चल पड़े। वहाँ से केवल डेढ़ घंटेका रास्ता था। उसी शाम एक कार्यक्रम का नियोजन किया गया था। ऐसे कार्यक्रम हमेशा औपचारिक होते हैं। हम लोग हमारे एक बडेही अंतरंग मित्र के परिवारके साथ उन्हीके घर रुके थे। बच्चों को खिलापिलाके मैंने सुला दिया, और बाहर आके समयके बारेमे एकबार इनको आगाह कर दिया। मेरा हमेशा इनसे आग्रह रहता था की रोज़ समय रहते एकबार अपनी युनिफोर्म आदी पे(जिसमे जूतेभी शामिल थे),नज़र डाल लिया करें। इस मुतल्लक किसीभी अन्य व्यक्तीपे निर्भर ना रहें, समेत मेरे। हालाँकी मैं बेहद सतर्क रहती थी। मेरे कहनेके बावजूद ये अपने मित्रों से बतियाते रहे। खैर, जब इनको एहसास हुआ की अब बोहोतही कम समय बचा है, ये तैयार होने कमरेमे चले गए। कुछ ही पलोंमे इन्हों ने मुझे आवाज़ देकर अन्दर बुलाया और पूछा," मेरे जूतों की थैली कहाँ है?"
मैंने डरते हुए कहा,"शायद कारकी डिकीमेही होगी!!शोलापूरसे चलते समय तो मैंने पक्का रखी थी !" मेरे सर्दियोंके दिन होकेभी पसीने छूट गए!!
मैं दौडके कारके पास गयी और डिकी खुलवाई। डिकी तो खाली पडी थी!!मैंने जब ड्राईवर से थैलीके बारेमे पूछा तो वो बोला की उसने तो रातको वो थैली निकालके मेरे मायकेमे, वहाँ के बरामदेमे रख दी थी!मुझे स्वयं इस बातकी कतई ख़बर नही थी!!मैंने तो उसे निकालनेके लिए कहाही नही था! मैंने तो केवल एक रात भर की ज़रूरत जितनाही समान उतरवाया था। सूखे हुए होठों से ये बात मैंने विनयको बताई। उसके बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई ये मैं अपने पाठकों के साथ बाँटना नही चाहती!!खैर! विनयने अपने मेज़बानके जूते अपने पैरोंमे किसितरह ठूंसे और हमलोग कार्यक्रमके स्थलपे पोहोंच गए। दूसरे दिन तडके एक आदमीको मेरे पीहर दौडाया गया तथा जूते बरामद हुए!!
बात जूतों की निकली तो जूतों काही एक और प्रसंग तो बेहद मजेदार है!!मतलब के अब मज़ेदार लग रहा है।
क्रमशः

Wednesday, June 11, 2008

मेरे जीवनसाथी........3

इनके गुस्सेसे जितना डरती रही उतनाही इनके कामकी प्रति लगन और प्रमाणिकतापे मुझे अभिमान है। इसके लिए मैनेभी जी-जानसे कोशिश की है। ना कभी इनसे कोई मांग की या ज़िद। हर तबाद्लेकी जगह पे ,वहाँ जो काम कर सकती, किया और खर्चेमे हाथ बटाती रही। मुझे ख़ुद इस बातका गर्व है की मैं ये कर सकी। इसकारण नई-नई कलाएँ सीखती और सिखाती रही।
बच्चों के संगोपनकी अधिकतर ज़िम्मेदारी मुझपरही रही। जब कभी मुझे माइग्रेन का atttack आता मैं पेनकिलर इंजेक्शन ले लेती और बच्चों कोभी नींद की दवाई देके सुला देती!!कभी,कभी मेरी बेटी पे उल्टा असर होता!!वो ज़्यादाही चंचल हो उठती!!
सेन्ट्रल गवर्नमेंट मे कुछ आठ नौ साल गुज़ारनेके बाद इन्हे फिर अपने काडर मे ...महाराष्ट्र मे, बुलाया गया और हमारा औरंगाबाद तबादला हो गया। इसके २/३ साल पहलेसे विनयजी ने गोल्फ खेलना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू मे जब बच्चे बीमार होते और और मुझे घरमे कुछ देर इनकी ज़रूरत होती,फिरभी ये अपने समयपे गोल्फ किट उठाके चल देते तो मुझे बड़ा दुःख होता। बादमे मैंने समझौता कर लिया और आदीभी हो गयी।
इनका हर दिन अति व्यस्त रहता। इसलिए मैंने अपने अलग शौक़ पैदा करना शुरू किया। कभी पाक कलाके वर्ग चलाती,कभी बोनसाई की कला सिखाती तो कभी पेच वर्क की चादरें बनाती। कभी कढाई,पेंटिंग आदी तकनीकों का मेल करके तस्वीरें बनाती, जो काफी सराही जाती हैं। घरका सारा फर्नीचर बोहोत सस्तेमे,सॉ मिल से लकडी लाके मैनेही बनवा लिया।
हमारे सहजीवन मे सबसे ज़्यादा कठिन बात जो मुझे लगी और लगती है वो इनका मूड संभालना!!जब हम कभी बाहर जानेवाले होते, और ये कह देते,"वाह! बड़ी जांच रही हो," तो समझो मूड ठीक है। ऐसे मौके बोहोत कम होते पर इन्ही मौकों पे मैं कभी कभार अपने मनकी बात या बच्चों के मुतल्लक कोई बात, इनसे कह पाती। इनके गुस्सेसे बच्चे या इनके सहकारी भी बोहोत डरते। विनय मुँह से कभी ज़ोरदार 'ओये" निकलता तो हमारा कुत्ता झट पलंग के नीचे घुस जाता, अर्दली अपनी जगसे उठके ठीकसे खडा हो जाता, बेटा अपने मुँह से अंगूठा निकाल, जहाँ होता वहीं पे खडा हो जाता, बेटी अपने हाथकी सब चीज़ें छोड़ सहम के दीवारसे सट जाती, और मैं धीरेसे पूछती," क्या हुआ? कुछ चाहिए आपको?"
ये सभीको मांगे-बिनमांगे सलाह मशविरा देते हैं पर इन्हे कोई कुछ नही कह सकता!!इन्हे किसीने सलाह दी हो ऐसी एकही मज़ेदार घटना याद है मुझे। मेरी छोटी बेहेन अपने दो-ढाई साल के बेटेको लेके हमारे पास कुछ दिनों के लिए आयी थी। मैं सिर दर्द के कारण लेटी हुई थी और मेरे सिरहाने बैठके मेरी बाई मेरा सिर दबा रही थी। हम तब शोलापूरमे थे। विनय ऑफिस जानेकी तैय्यारी मे आईने के आगे खड़े कंघी कर रहे थे। तभी मेरी बेहेनका बेटा हमारे कमरेमे आया और इनसे मुखातिब होके बोला,"मैं ये पेन ले लूँ?"
इन्हों ने कहा,"अबे, लेले...."
उसने फिर अपना सवाल दोहराया,"मैं ये पेन ले लूँ?'
इन्हों ने चिढ़कर फिर इसी तरह जवाब दिया! उसने चौथी बार अपना सवाल दोहराया, तब इन्हों ने बोहोत ज़्यादा चिडके कहा,"अबे कितनी बार कहूँ, लेले??बार, बार पूछ्ताही चला जा रहा है....एक बारमे समझ नही आता!!"
अब बच्चा बोला," आप ठीकसे जवाब दीजिये ना!कहिये, हाँ! लेलो बेटा, इसतरह से जवाब देना चाहिए!"हैरत से इनकी कंघी हवा मे रुक गयी और मेरा सिर दबाने वाली महिला पलंग के नीचे मुँह छुपाके अपनी हँसी रोकने लगी!
क्रमशः

