Monday, June 30, 2008

जा, उड़ जारे पंछी १)(एक माँ का अपनी दूर रहनेवाली बिटिया से किया मूक sambhashan

याद आ रही है वो संध्या ,जब तेरे पिताने उस शाम गोल्फ से लौटके मुझसे कहा,"मानवी जनवरी के९ तारीख को न्यू जर्सी मे राघव के साथ ब्याह कर ले रही है। उसका फ़ोन आया, जब मै गोल्फ खेल रहा था।"
मै पागलों की भाँती इनकी शक्ल देखती रह गयी! और फिर इनका चेहरा सामने होकरभी गायब-सा हो गया....मन झूलेकी तरह आगे-पीछे हिंदोले लेने लगा। कानोंमे शब्द गूँजे,"मै माँ को लेके कहाँ जानेवाली हूँ?"
तू दो सालकीभी नही थी तब लेकिन जब भी तुझे अंदेसा होता था की मै कहीं बाहर जानेकी तैय्यारीमे हूँ, तब तेरा यही सवाल होता था! तुने कभी नही पूछा," माँ, तुम मुझे लेके कहाँ जानेवाली हो?" माँ तुझे साथ लिए बिना ना चली जाय, इस बातको कहनेका ये तेरा तरीका हुआ करता था! कहीं तू पीछे ना छोडी जाय, इस डरको शब्दांकित तू हरवक्त ऐसेही किया करती।
सन २००३, नवेम्बर की वो शाम । अपनी लाडली की शादीमे जानेकी अपनी कोईभी संभावना नही है, ये मेरे मनमे अचनाकसे उजागर हुआ। "बाबुल की दुआएं लेती जा..." इस गीतकी पार्श्व भूमीपे तेरी बिदाई मै करनेवाली थी। मुझे मालूम था, तू नही रोयेगी, लेकिन मै अपनी माँ के गले लग खूब रो लेनेवाली थी.....
मुझे याद नही, दो घंटे बीते या तीन, पर एकदमसे मै फूट-फूटके रोने लगी। फिर किसी धुंद मे समाके दिन बीतने लगे। किसी चीज़ मे मुझे दिलचस्पी नही रही। यंत्र की भाँती मै अपनी दिनचर्या निभाती। ८ जनवरी के मध्यरात्री मे मेरी आँख बिना किसी आवाज़ के खुल गयी। घडीपे नज़र पडी और मेरे दोनों हाथ आशीष के लिए उठ गए। शायद इसी पल तेरा ब्याह हो रहा हो!!आंखों मे अश्रुओने भीड़ कर दी।
तेरे जन्मसेही तेरी भावी जिंदगीके बारेमे कितने ख्वाब सँजोए थे मैंने!!कितनी मुश्किलों के बाद तू मुझे हासिल हुई थी,मेरी लाडली! मै इसे नृत्य-गायन ज़रूर सिखाऊंगी, हमेशा सोचा करती। ये मेरी अतृप्त इच्छा थी! तू अपने पैरोंपे खडी रहेगीही रहेगी। जिस क्षेत्र मे तू चाहेगी , उसी का चयन तुझे करने दूँगी। मेरी ससुरालमे ऐसा चलन नही था। बंदिशें थी, पर मै तेरे साथ जमके खडी रहनेवाली थी। मानसिक और आर्थिक स्वतन्त्रता ये दोनों जीवन के अंग मुझे बेहद ज़रूरी लगते थे, लगते हैं।
छोटे, छोटे बोल बोलते-सुनते, न जाने कब हम दोनोंके बीच एक संवाद शुरू हो गया। याद है मुझे, जब मैंने नौकरी शुरू की तो, मेरी पीछे तू मेरी कोई साडी अपने सीनेसे चिपकाए घरमे घूमती तथा मेरी घरमे पैर रखतेही उसे फेंक देती!!तेरी प्यारी मासी जो उस समय मुंबई मे पढ़ती थी, वो तेरे साथ होती,फिरभी, मेरी साडी तुझसे चिपकी रहती!
तू जब भी बीमार पड़ती मेरी नींदे उड़ जाती। पल-पल मुझे डर लगता की कहीं तुझे किसीकी नज़र न लग जाए। तू दो सालकी भी नही हुई थी के तेरे छोटे भी का दुनियामे आगमन हुआ। याद है तुझे, हम दोनोंके बीछ रोज़ कुछ न कुछ मज़ेकी बात हुआ करती? तू ३ सालकी हुई और तेरी स्कूल शुरू हुई। मुम्बई की नर्सरीमे एक वर्ष बिताया तूने। तेरे पिताके एक के बाद एक तबादलों का सिलसिला जारीही रहा। बदलते शहरों के साथ पाठशालाएँ बदलती रही। अपनी उम्रसे बोहोत संजीदा, तेज़ दिमाग और बातूनी बच्ची थी तू। कालांतर से , मुझे ख़ुद पता नही चला,कब, तू शांत और एकान्तप्रिय होती चली गयी। बेहद सयानी बन गई। मुझे समझाही नही या समझमे आता गया पर मै अपने हालत की वजहसे कुछ कर न सकी। आज मुझे इस बातका बेहद अफ़सोस है। क्या तू, मेरी लाडली, अल्हड़तासे अपना बचपन, अपनी जवानी जी पायी?? नही न??मेरी बच्ची, मुझे इस बातका रह-रहके खेद होता है। मै तेरे वो दिन कैसे लौटाऊ ??मेरी अपनी ज़िंदगी तारपरकी कसरत थी। उसे निभानेमे तेरी मुझे पलपल मदद हुई। मैही नादान, जो ना समझी। बिटिया, मुझे अब तो बता, क्या इसी कारन तुझे एकाकी, असुरक्षित महसूस होता रहा??
जबसे मै कमाने लगी, चाहे वो पाक कलाके वर्ग हों, चाहे अपनी कला हो या जोभी ज़रिया रहा,मिला, मैंने तिनका, तिनका जोड़ बचत की। तुम बच्चों की भावी ज़िंदगी के लिए, तुम्हारी पढ़ाई के लिए, किसी तरह तुम्हारी आनेवाली ज़िंदगी आर्थिक तौरसे सुरक्षित हो इसलिए। ज़रूरी पढ़ाई की संधी हाथसे निकल न जाय इसकारण । तुम्हारा भविष्य बनानेकी अथक कोशिशमे मैंने तुम्हारे, ख़ास कर तेरे, वर्तमान को दुर्लक्षित तो नही किया? जिंदगीके इस मोड़ से मुडके देखती हूँ तो अपराध बोधसे अस्वस्थ हो जाती हूँ। क्या यहीं मेरी गलती हुई? क्या तू मुझे माफ़ कर सकेगी? पलकोंमे मेरी बूँदें भर आती हैं, जब मुझे तेरा वो नन्हा-सा चेहरा याद आता है। वो मासूमियत जो संजीदगीमे न जानू कब तबदील हो गयी....!अपने तनहा लम्होंमे जब तू याद आती है, तो दिल करता है, अभी उसी वक्त काश तुझे अपनी बाहोंमे लेके अपने दिलकी भडास निकाल दूँ!!निकाल सकूँ!!मेरी बाहें, मेरा आँचल इतना लंबा कहाँ, जो सात समंदर पार पोहोंच पाये??ना मेरी सेहत ऐसी के तेरे पास उड़के चली आयूँ!!नाही आर्थिक हालात!!अंधेरी रातोंमे अपना सिरहाना भिगोती हूँ। जब सुबह होती है, तो घरमे झाँकती किरनों मे मुझे उजाला नज़र नही आता....जहाँ तेरा मुखडा नही, वो घर मुझे मेरा नही लगता...गर तू स्वीकार करे तो अपनी दुनिया तुझपे वार दूँ मेरी लाडली!
क्रमशः

