Dharohar .jpg 98 |
Tuesday, June 15, 2010
Thursday, June 18, 2009
शकीली बुनियादें
कभी शक बेबुनियाद निकले
कभी देखी शकीली बुनियादे
ऐसी ज़मीं कहॉ है,
जो खिसकी नही पैरोतले !
कभी खिसकी दसवें कदम पे
तो कभी कदम उठाने से पहले .....
कभी देखी शकीली बुनियादे
ऐसी ज़मीं कहॉ है,
जो खिसकी नही पैरोतले !
कभी खिसकी दसवें कदम पे
तो कभी कदम उठाने से पहले .....
Tuesday, February 17, 2009
गज़ब कानून..जारी....
(कुछ अनिवार्य वजूहात के कारण, मुझे इस बडेही महत्वपूर्ण वक्तव्यको, अपूर्ण छोड़, दूसरे हिस्सेमे लिखना पड़ रहा है....पाठकोंसे इल्तिजा है, कि इसके पहलेका हिस्सा प्रथम पढ़ें और फिर " जारी है", इसे पढ़ें !
फिर एकबार क्षमस्व ! )
जारी है, श्री शेखावत, भारत के माजी उपराष्ट्रपती के द्वारा दिए गए भाषण का उर्वरित अंश:
श्री शेखावतजी ने सभागृह मे प्रश्न उपस्थित किया," ऐसे हालातों मे पुलिसवालों ने क्या करना चाहिए ? कानून तो बदलेगा नही...कमसे कम आजतक तो बदला नही ! ना आशा नज़र आ रही है ! क़ानूनी ज़िम्मेदारियों के तहत, पुलिस, वकील, न्यायव्यवस्था, तथा कारागृह, इनके पृथक, पृथक उत्तरदायित्व हैं।
"अपनी तफ़तीश पूरी करनेके लिए, पुलिस को अधिकसे अधिक छ: महीनोका कालावधी दिया जाता है। उस कालावाधीमे अपनी सारी कारवाई पूरी करके, उन्हें न्यायालय मे अपनी रिपोर्ट पेश करनेकी ताक़ीद दी जाती है। किंतु, न्यायलय पे केस शुरू या ख़त्म करनेकी कोई समय मर्यादा नही, कोई पाबंदी नही ! "
शेखावतजीने ऐलानिया कहा," पुलिस तक़रीबन सभी केस इस समय मर्यादा के पूर्व पेश करती है!"( याद रहे, कि ये भारत के उपराष्ट्रपती के उदगार हैं, जो ज़ाहिरन उस वक्त पुलिस मेहेकमेमे नही थे....तो उनका कुछ भी निजी उद्दिष्ट नही था...नाही ऐसा कुछ उनपे आरोप लग सकता है!)
"अन्यथा, उनपे विभागीय कारवाई ही नही, खुलेआम न्यायलय तथा अखबारों मे फटकार दी जाती है, बेईज्ज़ती की जाती है!! और जनता फिर एकबार पुलिस की नाकामीको लेके चर्चे करती है, पुलिसकोही आरोपी के छूट जानेके लिए ज़िम्मेदार ठहराती है। लेकिन न्यायलय के ऊपर कुछभी छींटा कशी करनेकी, किसीकी हिम्मत नही होती। जनताको न्यायलय के अवमान के तहत कारवाई होनेका ज़बरदस्त डर लगता है ! खौफ रहता है ! "
तत्कालीन उप राष्ट्रपती महोदयने उम्मीद दर्शायी," शायद आजके चर्चा सत्र के बाद कोई राह मिल जाए !"
लेकिन उस चर्चा सत्रको तबसे आजतक ७ साल हो गए, कुछभी कानूनी बदलाव नही हुए।
उस चर्चा सत्र के समापन के समय श्री लालकृष्ण अडवानी जी मौजूद थे। ( केन्द्रीय गृहमंत्री के हैसियतसे पुलिस महेकमा ,गृहमंत्रालय के तहेत आता है , इस बातको सभी जानतें हैं)।
समारोप के समय, श्री अडवाणीजी से, (जो लोह्पुरुष कहलाते हैं ), भरी सभामे इस मुतल्लक सवाल भी पूछा गया। ना उन्ह्नों ने कोई जवाब दिया ना उनके पास कोई जवाब था।
बता दूँ, के ये चर्चा सत्र, नेशनल पुलिस commission के तहेत ( 1981 ) , जिसमे डॉ. धरमवीर ,ICS , ने , पुलिस reforms के लिए , अत्यन्त उपयुक्त सुझाव दिए थे, जिन्हें तुंरत लागू करनेका भारत के अत्युच्च न्यायलय का आदेश था, उनपे बेहेस करनेके लिए...उसपे चर्चा करनेके लिए आयोजित किया गया था। आजभी वही घिसेपिटे क़ानून लागू हैं।
उन सुझावों के बाद और पहलेसे ना जाने कितने अफीम गांजा के तस्कर, ऐसे कानूनों का फायदा उठाते हुए छूट गए...ना जाने कितने आतंकवादी बारूद और हथियार लाते रहे, कानून के हथ्थेसे छूटते गए, कितने बेगुनाह मारे गए, कितनेही पुलिसवाले मारे गए.....और कितने मारे जायेंगे, येभी नही पता।
ये तो तकरीबन १५० साल पुराने कानूनों मेसे एक उदाहरण हुआ। ऐसे कई कानून हैं, जिनके बारेमे भारत की जनता जानती ही नही।
मुम्बई मे हुए ,सन २००८, नवम्बर के बम धमाकों के बाद, २/३ पहले एक ख़बर पढी कि अब e-कोर्ट की स्थापना की जा रही है। वरना, हिन्दुस्तान तक चाँद पे पोहोंच गया, लेकिन किसी आतंक वादीके मौजूदगी की ख़बर लखनऊ पुलिस गर पुणे पुलिस को फैक्स द्वारा भेजती, तो न्यायलय उसे ग्राह्य नही मानता ...ISIका एजंट पुणे पुलिसको छोड़ देनेकी ताकीद न्यायलय ने की ! वो तो लखनऊसे हस्त लिखित मेसेज आनेतक, पुणे पुलिस ने उसपे सख्त नज़र रखी और फिर उस एजंट को धर दबोचा।
सम्पूर्ण
फिर एक बार क्षमा प्रार्थी हूँ...पिछले ६ घंटों से अधिक हो गया transliteration का यत्न करते हुए....
फिर एकबार क्षमस्व ! )
जारी है, श्री शेखावत, भारत के माजी उपराष्ट्रपती के द्वारा दिए गए भाषण का उर्वरित अंश:
श्री शेखावतजी ने सभागृह मे प्रश्न उपस्थित किया," ऐसे हालातों मे पुलिसवालों ने क्या करना चाहिए ? कानून तो बदलेगा नही...कमसे कम आजतक तो बदला नही ! ना आशा नज़र आ रही है ! क़ानूनी ज़िम्मेदारियों के तहत, पुलिस, वकील, न्यायव्यवस्था, तथा कारागृह, इनके पृथक, पृथक उत्तरदायित्व हैं।
"अपनी तफ़तीश पूरी करनेके लिए, पुलिस को अधिकसे अधिक छ: महीनोका कालावधी दिया जाता है। उस कालावाधीमे अपनी सारी कारवाई पूरी करके, उन्हें न्यायालय मे अपनी रिपोर्ट पेश करनेकी ताक़ीद दी जाती है। किंतु, न्यायलय पे केस शुरू या ख़त्म करनेकी कोई समय मर्यादा नही, कोई पाबंदी नही ! "
शेखावतजीने ऐलानिया कहा," पुलिस तक़रीबन सभी केस इस समय मर्यादा के पूर्व पेश करती है!"( याद रहे, कि ये भारत के उपराष्ट्रपती के उदगार हैं, जो ज़ाहिरन उस वक्त पुलिस मेहेकमेमे नही थे....तो उनका कुछ भी निजी उद्दिष्ट नही था...नाही ऐसा कुछ उनपे आरोप लग सकता है!)
"अन्यथा, उनपे विभागीय कारवाई ही नही, खुलेआम न्यायलय तथा अखबारों मे फटकार दी जाती है, बेईज्ज़ती की जाती है!! और जनता फिर एकबार पुलिस की नाकामीको लेके चर्चे करती है, पुलिसकोही आरोपी के छूट जानेके लिए ज़िम्मेदार ठहराती है। लेकिन न्यायलय के ऊपर कुछभी छींटा कशी करनेकी, किसीकी हिम्मत नही होती। जनताको न्यायलय के अवमान के तहत कारवाई होनेका ज़बरदस्त डर लगता है ! खौफ रहता है ! "
तत्कालीन उप राष्ट्रपती महोदयने उम्मीद दर्शायी," शायद आजके चर्चा सत्र के बाद कोई राह मिल जाए !"