मेरे जीवनसाथी: 2

मेरा और विनयजी का परिचय होके कुछ दो महीने गुज़रे होंगे कि उनका तबादला दिल्ली मे, डेप्युटेशन पे हो गया। उन्हें दिल्ली जाना था। मेरी माँ ने हमारे दिलकी बात भाँप ली थी। हम दोनोने तो आपसमे कुछ कहा नही था,लेकिन माँ ने सीधा सवाल कर दिया!!मेरे परिवारसे विरोधका कोई सवाल ही नही था। मेरी परवरिश केवल एक हिन्दुस्तानी के भाँती हुई थी, लेकिन जानेसे पहले विनय ने मुझे आगाह कर दिया कि वे अपनी माँ की मर्जी के ख़िलाफ़ एक क़दम भी नही उठाएंगे। उन्होंने मुझे और मेरी माँ को अपने परिवारवालों से मिलने दिल्ली बुलाया। हम दोनों गए। उनके घरका वातावरण काफी रूढीवादी था, जबकि मेरे संस्कार बिलकुल अलग थे। ये फर्क माँ को प्रखरता से महसूस हुआ। ऐसा नही के मुझे नही हुआ। मनमे एक डर तो पैदा होही गया, पर मैं उनके घरके सभी रीती-रिवाज अपनाने को तैयार थी। उनके घरमे नौकर चाकर रखनेकी हैसियत नही थी, और मैं घरका हर छोटा बड़ा काम करनेके लिए तैयार थी। मुझे किसीभी काम की कोई शर्म महसूस नही होती थी। मुझे यही सिखाया गया था। आगे चलके ज़िन्दगीमे ये एहसास हुआ कि, ये सब बांते इतनी आसान नही होती,जितनाकी हम सोंचते हैं। बरसों बाद हमारी शादीकी वर्ष गाँठ पे मैंने अपने दोस्तों से हँसते-हँसते कहा कि प्यार केवल अंधा नही होता, गूंगा बेहराभी होता है!!वाकई, इस ब्याह्को लेके मैंने हर इशारा जो खतरेकी ओर अंगुली निर्देश करता था, मैंने नज़रअंदाज़ कर दिया था!एक पुर खतर राह्पे निकल पडी थी!!जवानी का जोश था....उम्र की कमसिनता !!
हम दोनोकी उम्र का फासला भी तकरीबन ८/९ सालका था!वैसे ये बात शादीकी सफल-असफलतामे कोई मायने नही रखती!
दिल्लीमे हुई उस भेंट की एक और बात मुझे याद है(वैसे तो कई बांते याद हैं...)। विनय मुझे लेके एक होटेलमे गए । मुझसे क्या लोगी पूछा, तो मैंने संतरे का ताज़ा रस माँगा!तबतक मुझे चाय, कोफ़ी, इतर पेय,जैसेकि कोका कोला आदी मेसे किसीभी चीज़की आदत नही थी। वहाँ ताज़ा-ताज़ा किसीभी फलका रस नही था!इन्होने मेरे लिए कोका कोला मँगवाया। मैं पहली बार उसे चख रही थी!एक घूँट लिया ना लिया कि मेरा ज़रूर बुरासा मुह बना होगा क्योंकि विनयने तत्काल मुझे डांटते हुए कहा,"ख़त्म करो उसे"!और जैसे कोई डरा हुआ बच्चा घटाघट दूध पी जाता है, मैंने वो ख़त्म किया!!जब इन चीजों की आदत हुई, तबतक ये सारी चीज़ें सहतके लिए कितनी हानिकारक होती हैं, ये पता चला!!खैर माँ और मैं लौट आए।
दोनों परिवारों के बीच विचारों का काफी आदान-प्रदान पत्रों द्वारा होता रहा। क़रीब डेढ़ सालके पश्चात हमारा रजिस्टर पद्धती से विवाह हुआ।खेतमे ,खुली हवामे बने घरसे निकल मैं दिल्लीके, एक आठवें मंजिलके फ्लैट मे आ गयी। उसमे केवल एक शयन कक्ष था। यहींसे हमारे खट्टे मीठे सहजीवन का आरंभ हुआ, जिसमे अन्य परिवारवाले भी शामिल थे। सच ही कहा था दादी ने...हिन्दुस्तान मे (मैं उस ज़मानेकी बात कर रही हूँ),लडकी का ब्याह सिर्फ़ एक व्यक्ती से नही होता, पूरे परिवार से होता है। अपने हाथों से कुछ गलती ना हो, इस बारेमे मैं हरदम सतर्क रहती थी।
शादीके कुछ ही दिनों बाद्की एक घटना मुझे याद आ रही है। इनके वास्ते सुबह मैंने नाश्ते के लिए अंडा तला ....बिलकुल उसी तरह जैसे कि मेरे मायकेमे तला जाता था। यहाँ तो तवाही था। फ्रायिंग pan तो था नही। टोस्टर भी नही था। मैंने तवेपेही ब्रेड सेकी और मक्खन लगाके इनके आगे प्लेट रखी। तभी घंटी बजी और कार पूलके अन्य तीन सदस्य घर मे आ खड़े हुए। (विनय को ये आदत अब भी है कि एकदम आख़री घड़ी तैयार होते हैं)!
इन्हों ने उस तले हुए अन्डेको एक नज़र देखा और और प्लेट परे खिसकाकर बोले,"ये अन्डेका क्या हाल बना रखा है तुमने?इतनी खुरचन किसलिए है? तुम्हें एक अंडा तलना नही आता?"
और बिना कुछ खाए ये चले गए। मुझे उन गैर लोगों के सामने इनकी डांट सुनना बडाही अपमानास्पद लगा। मेरी आँखें भर आयीं और अपना प्यारभरा नैहर बेहद याद आने लगा। खैर! दिन महीनोमे और महीने सालोंमे तबदील होते गए। अलग-अलग जगह हमारे तबादले होते रहे। घरमे बच्चों का आगमन हुआ। इसीके साथ हमारे सहजीवन मे कई उतार चढाव आते रहे।
क्रमशः