Saturday, June 14, 2008

मेरे जीवनसाथी ...7

विनयको खाना बनानेका भी शौक़ है। इसलिए खानेके चिकित्छक भी हैं!! और शायद इसीलिए मैभी ढेरों व्यंजन बनाना सीख गयी....इस हदतक के पाक कलाके वर्गभी लेती रही!!
विनयने अपने माता-पिताकी उनके अंत तक सेवाभी खूब की। मेरी सासू माँ, उनकी उम्र के आखरी छः -सात साल नाबीना हो गयी थीं, फिरभी मैं उन्हें भाग्यशाली समझती हूँ, क्योंकी वे अपने बेटेके नज़रों से दुनिया देख सकतीं थीं। इस मामले मे विनयको मैं श्रवणकुमार कहूँगी।
इनके स्वभावविशेष का एक और पहलू ना बताऊँ तो बात बड़ी अधूरी-सी रहेगी। इनका बचपन तथा नौकरी लगनेतक का समय बेहद तंगी और अनिश्चितता के माहौल मे गुज़रा। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय मेरे ससूरजी की सारी जायदाद पाकिस्तान(लहौरमे तथा रावलपिंडी)मे रह गयी। गरीबी क्या होती है, इस बात का एहसास इन्हे हमेशा रहता था। इसी सन्दर्भ मे मुझे एक बात याद आ रही है। दिवाली के दिनों मे लख्मी पूजन के रोज़ हम दोनों लोगों-दोस्तों को मिलमिला के घर लौट रहे थे। मैंने एक फटेहाल जोडेको ठेला ढोते हुए देख लिया। अपनी पर्स मैं साथ लेके नही चली थी, इस बातपे मुझे बडीही कोफ्त हुई!तभी मानो जैसे इन्हों ने मेरे मनकी बात भाँप ली हो, गाडी रुकवा दी। अपनी जेब टटोली और जितने रुपये मिले, उस जोडेको दे दिए और बोले,"अब मेरा असली लक्ष्मीपूजन हुआ!"
मैं हँस के बोली,"तो इधर भी कुछ कृपा हो जाए!"(क्यों कि मेरा जन्म लक्ष्मी-पूजन के दिन हुआ था, मेरे दादाजी ने मेरे नाम के साथ "लक्ष्मी "जोड़ दिया था, और गृहलक्ष्मी तो मैं थी ही!)
हमारी तू-तू, मैं-मैं की ये कुछ खट्टी-मीठी यादें हैं। हमारे सहजीवन की बातें करती हूँ तो ये गीत याद आता है,"यूँ चल पड़े हैं राही सफरमे, जैसे नदी और किनारा, प्यासे ही रहते हैं फिरभी किनारें, लिपटा करे उनसे धारा....!"साथ-साथ चलते हुएभी कभी-कभार जो अकेलापन मुझे लगा, वो इन्हेभी लगा होगा।जब भी दो भिन्न-भिन्न माहौल मे पले बढे व्यक्ती हमसफ़र बनतें हैं तो कुछ विचारों का संघर्ष लाज़मी होता है।कई बार मैंने अपनेआपको टूटकर बिखरा हुआ पाया,लेकिन सफर जारी रहा। ऐसे अनुभवों ने मुझे तोडा लेकिन परिपक्व और अंतर्मुखी भी बना दिया।
भविष्य किसने देखा है? मैं हमेशा चाहुँगी के ये मुझे इस दुनियासे पहले बिदा कर दें। इसमे मेरा अपना स्वार्थ है। मैं अकेले रह नही सकती। विनय तो शायद मुझे स्मशान मे छोड़, सीधा गोल्फ खेलने चले जाएं( ये गोल्फ़र्स का घिसा-पिटा विनोद है), लेकिन मैं! मैं सती तो नही जाऊँगी, हरेक एक दिन मेरे लिए तिल-तिल मरनेके बराबर होगा!
सम्पूर्ण

Friday, June 13, 2008

मेरे जीवनसाथी...6

विनय को हमेशा मुझसे ये शिकायत रही के मैं उनके युनिफोर्म पे कितने स्टार लगे हैं, कैसे लगे हैं, पदक किस तरह से लगाए जाते हैं, हरेक तरक्की के बाद स्टार्समे क्या फर्क पड़ता है, आदी बातों को ठीकसे याद नही रखती। इसकी एक वजह शायद ये होगी के जब हमारी शादी हुई तबसे के हम औरंगाबाद आए तबतक(तकरीबन ९ साल) विनय डेप्युटेशन पे थे। वहाँ युनिफोर्म नही पेहेनना होता था। मुझे उन्हें रोज़मर्रा के कपडों मे देखने की आदत-सी हो गयी थी।
और फिर मेरे मनमे एक धारणा बैठ गयी थी की मैंने तो विनय नामके एक इन्सानसे प्यार किया है, उससे शादी की है, नाकी किसी अफसरसे!इनके क्या, सारे घरके कपड़े मैं हमेशा अपने हाथों से धोती, ख़ुद इस्त्री करती,(डेप्युटेशन पे वैसेभी उस ज़मानेमे कोई अर्दली नही होते थे), बल्कि घरका साराही काम,सफाई से लेके खाना बनानेतक खुद्ही करती थी। अब जब ख़ास युनिफोर्म तैयार करने के लिए अर्दली हाजिर हैं, तो सिर्फ़ दो पल पहले विनय एकबार चेक कर लें की सब ठीक-ठाक अपनी जगह पे है तो कितना अच्छा हो!!मुझे मिगरैन की काफी तकलीफ रहने लगी थी। बच्चे छोटे थे,सास-ससुरकी पूरी देखभाल करती थी तो ये एक काम हर अफसरने ख़ुद करना चाहिए ऐसा मेरा मानना था। लेकिन ये बात मैं इनके सामने कभी नही कह पायी, येभी एक सच है...डाँट ज़रूर चुपचाप सुन लेती थी!!और येभी सच है की इतने बरसों बादभी ये एक काम मेरी समझ मेही नयी आया !!
आजभी अगर कोई मुझसे पूछे की पोलीसकी अत्युच पोस्ट्से सेवा निवृत्त होंते समय इनका युनिफोर्म कैसा दिखता था, तो मेरा जवाब रहेगा, भाई मैं तो विनय कोही निहारती रहती उनके युनिफोर्म को थोडेही!! अभिमान तो मुझे एक अत्यन्त कार्यक्षम अफसरपे था, नाकी उसके युनिफोर्म के रखरखाव का!युनिफोर्म तो हर कोई पोलिस मे भर्ती हुआ अफसर अपनी श्रेणी के अनुसार पेहेनता है, पर पेहेनके अपनी ड्यूटी कैसे निभाता है...फर्क तो सिर्फ़ यहाँ है!!कई बार ऐसे प्रसंग आए की ऊपरी दबाव और अपनी ईमानदारी इन दोमेसे एक चुनना अवश्य था। हर बार मैं विनयसे कहती, कश्मकश का कोई प्रश्न हैही नही। जो अपनी सद्सद विवेक बुद्धी को मान्य हो वही करना है, चाहे इस्तीफा क्यों ना देना पड़े। मैं उनके साथ झोंपड़े मेभी रेहनेको हरहालमे तैयार थी। खैर! ईश्वरकी कृपा कहूँ या बडों का आशीर्वाद, इनका सेवाकाल सन्मान के साथ बीत गया। महाराष्ट्र का पोलिस महकमा जिन गिने चुने अफसरान पे नाज़ करता है, विनय ज़रूर उनमेसे एक हैं। हम दोनोंने , बल्कि हमारे बच्चों नेभी सब कष्ट उठाये पर कुर्सीका अपमान कभी बर्दाश्त नही किया।
क्रमशः