लेकिन उस चर्चा सत्रको तबसे आजतक ७ साल हो गए, कुछभी कानूनी बदलाव नही हुए।
उस चर्चा सत्र के समापन के समय श्री लालकृष्ण अडवानी जी मौजूद थे। ( केन्द्रीय गृहमंत्री के हैसियतसे पुलिस महेकमा ,गृहमंत्रालय के तहेत आता है , इस बातको सभी जानतें हैं)।
समारोप के समय, श्री अडवाणीजी से, (जो लोह्पुरुष कहलाते हैं ), भरी सभामे इस मुतल्लक सवाल भी पूछा गया। ना उन्ह्नों ने कोई जवाब दिया ना उनके पास कोई जवाब था।
बता दूँ, के ये चर्चा सत्र, नेशनल पुलिस commission के तहेत ( 1981 ) , जिसमे डॉ. धरमवीर ,ICS , ने , पुलिस reforms के लिए , अत्यन्त उपयुक्त सुझाव दिए थे, जिन्हें तुंरत लागू करनेका भारत के अत्युच्च न्यायलय का आदेश था, उनपे बेहेस करनेके लिए...उसपे चर्चा करनेके लिए आयोजित किया गया था। आजभी वही घिसेपिटे क़ानून लागू हैं।
उन सुझावों के बाद और पहलेसे ना जाने कितने अफीम गांजा के तस्कर, ऐसे कानूनों का फायदा उठाते हुए छूट गए...ना जाने कितने आतंकवादी बारूद और हथियार लाते रहे, कानून के हथ्थेसे छूटते गए, कितने बेगुनाह मारे गए, कितनेही पुलिसवाले मारे गए.....और कितने मारे जायेंगे, येभी नही पता।
ये तो तकरीबन १५० साल पुराने कानूनों मेसे एक उदाहरण हुआ। ऐसे कई कानून हैं, जिनके बारेमे भारत की जनता जानती ही नही।
मुम्बई मे हुए ,सन २००८, नवम्बर के बम धमाकों के बाद, २/३ पहले एक ख़बर पढी कि अब e-कोर्ट की स्थापना की जा रही है। वरना, हिन्दुस्तान तक चाँद पे पोहोंच गया, लेकिन किसी आतंक वादीके मौजूदगी की ख़बर लखनऊ पुलिस गर पुणे पुलिस को फैक्स द्वारा भेजती, तो न्यायलय उसे ग्राह्य नही मानता ...ISIका एजंट पुणे पुलिसको छोड़ देनेकी ताकीद न्यायलय ने की ! वो तो लखनऊसे हस्त लिखित मेसेज आनेतक, पुणे पुलिस ने उसपे सख्त नज़र रखी और फिर उस एजंट को धर दबोचा।
सम्पूर्ण
फिर एक बार क्षमा प्रार्थी हूँ...पिछले ६ घंटों से अधिक हो गया transliteration का यत्न करते हुए....
एक संस्मरण !.गज़ब कानून!
( अपनी श्रीन्ख्लासे एक ब्रेक लेके इस ज़रूरी संस्मरण को लिखना चाहती हूँ...वजह है है अपने१५० साल पुराने, इंडियन एविडेंस एक्ट,(IEA) कलम २५ और २७ के तहेत बने कानून जिन्हें बदल ने की निहायत आवश्यकता है....इन कानूनों के रहते हमआतंकवाद या अन्य तस्करीसे निजाद पाही नही सकते...
इन कानूनों मेसे एक कानून के परिणामों का , किसीने आँखों देखा सत्य प्रस्तुत कर रही हूँ.....जिसपे आधारित एक सत्य घटनाका कहानीके रूपमे परिवर्तन करुँगी। डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल के अनुरोधपे " शोध दिशा" इस मासिक के लिए...)
CHRT( कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनिशिएतिव .....Commonwealth Human Rights Initiative), ये संघटना 3rd वर्ल्ड के तहेत आनेवाले देशों मे कार्यरत है।
इसके अनेक उद्दिष्ट हैं । इनमेसे,निम्लिखित अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है :
अपने कार्यक्षेत्र मे रिफोर्म्स को लेके पर्याप्त जनजागृती की मुहीम, ताकि ऐसे देशोंमे Human Rights की रक्षा की जा सके।
ये संघटना इस उद्दिष्ट प्राप्ती के लिए अनेक चर्चा सत्र ( सेमिनार) तथा debates आयोजित करती रहती है।
ऐसेही एक चर्चा सत्र का आयोजन, २००२ की अगस्त्मे, नयी देहली मे किया गया था। इस सत्र के अध्यक्षीय स्थानपे उच्चतम न्यायालयके तत्कालीन न्यायाधीश थे। तत्कालीन उप राष्ट्रपती, माननीय श्री भैरव सिंह शेखावत ( जो एक पुलिस constable की हैसियतसे ,राजस्थान मे कार्यरत रह चुके हैं), मुख्य वक्ता की तौरपे मौजूद थे।
उक्त चर्चासत्र मे देशके हर भागसे अत्यन्त उच्च पदों पे कार्यरत या अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों से ताल्लुक रखनेवाली हस्तियाँ मोजूद थीं : आला अखबारों के नुमाइंदे, न्यायाधीश ( अवकाश प्राप्त या कार्यरत) , आला अधिकारी,( पुलिस, आईएस के अफसर, अदि), वकील और अन्य कईं। अपने अपने क्षेत्रों के रथी महारथी। हर सरकारी मेहेकमेकों के अधिकारियों के अलावा अनेक गैर सरकारी संस्थायों के प्रतिनिधी भी वहाँ हाज़िर थे। (ngos)
जनाब शेखावत ने विषयके मर्मको जिस तरहसे बयान किया, वो दिलो दिमाग़ को झक झोर देने की क़ाबिलियत रखता है।
उन्होंने, उच्चतम न्यायलय के न्यायमूर्ती( जो ज़ाहिर है व्यास्पीठ्पे स्थानापन्न थे), की ओर मुखातिब हो, किंचित विनोदी भावसे क्षमा माँगी और कहा,"मेरे बयान को न्यायालय की तौहीन मानके ,उसके तहेत समन्स ना भेज दिए जाएँ!"
बेशक, सपूर्ण खचाखच भरे सभागृह मे एक हास्य की लहर फ़ैल गयी !
श्री शेखावत ने , कानूनी व्यवस्थाकी असमंजसता और दुविधाका वर्णन करते हुए कहा," राजस्थान मे जहाँ, मै ख़ुद कार्यरत था , पुलिस स्टेशन्स की बेहद लम्बी सीमायें होती हैं। कई बार १०० मीलसे अधिक लम्बी। इन सीमायों की गश्त के लिए पुलिस का एक अकेला कर्मचारी सुबह ऊँट पे सवार हो निकलता है। उसके साथ थोडा पानी, कुछ खाद्य सामग्री , कुछ लेखनका साहित्य( जैसे कागज़ पेन्सिल ) तथा लाठी आदि होता है।
"मै जिन दिनों की बात कर रहा हूँ ( और आजभी), भारत पाक सीमापे हर तरह की तस्करी, अफीम गांजा,( या बारूद तथा हथियार भी हुआ करते थे ये भी सत्य है.....जिसका उनके रहते घटी घटनामे उल्लेख नही था) ये सब शामिल था, और है।
एक बात ध्यान मे रखी जाय कि नशीले पदार्थों की कारवाई करनेके लिए ,मौजूदा कानून के तहेत कुछ ख़ास नियम/बंधन होते हैं। पुलिस कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल, या सब -इंस्पेक्टर, इनकी तहकीकात नही कर सकता। इन पदार्थों की तस्करी करनेवाले पे, पंचनामा करनेकी विधी भी अन्य गुनाहों से अलग तथा काफी जटिल होती है।"
उन्होंने आगे कहा," जब एक अकेला पुलिस कर्मी , ऊँट पे सवार, मीलों फैले रेगिस्तानमे गश्त करता है, तो उसके हाथ कभी कभार तस्कर लगही जाता है।
"कानूनन, जब कोई मुद्देमाल पकडा जाता है, तब मौक़ाये वारदात पेही( और ये बात ह्त्या के केस के लिएभी लागू है ), एक पंचनामा बनाना अनिवार्य होता है। ऐसे पंचनामे के लिए, उस गाँव के या मुहल्ले के , कमसे कम दो 'इज्ज़तदार' व्यक्तियों का उपस्थित रहना ज़रूरी है।"
श्री शेखावत ने प्रश्न उठाया ," कोईभी मुझे बताये , जहाँ मीलों किसी इंसान या पानीका नामो निशाँ तक न हो , वहाँ, पञ्च कहाँ से उपलब्ध कराये जाएँ ? ? तो लाज़िम है कि , पुलिसवाला तस्करको पकड़ अपनेही ही ऊँट पे बिठा ले। अन्य कोई चारा तो होता ही नही।
"उस तस्करको पकड़ रख, वो पुलिसकर्मी सबसे निकटतम बस्ती, जो २०/ २५ किलोमीटर भी हो सकती है, ले जाता है। वहाँ लोगोंसे गिडगिडा के दो " इज्ज़तदार व्यक्तियों" से इल्तिजा करता है। उन्हें पञ्च बनाता है।
" अब कानूनन, पंचों को आँखों देखी हकीकत बयान करनी होती है। लेकिन इसमे, जैसाभी वो पुलिसकर्मी अपनी समझके अनुसार बताता है, वही हकीकत दर्ज होती है। "पञ्च" एक ऐसी दास्तान पे हस्ताक्षर करते हैं, जिसके वो चश्मदीद गवाह नही। लेकिन कानून तो कानून है ! बिना पंचानेमेके केस न्यायालय के आधीन होही नही सकता !!
" खैर! पंचनामा बन जाता है। और तस्कर या जोभी आरोपी हो, वो पुलिस हिरासतसे जल्द छूट भी जता है। वजह ? उसके बेहद जानकार वकील महोदय उस पुलिस केस को कानून के तहेत गैरक़ानूनी साबित करते हैं!!!तांत्रिक दोष...A technical flaw !
" तत्पश्च्यात, वो तस्कर या आरोपी, फिर से अपना धंदा शुरू कर देता है। पुलिस पे ये बंधन होता है की ३ माह के भीतर वो अपनी सारी तहकीकात पूरी कर, न्यायालयको सुपुर्द कर दे!! अधिकतर ऐसाही होता है, येभी सच है ! फिर चाहे वो केस, न्यायलय की सुविधानुसार १० साल बाद सुनवाईके लिए पेश हो या निपटाया जाय....!
"अब सरकारी वकील और आरोपी का वकील, इनमे एक लम्बी, अंतहीन कानूनी जिरह शुरू हो जाती है...."