Tuesday, June 10, 2008

मेरे जीवनसाथी....1

विनयजी से मेरा परिचय हुआ तब मैं एम्. ए का प्रथम वर्ष पूरा कर चुकी थी। छात्रावास मे रहके पढ़ती थी,सो परीक्षाके के बाद अपने गांवके घर लौटी। आके पता चला की हमारे तालुके की जगह एक IPS अफसरकी पोस्टिंग हुई है। मेरे दादा-दादी तथा मेरे माँ-पिताजिका उनसे पहलेही परिचय हो चुका था। मेरे पिताजी किसी कामसे इस नए आए अफसरसे मिलने गए थे। वे दिल्ली विद्यापीठ्के,सेंट स्टीफंस कोलेजसे स्नातक हो चुके थे। विनयजी थे हिंदू कॉलेज से थे। उन्होंने राज्यशात्र एम् ए किया था पिताजी थे इंग्लिश साहित्य के एम्.ए. पिताजी के अस्खलित इंग्लिश भाषासे विनयजी काफी प्रभावित हुए। किसी छोटेसे गाँव का एक किसान इंग्लिश भाषाकी इतनी जानकारी रखता होगा इस बातसे उन्हें काफ़ी अचरज हुआ। इस पार्श्व भूमीपर हमारे परिवारका उनसे परिचय हुआ। मेरा परिवार बडाही उदार मतवादी मुस्लिम परिवार था/है। उस समय विनय के किसी परिवालोंसे हमारा मिलनेका इत्तेफाक नही हुआ था। उनका परिवार देहलीमे था। मंझले भाई जो आर्मी मी थे,जयपुर पोस्टेड थे। बड़े भी देहलीमे एक बैंक मी काम करते थे।उनके माँ-पिताजी कभी आर्मी वाले बेटेके साथ रहते तो कभी देहलीमे सबसे बड़े बेटेके साथ। भारत-पाकिस्तान के दुभाजन मी उनका काफी कुछ खो गया था। माता पिता अपने बच्चों परही निर्भर थे,जब बच्चे कमाने लायक हुए। ये सब मुझे धीरे पता चलता गया।
मैं पहली बार विनयजी से मिली तो उन्हीके सरकारी निवास स्थानपे पे।चार लकडी के बून्धें, चार मेटल की कुर्सियाँ,और एक टेबल। बैठक मी बस इतनाही फर्नीचर था। बेडरूम मी क्या था ये बातों-बातों मी हमे बताया गया। एक खुला लकडी का रैक और एक निवाड़ का पलंग...बस इतनाही।खैर!!पहली मुलाक़ात के दिन(मेरी पहली मुलाक़ात)हमारे सामने अनारका रस रखा गया। अनार खानेमे तो मुझे पसंद था, लेकिन उसका रस नही। वोभी बीज के साथ पिसा हुआ,और अनारभी पूरे पके हुए नही!!वो रस मेरे गलेके नीचे उतर नही रहा था!!किसितरह से ख़त्म किया। किसी पुलिसवाले से ये मेरा पहला encounter था।!!