Thursday, June 12, 2008

मेरे जीवनसाथी .....5

हाँ! तो सुनिए जूतोंका ये वाला किस्सा !सोलापूर मे रहते,जनवरी के महीनेमे विनयको प्रमोशन मिला D. I. G. के तौरपे। वो पुणे पोहोंचे "अडिशनल कमिशनर" के पद पे। क्योंकि ये स्कूलोंके मिड्सेशन के समय का तबादला था, पुणेमे घर खाली नही था। ये पुणे मे पुलिस मेस मे रहने लगे और मैं शोलापूरहीमे अपने बच्चे और सासू माँ के साथ पीछे रुक गयी। कुछ महीनों पहले इन्हे राष्ट्रपती पदक मिलनेकी घोषणा हो चुकी थी । २६ जनवरीको पदक प्रदान समारोह मुम्बई के राजभवन मे होनेवाला था। ऐसे समारोह बडेही formal होते हैं। एकसाथ कई पदक प्रदान होते हैं। एक मिनिट कीभी देरी जायज़ नही होती।
मैं अपनी बेहेन के घर, जो मुम्बई मे रहती है, सीधे शोलापूरसे पोहोंची। विनय पुणेसे पोहोंचे। जब इनके तैयार होने का समय आया तो सबने कमरा खाली कर दिया। मैभी बाहर निकल आयी। बेहेन,बहनोई और मैं तो कबसे तैयार खड़े थे। कुछ्ही पलोंमे इनकी दहाड़ सुनाई पडी,"what the bloody hell!"
हम सब एक दूसरेका मुँह ताकने लगे!!अब क्या हो गया??सभीके चेहरों पे सवाल था!!समय तो बोहोत कम बचा था। समारोहमे देरसे पोहोंचनेका सवालही नही उठता था!!मैंने घबराते हुए कमरेपे दस्तक दी। दोनों जूते एकही पैरके थे और अबके packing भी इन्होंनेही की थी!किसीपे चिंघाड़ नेका मन तो बोहोत हो रहा था इन्हे, सो मैही मिली!!जैसेही मैंने कुछ कहना शुरू किया,इन्होने एकदमसे मुझे खामोश रेहनेको कह दिया। ये तेज़ीसे घरके बाहर निकल गए!!हमलोगों ने दौडके taxee बुलाई। शुक्र था के हमारे पासेस हमारेही पास थे!!ज़ाहिर था की विनयने रास्तेमे कहीं जूते खरीद लिए क्योंकी वो हमारे पहले जूतों सहित हाज़िर थे! लेकिन जबतक मैंने इन्हे देखा नही, मैं बेहद परेशान हो उठी थी!!इतनी के राजभवन के द्वारपे जब एक अधिकारीने हमारे पासेस मांगे तो मैंने अपना goggles का केस उसे थमा दिया!
क्रमशः

मेरे जीवनसाथी...4

एक बार विनय किसी कारण हमारे ४ सालके बेटेको डाँट के दफ्तर चले गए। बेटा उनके जानेके बाद आखों मे आँसू भरकर मेरे पास आया और बोला," माँ जी तुमने इस "आदमी के" साथ शादी क्यों की....क्यों की??मैं बोलता ल्हेता,बोलता ल्हेता था,मत करो,मत करो, फिरभी तुमने की!!"उस पूरे दिन वो अपने पिताको "वो आदमी" इस नामसे संबोधित करता रहा!!देर शाम जब ये घर आए तो फिर मेरे पास आके बोला,"आ गया वो आदमी फिरसे!"
जब मैंने ये किस्सा अपने पीहर मे सुनाया तो सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए!!
एक और वाकया याद आ रहा है। तब भी मेरे बेटेकी उम्र ४ ही वर्षकी थी। एक दिन बडेही भोलेपनसे उसने मुझे पूछा," तुमने शादी क्यों की?"
मैंने कहा,"मेरा मन था शादी करनेका इसलिए की!"
उसने हैरतसे पूछा,"तुम्हारा मन था या तुम्हे कोई सरकारी ओल्दल था शादी कल्नेका?"
मैं हँस ने लगी और बोली,"बेटा ऐसे कोई सरकारी ऑर्डर से थोडेही शादी करता है?"
उसकी आँखें औरभी गोल,गोल हो गयी,बोला,"तो तुमने अपने मल्ज़ीसे शादी की?"
मैंने उसके भोलेसे मुखडेको चूमते हुए कहा," हाँ बेटा! मैंने अपनी मर्जीसे शादी की!"
"माजी!!तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया था?"
अब इस मासूमियत को क्या कहिये!!जिस-जिसने ये किस्सा सुना ठहाके मारके हंस पड़े!!समेत विनय के!!वैसेभी विनय उसके भोलेपनसे कही बातों पे नाराज़ नही होते थे। बेटी क्योंकी तुतलाती नही थी, उसकी भोली बातोंकाभी वो अक्सर बुरा मान जाते और उस नन्ही जानको छोटी-सी उम्रमेही काफी डाँट सुननी पड़ती थी। खैर!
जैसे,जैसे अपने अतीतमे झांक रही हूँ, कई यादें उभर रही हैं। उनमेसे कुछ तो बयान कर सकती हूँ।
हम शोलापूरमे थे तबकी ये घटना है। औरंगाबाद मे स्टेट पोलिस गेम्स आयोजित किए गए थे। हम लोग बच्चों के साथ कारसे औरंगाबाद के लिए चल पड़े। रास्तेमे मेरे मायकेमे एक रात रुकनेका कार्यक्रम था। सुबह-सुबह हम फिर औरंगाबाद्के लिए चल पड़े। वहाँ से केवल डेढ़ घंटेका रास्ता था। उसी शाम एक कार्यक्रम का नियोजन किया गया था। ऐसे कार्यक्रम हमेशा औपचारिक होते हैं। हम लोग हमारे एक बडेही अंतरंग मित्र के परिवारके साथ उन्हीके घर रुके थे। बच्चों को खिलापिलाके मैंने सुला दिया, और बाहर आके समयके बारेमे एकबार इनको आगाह कर दिया। मेरा हमेशा इनसे आग्रह रहता था की रोज़ समय रहते एकबार अपनी युनिफोर्म आदी पे(जिसमे जूतेभी शामिल थे),नज़र डाल लिया करें। इस मुतल्लक किसीभी अन्य व्यक्तीपे निर्भर ना रहें, समेत मेरे। हालाँकी मैं बेहद सतर्क रहती थी। मेरे कहनेके बावजूद ये अपने मित्रों से बतियाते रहे। खैर, जब इनको एहसास हुआ की अब बोहोतही कम समय बचा है, ये तैयार होने कमरेमे चले गए। कुछ ही पलोंमे इन्हों ने मुझे आवाज़ देकर अन्दर बुलाया और पूछा," मेरे जूतों की थैली कहाँ है?"
मैंने डरते हुए कहा,"शायद कारकी डिकीमेही होगी!!शोलापूरसे चलते समय तो मैंने पक्का रखी थी !" मेरे सर्दियोंके दिन होकेभी पसीने छूट गए!!
मैं दौडके कारके पास गयी और डिकी खुलवाई। डिकी तो खाली पडी थी!!मैंने जब ड्राईवर से थैलीके बारेमे पूछा तो वो बोला की उसने तो रातको वो थैली निकालके मेरे मायकेमे, वहाँ के बरामदेमे रख दी थी!मुझे स्वयं इस बातकी कतई ख़बर नही थी!!मैंने तो उसे निकालनेके लिए कहाही नही था! मैंने तो केवल एक रात भर की ज़रूरत जितनाही समान उतरवाया था। सूखे हुए होठों से ये बात मैंने विनयको बताई। उसके बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई ये मैं अपने पाठकों के साथ बाँटना नही चाहती!!खैर! विनयने अपने मेज़बानके जूते अपने पैरोंमे किसितरह ठूंसे और हमलोग कार्यक्रमके स्थलपे पोहोंच गए। दूसरे दिन तडके एक आदमीको मेरे पीहर दौडाया गया तथा जूते बरामद हुए!!
बात जूतों की निकली तो जूतों काही एक और प्रसंग तो बेहद मजेदार है!!मतलब के अब मज़ेदार लग रहा है।
क्रमशः