फिर एकबार व्यंग कसते हुए श्री शेखावत जी ने कहा," आदरणीय जज साहब ! एक साधारण व्यक्तीकी कितनी लम्बी याददाश्त हो सकती है ? २ दिन २ माह या २ सालकी ??कितने अरसे पूर्व की बात याद रखना मुमकिन है ??
ये बेहद मुश्किल है कि कोईभी व्यक्ती, चश्मदीद गवाह होनेके बावजूद, किसीभी घटनाको तंतोतंत याद रखे !जब दो माह याद रखना मुश्किल है तब,१० सालकी क्या बात करें ??" (और कई बार तो गवाह मरभी जाते हैं!)
" वैसेभी इन २ पंचों ने (!!) असलमे कुछ देखाही नही था! किसीके " कथित" पे अपने हस्ताक्षर किए थे ! उस " कथन" का झूठ साबित करना, किसीभी वकील के बाएँ हाथका खेल है ! और वैसेभी, कानून ने तहेत किसीभी पुलिस कर्मी के( चाहे वो कित्नाही नेक और आला अफसर क्यों न हो ,) मौजूदगी मे दिया गया बयान ,न्यायलय मे सुबूतके तौरपे ग्राह्य नही होता ! वो इक्बालिये जुर्म कहलाही नही सकता।( चाहे वो ह्त्या का केस हो या अन्य कुछ) ।(IEA ) कलम २५ तथा २७ , के तहेत ये व्यवस्था अंग्रेजों ने १५० साल पूर्व कर रखी थी, अपने खुदके बचाव के लिए,जो आजतक कायम है ! कोई बदलाव नही ! ज़ाहिरन, किसीभी पुलिस करमी पे, या उसकी बातपे विश्वास किया ही नही जा सकता ऐसा कानून कहता है!! फिर ऐसे केसका अंजाम क्या होगा ये तो ज़ाहिर है !"
(भाषण अभी अपूर्ण है....कुछ अवधीके बाद पूरा कर दूँगी। Trasnliteration काम नही कर रहा है। )क्षमा प्रार्थी हूँ !
इन कानूनों मेसे एक कानून के परिणामों का , किसीने आँखों देखा सत्य प्रस्तुत कर रही हूँ.....जिसपे आधारित एक सत्य घटनाका कहानीके रूपमे परिवर्तन करुँगी। डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल के अनुरोधपे " शोध दिशा" इस मासिक के लिए...)
CHRT( कॉमनवेल्थ ह्युमन राइट्स इनिशिएतिव .....Commonwealth Human Rights Initiative), ये संघटना 3rd वर्ल्ड के तहेत आनेवाले देशों मे कार्यरत है।
इसके अनेक उद्दिष्ट हैं । इनमेसे,निम्लिखित अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है :
अपने कार्यक्षेत्र मे रिफोर्म्स को लेके पर्याप्त जनजागृती की मुहीम, ताकि ऐसे देशोंमे Human Rights की रक्षा की जा सके।
ये संघटना इस उद्दिष्ट प्राप्ती के लिए अनेक चर्चा सत्र ( सेमिनार) तथा debates आयोजित करती रहती है।
ऐसेही एक चर्चा सत्र का आयोजन, २००२ की अगस्त्मे, नयी देहली मे किया गया था। इस सत्र के अध्यक्षीय स्थानपे उच्चतम न्यायालयके तत्कालीन न्यायाधीश थे। तत्कालीन उप राष्ट्रपती, माननीय श्री भैरव सिंह शेखावत ( जो एक पुलिस constable की हैसियतसे ,राजस्थान मे कार्यरत रह चुके हैं), मुख्य वक्ता की तौरपे मौजूद थे।
उक्त चर्चासत्र मे देशके हर भागसे अत्यन्त उच्च पदों पे कार्यरत या अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्रों से ताल्लुक रखनेवाली हस्तियाँ मोजूद थीं : आला अखबारों के नुमाइंदे, न्यायाधीश ( अवकाश प्राप्त या कार्यरत) , आला अधिकारी,( पुलिस, आईएस के अफसर, अदि), वकील और अन्य कईं। अपने अपने क्षेत्रों के रथी महारथी। हर सरकारी मेहेकमेकों के अधिकारियों के अलावा अनेक गैर सरकारी संस्थायों के प्रतिनिधी भी वहाँ हाज़िर थे। (ngos)
जनाब शेखावत ने विषयके मर्मको जिस तरहसे बयान किया, वो दिलो दिमाग़ को झक झोर देने की क़ाबिलियत रखता है।
उन्होंने, उच्चतम न्यायलय के न्यायमूर्ती( जो ज़ाहिर है व्यास्पीठ्पे स्थानापन्न थे), की ओर मुखातिब हो, किंचित विनोदी भावसे क्षमा माँगी और कहा,"मेरे बयान को न्यायालय की तौहीन मानके ,उसके तहेत समन्स ना भेज दिए जाएँ!"
बेशक, सपूर्ण खचाखच भरे सभागृह मे एक हास्य की लहर फ़ैल गयी !
श्री शेखावत ने , कानूनी व्यवस्थाकी असमंजसता और दुविधाका वर्णन करते हुए कहा," राजस्थान मे जहाँ, मै ख़ुद कार्यरत था , पुलिस स्टेशन्स की बेहद लम्बी सीमायें होती हैं। कई बार १०० मीलसे अधिक लम्बी। इन सीमायों की गश्त के लिए पुलिस का एक अकेला कर्मचारी सुबह ऊँट पे सवार हो निकलता है। उसके साथ थोडा पानी, कुछ खाद्य सामग्री , कुछ लेखनका साहित्य( जैसे कागज़ पेन्सिल ) तथा लाठी आदि होता है।
"मै जिन दिनों की बात कर रहा हूँ ( और आजभी), भारत पाक सीमापे हर तरह की तस्करी, अफीम गांजा,( या बारूद तथा हथियार भी हुआ करते थे ये भी सत्य है.....जिसका उनके रहते घटी घटनामे उल्लेख नही था) ये सब शामिल था, और है।
एक बात ध्यान मे रखी जाय कि नशीले पदार्थों की कारवाई करनेके लिए ,मौजूदा कानून के तहेत कुछ ख़ास नियम/बंधन होते हैं। पुलिस कांस्टेबल, हेड कांस्टेबल, या सब -इंस्पेक्टर, इनकी तहकीकात नही कर सकता। इन पदार्थों की तस्करी करनेवाले पे, पंचनामा करनेकी विधी भी अन्य गुनाहों से अलग तथा काफी जटिल होती है।"
उन्होंने आगे कहा," जब एक अकेला पुलिस कर्मी , ऊँट पे सवार, मीलों फैले रेगिस्तानमे गश्त करता है, तो उसके हाथ कभी कभार तस्कर लगही जाता है।
"कानूनन, जब कोई मुद्देमाल पकडा जाता है, तब मौक़ाये वारदात पेही( और ये बात ह्त्या के केस के लिएभी लागू है ), एक पंचनामा बनाना अनिवार्य होता है। ऐसे पंचनामे के लिए, उस गाँव के या मुहल्ले के , कमसे कम दो 'इज्ज़तदार' व्यक्तियों का उपस्थित रहना ज़रूरी है।"
श्री शेखावत ने प्रश्न उठाया ," कोईभी मुझे बताये , जहाँ मीलों किसी इंसान या पानीका नामो निशाँ तक न हो , वहाँ, पञ्च कहाँ से उपलब्ध कराये जाएँ ? ? तो लाज़िम है कि , पुलिसवाला तस्करको पकड़ अपनेही ही ऊँट पे बिठा ले। अन्य कोई चारा तो होता ही नही।
"उस तस्करको पकड़ रख, वो पुलिसकर्मी सबसे निकटतम बस्ती, जो २०/ २५ किलोमीटर भी हो सकती है, ले जाता है। वहाँ लोगोंसे गिडगिडा के दो " इज्ज़तदार व्यक्तियों" से इल्तिजा करता है। उन्हें पञ्च बनाता है।
" अब कानूनन, पंचों को आँखों देखी हकीकत बयान करनी होती है। लेकिन इसमे, जैसाभी वो पुलिसकर्मी अपनी समझके अनुसार बताता है, वही हकीकत दर्ज होती है। "पञ्च" एक ऐसी दास्तान पे हस्ताक्षर करते हैं, जिसके वो चश्मदीद गवाह नही। लेकिन कानून तो कानून है ! बिना पंचानेमेके केस न्यायालय के आधीन होही नही सकता !!
" खैर! पंचनामा बन जाता है। और तस्कर या जोभी आरोपी हो, वो पुलिस हिरासतसे जल्द छूट भी जता है। वजह ? उसके बेहद जानकार वकील महोदय उस पुलिस केस को कानून के तहेत गैरक़ानूनी साबित करते हैं!!!तांत्रिक दोष...A technical flaw !
" तत्पश्च्यात, वो तस्कर या आरोपी, फिर से अपना धंदा शुरू कर देता है। पुलिस पे ये बंधन होता है की ३ माह के भीतर वो अपनी सारी तहकीकात पूरी कर, न्यायालयको सुपुर्द कर दे!! अधिकतर ऐसाही होता है, येभी सच है ! फिर चाहे वो केस, न्यायलय की सुविधानुसार १० साल बाद सुनवाईके लिए पेश हो या निपटाया जाय....!
"अब सरकारी वकील और आरोपी का वकील, इनमे एक लम्बी, अंतहीन कानूनी जिरह शुरू हो जाती है...."
फिर एकबार व्यंग कसते हुए श्री शेखावत जी ने कहा," आदरणीय जज साहब ! एक साधारण व्यक्तीकी कितनी लम्बी याददाश्त हो सकती है ? २ दिन २ माह या २ सालकी ??कितने अरसे पूर्व की बात याद रखना मुमकिन है ??