Sunday, June 8, 2008

रोई आँखें मगर....5

मेरे ब्याह्के कई वर्षों बाद एक बार मैं अपने मायके आई थी कुछ दिनोके लिए। शयनकक्ष से बाहर निकली तो देखा बैठक मे दादाजी के साथ एक सज्जन बैठे हुए थे। दादा ने झट से कहा,"बेटा, इन्हे प्रणाम करो!'
मैंने किया और दादाजी से हँसके बोली,"दादा अब मेरी उम्र चालीस की हो गई है! आप ना भी कहते तो मैं करती!"
दादा कुछ उदास,गंभीर होके बोले,"बेटा, मेरे लिए तो तू अब भी वही चालीस दिनकी है, जैसा की मैंने तुझे पहली बार देखा था, जब तुझे लेके तेरी माँ अपने मायके से लौटी थी....!!"
मेरे दादा -दादी गांधीवादी थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम मे भाग लिया था तथा जब गांधीजी ने युवा वर्ग को ललकारा की वे ग्राम सुधार मे तथा ग्राम जागृती मे लग जाएं, तो दोनों मुम्बई का मेहेलनुमा,संगेमरमर का पुश्तैनी मकान छोड़ गाँव आ बसे और खेती तथा ग्राम सुधार मे लग गए। गाँव मे कोई किसी भी किस्म की सुविधा नही थी। दोनों को जेलभी आना जाना पड़ता था, इसलिए उन्होंने उस ज़मानेमे परिवार नियोजन अपनाकर सिर्फ़ एकही ऑलाद को जन्म दिया, और वो हैं मेरे पिता। मुझे मेरे दादा-दादी पे बेहद गर्व रहा है। उन्हें लड़कीका बड़ा शौक़ था। मेरे जन्म की ख़बर सुनके उन्हों ने टेलेग्राम वालेको उस ज़मानेमे, खुश होके १० रुपये दे दिए!!वो बोला ,आपको ज़रूर पोता हुआ होगा!!
उनके अन्तिम दिनोंके दौरान एकबार मैं अपने पीहर गयी हुई थी। अपनी खेती की जगह जो एकदम बंजर थी(उसके छायाचित्र मैंने देखे थे),उसको वाकई उन्होंने नंदनवन मे परिवर्तित कर दिया था। एक शाम उन्होंने अचानक मुझसे एक सवाल किया,"बेटा, तुझे ये जगह लेनेका मेरा निर्णय कैसा लगा?"
ना जाने मेरे दिलमे उस समय किस बातकी झुन्ज्लाहट थी,मैं एकदमसे बोल पडी,"निर्णय कतई अच्छा नही लगा, हमे स्कूल आने जाने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते थे, और...."ना जाने मैंने क्या-क्या बक दिया। वे बिलकूल खामोश हो गए। मुझे तुरंत उनकी क्षमा मांगनी चाहिए थी, लेकिन मैंने ऐसा नही किया।दूसरे दिन मैं वापस लौट गयी। उन दिनों हमलोग मुम्बई मे थे। बादमे मैंने सोचा, उन्ह्ने एक माफी का ख़त लिख दूंगी। लिखा भी। लेकिन पोस्ट लिया उसी दिन उनके देहान्तकी ख़बर आयी। जिस व्यक्ती ने मेरे लिए इतना कुछ किया था, उसी व्यक्ती को मैंने उनके अन्तिम समयमे ऐसे कटु शब्द सुना दिए! क्या हासिल हुआ मुझे!मैं अपनी ही निगाहोंमे ख़ुद गिर गयी।
जबतक हमलोग मेरे पीहर पोहोंचे, उनकी अर्थी उठ चुकी थी। वे बेहद सादगी से अपना अन्तिम कार्य करना चाहते थे। अपने लिए खडी का कफ़न दोनोहीने पहलेसे लेके रखा हुआ था। पर जब शेहेर और गाँव वालों को उनके निधन की वार्ता मिली, तो सैकडों लोग इकट्ठा हो गए। हर जाती-पाती के लोगोंने कान्धा दिया। एक नज्म है,"मधु" के नामसे लिखनेवाले शायर की, जो दादी सुनाया करती थी,"मधु"की है चाह बोहोत, मेरी बाद वफात ये याद रहे,खादीका कफ़न हो मुझपे पडा, वंदेमातरम आवाज़ रहे,मेरी माता के सरपे ताज रहे"।
उनकी मृत्यु जिस दिन हुई, वो उनकी शादी की ७२वी वर्ष गाँठ थी। जिस दिन उन दोनों का सफर साथ शुरू हुआ उसी दिन ख़त्म भी हुआ।
मेरी दादी के मुंह से मैंने अपनी जिन्दगीके बारेमे कभी कोई शिकायत नही सुनी। मेहेलसे आ पोहोंची एक मिट्टी के घरमे, जहाँ पानी भी कुएसे भरके लाना होता था,ना वैद्यकीय सुविधाएं,ना कोई स्कूल,ना बिजली....अपने इकलौते बेटेको सारी पढाई होने तक दूर रखना पड़ा। उन्हें राज्यसभाका मेंबर बननेका मौक़ा दिया गया,लेकिन उन्होंने अपने गाँव मेही रहना चाहा।
दादाजी के जानेके बाद दो सालके अन्दर-अन्दर दादी भी चल बसी। जब वे अस्पताल्मे थी, टैब एकदिन किसी कारण ५/६ नर्सेस उनके कमरेमे आयी। उन्होंने दादी से पूछा," अम्मा आपको कुछ चाहिए?"
दादी बोली," मुझे तुम सब मिलके "सारे जहाँसे अच्छा,हिंदोस्ता हमारा,ये गीत सुनाओ!"
सबने वो गीत गाना शुरू किया। गीत ख़त्म हुआ और दादी कोमा मे चली गयी। उसके बाद उन्हें होश नही आया।
इन दोनोने एक पूरी सदी देखी थी। अब भी जब मैं पीहर जाती हूँ तो बरामदेमे बैठे वो दोनों याद आते हैं। एक-दूजे को कुछ पढ़ के सुनाते हुए, कभी कढाई करती हुई दादी, घर के पीतल को पोलिश करते दादा.....मेरी आँखें छलक उठती हैं....जीवन तो चलता रहता है....मुस्कुराके...या कभी दिलपे पत्थर रखके,जीनाही पड़ता है....
पर जब यादें उभरने लगती हैं,बचपनकी,गुज़रे ज़मानेकी तो एक बाढ़ की तरह आतीं हैं.....अब उन्हें रोक लगाती हूँ, एक बाँध बनाके।
समाप्त