Wednesday, June 11, 2008

मेरे जीवनसाथी........3

इनके गुस्सेसे जितना डरती रही उतनाही इनके कामकी प्रति लगन और प्रमाणिकतापे मुझे अभिमान है। इसके लिए मैनेभी जी-जानसे कोशिश की है। ना कभी इनसे कोई मांग की या ज़िद। हर तबाद्लेकी जगह पे ,वहाँ जो काम कर सकती, किया और खर्चेमे हाथ बटाती रही। मुझे ख़ुद इस बातका गर्व है की मैं ये कर सकी। इसकारण नई-नई कलाएँ सीखती और सिखाती रही।
बच्चों के संगोपनकी अधिकतर ज़िम्मेदारी मुझपरही रही। जब कभी मुझे माइग्रेन का atttack आता मैं पेनकिलर इंजेक्शन ले लेती और बच्चों कोभी नींद की दवाई देके सुला देती!!कभी,कभी मेरी बेटी पे उल्टा असर होता!!वो ज़्यादाही चंचल हो उठती!!
सेन्ट्रल गवर्नमेंट मे कुछ आठ नौ साल गुज़ारनेके बाद इन्हे फिर अपने काडर मे ...महाराष्ट्र मे, बुलाया गया और हमारा औरंगाबाद तबादला हो गया। इसके २/३ साल पहलेसे विनयजी ने गोल्फ खेलना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू मे जब बच्चे बीमार होते और और मुझे घरमे कुछ देर इनकी ज़रूरत होती,फिरभी ये अपने समयपे गोल्फ किट उठाके चल देते तो मुझे बड़ा दुःख होता। बादमे मैंने समझौता कर लिया और आदीभी हो गयी।
इनका हर दिन अति व्यस्त रहता। इसलिए मैंने अपने अलग शौक़ पैदा करना शुरू किया। कभी पाक कलाके वर्ग चलाती,कभी बोनसाई की कला सिखाती तो कभी पेच वर्क की चादरें बनाती। कभी कढाई,पेंटिंग आदी तकनीकों का मेल करके तस्वीरें बनाती, जो काफी सराही जाती हैं। घरका सारा फर्नीचर बोहोत सस्तेमे,सॉ मिल से लकडी लाके मैनेही बनवा लिया।
हमारे सहजीवन मे सबसे ज़्यादा कठिन बात जो मुझे लगी और लगती है वो इनका मूड संभालना!!जब हम कभी बाहर जानेवाले होते, और ये कह देते,"वाह! बड़ी जांच रही हो," तो समझो मूड ठीक है। ऐसे मौके बोहोत कम होते पर इन्ही मौकों पे मैं कभी कभार अपने मनकी बात या बच्चों के मुतल्लक कोई बात, इनसे कह पाती। इनके गुस्सेसे बच्चे या इनके सहकारी भी बोहोत डरते। विनय मुँह से कभी ज़ोरदार 'ओये" निकलता तो हमारा कुत्ता झट पलंग के नीचे घुस जाता, अर्दली अपनी जगसे उठके ठीकसे खडा हो जाता, बेटा अपने मुँह से अंगूठा निकाल, जहाँ होता वहीं पे खडा हो जाता, बेटी अपने हाथकी सब चीज़ें छोड़ सहम के दीवारसे सट जाती, और मैं धीरेसे पूछती," क्या हुआ? कुछ चाहिए आपको?"
ये सभीको मांगे-बिनमांगे सलाह मशविरा देते हैं पर इन्हे कोई कुछ नही कह सकता!!इन्हे किसीने सलाह दी हो ऐसी एकही मज़ेदार घटना याद है मुझे। मेरी छोटी बेहेन अपने दो-ढाई साल के बेटेको लेके हमारे पास कुछ दिनों के लिए आयी थी। मैं सिर दर्द के कारण लेटी हुई थी और मेरे सिरहाने बैठके मेरी बाई मेरा सिर दबा रही थी। हम तब शोलापूरमे थे। विनय ऑफिस जानेकी तैय्यारी मे आईने के आगे खड़े कंघी कर रहे थे। तभी मेरी बेहेनका बेटा हमारे कमरेमे आया और इनसे मुखातिब होके बोला,"मैं ये पेन ले लूँ?"
इन्हों ने कहा,"अबे, लेले...."
उसने फिर अपना सवाल दोहराया,"मैं ये पेन ले लूँ?'
इन्हों ने चिढ़कर फिर इसी तरह जवाब दिया! उसने चौथी बार अपना सवाल दोहराया, तब इन्हों ने बोहोत ज़्यादा चिडके कहा,"अबे कितनी बार कहूँ, लेले??बार, बार पूछ्ताही चला जा रहा है....एक बारमे समझ नही आता!!"
अब बच्चा बोला," आप ठीकसे जवाब दीजिये ना!कहिये, हाँ! लेलो बेटा, इसतरह से जवाब देना चाहिए!"हैरत से इनकी कंघी हवा मे रुक गयी और मेरा सिर दबाने वाली महिला पलंग के नीचे मुँह छुपाके अपनी हँसी रोकने लगी!
क्रमशः

मेरे जीवनसाथी: 2

मेरा और विनयजी का परिचय होके कुछ दो महीने गुज़रे होंगे कि उनका तबादला दिल्ली मे, डेप्युटेशन पे हो गया। उन्हें दिल्ली जाना था। मेरी माँ ने हमारे दिलकी बात भाँप ली थी। हम दोनोने तो आपसमे कुछ कहा नही था,लेकिन माँ ने सीधा सवाल कर दिया!!मेरे परिवारसे विरोधका कोई सवाल ही नही था। मेरी परवरिश केवल एक हिन्दुस्तानी के भाँती हुई थी, लेकिन जानेसे पहले विनय ने मुझे आगाह कर दिया कि वे अपनी माँ की मर्जी के ख़िलाफ़ एक क़दम भी नही उठाएंगे। उन्होंने मुझे और मेरी माँ को अपने परिवारवालों से मिलने दिल्ली बुलाया। हम दोनों गए। उनके घरका वातावरण काफी रूढीवादी था, जबकि मेरे संस्कार बिलकुल अलग थे। ये फर्क माँ को प्रखरता से महसूस हुआ। ऐसा नही के मुझे नही हुआ। मनमे एक डर तो पैदा होही गया, पर मैं उनके घरके सभी रीती-रिवाज अपनाने को तैयार थी। उनके घरमे नौकर चाकर रखनेकी हैसियत नही थी, और मैं घरका हर छोटा बड़ा काम करनेके लिए तैयार थी। मुझे किसीभी काम की कोई शर्म महसूस नही होती थी। मुझे यही सिखाया गया था। आगे चलके ज़िन्दगीमे ये एहसास हुआ कि, ये सब बांते इतनी आसान नही होती,जितनाकी हम सोंचते हैं। बरसों बाद हमारी शादीकी वर्ष गाँठ पे मैंने अपने दोस्तों से हँसते-हँसते कहा कि प्यार केवल अंधा नही होता, गूंगा बेहराभी होता है!!वाकई, इस ब्याह्को लेके मैंने हर इशारा जो खतरेकी ओर अंगुली निर्देश करता था, मैंने नज़रअंदाज़ कर दिया था!एक पुर खतर राह्पे निकल पडी थी!!जवानी का जोश था....उम्र की कमसिनता !!
हम दोनोकी उम्र का फासला भी तकरीबन ८/९ सालका था!वैसे ये बात शादीकी सफल-असफलतामे कोई मायने नही रखती!
दिल्लीमे हुई उस भेंट की एक और बात मुझे याद है(वैसे तो कई बांते याद हैं...)। विनय मुझे लेके एक होटेलमे गए । मुझसे क्या लोगी पूछा, तो मैंने संतरे का ताज़ा रस माँगा!तबतक मुझे चाय, कोफ़ी, इतर पेय,जैसेकि कोका कोला आदी मेसे किसीभी चीज़की आदत नही थी। वहाँ ताज़ा-ताज़ा किसीभी फलका रस नही था!इन्होने मेरे लिए कोका कोला मँगवाया। मैं पहली बार उसे चख रही थी!एक घूँट लिया ना लिया कि मेरा ज़रूर बुरासा मुह बना होगा क्योंकि विनयने तत्काल मुझे डांटते हुए कहा,"ख़त्म करो उसे"!और जैसे कोई डरा हुआ बच्चा घटाघट दूध पी जाता है, मैंने वो ख़त्म किया!!जब इन चीजों की आदत हुई, तबतक ये सारी चीज़ें सहतके लिए कितनी हानिकारक होती हैं, ये पता चला!!खैर माँ और मैं लौट आए।
दोनों परिवारों के बीच विचारों का काफी आदान-प्रदान पत्रों द्वारा होता रहा। क़रीब डेढ़ सालके पश्चात हमारा रजिस्टर पद्धती से विवाह हुआ।खेतमे ,खुली हवामे बने घरसे निकल मैं दिल्लीके, एक आठवें मंजिलके फ्लैट मे आ गयी। उसमे केवल एक शयन कक्ष था। यहींसे हमारे खट्टे मीठे सहजीवन का आरंभ हुआ, जिसमे अन्य परिवारवाले भी शामिल थे। सच ही कहा था दादी ने...हिन्दुस्तान मे (मैं उस ज़मानेकी बात कर रही हूँ),लडकी का ब्याह सिर्फ़ एक व्यक्ती से नही होता, पूरे परिवार से होता है। अपने हाथों से कुछ गलती ना हो, इस बारेमे मैं हरदम सतर्क रहती थी।
शादीके कुछ ही दिनों बाद्की एक घटना मुझे याद आ रही है। इनके वास्ते सुबह मैंने नाश्ते के लिए अंडा तला ....बिलकुल उसी तरह जैसे कि मेरे मायकेमे तला जाता था। यहाँ तो तवाही था। फ्रायिंग pan तो था नही। टोस्टर भी नही था। मैंने तवेपेही ब्रेड सेकी और मक्खन लगाके इनके आगे प्लेट रखी। तभी घंटी बजी और कार पूलके अन्य तीन सदस्य घर मे आ खड़े हुए। (विनय को ये आदत अब भी है कि एकदम आख़री घड़ी तैयार होते हैं)!
इन्हों ने उस तले हुए अन्डेको एक नज़र देखा और और प्लेट परे खिसकाकर बोले,"ये अन्डेका क्या हाल बना रखा है तुमने?इतनी खुरचन किसलिए है? तुम्हें एक अंडा तलना नही आता?"
और बिना कुछ खाए ये चले गए। मुझे उन गैर लोगों के सामने इनकी डांट सुनना बडाही अपमानास्पद लगा। मेरी आँखें भर आयीं और अपना प्यारभरा नैहर बेहद याद आने लगा। खैर! दिन महीनोमे और महीने सालोंमे तबदील होते गए। अलग-अलग जगह हमारे तबादले होते रहे। घरमे बच्चों का आगमन हुआ। इसीके साथ हमारे सहजीवन मे कई उतार चढाव आते रहे।
क्रमशः

Tuesday, June 10, 2008

मेरे जीवनसाथी....1

विनयजी से मेरा परिचय हुआ तब मैं एम्. ए का प्रथम वर्ष पूरा कर चुकी थी। छात्रावास मे रहके पढ़ती थी,सो परीक्षाके के बाद अपने गांवके घर लौटी। आके पता चला की हमारे तालुके की जगह एक IPS अफसरकी पोस्टिंग हुई है। मेरे दादा-दादी तथा मेरे माँ-पिताजिका उनसे पहलेही परिचय हो चुका था। मेरे पिताजी किसी कामसे इस नए आए अफसरसे मिलने गए थे। वे दिल्ली विद्यापीठ्के,सेंट स्टीफंस कोलेजसे स्नातक हो चुके थे। विनयजी थे हिंदू कॉलेज से थे। उन्होंने राज्यशात्र एम् ए किया था पिताजी थे इंग्लिश साहित्य के एम्.ए. पिताजी के अस्खलित इंग्लिश भाषासे विनयजी काफी प्रभावित हुए। किसी छोटेसे गाँव का एक किसान इंग्लिश भाषाकी इतनी जानकारी रखता होगा इस बातसे उन्हें काफ़ी अचरज हुआ। इस पार्श्व भूमीपर हमारे परिवारका उनसे परिचय हुआ। मेरा परिवार बडाही उदार मतवादी मुस्लिम परिवार था/है। उस समय विनय के किसी परिवालोंसे हमारा मिलनेका इत्तेफाक नही हुआ था। उनका परिवार देहलीमे था। मंझले भाई जो आर्मी मी थे,जयपुर पोस्टेड थे। बड़े भी देहलीमे एक बैंक मी काम करते थे।उनके माँ-पिताजी कभी आर्मी वाले बेटेके साथ रहते तो कभी देहलीमे सबसे बड़े बेटेके साथ। भारत-पाकिस्तान के दुभाजन मी उनका काफी कुछ खो गया था। माता पिता अपने बच्चों परही निर्भर थे,जब बच्चे कमाने लायक हुए। ये सब मुझे धीरे पता चलता गया।
मैं पहली बार विनयजी से मिली तो उन्हीके सरकारी निवास स्थानपे पे।चार लकडी के बून्धें, चार मेटल की कुर्सियाँ,और एक टेबल। बैठक मी बस इतनाही फर्नीचर था। बेडरूम मी क्या था ये बातों-बातों मी हमे बताया गया। एक खुला लकडी का रैक और एक निवाड़ का पलंग...बस इतनाही।खैर!!पहली मुलाक़ात के दिन(मेरी पहली मुलाक़ात)हमारे सामने अनारका रस रखा गया। अनार खानेमे तो मुझे पसंद था, लेकिन उसका रस नही। वोभी बीज के साथ पिसा हुआ,और अनारभी पूरे पके हुए नही!!वो रस मेरे गलेके नीचे उतर नही रहा था!!किसितरह से ख़त्म किया। किसी पुलिसवाले से ये मेरा पहला encounter था।!!