ये बेहद मुश्किल है कि कोईभी व्यक्ती, चश्मदीद गवाह होनेके बावजूद, किसीभी घटनाको तंतोतंत याद रखे !जब दो माह याद रखना मुश्किल है तब,१० सालकी क्या बात करें ??" (और कई बार तो गवाह मरभी जाते हैं!)
" वैसेभी इन २ पंचों ने (!!) असलमे कुछ देखाही नही था! किसीके " कथित" पे अपने हस्ताक्षर किए थे ! उस " कथन" का झूठ साबित करना, किसीभी वकील के बाएँ हाथका खेल है ! और वैसेभी, कानून ने तहेत किसीभी पुलिस कर्मी के( चाहे वो कित्नाही नेक और आला अफसर क्यों न हो ,) मौजूदगी मे दिया गया बयान ,न्यायलय मे सुबूतके तौरपे ग्राह्य नही होता ! वो इक्बालिये जुर्म कहलाही नही सकता।( चाहे वो ह्त्या का केस हो या अन्य कुछ) ।(IEA ) कलम २५ तथा २७ , के तहेत ये व्यवस्था अंग्रेजों ने १५० साल पूर्व कर रखी थी, अपने खुदके बचाव के लिए,जो आजतक कायम है ! कोई बदलाव नही ! ज़ाहिरन, किसीभी पुलिस करमी पे, या उसकी बातपे विश्वास किया ही नही जा सकता ऐसा कानून कहता है!! फिर ऐसे केसका अंजाम क्या होगा ये तो ज़ाहिर है !"
(भाषण अभी अपूर्ण है....कुछ अवधीके बाद पूरा कर दूँगी। Trasnliteration काम नही कर रहा है। )क्षमा प्रार्थी हूँ !
लेबल:
२५० साल पुराने कानून,
उपराष्ट्रपती,
गवाह,
तस्करी,
पुलिस,
भारतीय दंड विधान
Friday, February 13, 2009
एक मनोगत......
अपने असंपादित कडीकी माफ़ी चाहती हूँ....spellings चेक नही कर पायी....और अगली कडीमे वादा है कि...उन चंद घटनायों का ब्योरा ज़रूर दूँगी...जानती हूँ, इस मालिका पढ़नेवाले हर अज़ीज़ पाठक को चंद घटनायों का इंतज़ार है...
चाहकर भी मै अधिक तेज़ीसे नही लिख पा रही हूँ..इस वक्त भी माँ परेशान हैं..कि उनके कमरेमे बैठ लिख रही हूँ...कल से कुछ कामके खातिर शेहेरसे बाहर जा रही हूँ...फिर पता नही कब लिख पाउंगी...
वैसेभी, मेरे पास पहलेसे कुछ rough लिखा हुआ नही होता...और जब अत्यधिक थक जाती हूँ तो औरभी मे गलतियाँ कर देती हूँ...जैसेकि "सहेजे" के बदले " प्रकाशित" पे क्लिक कर देती हूँ.....इस गलतीको सरिदय पाठक ज़रूर माफ़ करेंगे ऐसी आशा है....
एक अच्छा इत्तेफ़ाक है कि ऐसेमे कोई शुरुसे जुडा पाठक पोस्ट पढने नही आता...
एक बार फिरसे निवेदन है कि, इस श्रिन्खलाका मक़सद मेरे जोभी हालत हों, उनके लिए किसी एक या अनेक व्यक्तियों को दोषी ठहराना नही है...लगातार इसका स्पष्टीकरण देती आयी हूँ....अपनी बेटीकी सबसे अधिक गुनेहगार हूँ.....बेटेकी उतनी नही....चाहती हूँ, जितनी तटस्थता के साथ बयान पेश कर सकती हूँ, करुँ....अदना-सी औरत हूँ...जिसने ज़िन्दगीमे गलतियाँ की हैं...अक्सर उन्हें स्वीकार भी कर लिया है...स्वीकार नेके बादभी गर कोई माफ़ ना करे तो वो मेरी किस्मत है...हरेक का अपना, अपना नज़रिया है....
अपने परिवारको, ख़ास कर अपनी बेटीको प्राथमिकता दी है तब कई बार द्वंद हुआ है....अपनों सही...लेकिन अक्सर देर से सही, कमसे कम मेरी माँ ने साथ दिया है....और मेरी बेटीका दिया है...इसलिए मै उस क्रिया/प्रातक्रिया को मेरा साथ देनाही समझती हूँ...जानती हूँ, कि ज़िन्दगीमे हर वक्त हर किसीको कोईभी खुश नही रख सकता...और नही मुझे ये ग़लतफ़हमी कहिये या खुशफ़हमी रही आज के, मैंने किसीको ख़ुशी दी है...उस समय उस व्यक्ती ने खुश होना स्वीकार कर मुझे संतोष दिया है....
शायद अपनी बिटियाको लेके आज मै अधिक भावुक हूँ...क्यों के उसके प्रती हुए अन्याय को हर गुज़रते दिनके साथ गहराई से महसूस कर रही हूँ....अपना येभी दोष सहर्ष स्वीकार है.....क्योंकि वो निर्दोष है...रही है और और फिरभी सबसे अधिक उसे दर्द बरदाश्त करना पडा है...जैसेकि मेरी माँ के हालातको बड़े बेटी होनेके नाते मैंने अधिक महसूस किया है....
अपनी बिटियासे ना चाहते हुएभी कई बार हताशामे आके झगड़ पड़ती हूँ....और पश्च्याताप भी महसूस करती हूँ...काश वो ख़ुद ये मालिका पढ़ समझ पाए कि मै उसकी भावनाओं के लेके कितनी सजग हूँ.....अपने जीवन के हर अच्छे बुरे सत्यसे मै उसे ज़रूर परिचित करा दूँगी....
"washing my dirty linen in public"इस कहावत के तहेत एक मर्यादाको बनाये रखना ज़रूरी है...वरना किसीपे अनचाहा आक्षेप या अपनी सच्चाई बनाये रखनेके अभिमान मे किसी अन्यको दर्द दे दूँ...येभी मंज़ूर नही....ना पतीको ना किसी अन्य रिश्तेदार को....और येभी ज़रूर है कि, समय आनेपे अपने सारे दोष मैंने पहले अपनी माँ, फिर अपनी बेटी के सामने स्वीकार किए हैं...पतीकोभी अवगत कराया है...उसे उन्हों ने किस ढंगसे लिया वो उनका अपना नज़रिया है....
ज़िंदगी मे कई बार ऐसा हुआ है कि किसीने आधी तस्वीर उनके आगे रख दी, और उनके लिए उसवक्त की वो सच्चाई बन गयी...और मैंने कभी नही सोचा कि मै एक अत्यन्त साधारण औरत होनेके अलावा और कुछभी हूँ....पर इस मकामपे आके मै इतना कुछ खो चुकी हूँ...कि और इक तिनका काफ़ी है, इस ऊँट के लिए...पर अपनी बेटीके लिए मै शेरनी हूँ...किसी औरके लिए रहूँ ना रहूँ...और अक्सर येभी हुआ है कि उसने किसी व्यक्तीकी जल्द परख कर ली है और मुझे देर लगी है..ये गुण उसमे है...मुझमे नही...पर जिस घड़ी मुझे इस बातका एहसास हुआ, मैंने उसीवक्त वो स्वीकार करनेका प्रण कर लिया है....आजही शाम कुछ दसवीं बार एक ग़लतीकी स्वीकृती उससे कर चुकी हूँ...और उसे धन्यवाद् देना चाहूँगी के उसने चाहे जिसभी ढंगसे हो, मुझे समय रहते एहसास करा दिया...
और येभी सत्य है कि मैंने उतनीही तेज़ीसे उसपे अमल कर दिया.....ईश्वरसे यही दुआ है कि मुझे समय रहते सजग कर दे.....सुबह्का भूला शामको तो घर आही जाए...उसे भूला ना कहो येभी मेरा इसरार नही .....सिर्फ़ घरमे जगह देदो...दिलमे बना लूँ ये शायद मेरी क़िस्मत नही.....मुझसे कभी भूल नही हुई, ये दावा तो मेरा कभी नही....मालिका का जो मक़सद था, उसके तहेत मै जितना खुदको और अपने परिवारको expose कर सकती थी कर दिया....
अपने अकेलेपन को खुलेआम ज़ाहिर करना या किसीकी सहानुभूती प्राप्त करना ये मक़सद तो कभी थाही नही....कई बार ऐसा हुआ कि मेरे लेखनको चंद लोगों ने अन्यथा लिया... जबसे लिखने लगी तबसे....और जब मुझे एक हद्के परे करीबी अच्छी नही लगी, ये महसूस होनेके बाद मुझपे हर मुमकिन इल्ज़ाम लगा के बदला लेनेकी ठान ली...पिछले दस सालों से मैंने ये देखा...जबकि मैंने अपने कामकी खातिरही एक सम्बन्ध बनाना चाहा.......मुझे नही पता कि कौन किस वक्त किस हदतक सफल रहा...और सच तो ये है, मेरे ब्याह्के दूसरे दिनसेही मेरे और मेरे पतीके बीछ अलगाव लानेकी कोशिश रही....वजूहात अलग रहे हरबार.....अक्सर मुझे नज़र आते लेकिन ज़रूरी नही कि जो मुझे नज़र आता गया वो उन्हें भी नज़र आही जाय....पर हाँ, बोहोत कम लोगों के एहम ने ये स्वीकार किया कि मै पलटके उन्हें उनकी हद दिखा सकती हूँ....एक नारीसे अक्सर ये उम्मीद नही होती...जब कि युगों से नारी ने ये हिम्मत दिखायी है...! ये बात कई बार अन्य नारीकोभी स्वीकार नही होती, येभी एक सत्य है...! और इसका केवल एकही कारन है...अपना अंहकार........ये अंहकार जीवन मे मुझपेभी कई बार हावी रहा...कई बार समय रहते मुझे वो नज़र आ गया...
इस मनोगतका एक ना दिन एक दिन, मालिकाके समापनके पहले समय आनाही था...और ज़रूरीभी था...बल्कि सम्प्पोर्ण मालिका एक मनोगाथी रही है...सिर्फ़ वो भूतकालका मनोगत रही...ये वर्तमान का मनोगत है....
इतने लंबे चौडे मनोगत के लिए अपने पाठकों की क्षमा प्रार्थी हूँ.....हर बार मुझे माफ़ किया है....फिर एकबार वही बिनती लिए खडी हूँ...
आज मै समझ गयी हूँ कि मेरी जवाबदेही, सिर्फ़ मेरे परिवारके प्रति है, अपने समाजके प्रती है..अपने निकट वार्तियों के के प्रति है.....उसका अधिकार सिर्फ़ उन्हें है, जो मेरी ज़िन्दगीमे शुरुसे आजतक शामिल हैं....
हर लेखनमे स्वीकार कर चुकी हूँ, कि एक हद्के बाहर जाके मै अपने परिवारको expose नही करूँगी...इस मालिकाके तहेत मैंने काफ़ी कुछ कह दिया है....इसके परे मै नही जाना चाहती...
आजतक जोभी लिखा है, उसमेसे एक शब्दभी ग़लत नही है.....गर होता तो सबसे पहले अपनी माँ से आँख नही मिला सकती....
हाँ..अपने पतीके लिए ताउम्र रह चुकी हूँ...उन्हें नज़र आए ना आए.....मेरे अतराफ़ मे रहनेवालों ने देर सबेर ये जाना है....आजतक मैंने पतीके लिए जोभी मेरे बसमे था करना वो कर्तव्य निबाह लिया है....परिपूर्ण कोई इंसान नही...उसमे कमियाँ ज़रूर रही होंगी....और ये धरती इंसानों की है....
चाहकर भी मै अधिक तेज़ीसे नही लिख पा रही हूँ..इस वक्त भी माँ परेशान हैं..कि उनके कमरेमे बैठ लिख रही हूँ...कल से कुछ कामके खातिर शेहेरसे बाहर जा रही हूँ...फिर पता नही कब लिख पाउंगी...
वैसेभी, मेरे पास पहलेसे कुछ rough लिखा हुआ नही होता...और जब अत्यधिक थक जाती हूँ तो औरभी मे गलतियाँ कर देती हूँ...जैसेकि "सहेजे" के बदले " प्रकाशित" पे क्लिक कर देती हूँ.....इस गलतीको सरिदय पाठक ज़रूर माफ़ करेंगे ऐसी आशा है....
एक अच्छा इत्तेफ़ाक है कि ऐसेमे कोई शुरुसे जुडा पाठक पोस्ट पढने नही आता...
एक बार फिरसे निवेदन है कि, इस श्रिन्खलाका मक़सद मेरे जोभी हालत हों, उनके लिए किसी एक या अनेक व्यक्तियों को दोषी ठहराना नही है...लगातार इसका स्पष्टीकरण देती आयी हूँ....अपनी बेटीकी सबसे अधिक गुनेहगार हूँ.....बेटेकी उतनी नही....चाहती हूँ, जितनी तटस्थता के साथ बयान पेश कर सकती हूँ, करुँ....अदना-सी औरत हूँ...जिसने ज़िन्दगीमे गलतियाँ की हैं...अक्सर उन्हें स्वीकार भी कर लिया है...स्वीकार नेके बादभी गर कोई माफ़ ना करे तो वो मेरी किस्मत है...हरेक का अपना, अपना नज़रिया है....
अपने परिवारको, ख़ास कर अपनी बेटीको प्राथमिकता दी है तब कई बार द्वंद हुआ है....अपनों सही...लेकिन अक्सर देर से सही, कमसे कम मेरी माँ ने साथ दिया है....और मेरी बेटीका दिया है...इसलिए मै उस क्रिया/प्रातक्रिया को मेरा साथ देनाही समझती हूँ...जानती हूँ, कि ज़िन्दगीमे हर वक्त हर किसीको कोईभी खुश नही रख सकता...और नही मुझे ये ग़लतफ़हमी कहिये या खुशफ़हमी रही आज के, मैंने किसीको ख़ुशी दी है...उस समय उस व्यक्ती ने खुश होना स्वीकार कर मुझे संतोष दिया है....
शायद अपनी बिटियाको लेके आज मै अधिक भावुक हूँ...क्यों के उसके प्रती हुए अन्याय को हर गुज़रते दिनके साथ गहराई से महसूस कर रही हूँ....अपना येभी दोष सहर्ष स्वीकार है.....क्योंकि वो निर्दोष है...रही है और और फिरभी सबसे अधिक उसे दर्द बरदाश्त करना पडा है...जैसेकि मेरी माँ के हालातको बड़े बेटी होनेके नाते मैंने अधिक महसूस किया है....
अपनी बिटियासे ना चाहते हुएभी कई बार हताशामे आके झगड़ पड़ती हूँ....और पश्च्याताप भी महसूस करती हूँ...काश वो ख़ुद ये मालिका पढ़ समझ पाए कि मै उसकी भावनाओं के लेके कितनी सजग हूँ.....अपने जीवन के हर अच्छे बुरे सत्यसे मै उसे ज़रूर परिचित करा दूँगी....
"washing my dirty linen in public"इस कहावत के तहेत एक मर्यादाको बनाये रखना ज़रूरी है...वरना किसीपे अनचाहा आक्षेप या अपनी सच्चाई बनाये रखनेके अभिमान मे किसी अन्यको दर्द दे दूँ...येभी मंज़ूर नही....ना पतीको ना किसी अन्य रिश्तेदार को....और येभी ज़रूर है कि, समय आनेपे अपने सारे दोष मैंने पहले अपनी माँ, फिर अपनी बेटी के सामने स्वीकार किए हैं...पतीकोभी अवगत कराया है...उसे उन्हों ने किस ढंगसे लिया वो उनका अपना नज़रिया है....
ज़िंदगी मे कई बार ऐसा हुआ है कि किसीने आधी तस्वीर उनके आगे रख दी, और उनके लिए उसवक्त की वो सच्चाई बन गयी...और मैंने कभी नही सोचा कि मै एक अत्यन्त साधारण औरत होनेके अलावा और कुछभी हूँ....पर इस मकामपे आके मै इतना कुछ खो चुकी हूँ...कि और इक तिनका काफ़ी है, इस ऊँट के लिए...पर अपनी बेटीके लिए मै शेरनी हूँ...किसी औरके लिए रहूँ ना रहूँ...और अक्सर येभी हुआ है कि उसने किसी व्यक्तीकी जल्द परख कर ली है और मुझे देर लगी है..ये गुण उसमे है...मुझमे नही...पर जिस घड़ी मुझे इस बातका एहसास हुआ, मैंने उसीवक्त वो स्वीकार करनेका प्रण कर लिया है....आजही शाम कुछ दसवीं बार एक ग़लतीकी स्वीकृती उससे कर चुकी हूँ...और उसे धन्यवाद् देना चाहूँगी के उसने चाहे जिसभी ढंगसे हो, मुझे समय रहते एहसास करा दिया...
और येभी सत्य है कि मैंने उतनीही तेज़ीसे उसपे अमल कर दिया.....ईश्वरसे यही दुआ है कि मुझे समय रहते सजग कर दे.....सुबह्का भूला शामको तो घर आही जाए...उसे भूला ना कहो येभी मेरा इसरार नही .....सिर्फ़ घरमे जगह देदो...दिलमे बना लूँ ये शायद मेरी क़िस्मत नही.....मुझसे कभी भूल नही हुई, ये दावा तो मेरा कभी नही....मालिका का जो मक़सद था, उसके तहेत मै जितना खुदको और अपने परिवारको expose कर सकती थी कर दिया....
अपने अकेलेपन को खुलेआम ज़ाहिर करना या किसीकी सहानुभूती प्राप्त करना ये मक़सद तो कभी थाही नही....कई बार ऐसा हुआ कि मेरे लेखनको चंद लोगों ने अन्यथा लिया... जबसे लिखने लगी तबसे....और जब मुझे एक हद्के परे करीबी अच्छी नही लगी, ये महसूस होनेके बाद मुझपे हर मुमकिन इल्ज़ाम लगा के बदला लेनेकी ठान ली...पिछले दस सालों से मैंने ये देखा...जबकि मैंने अपने कामकी खातिरही एक सम्बन्ध बनाना चाहा.......मुझे नही पता कि कौन किस वक्त किस हदतक सफल रहा...और सच तो ये है, मेरे ब्याह्के दूसरे दिनसेही मेरे और मेरे पतीके बीछ अलगाव लानेकी कोशिश रही....वजूहात अलग रहे हरबार.....अक्सर मुझे नज़र आते लेकिन ज़रूरी नही कि जो मुझे नज़र आता गया वो उन्हें भी नज़र आही जाय....पर हाँ, बोहोत कम लोगों के एहम ने ये स्वीकार किया कि मै पलटके उन्हें उनकी हद दिखा सकती हूँ....एक नारीसे अक्सर ये उम्मीद नही होती...जब कि युगों से नारी ने ये हिम्मत दिखायी है...! ये बात कई बार अन्य नारीकोभी स्वीकार नही होती, येभी एक सत्य है...! और इसका केवल एकही कारन है...अपना अंहकार........ये अंहकार जीवन मे मुझपेभी कई बार हावी रहा...कई बार समय रहते मुझे वो नज़र आ गया...
इस मनोगतका एक ना दिन एक दिन, मालिकाके समापनके पहले समय आनाही था...और ज़रूरीभी था...बल्कि सम्प्पोर्ण मालिका एक मनोगाथी रही है...सिर्फ़ वो भूतकालका मनोगत रही...ये वर्तमान का मनोगत है....
इतने लंबे चौडे मनोगत के लिए अपने पाठकों की क्षमा प्रार्थी हूँ.....हर बार मुझे माफ़ किया है....फिर एकबार वही बिनती लिए खडी हूँ...
आज मै समझ गयी हूँ कि मेरी जवाबदेही, सिर्फ़ मेरे परिवारके प्रति है, अपने समाजके प्रती है..अपने निकट वार्तियों के के प्रति है.....उसका अधिकार सिर्फ़ उन्हें है, जो मेरी ज़िन्दगीमे शुरुसे आजतक शामिल हैं....
हर लेखनमे स्वीकार कर चुकी हूँ, कि एक हद्के बाहर जाके मै अपने परिवारको expose नही करूँगी...इस मालिकाके तहेत मैंने काफ़ी कुछ कह दिया है....इसके परे मै नही जाना चाहती...
आजतक जोभी लिखा है, उसमेसे एक शब्दभी ग़लत नही है.....गर होता तो सबसे पहले अपनी माँ से आँख नही मिला सकती....
हाँ..अपने पतीके लिए ताउम्र रह चुकी हूँ...उन्हें नज़र आए ना आए.....मेरे अतराफ़ मे रहनेवालों ने देर सबेर ये जाना है....आजतक मैंने पतीके लिए जोभी मेरे बसमे था करना वो कर्तव्य निबाह लिया है....परिपूर्ण कोई इंसान नही...उसमे कमियाँ ज़रूर रही होंगी....और ये धरती इंसानों की है....
Sunday, December 14, 2008
माफीकी दरकार है !
मैंने कलही एक लेख लिखा, किसीकी असंवेदन शीलतापे....तपशील अधिक नही दिए, क्योंकि पूरी बात जानना चाहती थी.....जो आज जानी। अब दिमाग थोडा ठंडा हुआ...वरना तिलमिला उठी थी.....!
" पुलिस वालों का मोटा पेट कहीं तो काम आया", ये वो अल्फाज़ मैंने मेरे बेहद क़रीबी व्याक्तिसे सुने, फोनेपे...ये व्यक्ति हमेशा सही बात बताता/बताती है। यही व्यक्ति इस मेह्कमेसे किसीके द्वारा जुडी हुई है। उनकी कठिनाईयाँ उसे ब-ख़ूबी पता हैं। जैसे आम लोग पुलिस के बारेमे बिना जाने कह देते हैं, या मीडिया और अखबार कहते हैं , उसे पूर्ण सत्य मान लेते हैं, उन्हीं मेसे एक निकली। अख़बार या मासिक पत्रिका मे छप गया तो वो पत्थरकी लकीर।
अफ़सोस की उस व्यक्तीने कोट करते समय , यही अल्फाज़ इस्तेमाल किए। और मैंने उसे मानके लिख दिया...असंवेदनशीलता तो थीही, लेकिन उस व्याकिके मस्तिष्क्मे।
एक आलेख था,' इंडिया टुडे' मे। उसके अल्फाज़ थे," मुम्बईके पुलिस मेहेकमे को , वहाँ कार्यरत सुरक्षा कर्मियों की,
उनके मोटापे को लेके चिंता करना छोड़ देनी चाहिए !सच तो ये है कि ऐसेही दस बारह पुलिस वालों का मिला जुला मोटापाही शायद कसबको पकड़नेमे काम आया! वो कसब जिसने CST और कामा अस्पताल मे ह्त्या काण्ड मचाया और भाग निकला।"
उसे ज़िंदा पकड़ना बेहद ज़रूरी था, ये उस निहत्ते इंस्पेक्टर को खूब अच्छी तरहसे पता था...AK ४७ । वो उसकी समयसूचकता थी...किसीका आर्डर नही था...अपनी जानपे खेलके उसने AK ४७ की नली अपने तरफ मोडके मज़बूती से पकड़ रखा...इसी कारन उसके साथियोंको मौक़ा मिला कसबको पकड़ लेनेका, और वोभी जिंदा। तुकाराम खुदके बचावमे बन्दूक घुमाके कसबको मार सकता था, या अन्य लोगोंको मरने दे सकता था...पर नही, उसने अपने देहकी एक दीवार बना दी...लाठी और ढृढ़ निश्चयके आगे कसब हार गया। मुम्बई पुलिसकी ये सबसे बड़ी उपलब्धि हुई।उसने अपनी इस बहदुरीके कारन कसबको आत्महत्या करनेसे रोक लिया गया । पूरी दुनिया मे बेमिसाल कर्तव्य परायणता , समयसूचकता और निर्भयता... ...!जो बात US के सु सज्ज कमान्डोस नही कर पाते, वो करिश्मा एक निहत्ते सुरक्षा करमीने कर दिखाया।
अव्वल तो यहाँ मोटापे का सन्दर्भ देनेकी ज़रूरत ही नही थी। ठीक है, ये लेखन स्वातंत्र्य हो गया ! छपी हुई किसीभी चीज़को आजभी लोग पत्थरकी लकीर मानतें हैं, चाहे वो अख़बार मे हो, पत्रिका मे हो या समाचार वाहिनियों पे हो..!
अब मै सबसे अधिक गलती उस व्यक्ती की कहूँगी, इस घटनाको लेके, जिसने मुझे ये बात फोनपे सुनाई। मेरी उस वक्त ये बेहेसभी हो गई कि, उनके विचारसे, कांस्टेबल आदि, सुबह व्यायामके लिए समय निकालही सकतें हैं...और कारन जो कुछ हो मोटा पेट ये सच है..! और मेरा कहना था कि उन्हें बन्दूक पकडनेकी तक ट्रेनिंग देनेकी मोहलत मिलती नही , ऐसे लोग कब तो योग करेंगे और कबतो अपनी ड्यूटी पे पोहोचेंगे...कितने पोलिस वाले कोईभी त्यौहार घरमे मन सकते हैं ? नही...दूसरे उसे सड़क पे खुले आम हुड दंग मचाते हुए मन सकें, इसलिए उन्हें तैनात होना पड़ता है। एकेक कांस्टेबल से लेके पोलिस आयुक तक गणेश विसर्जनके दिन ४८/ ४८ घंटें जगहसे हिल नही सकता...यही बात नवरात्रों मेभी ! बीच बीछ मे मंत्रीगण अपने श्रद्धा सुमन चढाने आ जाते हैं...तो उनके लिए तैनात रहो...! वो वर्दीधारी किस हद तक थक जाता होगा कभी जनताने सोचा है पलटके ?
लातूर के भयंकर विनास्शी भूकंप के बाद मल्बेमे कई लाशें दबी रही हुई थी। पोलिस की मददके लिए अर्म्य्को प्रचारण किया गया। वहाँ की लाशोंकी सड्नेकी बू सूँघ आर्मी ने ये काम करनेसे इनकार कर दिया। यही बात आंध्र प्रदेश मेभी हुई थी, जहाँ साइक्लोन के बाद सदी हुई लाशें पोलिस नही हटाई, आर्मी ने मना कर दिया।
ऐसे पोलिस कर्मियों के बारेमे उठाई ज़बान लगाई तालुको, ये आदत-सी पड़ गई है। जिस व्यक्तीने ये बात जो मुझे फोनपे सुनाई, उसकी आवाजमे वही हिकारत भरी हुई थी...अपने मोटे पेट तो इनसे संभाले जाते, ये अतिरेकियों क्या पकड़ पाएंगे....और जब अतिरेकी पकड़मे आए तो , दिल खोलके तारीफ करनेके बजाय अपने मनसे अर्थ निकाल लिया और सुना दिया...ये जानते हुए कि मै डॉक्युमेंटरी बनाने जा रही हूँ, सही डाटा, सही घटनायोंका ब्यौरा जमा कर रही हूँ, और उनके वक्ताव्य्को पेश कर सकती हूँ, उस व्यक्तीने सोच लेना चाहिए था...मैंने उसी वक्त उन से येभी कहा कि आपको पेपर का नाम, तारीख, किसने लिखा ये सब पता है तो बताया गया कि, उन्हों ने अबतक जो कहा है, उतना तो सही है, सिर्फ़ तारीख देखनी होगी।
आज जब उनसे बात हुई तो पाक्षिक था "इंडिया टुडे, टाईम्स ऑफ़ इंडिया नही...!लेखमे इस्तेमाल किए गए अल्फाज़ तो मुझे अब भी सही नही लगे, लेकिन जो अल्फाज़ उस व्यक्तीने निकाले, और अपने पूरे विश्वास साथ कहे, मै दंग रह गई, इतना कहना काफी नही...मै स्तब्ध हो गई....इस तरह का मतलब क्योँ निकाला उस व्यक्ती ने ? क्या हक़ बनता है, ऐसे समयमे, ऐसी बहादुरीसे लड़ी जंग, जहाँ अपना कर्तव्य, देशके प्रती, मूर्तिमंत बना खड़ा हो गया, कोईभी टिप्पणी कस देनेका ?
मुंबई मे एकेक कांस्टेबल को अपने कार्य स्थल पोहोचनेके लिए सुबह ५ बजे घरसे निकल जाना पड़ता है..कमसे कम २ घंटे, एक तरफ़ के , और कुछ ज़्यादा समय लौटते वक़्त। उसे सोने या खानेको वक़त नही मिलता वो व्यायाम कब करेगा ? बच्चे अपने पिताका दिनों तक मूह नही देख पाते...घरमे कोई बीमार हो तो उसकी ज़िम्मेदारी पत्नी पे आ पड़ती है। कैसा होता है उसका पारिवारिक जीवन, या कुछ होताभी है या नही ?घरमे बीमार माँ हो या बच्चे....उस व्यक्ती का कम मे कितना ध्यान लग सकता है??कमसे कम उनकी मेडिकल सेवाका तो कोई जिम्मेदार हो ! समाजको बस उनसे मांगना ही माँगना है, पलटके देना कुछ नही और एक शहीद्के बारेमे ऐसे अल्फाज़ के उसका मोटा पेट कहीं तो काम आया...!
आज मेरी गर्दन शरमसे गाडी जा रही है कि मैंने उस व्याक्तिपे इस क़दर विश्वास रखा और सुना हुआ असह्य लगा तो पाठकों के साथ बाँट लिया। खैर, ये तो सच है कि, उस व्यक्तीने अपने लेखमे तो इतना सीधा वार नही किया, जितनाकी उस मतलब निकालनेवाले वाले व्यक्तीने..!...! ऐसे लोगोंके लिए ईश्वरसे दुआ करती हूँ कि उन्हें हमेशा सन्मति मिले...!
कल जल्द बाज़ीमे की गई भूलके लिए हाथ जोडके माफ़ी चाहती हूँ। वादा रहा कि आइन्दा बिना दोबारा खुदकी तसल्ली किए बगैर मै कुछ नही लिखूँगी।
" पुलिस वालों का मोटा पेट कहीं तो काम आया", ये वो अल्फाज़ मैंने मेरे बेहद क़रीबी व्याक्तिसे सुने, फोनेपे...ये व्यक्ति हमेशा सही बात बताता/बताती है। यही व्यक्ति इस मेह्कमेसे किसीके द्वारा जुडी हुई है। उनकी कठिनाईयाँ उसे ब-ख़ूबी पता हैं। जैसे आम लोग पुलिस के बारेमे बिना जाने कह देते हैं, या मीडिया और अखबार कहते हैं , उसे पूर्ण सत्य मान लेते हैं, उन्हीं मेसे एक निकली। अख़बार या मासिक पत्रिका मे छप गया तो वो पत्थरकी लकीर।
अफ़सोस की उस व्यक्तीने कोट करते समय , यही अल्फाज़ इस्तेमाल किए। और मैंने उसे मानके लिख दिया...असंवेदनशीलता तो थीही, लेकिन उस व्याकिके मस्तिष्क्मे।
एक आलेख था,' इंडिया टुडे' मे। उसके अल्फाज़ थे," मुम्बईके पुलिस मेहेकमे को , वहाँ कार्यरत सुरक्षा कर्मियों की,
उनके मोटापे को लेके चिंता करना छोड़ देनी चाहिए !सच तो ये है कि ऐसेही दस बारह पुलिस वालों का मिला जुला मोटापाही शायद कसबको पकड़नेमे काम आया! वो कसब जिसने CST और कामा अस्पताल मे ह्त्या काण्ड मचाया और भाग निकला।"
उसे ज़िंदा पकड़ना बेहद ज़रूरी था, ये उस निहत्ते इंस्पेक्टर को खूब अच्छी तरहसे पता था...AK ४७ । वो उसकी समयसूचकता थी...किसीका आर्डर नही था...अपनी जानपे खेलके उसने AK ४७ की नली अपने तरफ मोडके मज़बूती से पकड़ रखा...इसी कारन उसके साथियोंको मौक़ा मिला कसबको पकड़ लेनेका, और वोभी जिंदा। तुकाराम खुदके बचावमे बन्दूक घुमाके कसबको मार सकता था, या अन्य लोगोंको मरने दे सकता था...पर नही, उसने अपने देहकी एक दीवार बना दी...लाठी और ढृढ़ निश्चयके आगे कसब हार गया। मुम्बई पुलिसकी ये सबसे बड़ी उपलब्धि हुई।उसने अपनी इस बहदुरीके कारन कसबको आत्महत्या करनेसे रोक लिया गया । पूरी दुनिया मे बेमिसाल कर्तव्य परायणता , समयसूचकता और निर्भयता... ...!जो बात US के सु सज्ज कमान्डोस नही कर पाते, वो करिश्मा एक निहत्ते सुरक्षा करमीने कर दिखाया।
अव्वल तो यहाँ मोटापे का सन्दर्भ देनेकी ज़रूरत ही नही थी। ठीक है, ये लेखन स्वातंत्र्य हो गया ! छपी हुई किसीभी चीज़को आजभी लोग पत्थरकी लकीर मानतें हैं, चाहे वो अख़बार मे हो, पत्रिका मे हो या समाचार वाहिनियों पे हो..!
अब मै सबसे अधिक गलती उस व्यक्ती की कहूँगी, इस घटनाको लेके, जिसने मुझे ये बात फोनपे सुनाई। मेरी उस वक्त ये बेहेसभी हो गई कि, उनके विचारसे, कांस्टेबल आदि, सुबह व्यायामके लिए समय निकालही सकतें हैं...और कारन जो कुछ हो मोटा पेट ये सच है..! और मेरा कहना था कि उन्हें बन्दूक पकडनेकी तक ट्रेनिंग देनेकी मोहलत मिलती नही , ऐसे लोग कब तो योग करेंगे और कबतो अपनी ड्यूटी पे पोहोचेंगे...कितने पोलिस वाले कोईभी त्यौहार घरमे मन सकते हैं ? नही...दूसरे उसे सड़क पे खुले आम हुड दंग मचाते हुए मन सकें, इसलिए उन्हें तैनात होना पड़ता है। एकेक कांस्टेबल से लेके पोलिस आयुक तक गणेश विसर्जनके दिन ४८/ ४८ घंटें जगहसे हिल नही सकता...यही बात नवरात्रों मेभी ! बीच बीछ मे मंत्रीगण अपने श्रद्धा सुमन चढाने आ जाते हैं...तो उनके लिए तैनात रहो...! वो वर्दीधारी किस हद तक थक जाता होगा कभी जनताने सोचा है पलटके ?
लातूर के भयंकर विनास्शी भूकंप के बाद मल्बेमे कई लाशें दबी रही हुई थी। पोलिस की मददके लिए अर्म्य्को प्रचारण किया गया। वहाँ की लाशोंकी सड्नेकी बू सूँघ आर्मी ने ये काम करनेसे इनकार कर दिया। यही बात आंध्र प्रदेश मेभी हुई थी, जहाँ साइक्लोन के बाद सदी हुई लाशें पोलिस नही हटाई, आर्मी ने मना कर दिया।
ऐसे पोलिस कर्मियों के बारेमे उठाई ज़बान लगाई तालुको, ये आदत-सी पड़ गई है। जिस व्यक्तीने ये बात जो मुझे फोनपे सुनाई, उसकी आवाजमे वही हिकारत भरी हुई थी...अपने मोटे पेट तो इनसे संभाले जाते, ये अतिरेकियों क्या पकड़ पाएंगे....और जब अतिरेकी पकड़मे आए तो , दिल खोलके तारीफ करनेके बजाय अपने मनसे अर्थ निकाल लिया और सुना दिया...ये जानते हुए कि मै डॉक्युमेंटरी बनाने जा रही हूँ, सही डाटा, सही घटनायोंका ब्यौरा जमा कर रही हूँ, और उनके वक्ताव्य्को पेश कर सकती हूँ, उस व्यक्तीने सोच लेना चाहिए था...मैंने उसी वक्त उन से येभी कहा कि आपको पेपर का नाम, तारीख, किसने लिखा ये सब पता है तो बताया गया कि, उन्हों ने अबतक जो कहा है, उतना तो सही है, सिर्फ़ तारीख देखनी होगी।
आज जब उनसे बात हुई तो पाक्षिक था "इंडिया टुडे, टाईम्स ऑफ़ इंडिया नही...!लेखमे इस्तेमाल किए गए अल्फाज़ तो मुझे अब भी सही नही लगे, लेकिन जो अल्फाज़ उस व्यक्तीने निकाले, और अपने पूरे विश्वास साथ कहे, मै दंग रह गई, इतना कहना काफी नही...मै स्तब्ध हो गई....इस तरह का मतलब क्योँ निकाला उस व्यक्ती ने ? क्या हक़ बनता है, ऐसे समयमे, ऐसी बहादुरीसे लड़ी जंग, जहाँ अपना कर्तव्य, देशके प्रती, मूर्तिमंत बना खड़ा हो गया, कोईभी टिप्पणी कस देनेका ?
मुंबई मे एकेक कांस्टेबल को अपने कार्य स्थल पोहोचनेके लिए सुबह ५ बजे घरसे निकल जाना पड़ता है..कमसे कम २ घंटे, एक तरफ़ के , और कुछ ज़्यादा समय लौटते वक़्त। उसे सोने या खानेको वक़त नही मिलता वो व्यायाम कब करेगा ? बच्चे अपने पिताका दिनों तक मूह नही देख पाते...घरमे कोई बीमार हो तो उसकी ज़िम्मेदारी पत्नी पे आ पड़ती है। कैसा होता है उसका पारिवारिक जीवन, या कुछ होताभी है या नही ?घरमे बीमार माँ हो या बच्चे....उस व्यक्ती का कम मे कितना ध्यान लग सकता है??कमसे कम उनकी मेडिकल सेवाका तो कोई जिम्मेदार हो ! समाजको बस उनसे मांगना ही माँगना है, पलटके देना कुछ नही और एक शहीद्के बारेमे ऐसे अल्फाज़ के उसका मोटा पेट कहीं तो काम आया...!
आज मेरी गर्दन शरमसे गाडी जा रही है कि मैंने उस व्याक्तिपे इस क़दर विश्वास रखा और सुना हुआ असह्य लगा तो पाठकों के साथ बाँट लिया। खैर, ये तो सच है कि, उस व्यक्तीने अपने लेखमे तो इतना सीधा वार नही किया, जितनाकी उस मतलब निकालनेवाले वाले व्यक्तीने..!...! ऐसे लोगोंके लिए ईश्वरसे दुआ करती हूँ कि उन्हें हमेशा सन्मति मिले...!
कल जल्द बाज़ीमे की गई भूलके लिए हाथ जोडके माफ़ी चाहती हूँ। वादा रहा कि आइन्दा बिना दोबारा खुदकी तसल्ली किए बगैर मै कुछ नही लिखूँगी।
Saturday, December 13, 2008
हद है....! भाग १
एक प्रतिथयश और पुराने अग्रेज़ी अख़बार मे आज किसीने बडेही असंवेदनशील ढंगसे कुछ लिखा है। जैसेही उसे कॉपी पेस्ट करनेका मौक़ा मुझे मिलेगा मै करुँगी।
मुम्बईमे हुए आतंकवादी हमलेमे एक सब-इंसपेक्टर ने गज़बकी जांबांज़ी दिखलाई। नाम है, तुकाराम ओम्बले।
ख़ुद मुम्बई की जनता तो इसकी गवाह थीही, लेकिन मुम्बई के डीजीपी ने , जो इस से पहले मुम्बई के पुलिस आयुक्त रह चुके हैं, और जिनकी गणना हिन्दुस्तानके बेहतरीन और ईमानदार अफसरोंमे की जाती है, कलके टाईम्स ऑफ़ इंडिया (पुणे) मे एक लेख लिखा है।( परसोंके मुम्बई एडिशन मे)। लेख पढ़ के मन और आँखें दोनों भर आतीं हैं। तुकाराम के बारेमे लिखते समय वे कहते हैं," मै अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि, जब तुकारामने अपनी लाठी हाथमे लिए AK -47 का सामना किया होगा तो उसके मनमे कौनसे ख़याल गुज़र गएँ होंगे उसवक्त ! AK-47 की और लाठी की क्या कहीं किसी भी तौरपे तुलना की जा सकती है ? मुक़ाबला हो सकता है? तुकाराम मौक़ाये वारदात पे दौड़ा और अपने हाथोंसे उस आतंकवादी की बंदूक़ पकड़ ली जो उसके पेटमे गोलियाँ चलता रहा !उसकी इस कमालकी हिम्मतकी वजहसे कसब ज़िंदा पकड़ा गया ! कितना ज़रूरी था उसे ज़िंदा पकड़ना। तुकाराम की इस बहादुरी और समयसूचकता के कारण उसके अन्य साथी कसबको घेर के, ज़िंदा कब्ज़ा करलेने मे कामयाब रहे ! आज इस एक आतंकवादी के ज़िंदा पकड़मे आनेकी वजहसे कितनीही आतंकवादी घटनाओं का सुराग़ सुरक्षा यंत्रणा लगा पा रही है। आज इन जैसोंकी जाँ बाज़ी के कारण हमारी यंत्रणा फ़क्रसे सर उठाके खडी है !"ये अल्फाज़ हैं एक डीजीपी के जिसने अपने सहकारियों को खोया, उन्हें अश्रुपूर्ण नयनोंसे बिदा किया। वे गए तो हर परिवारको मिलने लेकिन एक हर्फ़ अपने मुहसे सांत्वना का निकाल नही पाये...केवल अपने आपसे एक वादा, एक निश्चय करते रहे कि हम इनमेसे किसी कीभी शहादत फुज़ूल जाने नही देंगे। उन्होंने औरों के बारेमे भी जो लिखा है उसे मै बादमे बता दूँगी। इसवक्त सिर्फ़ तुकारामकी बात कह रही हूँ, जिसकी एक ख़ास वजेह है। बल्कि एक अमेरिकन सिक्युरिटी अफसरने, न्यू योर्कर, इस अख़बारको बताया, " ये इतना भयंकर और जाँ बाज़ मुक़ाबला था , जिसकी बराबरी दुनियाका सबसे बेहतरीन समझा जानेवाला US का कमांडो फोर्स , द Naval SEALs भी नही कर सकता!"
अब सुनिए, इन जनाबकी, जिन्हों ने इसी अखबारमे ( The Times Of India) मे किस भद्दे तरीक़े से इसी वाक़या के बारेमे लिखा," चलो कहीं तो किसी पोलिस वालेका मोटा पेट काम आया "! कहनेका मन करता है इनसे, कि आपका तो कोई भी हिस्सा देशके किसी काम ना आता या कभी आयेगा ! शर्म आती है कि लिखनेवाला सिर्फ़ इस देशका नही महाराष्ट्र का रहनेवाला है ! अपने आपको क्या समझता है ? कोई बोहोत बड़ा बुद्धी जीवी ? गर हाँ, तो फ़िर हर बुधीजीवी के नामपे ये कलंक है...! इसतरह सोचने से पहले ये व्यक्ती शर्म से डूब कैसे नही गया ?
मै अधिकसे अधिक पाठकों की इस लेखपे प्रतिक्रया चाहती हूँ, उम्मीद है मेरी ये इच्छा आप लोग पूरी करेंगे !
इसके दूसरे भागमे मै अन्य शहीदों के बारेमे कुछ जानकारी दूंगी, जो अधिकतर लोगों को शायद पता नही होगी।
इंतज़ार है।
क्रमशः
मुम्बईमे हुए आतंकवादी हमलेमे एक सब-इंसपेक्टर ने गज़बकी जांबांज़ी दिखलाई। नाम है, तुकाराम ओम्बले।
ख़ुद मुम्बई की जनता तो इसकी गवाह थीही, लेकिन मुम्बई के डीजीपी ने , जो इस से पहले मुम्बई के पुलिस आयुक्त रह चुके हैं, और जिनकी गणना हिन्दुस्तानके बेहतरीन और ईमानदार अफसरोंमे की जाती है, कलके टाईम्स ऑफ़ इंडिया (पुणे) मे एक लेख लिखा है।( परसोंके मुम्बई एडिशन मे)। लेख पढ़ के मन और आँखें दोनों भर आतीं हैं। तुकाराम के बारेमे लिखते समय वे कहते हैं," मै अंदाज़ा नहीं लगा सकता कि, जब तुकारामने अपनी लाठी हाथमे लिए AK -47 का सामना किया होगा तो उसके मनमे कौनसे ख़याल गुज़र गएँ होंगे उसवक्त ! AK-47 की और लाठी की क्या कहीं किसी भी तौरपे तुलना की जा सकती है ? मुक़ाबला हो सकता है? तुकाराम मौक़ाये वारदात पे दौड़ा और अपने हाथोंसे उस आतंकवादी की बंदूक़ पकड़ ली जो उसके पेटमे गोलियाँ चलता रहा !उसकी इस कमालकी हिम्मतकी वजहसे कसब ज़िंदा पकड़ा गया ! कितना ज़रूरी था उसे ज़िंदा पकड़ना। तुकाराम की इस बहादुरी और समयसूचकता के कारण उसके अन्य साथी कसबको घेर के, ज़िंदा कब्ज़ा करलेने मे कामयाब रहे ! आज इस एक आतंकवादी के ज़िंदा पकड़मे आनेकी वजहसे कितनीही आतंकवादी घटनाओं का सुराग़ सुरक्षा यंत्रणा लगा पा रही है। आज इन जैसोंकी जाँ बाज़ी के कारण हमारी यंत्रणा फ़क्रसे सर उठाके खडी है !"ये अल्फाज़ हैं एक डीजीपी के जिसने अपने सहकारियों को खोया, उन्हें अश्रुपूर्ण नयनोंसे बिदा किया। वे गए तो हर परिवारको मिलने लेकिन एक हर्फ़ अपने मुहसे सांत्वना का निकाल नही पाये...केवल अपने आपसे एक वादा, एक निश्चय करते रहे कि हम इनमेसे किसी कीभी शहादत फुज़ूल जाने नही देंगे। उन्होंने औरों के बारेमे भी जो लिखा है उसे मै बादमे बता दूँगी। इसवक्त सिर्फ़ तुकारामकी बात कह रही हूँ, जिसकी एक ख़ास वजेह है। बल्कि एक अमेरिकन सिक्युरिटी अफसरने, न्यू योर्कर, इस अख़बारको बताया, " ये इतना भयंकर और जाँ बाज़ मुक़ाबला था , जिसकी बराबरी दुनियाका सबसे बेहतरीन समझा जानेवाला US का कमांडो फोर्स , द Naval SEALs भी नही कर सकता!"
अब सुनिए, इन जनाबकी, जिन्हों ने इसी अखबारमे ( The Times Of India) मे किस भद्दे तरीक़े से इसी वाक़या के बारेमे लिखा," चलो कहीं तो किसी पोलिस वालेका मोटा पेट काम आया "! कहनेका मन करता है इनसे, कि आपका तो कोई भी हिस्सा देशके किसी काम ना आता या कभी आयेगा ! शर्म आती है कि लिखनेवाला सिर्फ़ इस देशका नही महाराष्ट्र का रहनेवाला है ! अपने आपको क्या समझता है ? कोई बोहोत बड़ा बुद्धी जीवी ? गर हाँ, तो फ़िर हर बुधीजीवी के नामपे ये कलंक है...! इसतरह सोचने से पहले ये व्यक्ती शर्म से डूब कैसे नही गया ?
मै अधिकसे अधिक पाठकों की इस लेखपे प्रतिक्रया चाहती हूँ, उम्मीद है मेरी ये इच्छा आप लोग पूरी करेंगे !
इसके दूसरे भागमे मै अन्य शहीदों के बारेमे कुछ जानकारी दूंगी, जो अधिकतर लोगों को शायद पता नही होगी।
इंतज़ार है।
क्रमशः
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