Saturday, June 7, 2008

रोई आँखे मगर.....4

दादीअम्मा जब ब्याह करके अपनी ससुराल आई,तो ज्यादा अंग्रेज़ी पढी-लिखी नही थी, लेकिन दादाके साथ रहते,रहते बेहद अच्छे-से ये भाषा सीख गयीं। इतनाही नही, पूरे विश्वका इतिहास-भूगोलभी उन्होंने पढ़ डाला। हमे इतने अच्छे से इतिहास के किस्से सुनाती मानो सब कुछ उनकी आंखोंके सामने घटित हुआ हो!उनके जैसी स्मरण शक्ती विरलाही होती है। उर्दू शेरो-शायरीभी वे मौका देख, खूब अच्छे से कर लेती। दादा-दादी मे आपसी सामंजस्य बोहोत था। वे एकदूसरे का पूरा सम्मान करते थे और एक दूसरेकी सलाह्के बिना कोई निर्णय नही लेते।
जब मैने अंतरजातीय ब्याह करनेका निर्णय लिया तो एक दिन विनय के रहते उन्होंने मुझे अपने पास लेकर सरपे हाथ फेरा और सर थपथपाया, मानो वो कहना चाह रहे हॉं, कांटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओंमे, और तब मैने चुनी राह पर कितने फूल कितने कांटें होंगे,ये बात ना वो जानते थे ना मैं! फ़िर उन्होंने विनयजीका हाथ अपने हाथोंमे लिया और देर तक पकड़े रखा, मानो उनसे आश्वासन मांग रहे हॉं की तुम इसे हरपल नयी बहार देना।
मेरी दादी badminton और लॉन टेनिस दोनों खेलती थीं। एक उम्र के बाद उन्हें गठियाका दर्द रेहनेके कारण ये सब छोड़ना पडा। मेरे ब्याह्के दो दिन पहले मैने हमारे पूरे खेतका एक चक्कर लगाया था। वहाँ उगा हर तिनका, घांसका फूल, पेड़, खेतोंमे उग रही फसलें मैं अपने ज़हेन मे सदाके लिए अंकित कर लेना चाहती थी। लौटी तो कुछ उदास-उदास सी थी। दादीअम्माने मेरी स्थिती भांप ली। हमारे आँगन मे badminton कोर्ट बना हुआ था। मुझसे बोलीं,"चल हम दोनों एकबार badminton खेलेगे।"
उस समय उनकी उम्र कोई चुराहत्तर सालकी रही होगी। उन्होंने साडी खोंस ली, हम दोनोने racket लिए और खेलना शुरू किया। मुझे shuttlecock जैसे नज़रही नही आ रहा था। आँखोके आगे एक धुंद -सी छा गयी थी।हम दोनोने कितने गेम्स खेले मुझे याद नही, लेकिन सिर्फ़ एक बार मैं जीती थी।
उनमे दर्द सहकर खामोश रेहनेकी अथाह शक्ती थी। उनके ग्लौकोमा का ओपरेशन कराने हम पती-पत्नी उन्हें हमारी पोस्टिंग की जगाह्पे ले आए। वहाँ औषध -उपचार की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थी। दादी की उम्र तब नब्बे पार कर चुकी थी, इसलिए सर्जन्स उन्हें जनरल अनेस्थिशिया नही देना चाहते थे। केवल लोकल अनेस्थेशिया पे सर्जरी की गयी। मेरे पतीभी ओपरेशन थिअटर मे मौजूद थे। दादीअम्माने एक दो बार डॉक्टर से पूछा ,"और कितनी देर लगेगी?"
डॉक्टर हर बार कहते,"बस, और दस मिनिट्स..."
अंत मे वो बोली,"आप तो घंटें भरसे सिर्फ़ दस मिनिट कह रहे हैं।"
खैर, जब ऑपरेशन पूरा हुआ तो पता चला की, लोकल अनेस्थिशिया का उनपे कतई असर नही हुआ था!सर्जन्स भी उनका लोहा मान गए। जब दूसरी आँख की सर्जरी थी तब भी वे मुझसे सिर्फ़ इतना बोली,"बेटा, इस बार जनरल अनेस्थिशिया देके सर्जरी हो सकती है क्या? पहली बार मुझी बोहोत दर्द हुआ था।"!
बस, इसके अलावा उनको हुई किसी तकलीफ का उन्होंने कभी किसी से ज़िक्र नही किया।
अपूर्ण