Sunday, June 8, 2008

रोई आँखें मगर....5

मेरे ब्याह्के कई वर्षों बाद एक बार मैं अपने मायके आई थी कुछ दिनोके लिए। शयनकक्ष से बाहर निकली तो देखा बैठक मे दादाजी के साथ एक सज्जन बैठे हुए थे। दादा ने झट से कहा,"बेटा, इन्हे प्रणाम करो!'
मैंने किया और दादाजी से हँसके बोली,"दादा अब मेरी उम्र चालीस की हो गई है! आप ना भी कहते तो मैं करती!"
दादा कुछ उदास,गंभीर होके बोले,"बेटा, मेरे लिए तो तू अब भी वही चालीस दिनकी है, जैसा की मैंने तुझे पहली बार देखा था, जब तुझे लेके तेरी माँ अपने मायके से लौटी थी....!!"
मेरे दादा -दादी गांधीवादी थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम मे भाग लिया था तथा जब गांधीजी ने युवा वर्ग को ललकारा की वे ग्राम सुधार मे तथा ग्राम जागृती मे लग जाएं, तो दोनों मुम्बई का मेहेलनुमा,संगेमरमर का पुश्तैनी मकान छोड़ गाँव आ बसे और खेती तथा ग्राम सुधार मे लग गए। गाँव मे कोई किसी भी किस्म की सुविधा नही थी। दोनों को जेलभी आना जाना पड़ता था, इसलिए उन्होंने उस ज़मानेमे परिवार नियोजन अपनाकर सिर्फ़ एकही ऑलाद को जन्म दिया, और वो हैं मेरे पिता। मुझे मेरे दादा-दादी पे बेहद गर्व रहा है। उन्हें लड़कीका बड़ा शौक़ था। मेरे जन्म की ख़बर सुनके उन्हों ने टेलेग्राम वालेको उस ज़मानेमे, खुश होके १० रुपये दे दिए!!वो बोला ,आपको ज़रूर पोता हुआ होगा!!
उनके अन्तिम दिनोंके दौरान एकबार मैं अपने पीहर गयी हुई थी। अपनी खेती की जगह जो एकदम बंजर थी(उसके छायाचित्र मैंने देखे थे),उसको वाकई उन्होंने नंदनवन मे परिवर्तित कर दिया था। एक शाम उन्होंने अचानक मुझसे एक सवाल किया,"बेटा, तुझे ये जगह लेनेका मेरा निर्णय कैसा लगा?"
ना जाने मेरे दिलमे उस समय किस बातकी झुन्ज्लाहट थी,मैं एकदमसे बोल पडी,"निर्णय कतई अच्छा नही लगा, हमे स्कूल आने जाने के लिए कितने कष्ट उठाने पड़ते थे, और...."ना जाने मैंने क्या-क्या बक दिया। वे बिलकूल खामोश हो गए। मुझे तुरंत उनकी क्षमा मांगनी चाहिए थी, लेकिन मैंने ऐसा नही किया।दूसरे दिन मैं वापस लौट गयी। उन दिनों हमलोग मुम्बई मे थे। बादमे मैंने सोचा, उन्ह्ने एक माफी का ख़त लिख दूंगी। लिखा भी। लेकिन पोस्ट लिया उसी दिन उनके देहान्तकी ख़बर आयी। जिस व्यक्ती ने मेरे लिए इतना कुछ किया था, उसी व्यक्ती को मैंने उनके अन्तिम समयमे ऐसे कटु शब्द सुना दिए! क्या हासिल हुआ मुझे!मैं अपनी ही निगाहोंमे ख़ुद गिर गयी।
जबतक हमलोग मेरे पीहर पोहोंचे, उनकी अर्थी उठ चुकी थी। वे बेहद सादगी से अपना अन्तिम कार्य करना चाहते थे। अपने लिए खडी का कफ़न दोनोहीने पहलेसे लेके रखा हुआ था। पर जब शेहेर और गाँव वालों को उनके निधन की वार्ता मिली, तो सैकडों लोग इकट्ठा हो गए। हर जाती-पाती के लोगोंने कान्धा दिया। एक नज्म है,"मधु" के नामसे लिखनेवाले शायर की, जो दादी सुनाया करती थी,"मधु"की है चाह बोहोत, मेरी बाद वफात ये याद रहे,खादीका कफ़न हो मुझपे पडा, वंदेमातरम आवाज़ रहे,मेरी माता के सरपे ताज रहे"।
उनकी मृत्यु जिस दिन हुई, वो उनकी शादी की ७२वी वर्ष गाँठ थी। जिस दिन उन दोनों का सफर साथ शुरू हुआ उसी दिन ख़त्म भी हुआ।
मेरी दादी के मुंह से मैंने अपनी जिन्दगीके बारेमे कभी कोई शिकायत नही सुनी। मेहेलसे आ पोहोंची एक मिट्टी के घरमे, जहाँ पानी भी कुएसे भरके लाना होता था,ना वैद्यकीय सुविधाएं,ना कोई स्कूल,ना बिजली....अपने इकलौते बेटेको सारी पढाई होने तक दूर रखना पड़ा। उन्हें राज्यसभाका मेंबर बननेका मौक़ा दिया गया,लेकिन उन्होंने अपने गाँव मेही रहना चाहा।
दादाजी के जानेके बाद दो सालके अन्दर-अन्दर दादी भी चल बसी। जब वे अस्पताल्मे थी, टैब एकदिन किसी कारण ५/६ नर्सेस उनके कमरेमे आयी। उन्होंने दादी से पूछा," अम्मा आपको कुछ चाहिए?"
दादी बोली," मुझे तुम सब मिलके "सारे जहाँसे अच्छा,हिंदोस्ता हमारा,ये गीत सुनाओ!"
सबने वो गीत गाना शुरू किया। गीत ख़त्म हुआ और दादी कोमा मे चली गयी। उसके बाद उन्हें होश नही आया।
इन दोनोने एक पूरी सदी देखी थी। अब भी जब मैं पीहर जाती हूँ तो बरामदेमे बैठे वो दोनों याद आते हैं। एक-दूजे को कुछ पढ़ के सुनाते हुए, कभी कढाई करती हुई दादी, घर के पीतल को पोलिश करते दादा.....मेरी आँखें छलक उठती हैं....जीवन तो चलता रहता है....मुस्कुराके...या कभी दिलपे पत्थर रखके,जीनाही पड़ता है....
पर जब यादें उभरने लगती हैं,बचपनकी,गुज़रे ज़मानेकी तो एक बाढ़ की तरह आतीं हैं.....अब उन्हें रोक लगाती हूँ, एक बाँध बनाके।
समाप्त

Saturday, June 7, 2008

रोई आँखे मगर.....4

दादीअम्मा जब ब्याह करके अपनी ससुराल आई,तो ज्यादा अंग्रेज़ी पढी-लिखी नही थी, लेकिन दादाके साथ रहते,रहते बेहद अच्छे-से ये भाषा सीख गयीं। इतनाही नही, पूरे विश्वका इतिहास-भूगोलभी उन्होंने पढ़ डाला। हमे इतने अच्छे से इतिहास के किस्से सुनाती मानो सब कुछ उनकी आंखोंके सामने घटित हुआ हो!उनके जैसी स्मरण शक्ती विरलाही होती है। उर्दू शेरो-शायरीभी वे मौका देख, खूब अच्छे से कर लेती। दादा-दादी मे आपसी सामंजस्य बोहोत था। वे एकदूसरे का पूरा सम्मान करते थे और एक दूसरेकी सलाह्के बिना कोई निर्णय नही लेते।
जब मैने अंतरजातीय ब्याह करनेका निर्णय लिया तो एक दिन विनय के रहते उन्होंने मुझे अपने पास लेकर सरपे हाथ फेरा और सर थपथपाया, मानो वो कहना चाह रहे हॉं, कांटा भी ना चुभने पाये कभी, मेरी लाडली तेरे पाओंमे, और तब मैने चुनी राह पर कितने फूल कितने कांटें होंगे,ये बात ना वो जानते थे ना मैं! फ़िर उन्होंने विनयजीका हाथ अपने हाथोंमे लिया और देर तक पकड़े रखा, मानो उनसे आश्वासन मांग रहे हॉं की तुम इसे हरपल नयी बहार देना।
मेरी दादी badminton और लॉन टेनिस दोनों खेलती थीं। एक उम्र के बाद उन्हें गठियाका दर्द रेहनेके कारण ये सब छोड़ना पडा। मेरे ब्याह्के दो दिन पहले मैने हमारे पूरे खेतका एक चक्कर लगाया था। वहाँ उगा हर तिनका, घांसका फूल, पेड़, खेतोंमे उग रही फसलें मैं अपने ज़हेन मे सदाके लिए अंकित कर लेना चाहती थी। लौटी तो कुछ उदास-उदास सी थी। दादीअम्माने मेरी स्थिती भांप ली। हमारे आँगन मे badminton कोर्ट बना हुआ था। मुझसे बोलीं,"चल हम दोनों एकबार badminton खेलेगे।"
उस समय उनकी उम्र कोई चुराहत्तर सालकी रही होगी। उन्होंने साडी खोंस ली, हम दोनोने racket लिए और खेलना शुरू किया। मुझे shuttlecock जैसे नज़रही नही आ रहा था। आँखोके आगे एक धुंद -सी छा गयी थी।हम दोनोने कितने गेम्स खेले मुझे याद नही, लेकिन सिर्फ़ एक बार मैं जीती थी।
उनमे दर्द सहकर खामोश रेहनेकी अथाह शक्ती थी। उनके ग्लौकोमा का ओपरेशन कराने हम पती-पत्नी उन्हें हमारी पोस्टिंग की जगाह्पे ले आए। वहाँ औषध -उपचार की बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थी। दादी की उम्र तब नब्बे पार कर चुकी थी, इसलिए सर्जन्स उन्हें जनरल अनेस्थिशिया नही देना चाहते थे। केवल लोकल अनेस्थेशिया पे सर्जरी की गयी। मेरे पतीभी ओपरेशन थिअटर मे मौजूद थे। दादीअम्माने एक दो बार डॉक्टर से पूछा ,"और कितनी देर लगेगी?"
डॉक्टर हर बार कहते,"बस, और दस मिनिट्स..."
अंत मे वो बोली,"आप तो घंटें भरसे सिर्फ़ दस मिनिट कह रहे हैं।"
खैर, जब ऑपरेशन पूरा हुआ तो पता चला की, लोकल अनेस्थिशिया का उनपे कतई असर नही हुआ था!सर्जन्स भी उनका लोहा मान गए। जब दूसरी आँख की सर्जरी थी तब भी वे मुझसे सिर्फ़ इतना बोली,"बेटा, इस बार जनरल अनेस्थिशिया देके सर्जरी हो सकती है क्या? पहली बार मुझी बोहोत दर्द हुआ था।"!
बस, इसके अलावा उनको हुई किसी तकलीफ का उन्होंने कभी किसी से ज़िक्र नही किया।
अपूर्ण

रोई आँखे मगर....3

मुझे गर्मियोंकी छुट्टी की वो लम्बी-लम्बी दोपहारियां याद है, जब हम बच्चे ठंडक ढूँढ नेके लिए पलंगके नीचे गीला कपड़ा फेरकर लेटते थे। कभी कोई कहानीकी किताब लेकर तो कभी ऐसेही शून्यमे तकते हुए। चार साढे चार बजनेका इंतज़ार करते हुए जब हमे बाहर निकलनेकी इजाज़त मिलती। मेरी दादीको उनके भाईने एक केरोसीनपे चलनेवाला फ्रिज दिया था। वे हमारे लिए कुछ ठंडे व्यंजन बनाती, उनमेसे एकको "दूधके फूल" कहती। फ्रिजमे दूध-चीनी मिलके जमती और फिर उसे खूब फेंटती जाती, उसका झाग हमारे गिलासोंमे डालती और खालिहानसे लाई गेहुँकी "स्ट्रा" से हम उसे पीते। खेतमे बहती नेहरमे डुबकियां लगाते,आमका मौसम तो होताही। माँ हमे आम काटके देती और नेहरपे बनी छोटी-सी पुलियापे बिठा देती। हमलोग ना जाने कितने आम खा जाते!!तब मोटापा नाम की चीज़ पता जो ना थी!!माँ और दादी हम दोनों बेहनोके लिए सुंदर-सुंदर फ्रोक सिया करती। दादी द्वारा मेरे लिए कढाई करके सिला हुआ एक फ्रोक अबबभी मैंने संभाल के रखा है।छुट्टी के दिन,जैसे के हर रविवार को, माँ आवला, रीठा तथा सीकाकायी से हमारे बाल धोती।फिर लोबानदान मे जलते कोयलोंपे बुखुर और अगर डालके उसके धुएंसे हमारे बाल सुखाती। उसकी भीनी-भीनी खुशबू आजभी सांसोंमे रची-बसी है।
यादोंकी नदीमे जब घिरके हम हिचकोले खाते हैं, तो उसका कोई सिलसिला नही होता। जिस दिन जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु हुई थी, मुझे याद है,उनकी अन्तिम यात्राका आंखों देखा हाल आकाशवाणी पे सुनके मैं जारोज़ार रोई...कमेंटेटर के साथ-साथ। उस दिन भयानक तूफान आया था। हमारे खेतके पुराने,पुराने पेड़ उखड के गिर पड़े थे, मोटी,मोटी डालें टूट गयी थी, मानो सम्पूर्ण निसर्ग मातम मना रहा हो। ये तूफान पूरे देशमे आया था उस दिन।
औरभी कैसी -कैसी यादें उमड़ रही हैं!!जब कॉलेज की पढाई के लिए मैं गाँव छोड़ शहर गयी तो दादीअम्मा के कंप कपाते होंठ और आंखों से बहता पानी याद आ रहा है।याद आ रही उनकी बताई एक बडीही र्हिदयस्पर्शी बात। जब मैं केवल तीन सालकी थी, तब मेरे पिता आन्ध्र मे फलोंका संशोधन करनेके लिए मेरे और माके साथ जाके रहे थे। हम तीनो चले तो गए,लेकिन किसी कारन कुछ ही महीनोमे लौटना पडा। जब मैं थोडी बड़ी हुई तो दादीअम्मा ने बताया की हम लोगोंके जानेके बाद वे और दादाजी सूने-से बरामदेमे बैठ के एक दूसरेसे बतियाते थे और कहते थे अगर ये लोग लौट आए तो मैं मेरी पोती को गंदे पैर लेके पलंग पे चढ़ने के लिए कभी नही गुस्सा करूंगा , ....इन साफ सुथरी चद्दरों से तो वो छोटे-छोटे मैले पैरही भले!!घर के कोने-कोनेसे उसकी किलकारिया सुनायी पड़ती हैं.....!!!
अपूर्ण

Friday, June 6, 2008

रोई आँखे मगर....2

दादा मेरे साथ खूब खेला करते थे। वो मेरे पीछे दौड़ते और हम दोनों आँखमिचौली खेलते। मैं पेडोंपे चढ़ जाया करती और वो हार मान लेते। सायकल चलाना उन्ह्नोनेही मुझे सिखाया और बादमे कारभी।और सिखाई वक्त की पाबंदी, बडोंकी इज्ज़त करना और हमेशा सच बोलना, निडरता से सच बोलना। बाकी घरवालोनेभी यही सीख दी। हम गलतीभी कर बैठते, लेकिन उसे स्वीकार लेते तो डांट नही बल्कि पीठ्पे थप-थपाहट मिलती। निडरता से सच बोलनेकी सीखपे चलना मुश्किल था। कई बार क़दम डगमगा जाते, झूठ बोलके जान बचा लेनेका मोह होता, लेकिन हमेशा दादा याद आते,उनके बोल याद आते की जब कोई इंसान मृत्युशय्या पे हो तो उसके दिलमे कोई पश्चाताप नही होना चाहिए। इसी बातपे मुझे बचपन की एक घटना याद आयी। हम तीनो भाई-बेहेन स्टेट ट्रांसपोर्ट की बस से स्कूल आया जाया करते थे। एक दिन माँ ने हिदायत देके स्कूल भेजा मुझे की शामको शायद हमारी कार शेहेर आयेगी। अगर एक विशिष्ट जगह्पे कार दिखे तो छोटे भाईको बस स्टेशन पे ठीक से देख लेना तथा उसे साथ लेके आना। ना जाने क्यों, उस भीड़ भरी जगह्पे मैंने बोहोतही सरसरी तौरसे नज़र दौडाई और कारमे बैठ के घर आ गयी। माँ के पूछ्नेपे कहा की, मैंने तो ठीकसे देखा, राजू वहाँ नही था। माँ को शंका हुई की कही बेटा किसी बुरी संगतमे तो नही पड़ गया??जब देर शाम भाई बस से घर लौटा तो माँ ने उससे सवाल किया की वो शाम को बस स्टेशन पे नही था ...कहाँ गया था??उसने बताया की, वो तो बस स्टेशन पे ही था। माने उसे चांटा लगाया। उसने मासे कहा,"माँ तुम चाहो तो मुझे मारो,लेकिन मैं वहीं पे था...बल्कि मैंने दीदी को देखाभी....इससे पहले की मैं उनतक जाता,वो चली गयी...."। माने मेरी तरफ़ मुखातिब होके कहा,"तुमने राजूको ठीकसे देखा था?"
मेरी निगाहें झुक गयी। मुझे अपने आपपे बेहद शर्मिन्दगी महसूस हुई। आजभी जब वो घटना याद आती है तो मेरी आँखें भर आती हैं।
एकबार दादा से रूठ्के मैं पैदलही स्कूल निकल पडी। तब मेरी उम्र होगी कुछ दस- ग्यारह सालकी। स्कूल तकरीबन आठ किलोमीटर दूर था। दादाजीने अपनी सायकल उठायी और मेरे साथ-साथ चलने लगे। क़रीब दो-तीन किलोमीटर चल चुके तो एक बस आयी। बसका चालक दादाजीको जानता था। उसने मुझसे बसमे बैठने के लिए खूब मनुहार की ,लेकिन मैं थी की रोती जा रही थी,और अपनी ज़िद्पे अडी हुई थी। अन्तमे दादाजीने उसे जानेके लिए कह दिया। मैं पैदल चलकेही स्कूल पोहोंची।जब शाम मे स्कूल छूटी तो मैं बस स्टेशन के लिए निकल पडी। थोडीही दूरपे एक छोटी-सी पुलियापर दादाजी मेरा इंतज़ार कर रहे थे!!दिनभर के भूके-प्यासे!!बोले,"अब तुझे बसमे बिठाके मैं सायकल से घर आऊँगा।" मुझे आजतक इस बातपे ग्लानी होती है....काश.....काश,मैं इतनी जिद्दी ना बनी होती....!
अपूर्ण

रोई आँखें मगर.......

मई महीनेकी गरमी भरी दोपहर थी। घर से कही बाहर निकलने का तो सवालही नही उठता था। सोचा कुछ दराजें साफ कर लू। कुछ कागजात ठीकसे फाइलोमे रखे जाएं तो मिलनेमे सुविधा होगी। मैं फर्शपे बैठ गई औरअपने टेबल की सबसे निचली दराज़ खोली। एक फाइलपे लेबल था,"ख़त"। उसे खोलके देखने लग गई और बस यादोंकी नदीमे हिचकोले खाने लगी।वो दिन १५ मई का था .......दादाजीका जन्म दिन....!!!
पहलाही ख़त था मेरे दादाजीका बरसों पहले लिखा हुआ!!!पीलासा....लगा,छूनेसे टूट ना जाय!!बिना तारीख देखे,पहलीही पंक्तीसे समझ आया की ये मेरी शादीके तुरंत बाद उन्होंने अपनी लाडली पोतिको लिखा था!! कितने प्यारसे कई हिदायतें दी थी!!!"खाना बनते समय हमेशा सूती साड़ी पहना करो...."!"बेटी, कुछ ना कुछ व्यायाम ज़रूर नियमसे करना....सेहेतके लिए बेहद ज़रूरी है....."!मैंने इन हिदायतोको बरसों टाल दिया था। पढ़ते,पढ़ते मेरी आँखें नम होती जा रही थी.....औरभी उनके तथा दादीके लिखे ख़त हाथ लगे...बुढापे के कारन कांपते हाथोसे लिखे हुए, जिनमे प्यार छल-छला रहा था!! ये कैसी धरोहर अचानक मेरे हाथ लग गई,जिसे मैं ना जाने कब भुला बैठी थी!!ज़हन मे सिर्फ़ दो शब्द समा गए ..."मेरा बाबुल"..."मेरा बचपन"!!
बाबुल.....इस एक लफ्ज्मे क्या कुछ नही छुपा? विश्वास,अपनत्व,बचपना,और बचपन,किशोरावस्था और यौवन के सपने,अम्मा-बाबाका प्यार, दादा-दादीका दुलार,भाई-बेहेनके खट्टे मीठे झगडे,सहेलियों के साथ बिताये निश्चिंत दिन, खेले हुए खेल, सावनके झूले, रची हुई मेहँदी, खट्टी इमली और आम, सायकल सीखते समय गिरना, रोना, और संभालना, बीमारीमे अम्मा या दादीको अपने पास से हिलने ना देना, उनसे कई बार सुनी कहानियाँ बार-बार सुनना, लकडी के चूल्हेपे बना खाना और सिकी रोटियां, लालटेन के उजालेमे की गई पढाई, क्योंकि मेरा नैहर तो गाँव मे था...बल्कि गांवके बाहर बने एक कवेलू वाले घरमे ,जहाँ मेरे कॉलेज जानेके बाद किसी समय बिजली की सुविधा आई थी। सुबह रेहेट्की आवाज़से आँखें खुलती थी। रातमे पेडोंपे जुगनू चमकते थे और कमरोंमेभी घुस आते थे जिसकी वजहसे एक मद्धिम-सी रौशनी छाई रहती।
अपूर्ण