रोई आँखे मगर....3

मुझे गर्मियोंकी छुट्टी की वो लम्बी-लम्बी दोपहारियां याद है, जब हम बच्चे ठंडक ढूँढ नेके लिए पलंगके नीचे गीला कपड़ा फेरकर लेटते थे। कभी कोई कहानीकी किताब लेकर तो कभी ऐसेही शून्यमे तकते हुए। चार साढे चार बजनेका इंतज़ार करते हुए जब हमे बाहर निकलनेकी इजाज़त मिलती। मेरी दादीको उनके भाईने एक केरोसीनपे चलनेवाला फ्रिज दिया था। वे हमारे लिए कुछ ठंडे व्यंजन बनाती, उनमेसे एकको "दूधके फूल" कहती। फ्रिजमे दूध-चीनी मिलके जमती और फिर उसे खूब फेंटती जाती, उसका झाग हमारे गिलासोंमे डालती और खालिहानसे लाई गेहुँकी "स्ट्रा" से हम उसे पीते। खेतमे बहती नेहरमे डुबकियां लगाते,आमका मौसम तो होताही। माँ हमे आम काटके देती और नेहरपे बनी छोटी-सी पुलियापे बिठा देती। हमलोग ना जाने कितने आम खा जाते!!तब मोटापा नाम की चीज़ पता जो ना थी!!माँ और दादी हम दोनों बेहनोके लिए सुंदर-सुंदर फ्रोक सिया करती। दादी द्वारा मेरे लिए कढाई करके सिला हुआ एक फ्रोक अबबभी मैंने संभाल के रखा है।छुट्टी के दिन,जैसे के हर रविवार को, माँ आवला, रीठा तथा सीकाकायी से हमारे बाल धोती।फिर लोबानदान मे जलते कोयलोंपे बुखुर और अगर डालके उसके धुएंसे हमारे बाल सुखाती। उसकी भीनी-भीनी खुशबू आजभी सांसोंमे रची-बसी है।
यादोंकी नदीमे जब घिरके हम हिचकोले खाते हैं, तो उसका कोई सिलसिला नही होता। जिस दिन जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई थी, मुझे याद है,उनकी अन्तिम यात्राका आंखों देखा हाल आकाशवाणी पे सुनके मैं जारोज़ार रोई...कमेंटेटर के साथ-साथ। उस दिन भयानक तूफान आया था। हमारे खेतके पुराने,पुराने पेड़ उखड के गिर पड़े थे, मोटी,मोटी डालें टूट गयी थी, मानो सम्पूर्ण निसर्ग मातम मना रहा हो। ये तूफान पूरे देशमे आया था उस दिन।
औरभी कैसी -कैसी यादें उमड़ रही हैं!!जब कॉलेज की पढाई के लिए मैं गाँव छोड़ शहर गयी तो दादीअम्मा के कंप कपाते होंठ और आंखों से बहता पानी याद आ रहा है।याद आ रही उनकी बताई एक बडीही र्हिदयस्पर्शी बात। जब मैं केवल तीन सालकी थी, तब मेरे पिता आन्ध्र मे फलोंका संशोधन करनेके लिए मेरे और माके साथ जाके रहे थे। हम तीनो चले तो गए,लेकिन किसी कारन कुछ ही महीनोमे लौटना पडा। जब मैं थोडी बड़ी हुई तो दादीअम्मा ने बताया की हम लोगोंके जानेके बाद वे और दादाजी सूने-से बरामदेमे बैठ के एक दूसरेसे बतियाते थे और कहते थे अगर ये लोग लौट आए तो मैं मेरी पोती को गंदे पैर लेके पलंग पे चढ़ने के लिए कभी नही गुस्सा करूंगा , ....इन साफ सुथरी चद्दरों से तो वो छोटे-छोटे मैले पैरही भले!!घर के कोने-कोनेसे उसकी किलकारिया सुनायी पड़ती हैं.....!!!
अपूर्ण

Friday, June 6, 2008

रोई आँखे मगर....2

दादा मेरे साथ खूब खेला करते थे। वो मेरे पीछे दौड़ते और हम दोनों आँखमिचौली खेलते। मैं पेडोंपे चढ़ जाया करती और वो हार मान लेते। सायकल चलाना उन्ह्नोनेही मुझे सिखाया और बादमे कारभी।और सिखाई वक्त की पाबंदी, बडोंकी इज्ज़त करना और हमेशा सच बोलना, निडरता से सच बोलना। बाकी घरवालोनेभी यही सीख दी। हम गलतीभी कर बैठते, लेकिन उसे स्वीकार लेते तो डांट नही बल्कि पीठ्पे थप-थपाहट मिलती। निडरता से सच बोलनेकी सीखपे चलना मुश्किल था। कई बार क़दम डगमगा जाते, झूठ बोलके जान बचा लेनेका मोह होता, लेकिन हमेशा दादा याद आते,उनके बोल याद आते की जब कोई इंसान मृत्युशय्या पे हो तो उसके दिलमे कोई पश्चाताप नही होना चाहिए। इसी बातपे मुझे बचपन की एक घटना याद आयी। हम तीनो भाई-बेहेन स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से स्कूल आया जाया करते थे। एक दिन माँ ने हिदायत देके स्कूल भेजा मुझे की शामको शायद हमारी कार शेहेर आयेगी। अगर एक विशिष्ट जगह्पे कार दिखे तो छोटे भाईको बस स्टेशन पे ठीक से देख लेना तथा उसे साथ लेके आना। ना जाने क्यों, उस भीड़ भरी जगह्पे मैंने बोहोतही सरसरी तौरसे नज़र दौडाई और कारमे बैठ के घर आ गयी। माँ के पूछ्नेपे कहा की, मैंने तो ठीकसे देखा, राजू वहाँ नही था। माँ को शंका हुई की कही बेटा किसी बुरी संगतमे तो नही पड़ गया??जब देर शाम भाई बस से घर लौटा तो माँ ने उससे सवाल किया की वो शाम को बस स्टेशन पे नही था ...कहाँ गया था??उसने बताया की, वो तो बस स्टेशन पे ही था। माने उसे चांटा लगाया। उसने मासे कहा,"माँ तुम चाहो तो मुझे मारो,लेकिन मैं वहीं पे था...बल्कि मैंने दीदी को देखाभी....इससे पहले की मैं उनतक जाता,वो चली गयी...."। माने मेरी तरफ़ मुखातिब होके कहा,"तुमने राजूको ठीकसे देखा था?"
मेरी निगाहें झुक गयी। मुझे अपने आपपे बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई। आजभी जब वो घटना याद आती है तो मेरी आँखें भर आती हैं।
एकबार दादा से रूठ्के मैं पैदलही स्कूल निकल पडी। तब मेरी उम्र होगी कुछ दस- ग्यारह सालकी। स्कूल तकरीबन आठ किलोमीटर दूर था। दादाजीने अपनी सायकल उठायी और मेरे साथ-साथ चलने लगे। क़रीब दो-तीन किलोमीटर चल चुके तो एक बस आयी। बसका चालक दादाजीको जानता था। उसने मुझसे बसमे बैठने के लिए खूब मनुहार की ,लेकिन मैं थी की रोती जा रही थी,और अपनी ज़िद्पे अडी हुई थी। अन्तमे दादाजीने उसे जानेके लिए कह दिया। मैं पैदल चलकेही स्कूल पोहोंची।जब शाम मे स्कूल छूटी तो मैं बस स्टेशन के लिए निकल पडी। थोडीही दूरपे एक छोटी-सी पुलियापर दादाजी मेरा इंतज़ार कर रहे थे!!दिनभर के भूके-प्यासे!!बोले,"अब तुझे बसमे बिठाके मैं सायकल से घर आऊँगा।" मुझे आजतक इस बातपे ग्लानी होती है....काश.....काश,मैं इतनी जिद्दी ना बनी होती....!
अपूर्ण

रोई आँखें मगर.......

मई महीनेकी गरमी भरी दोपहर थी। घर से कही बाहर निकलने का तो सवालही नही उठता था। सोचा कुछ दराजें साफ कर लू। कुछ कागजात ठीकसे फाइलोमे रखे जाएं तो मिलनेमे सुविधा होगी। मैं फर्शपे बैठ गई औरअपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी।वो दिन १५ मई का था .......दादाजीका जन्म दिन....!!!
पहलाही ख़त था मेरे दादाजीका बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!!बिना तारीख देखे,पहलीही पंक्तीसे समझ आया की ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोतिको लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!!"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!मैंने इन हिदायतोको बरसों टाल दिया था। पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....औरभी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन कांपते हाथोसे लिखे हुए, जिनमे प्यार छल-छला रहा था!! ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!
बाबुल.....इस एक लफ्ज्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन, खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम, सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और संभालना, बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना, उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियां, लालटेन के उजालेमे की गई पढाई, क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गांवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे ,जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी। सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमेभी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।
अपूर्ण

Tuesday, April 8, 2008

My darling child. PART 2

These are those musings, which I never shared with you. Thoughts just kept crowding my mind & I kept everything to myself. We ended up writing about more mundane things, daily almost.

I picked up e-mailing & working on the computer, so fast, I could not believe! Me, who used to be so put off by the computer! That little box became my lifeline. It kept me going when you were gone. Every time I sat in front of it to open my mail I prayed intensely. Oh, please God let there be few lines from you. How much I missed you! My heart ached with love & longing. Every night I dreamt that you were still with me. I could touch you; that your parting was just a bad dream. And the morning rays filtering through my windows would wake me up to the rude shock of the reality. You were actually thousands of miles away. The Truth would not sink in. Is it true? You are not just a call away?

Your e-mails became the highlight of my day. I deleted many. Wish I had saved & taken printouts. It occurred to me much, much later.

Open Heart - PART 1 INTRODUCTION (Forthcoming book "From Distant Horizons")

This is about a strong, yet almost invisible bond between a mother & a daughter. She is always in the present while I keep going down the memory lane with agonizing nostalgia. Keep peeping into a future of which she will not be a constant part. For me, her departure to the U.S. created an immense vacuum. Despite several hobbies & interests in different arenas, I felt lost, almost cheated. Somehow I had never foreseen this. Never prepared myself for it. Never visualized my darling daughter leaving India. These things happened day in & day out, but never to me. My kids always will be around. They may travel abroad to gain experience, as my son did when he went to Sweden for a few months. How can they uproot themselves? But then, just because my roots were here, their movements need not be restricted. They were bound to explore more & more possibilities. Somehow when I educated them I forgot about the ultimate consequences. The birds were bound to spread wings & fly away to distant horizons. Those horizons, that were neither within my sight nor within my reach, for whatever reasons. It took me long to accept. Accept, I did, reconcile, I wonder.

Friday, January 25, 2008

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १५

"आंटी, मुझसे बोहोत बड़ी भूल हो गयी। माफीके काबिल नही हूँ,फिरभी माफी माँगता हूँ। मैं भारत लॉट आया हूँ। अब माँ बापके साथ ही रहूँगा उन्हें सुखी रखूँगा,कमसे कम कोशिश करूँगा,"संजू रो-रोके बोल रहा था।
मिसेस सेठना ने उसे बीच मे घटी सारे घटनाओका ब्योरा सुनाया,फिर पूछा,"तुम्हारी भूल तुम्हारे ध्यान मे कैसे आयी?"
"आंटी, वहाँ पर एक वृद्धाश्रम मे मुझे विज़िट पे बुलाया था। वहाँ ऐसे कई जोड़े रहते है। दोनो साथ,साथ होते है तबतक खुशभी होते है। उस दिन एक भारतीय स्त्री मुझे मिली। माँ के उम्र की होगी। पगला-सी गयी थी। मेरा हाथ छोड़ने को तैयार नही थी।
"मेरे बच्चो को मरे पास ले लाओ। ये देखो, ये पता है। यहाँ के लोग उन्हें बुलाते ही नही। कोई मेरी बात ही नही सुनता है,बेचारी रो-रोके बोल रही थी।
मैंने आश्रम मे तलाश की तो पता चला कि उसके बच्चे आनाही नही चाहते। पैसे भेज देते है। वीक एंड पे घूमने चले जाते है। मेरी आखोंके सामने मेरी माँ आ गयी। मुझ पर मानो बिजली-सी बरस पडी। मैंने उसी पल भारत लॉट नेका निर्णय ले लिया। ब्याह तो कियाही नही था, इसलिए किसीके सलाह मश्वरेकी ज़रूरत नही थी। आंटी मुझे अभी,इसीवक्त माके पास ले चलिए। "
दोनो निकल ही रहे कि आश्रमसे फ़ोन आया,आशाकी तबियत बोहोत खराब है। वो लोग पोहोचे तबतक मुख्याध्यापिका भी पोहोच गयी थी। डाक्टर भी वही थे। संजूको किसीने पहचाना नही। मिसेस सेठना ने परिचय करवाया। लीलाबाई आँखे पोंछते हुए बोली,"आज सुबह्से कुछ नही खाया पिया। बस,राजू-संजू आएँगे तभी लूँगी, यही कहती रहती है।"
मिसेस सेठना अपने साथ मोसंबी लाईं थीं ..... लीलाबाई को झट से रस निकालने को कहा। ड्रिप लगी हुई थी। मिसेस सेठना ने डाक्टर से धीमी आवाज़ मे कुछ कहा ......उन्होने गर्दन हिलाई...... संजूकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने माका एक हाथ पकडा, दूसरा डाक्टर ने।
"माँ! देख हम आ गए है। अब ये रस लेले, वो बोला। आशाने संजूके हाथों रस ले लिया। उसके होंठ कुछ बुदबुदाने लगे। सबने एक दूसरेकी और प्रश्नार्थक दृष्टी से देखा। लीलाबाई बोली ,"वो कह रही है,'दयाकी दृष्टी सदाही रखना,'जो हमेशा गाती रहती है।" आसपास खडे लोगोकी आँखे भर आयीं........ संजू तो लौट ही आया था, डाक्टर के रूपमे राजूभी मिल गया।

समाप्त ।


धन्यवाद!!

Wednesday, January 23, 2008

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १४

रोज़ शामको आशा लीलाबाई से पूछती,"अभीतक राजू-संजू,माया- शुभदा, कोयीभी नही आया???बच्चों की आवाजें नही आ रही???"फिर ,"अस्मिता,अस्मिता,आजा तो...देख मैं लड्डू दूँगी तुझे,"इसतरह पुकारती रहती....

माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयीही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपनेआपसेही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वोभी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती,बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"

कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवनसे तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वोभी उन्हें इतना पढा लिखाकर??
और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।
क्रमशः

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १३

फिर दिन महीने साल खिसकने लगे। इस प्रसंग के बाद आशा एकदम बुढ़िया-सी गयी। बेचारा उसका पती फिरभी उसके लिए गजरे, बडे, कपडे लाता गया। एक दी वो उससे बोला,"मैं आज जल्दी आऊँगा। हम पिक्चर देखने चलेंगे। तू तैयार रहना। "
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिरभी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की और भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल डी। उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।
जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।
इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी कामपे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनोंकी गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।

सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो होही गयी थी,उसके मस्तिष्क पेभी भारी सदमा पोह्चा था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......

सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशाकी खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशाको चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशापे पडी आपत्तीके लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।

आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???"शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः