Thursday, December 20, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १२

आशा पैसे लेके घर आयी। उसने वो लिफाफा वैसाही रख दिया। बहुओंके लिए कुछ लेगी कभी सोंचके। इसी तरह कुछ समय और बीत गया। एक दिन सहजही मिसेस सेठना का हालचाल पूछने वो उनके घर पोहोंच गयी। मिसेस सेठना हमेशा बडेही अपनेपन से उससे मिलती। तभी उनका फ़ोन बजा, उनकी बातों परसे आशा समझ गयी कि फ़ोन राजूका है।
कुछ समय बाद मिसेस सेठना गंभीर हो गयी और सिर्फ"हूँ,हूँ" ऐसा कुछ बोलती रही। फिर उन्होंने आशा को फ़ोन पकडाया और खुद सोफेपे बैठ गयीं......
मुद्दतों बाद आशा राजूकी आवाज़ सुननेवाली थी। "हेलो " कहते,कह्तेही उसकी आँखें और गला दोनोही भर आये.....और फिर वो खबर उसके कानोपे टकराई ........
राजूने शादी कर ली थी, वहीँ की एक हिन्दुस्तानी लड़कीसे........ वहीँ बसनेका निर्णय ले लिया था। वो अपनी माको नियमसे पैसे भेजता रहेगा..... । कुछ देर बाद आशाको सुनाई देना बंद हो गया.......
उसने फ़ोन रख दिया। सुन्न-सी होके वो खडी रह गयी। मिसेस सेठना ने उसे अपने पास बिठा लिया। उनकी आँखों मेभी आँसू थे।
"आशा ,मैं तेरी बोहोत बड़ी गुनाहगार हूँ । मैं खुदको कभी माफ़ नही कर पाऊँगी । बच्चे ऐसा बर्ताव करेंगे इसकी मुझे ज़राभी कल्पना होती तो मैं उन्हें परदेस नही भेजती,"बोलते,बोलते वो उठ खडी हुई।
" राजूने सिर्फ शादीही नही की बल्की अपनी पत्नी तथा उसके घरवालोंको बताया कि उसके माँ-बाप बचपन मेही मर चुके हैं! मुझे....मुझे कह रहा था कि मैं.....मैं इस बातमे साझेदार बनूँ!!शेम ऑन हिम!!भगवान् मुझे कभी क्षमा नही करेंगे....!ये मेरे हाथोंसे क्या हो गया?"

वो अब ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं। चीखती जा रही थीं।आशाका सारा शरीर बधीर हो गया था। वो क्या सुन रही थी? उसके बेटेने उसे जीते जी मार दिया था??उसे अपने गरीब माँ-बापकी शर्म आती थी??और उसने सारी उम्र उसके इन्तेज़ारमे बिता दी थी? ममताका गला घोंट,घोंटके एकेक दिन काटा था!

अंतमे जब वो घर लौटनेके लिए खडी हुई तो उसकी दशा देख कर मिसेस सेठ्नाने अपनी कारसे उसे बस्तीमे छुड़वा दिया। झोंपडीमे आके वो कहीँ दूर शून्यमे ताकती रही। बाहर बस्तीमेके बच्चे खेल रहे थे। उसका आँगन बरसोंसे सूना था। वैसाही रहनेवाला था........
बस्तीके कितनेही लोग उससे जलते थे, लेकिन वो अपने सीनेकी आग किसे बताती??ज़िंदगी ने कैसे,कैसे मोड़ लेके उसे ऐसा अकेला कर डाला था! उसके कान मे कभी उसके छुटकोके स्वर गूँजते तो कभी आँखोंसे रिमझिम सपने झरते। उसका पती जब घर आया तो उसने मनका सारा गुबार निकला, खूब रोई। पती एकदम खामोश हो गया। फिर कुछ देर बाद बोला,"सच अगर तेरी बात सुनी होती,हम पढ़ लिख गए होते तो अपनेही बलबूतेपे बच्चे पढे होते। जोभी पढे होते, ये समय आताही नही।" आशाने कुछ जवाब दिया नही। उस रात दोनोही खाली पेट ही सो गए। सो गए केवल कहनेके लिए, आशाकी आँखोंसे नींद कोसों दूर थी।
अपूर्ण

Wednesday, December 19, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ११

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल मे भेजकर , अमरीका जानेकी इजाज़त देकर कोई गलती तो नही की,बार,बार उसके मनमे आने लगा। अब बोहोत देर हो चुकी थी। उसने हताश निगाहोंसे मिसेस सेठना को देखा। बच्चों को उच् शिक्षण उपलब्ध कर देनेमे उनकी कोईभी खुदगर्ज़ी नही थी । आशा ये अच्छी तरह जानती थी। मिसेस सेठना आगे आयी,उसके हाथ थामे,कंधे थपथपाए ,धीरज दिया। राजू चला गया। सात समंदर पार। अपनी माकी पोहोंच से बोहोत दूर।

आशा और उसका पती फिर एकबार अपनी झोपडीमे एकाकी जीवन जीने लगे। दिनमे स्कूलका काम, मुख्याधापिकाके घरके बर्तन-कपडे,फिर खुद्के घरका काम। उसके पतीको उसके मनकी दशा दिखती थी । गराजसे घर आते समय कभी कभार वो उसके लिए गजरा लाता,कभी बडे, तो कभी ब्लाऊज़ पीस।

दो साल बाद संजूभी अमरीका चला गया । आशा और उसके पतीकी दिनचर्या वैसीही चलती रही। कभी कभी कोई ग्राहक खुश होके उसे टिप देता तो वो आशाके लिए साडी ले आता। भगवान् की दयासे उसे कोई व्यसन नही था। एक बोहोत दिनों तक वो कुछ नही लाया। दीवाली पास थी। थोडी बोहोत मिठाई,नमकीन बनाते समय आशाको छोटे,छोटे राजू-संजू याद आ रहे थे। लड्डू, चकली,चेवडा,गुजिया बनाते समय कैसी ललचाई निगाहोंसे इन सब चीजों को देखते रहते, उससे चिपक कर बैठे रहते।

आँचल से आँसू पोंछते ,पोंछते वो यादों मे खो गयी थी । पती कब पीछे आके खड़ा हो गया, उसे पताभी नही चला। उसने हल्केसे आशाके हाथोंमे एक गुलाबी कागज़ की पुडिया दी तथा एक थैली पकडाई। पुडियामे सोनेका मंगलसूत्र था, थैलीमे ज़री की साडी.......!
आशा बेहद खुश हो उठी! मुद्दतों बाद उसके चेहरेपे हँसी छलकी!! वोभी उठी..... उसने एक बक्सा खोला.... उसमेसे एक थैली निकली, जिसमे अपनी तन्ख्वाह्से बचाके अपने पतीके लिए खरीदे हुए कपडे थे.... टीचर्स ने समय,समय पे दी हुई टिप्स्मेसे खरीदी हुई सोनेकी चेन थी.....
पतीकोभी बेहद ख़ुशी हुई। एक अरसे बाद दोनो आपसमे बैठके बतियाते रहे, वो अपने ग्राह्कोके बारेमे बताता रहा, वो अपने स्कूलके बारेमे बताती रही।

समय बीतता गया। बच्चे शुरुमे मिसेस सेठनाके पतेपे ख़त भेजते रहते थे। आहिस्ता,आहिस्ता खतोंकी संख्या कम होती गयी और फिर तकरीबन बंद-सी हो गयी। फ़ोन आते, माँ-बापके बारेमे पूछताछ होती। एक बार मिसेस सेठ्नाने आशाको घर बुलवाया और उसके हाथमे एक लिफाफा पकडा के कहा," आशा ये पैसे है,तेरे बच्चों ने मेरे बैंक मे तेरे लिए ट्रान्सफर किये थे। रख ले। तेरे बच्चे एहसान फरामोश नही निकलेंगे। तुझे नही भूलेंगे।"
अपूर्ण"

Monday, October 29, 2007

दयाकी दृष्टी: सदाही रखना ! १०

(कुछ जगाहोपे एडिटिंग नही हो पाई है....क्षमा चाहती हूँ)

ऐसी कितनीही छुट्टियाँ आयी और गयी। आशा बच्चों का साथ पाने के लिए तरसती रही और बच्चे उसे तरसाते रहे। माँ का त्याग उनके समझ मे आयाही नही,बल्कि माँ-बापने अपनी जिम्मेदारी झटक के सेठना आंटी पे डाल दी,यही बात कही उनके मनमे घर कर गयी। बारहवी के बाद राजीव मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया। मिसेस सेठना सारा खर्च उठाती रही। बादमे संजूभी मेडिकल कॉलेज मी दाखिल हो गया।
पोस्ट ग्राजुएशन के लिए पहले राजू और फिर संजू इस तरह दोनो ही अमेरिका चले गए। मिसेस सेठ्नाने फिर उनपे बोहोत खर्च किया।

राजू एअरपोर्ट चलने से पहले दोनो पती-पत्नी राजूको विदा करने मिसेस सेठना के घर गए। आशाकी आँखों से पानी रोके नही रूक रहा था। राजूको गुस्सा आया,बोला,"माँ लोगों के बच्चे परदेस जाते हैं तो वे मिठाई बाँटते हैं, और यहाँ तुम हो कि रोये चली जा रही हो!!अरे मैं हमेशाके लिए थोडेही जा रहा हूँ??लॉट कर आऊँगा। एक बार कमाने लगूँगा तो अच्छा घर बना सकेंगे, और कितनी सारी चीजे कर सकेंगे। ज़रा धीरज रखो।"
"बेटा,अब तुम्हारीही राह तकती रहूँगी अपने बच्चों से बिछड़ कर एक माँ के कलेजेपे क्या गुज़रती है,तुम नही समझोगे ,"आशा आँचल से आँसू पोंछते हुए बोली।
अपूर्ण

Sunday, October 28, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ९

स्कूलमे साफ-सुथरे स्नानगृह,समयपे खाना (माँ के हाथों का स्वाद न सही),टेबल कुर्सियाँ , सोनेके लिए पलंग, पढ़ईके लिए हरेक को स्वतंत्र डेस्क बिजलीकी सुविधा,अलग,अलग,खेल,पहाडोंका सौंदर्य,ये सब धीरे,धीरे बच्चों को आकर्षित करने लगा।


पहली बार बार छुट्टीयों मे बच्चे मिसेस सेठना के पास आये और फिर वहाँसे माँ के पास मिलने गए तो ,क्या क्या कहे क्या न कहें,ऐसी उनकी हालत हो गयी थी। लेकिन रातमे सेठना आंटी के घर रहनेका हठ करने लगे। वहाँ बाथरूम कितने साफ-सुथरे हैं,कमरेसे लगे हैं, गरम पानी जब चाहो नलकेमे आ जाता है। फिर अंटी सोनेके लिए कमराभी अलग देंगी,नरम,नरम गद्दे होंगे, टी.वी.होगा,कार्टून देखने को मिलेंगे, हम कल फिर आएंगे ना,आदी कारण बता कर बच्चे रात मे लॉट गए। आशा का दिल छलनी हो गया। उनका विश्व बदल जाएगा,इस बातकी उसको एक झलक मिल गयी।


छुट्टियाँ समाप्त होने आयीं तब उसने बच्चों के लिए लड़दो,चकली,चिवडा आदी चीज़ें बनाईं। पाकेट बनाकर मिसेस सेठना के घर ले गयी। बच्चों ने खोलके देखा तो कहने लगे,माँ,आंटी ने हमे बोहोत कुछ दिया है। ये देखो,केक,बिस्किट और ना जाने क्या,क्या!!"


इतनेमे मिसेस सेठना वहाँ पोहोंच गयी और आशा का उदास -सा चेहरा और उसके हाथ की पुडियाँ देखकर जान गयी। तुंरत अन्दर जाके कुछ डिब्बे ले आयीं और बोलीं," ये चीज़ें तुम्हारे लिए तुम्हारी मान ने अपने हाथोंसे बनाई हैं। ये बोहोत अच्छी होंगी । रख लो इन्हें। "

क्रमशः


दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ८

मुख्याध्यापिकाने कहा,"आशा, बच्चों का इसीमे कल्याण है। ऐसा सुनहरा अवसर इन्हें फिरसे नही मिलेगा। तुम दोनो मिलकर इनको कितना पढा लोगे?और मिसेज़ सेठना अगर इसी शहर मे किसी बडे स्कूल मी प्रवेश दिला दें, सारा खर्चा कर दें, फिरभी अगर तुम्हारे बच्चों के मित्रों को असली स्थिती का पता चलेगा तब इनमे बेहद हीनभाव भर जाएगा। ज्यादा सोंचो मत। "हाँ" कर दो। "

आशा ने "हाँ" तो भर दी लेकिन घर आकर वो खूब रोई । बच्चे उससे चिपक कर बैठे रहे। कुछ देर बाद आँसूं की धाराएँ रूक गयी। वो अपलक टपरी के बाहर उड़नेवाले कचरे को देखती रही। उसमे का काफी कचरा पास ही मे बहनेवाली खुली नाली मे उड़कर गिर रहा था........

हाँ!! उसका बंगला,उसका सपनोंका बंगला,उसका अपना बंगला, कभी अस्तित्व मे थाही नही। वो हिना, वो जूही का मंडुआ ,बाम्बू का जमघट, उससे लिपटी मधुमालती, वो बगिया जिसमे पँछी शबनम चुगते थे,जिस बंगले की छतसे वो सूर्योदय निहारती ,कुछ,कुछ्भी तो नही था!

बच्चे गए। उससे पहले मिसेस सेठना ने उनके लिए अंग्रेजीकी ट्यूशन लगवाकर बोहोत अच्छी तैय्यारी करवा ली। उनके लिए बढिया कपडे सिलवाये! सब तेहज़ीब सिखलाई। एक हिल स्टेशन पे खुद्की जिम्मेदारी पे प्रवेश दिलवा दिया। वहाँ के मुख्याध्यापक तथा trustees उनके अच्छे परिचित थे। सब ने सहयोग किया।

बच्चों पर शुरू मे खास ध्यान दिया गया। मिसेस सेठना ने पत्रव्यवहार के लिए अपना पता दिया। अपने माँ-बाप देश के दुसरे कोने मे रहते हैं, तथा उनकी तबादले की नौकरी है, इसलिए हम सेठना आंटी के घर जाएँगे तथा हमारे ममी-पापा हमे वहीं मिलने आएँगे, यही सब क्लास के बच्चों को कहने की हिदायत दी गयी। शुरुमे बच्चे भौंचक्के से हो गए, लेकिन धीरे,धीरे उन्हें आदत हो गयी।
अपूर्ण

Sunday, October 21, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ७

आशाने एक पार्ट time और एक फुल time ऐसी दो औरते कामके लिया रखही ली थी। अस्मिता दादीका आँचल नही छोड़ती थी।

कुछ ही दिनोंमे मायाको बेटा हुआ। लड़केके नामोंकी लिस्ट बनी। 'कुशल' नाम सभीको अच्छा लगा। नामकरण हो गया। अस्मिता के सामने अगर आशा कुशलके लाड करती तो वो तूफान मचा देती। आशा और उसका पती दोनो तृप्त थे। ज़िंदगी उन्हें इतना कुछ देगी ऐसा कभी सोचाही नही था।
यथासमय संजूकाभी ब्याह हो गया। बादमे शुभदाभी बालरोग विशेषज्ञ हो गयी और उसकाभी एक विशिष्ट दैनिक क्रम शुरू हो गया। संजू-शुभदा उसी अस्पतालमे काम करने लगे जहाँ राजू करता था। बच्चे,बहुएँ आपसमे हिलमिलकर रहते, आशाने सबको एक डोरमे बाँध रखा था। सबने मिलकर घरको अन्दर बाहरसे सुन्दर बना रखा था। और फिर शुभदानेभी खुश खबरी सुनाई। उसे जुडवाँ बच्चे हुए। दोनो लड़के। इस कारण अस्मिता सभीकी औरभी लाडली हो गयी।
आशा हमेशा "दयाकी दृष्टी सदाही रखना..."गाना गुनगुनाया करती। कई बार राजू-संजू जब वो रसोयीमे होती और ये गाना गुनगुना रही होती तो उसके गलेमे बाहें डालकर कहते,"माँ,ऊपरवालेकी दया तो हैही लेकिन तेरी मेहनत कई गुना ज्यादा। उसके बिना ये दिन हमे देखने कोही नही मिलते।"
अब भी उसके कान्धोंको कोई स्पर्श कर रहा था। "राजू?संजू?" वो बुदबुदा रही थी।
"माजी!मैं लीलाबाई!चलिए,मैं आपको बाथरूम ले चलती हूँ। कुल्ला कीजिए,फिर चाय लीजिये,"व्रुधाश्रम मे खास आशाके लिए तैनात की गयी लीलाबाईने कहा।
"लीलाबाई? तू कौन??राजू,संजू कहाँ हैं??अभी तो मुझे पीछेसे आकर गले लगाया। कहाँ गए?,"आशाने कुछ न समझते हुए कहा।
"माँ जी,पहले उठिए तो। राजू, संजूको बादमे बुलाएँगे,"लीलाबाईने कहा।
नियतीकी कैसी विडम्बना थी! आशा वास्तव और कल्पना इसमेका फासला पूरी तरह भूल गयी थी। पिछले दो सालोंसे इस आश्रम मे पडी हुई थी। उसे तो आगे पढ़नेको भी नही मिला था। गराजमे काम करने वाले पतीने इजाज़त दीही नही थी। पती को पढ़नेका बिलकुल शौक नही था। उनको दो लड़के हुए थे ये वस्तुथिति थी। दोनो डाक्टर बने थे येभी वस्तुस्थिति । लेकिन किसतरह?ये अलग कहानी थी.......

आशा जिस स्कूलमे सफाई का काम करती थी, वहाँ की मुख्याध्यापिकाने उसके बच्चो की स्मार्टनेस देख ली और उसे एक अपत्यहीन ,बोहोत दौलतमंद,लेकिन उतनीही नेकदिल पारसी औरतके पास ले गयी।
"मैं बच्चों का सब खर्च करुँगी उन्हें बोहोत अच्छे बोर्डिंग स्कूलमे भरती करवा दूँगी बच्चे बोहोत होशियार है। उनका भविष्य उज्वल हो जाएगा। तुम्हे पछताना नही पड़ेगा,"उस दयालु पारसी औरत,मिसेज़ सेठना ने आशासे कहा।

आशाको क्या कहा जाय कुछ सूझ नही रहा था। क्या अपने पतीको पसंद आएगा ये सब? उनको छोडो, उसका मन लगेगा इन कलेजोंके टुकडों के बिना? वो स्तब्ध खडी हो गयी। बच्चे उसका आँचल थामे खडे थे। उस पारसी औरतका बड़ा-सा बंगला फटी-फटी आँखों से देख रहे थे।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ६

साल भरमे उनके द्वारपर एक और खुशीने दस्तक दी। मायके पैर भरी हो गए। आशा फिर सपनोके दुनियामे खो गयी। मैं ऐसा करूंगी,मैं वैसा करूंगी,मायाकी सहेलियोंको बुलाऊंगी ,मायाकी खूब खबर रखूंगी। इश्वर मेरे आंचल मेभी समां न सके इतना भर भरके दान तू मुझे दे रहा है। बच्चे अलग रहने चले जाते है,बूढे माँ-बाप निराधार हो जाते है,पोते,पोतियोंका लाड प्यार करनेकी किस्मत कितनोको मिलती है?वो बार इश्वर के चरणों मे नतमस्तक हो जाती।
माया को यथासमय लडकी हुई। आशाको लड़कीका बेहद शौक था। लड़कियोंको सजाने-सवारनेका कुछ औरही मज़ा होता है। चलने लगेगी तो रुनझुन पाजेब बजेंगे। क्या करू और क्या न ,ऐसी उसकी हालत हो गयी। नामों की सूची बनती गयी। 'अस्मिता'नाम सबको अच्छा लगा।
नामकरण की तैय्यारी,फ़ोन,दिन महीने सरकते गए। अस्मिता बैठने लगी, चलने लगी, पाज़ेब बजने लगे,तोतले बोल और किलकारियाँ घरमे गूँजने लगीं.....

अबतक आशा तथा उसका पती सेवानिवृत्त हो चुके थे। फिर अस्मिताकी नर्सरी ,उसका खान पान,उसे पार्क मे घुमाना, लोरी गा कर सुलाना,सारा,सारा सुख वो भोग रही थी.......

इस सबके चलते एक दिन संजीव अपनी माँ को बताया कि उसे एक लडकी पसंद आयी है। उसीके कॉलेज मे पढ़ ने वाली लेकिन उसकी जूनियर । संजू बालविभागमे पोस्ट ग्राजुएशन कर रहा था। आशाने किसी भी किस्म की आपत्ती नही दिखाई,बल्कि खुद लड़किवालोंको आमंत्रित किया। लडकी के माँ-बाप दोनोही डाक्टर थे। लडकी स्मार्ट थी। उसकी एम्.बी.बी.एस के बादकी internship रह गयी थी। internship के बाद ब्याह तय हुआ।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ५

अब राजूकी शादीके सपने वो देखने लगी। अपनेपर,इस घरपर,राजूको दिल दे सकनेवाली,प्यार करनेवाली लडकी वो तलाशने लगी। अव्वल तो उसने राजूको पूछ लिया कि उसने पहलेही किसीको पसंद तो नही कर रखा है। लेकिन वैसा कुछ नही था। एक दिन किसी समरोह्मे देखी लडकी उसे बड़ी पसंद आयी। उसने वहीं के वहीं थोडी बोहोत जानकारी हासिल की। लडकी दूसरे शेहेरसे आयी थी। उसके माँ-पिताभी उस समारोह मी थे। उसने खुद्ही लडकी की माँ को अपने मनकी बात बताई। लड़कीकी माँ को प्रस्ताव अच्छा लगा। दोनोने मिलकर लड़का-लडकी के बेमालूम मुलाक़ात का प्लान बनाया। रविवारके रोज़ लडकी तथा उसके माता पिता आशा के घर आये। राजू घरपरही ही था। सब एक-दूसरेके साथ मिलजुल कर हँसे-बोले। लडकी सुन्दर थी,घरंदाज़ दिख रही थी,और बयोलोजी लेकर एम्.एससी.किया था।
जब वे लोग चले गए तो आशा ने धीरे से बात छेड़ी। राजू चकित होकर बोला,"माँ!!तुमभी क्या चीज़ हो! क्या बेमालूम अभिनय किया! पहले लड़कीको तो पूछो। और इसके अलावा हमे कुछ बार मिलना पड़ेगा तभी कुछ निर्णय होगा!"
"एकदम मंज़ूर! मैं लड़कीकी माँ को वैसी खबर देती हूँ। हमने पहलेसेही वैसा तय किया था॥ लड़कीको पूछ्के,मतलब माया को पूछ के वो मुझे बताएंगी। फिर तुम्हे जैसा समय हो,जब ठीक लगे,जहाँ ठीक लगे, मिल लेना, बातें कर लेना,"आशा खुश होकर बोली। उसे लड़कीका बोहोत प्यारा लगा,'माया'।
राजू और माया एक -दूसरेसे आनेवाले दिनोमे मिले। कभी होटल मे तो कभी तालाब के किनारे। राजीवने अपने कामका स्वरूप मायाको समझाया। उसकी व्यस्तता समझाई। रात-बेरात आपातकालीन कॉल आते हैं,आदि,आदि सब कुछ। अंत मे दोनोने विवाह का निर्णय लिया। आशा हवामे उड़ने लगी। बिलकुल मर्जीके मुताबिक बहू जो आ रही थी।
झटपट मंगनी हुई और फिर ब्याह्भी। कुछ दिन छुट्टी लेकर राजीव और माया हनीमून पेभी हो आये। बाद मे माया ने भी घरवालोंकी सलाह्से नौकरीकी तलाश शुरू की और उसे एक कॉलेज से कॉल आया,वहीं पर उसने फुल्तिमे के बदले पार्ट टीम नौकरी स्वीकार की,अन्यथा घरमे सास पर कामका पूरा ही बोझ पड़ता।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.! ४

राजू दो सालका हुआ न था कि आशाके पैर फिर भारी हुए। उसे फिर लड़काही हुआ। वो थोडी-सी मायूस हुई। लडकी होती तो शायद आगे चलके सहेली बन गयी होती...... इस लड़केका नाम इन लोगोंने संजीव रखा। राजू-संजूकी जोड़ी!
उसने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलमे डाला। बच्चे आज्ञाकारी थे। माँ-बाप तथा दादीका हमेशा आदर करते। समय पर पढाई खेल कभी कभार हठ्भी, जो कभी पूरा किया जाता कभी नही। दिन पखेरू बनके सरकते रहे......

इस बीच उसने बी.एड.भी कर लिया। पतीने बैंकिंग की औरभी परीक्षाएँ दी तथा तरक़्क़ी पाई। राजू दसवी तथा बारहवी कक्षा तक बहुत बोहोत बढिया नमबरोंसे पास होता गया और उसे सहजही मेडिकल कॉलेज मे प्रवेश मिल गया।
जब संजू बारवी मे था तब आशा की माँ गुज़र गयी। सिर्फ सर्दी-खाँसी तथा तेज़ बुखार का निमित्त हुआ और क्या हो रहा है ये ध्यान मे आनेसे पहलेही उसके प्राण उड़ गए। न्युमोनिया का निदान तो बादमे हुआ।

बोहोत दिनोतक माँ की यादों मे उसकी पलके नम हो जाती। आशा स्कूलसे आती तो माँ चाय तैयार रखती। खाना तैयार रखती। सासकी इस चुस्ती पर उसका पतीभी खुश रहता। धीरे,धीरे खाली घरका ताला खोल के अन्दर जानेकी उसे आदत हो गयी।
संजूको भी बारहवी मे बोहोत अछे गुण मिले राजू के बाद वोभी मेडिकल कोलेजमे दाखिल हो गया। देखतेही देखते राजू एम्.बी.बी.एस.हो गया।
internship पूरी करके सर्जन भी बन गया। उसकी प्रगल्भ बुद्धीमत्ता की शोहरत शहरभर मे फ़ैल गयी और एक मशहूर प्राइवेट अस्पताल मे उसे नौकरी भी मिल गयी। इस दरमियाँ पतीके पीछे लगके उसने छतपे दो सुन्दरसे कमरे भी बनवा लिए थे। राजू संजूके ब्याह्के बाद तो ये आवश्यक ही होगा।
अपूर्ण

दयाकी दृष्टी सदाही रखना..! 3

ये सुनकर उसका अपनी अशिक्षित माँ के प्रती आदर एकदम से बढ़ गया। कितने धीरज से ज़िंदगी का सामना किया था उस अनपढ़ औरत ने!
आशाके दिन पूरे हो गए। सरकारी अस्पताल मी उसका प्रसव हुआ। सबकुछ ठीक ठाक हो गया। नामकरण के समय पतीने कहा,"नाम मे कहीं तो 'राजा' होना चाहिए। यथानाम तथा गुण। मन से धन से वो राजा बनेगा। अंत मे "राजीव"नाम रखा और उसका राजू बन गया। सबकुछ कैसा मनमुताबिक चल रहा था। भगवान्! मेरे नसीब को कहीँ नज़र न लग जाये, कभी,कभी आशाके मनमे विचार आता।

दयाकी दृष्टी सदाही रखना...! २

और एक दिन बाप गुज़र जानेकी खबर आयी। उन दिनों वो गर्भवती भी थी। मायके जाकर अपनी माँ को अपने एक कमरे के घर मे ले आयी। पती को बैंक की ओरसे घर बनवानेके अथवा खरीदनेके लिए क़र्ज़ मिलने वाला था। दोनोने मिलकर घर ढूढ़ ना शुरू किया। शहर के ज़रा सस्ते इलाकेमे मे दो कमरे और छोटी-सी रसोई वाला,बैठा घर उन्हें मिल गया। आगे पीछे थोडी-सी जगह थी। दोनो बेहद खुश हुए। कमसे कम अब अपना बच्चा पत्रे के छत वाले, मिट्टी की दीवारोंवालें , घुटन भरे कमरेमे जन्म नही लेगा!
वो और उसकी माँ , दोनोही बेहद समझदारीसे घरखर्च चलाती । कर्जा चुकाना था। माँ नेभी अडोस पड़ोस के कपडे रफू कर देना,उधडा हुआ सी देना, बटन टांक देना, मसाले बना देना तो कभी मिठाई बना देना, इस तरह छोटे मोटे काम शुरू कर दिए। वो बेटीपर कतई बोझ नही बनना चाहती थी और उनका समयभी कट जाता था।
एक दिन आशाने कुतुहल वश उनसे पूछा,"माँ, मैं तेरी कोख से सिर्फ एकही ऑलाद कैसे हूँ? जबकी आसपास तुझ जैसों को ढेरों बच्चे देखती हूँ?"
माँ धीरेसे बोली,"सच बताऊ? मैंने चुपचाप जाके ओपरेशन करवा लिया था। किसीको कानोकान खबर नही होने दी थी। तेरा बाप और तेरी दादी"बेटा चाहिऐ"का शोर मचाके मेरी खूब पिटाई लगते थे। मेहनत मैं करूं,शराब तेरा बाप पिए, ज्यादा बच्चों का पेट कौन भरता?बोहोत पिटाई खाई मैंने,लेकिन तुझे देख के जी गयी। तेरी दादी कहती,तेरे बाप की दूसरी शादी करा देंगी , लेकिन उस शराबी को फिर किसीने अपनी बेटी नही दी। "

दयाकी दृष्टी सदाही रखना.....1

शीघ्र सवेरे कुछ साढ़े चार बजे,आशाकी आँखे इस तरह खुल जाती मानो किसीने अलार्म लगाके उसे जगाया हो। झट-से आंखों पे पानी मारके wo वो छत पे दौड़ती और सूर्योदय होनेका इंतज़ार करते हुए प्रनायाम्भी करती। फिर नीचे अपनी छोटी-सी बगियामे आती। कोनेमेकी हिना ,बाज़ू मे जास्वंदी,चांदनी,मोतियाकी क्यारी, गेट के कमानपे चढी जूहीकी बेलें,उन्हीमे लिपटी हुई मधुमालती। हरीभरी बगिया। लोग पूछते, क्या डालती हो इन पौधों मे ? हमारे तो इतने अच्छे नही होते? प्यार! वो मुस्कुराके कहती।

हौले,हौले चिडियांचूँ,चूँ करने लगती।पेडों परके पत्तों की शबनम कोमल किरनोमे चमकने लगती! पंछी इस टहनी परसे उस टहनी पर फुदकने लगते। बगियाकी बाड्मे एक बुलबुलने छोटा -सा घोंसला बनाके अंडे दिए थे। वो रोज़ दूरहीसे झाँक कर उसमे देखती। खुदही क्यारियोंमेकी घाँस फूँस निकालती। फिर झट अन्दर भागती। अपनेको और कितने काम निपटाने हैं,इसका उसे होश आता

नहा धोकर बच्चों तथा पतीके लिए चाय नाश्ता बनाती। पती बैंक मे नौकरी करता था। वो स्वयम शिक्षिका। बच्चे डॉक्टरी की पढाई मे लगे हुए। कैसे दिन निकल शादी होकर आयी थी तब वो केवल बारहवी पास थी बाप शराबी था। माँ ने कैसे मेहनत कर के उसे पाला पोसा था। तब पती गराज मे नौकरी करता था।

शादी के बाद झोपड़ पट्टी मे रहने आयी। पड़ोस की भाभी ने एक हिन्दी माध्यम के स्कूलमे झाडू आदि करने वाली बाई की नौकरी दिलवा थी । बादमे उसी स्कूलकी मुख्याध्यापिकाके घर वो कपडे तथा बर्तन का काम भी कर ने लगी। पढ़ने का उसे शौक था। उसे बाहर से बी ए करने की सलाह दी। वो अपने पतीके भी पीछे लग गयी। खाली समयमे पढ़ लो,पदवीधर बन जाओ,बाद मे बैंक की परीक्षाएँ देना,फायदेमे रहोगे। धीरे,धीरे बात उसकी भी समझ मे आयी। कितनी मेहनत की थी दोनो ने! पढाई होकर,ठीक-से नौकरी लगनेतक बच्चों को जन्म न देनेका निर्णय लिया था दोनोने। पती को बैंक मे नौकरी लगी तब वो कितनी खुश हुई थी !

Tuesday, October 16, 2007

किसी राह्पर 7

इतनेमे फिर दरवाज़की घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला। एक जोडा अन्दर आया। संगीताने उनका परिचय कराया,"आप है मिस्टर और मिसेस राय ,और ये है मिस्टर साठे।"
फिर राय दम्पतीकी ओर मुखातिब होके बोली,"हमे चलना चाहिऐ, हैना?मि.साथे, हम लोग जब्भी मौक़ा मिलता है,पास के व्रुधास्रम मे जाते है,वहाँ पर भिन्न,भिन्न संस्कृतिक कार्यकम करते हैं, गाते बजाते हैं,उन्हें घुमानेभी ले जाते हैं। हमारा बैंक ऐसे कई कार्यक्रम स्पोंसर करता है। कुल मिलके बडे मज़से वक़्त कटता है हमारा!" उस पूरी शाम मे संगीता पहली बार इतना उल्लसित होकर बतिया रही थी,लेकिन उसका "मि.साठे"संबोधन सागर को झकझोर गया।
पर्स लेकर वो दरवाज़के पास खडी हो गयी,सागर के लिए बाहर निकल जानेका ये स्पष्ट संकेत था। सागर बाहर निकला । संगीता अपने साथियोंके साथ कारमे बैठी और निकल गयी। शायद आगे ज़िन्दगीमे उसे उसके लायक कोई मीत मिल जाये क्या पता.....ऐसा कि जिसे संगीता जैसे रत्न की परख हो! सागर ने एक आह-सी भरी....उसके हाथोंसे वो हीरा तो निकल ही गया था....उसीकी मूर्खता के कारण।
जिस मोड़ पे सागर ने संगीता को छोड़ा था वहाँसे वो कहीं आगे, दूर और बोहोत ऊंचाई पे पोहोंच गयी थी !
समाप्त।

किसी राह्पर 6

जब वो पुणे आया तो उसने माँ से पूछा,"माँ,मैंने तुम्हे बड़ी मुद्दत से पैसे नही दिए, और तुमनेभी नही मांगे। ये सब खर्च किस तरह चला रही हो तुम?"उसके बाहर रहते उसके पिताभी पनद्रह दिनोके लिए अस्पतालमे भर्ती थे। माँ के लिए रखी हुई दिन भरकी कामवाली बाई भी आती थी। सारे बिल चुकाए जा रहे थे। सागर को कुछ समझ मे नही आ रहा था। माँ खामोश रही।
"कुछ बोलोना माँ! तुमने अपने जेवर तो नही बेचे?" सागर ने फिर पूछा।
"सागर,तुम्हे याद है,मैंने कहा था, संगीताने घर छोड़ा है,लेकिन हमे नही छोड़ा?सब घर-गृहस्थी उसीकी वजह से चलती रही,"माँ ने जवाब दिया।
"क्यों? क्यों लिए उससे पैसे??"सागर चीखने लगा।
"तो क्या तुम्हारे पिताको मरनेके लिए छोड़ देती?और मेरे घुट्नोमे इतना दर्द रहता है,मुझे उठने बैठ्नेमे इतनी तकलीफ होती है,मैं कर सकती घर का सारा कामकाज?तेरे पास समय था हमारी पूछताछ करनेका?"माँ ने भी उंची आवाज़ मे जवाब दिया तो सागर चुप कर गया।
उसके मनमे पश्चात्ताप की भावना जाग उठी। अनजानेही उसके मनने स्वीकारा के संगीता उससे बढ़कर अभिनेत्री बन सकती थी। वो सुन्दर भी थी,बेहद फोटोजेनिक भी थी। उसके अभिनय का लोहा सभी ने माना था। सिर्फ उसके कारण उसने नौकरी की सुरक्षितता थामी थी और उसने क्या किया था संगीता के लिए,जिसके साथ उसने जीवनभर साथ निभानेका वादा किया था, सात फेरे लिए थे? एक बेहद कठिन मोड़ पर,जहाँ संगीताको उसकी सख्त ज़रूरत रही होगी, उसका साथ छोड़ दिया था।
इतवारकी शाम थी। संगीता अपने घर मे बैठी टी.वी.देख रही थी, तभी दरवाज़ेपर घंटी बजी। उसने दरवाज़ा खोला। सामने सागर खडा था।
"आयिये!" ,बिना कोई अचरज दिखाए उसने कहा। पहले वो उसको"तुम"करके संबोधित करती थी। सागर बैठा। उसने फ़्लैट मे इधर उधर नज़र दौड़ाई । वही कलात्मकता जो संगीता के स्वभावका एक अंग थी, यहाँ भी दिखाई दी।
"संगीता,मुझे ये "आप"करके क्यों संबोधित कर रही हो? क्या मैं इतना पराया हो गया हूँ?"
"ये सवाल आप अपने आपसे कीजियेगा। मुझे सिर्फ बतायिये,चाय या कोफी ?"
उसे सिर्फ कोफी ही पसंद थी और मूड आता तो दोनो एक दूजेसे कहते ,"चलो कोफी हो जाय"।
"मैं लेकर निकला हूँ,मुझे कुछ नही चाहिए",सागर ने कहा। सच तो ये था के वो कोफी के लिए कभीभी मन नही करता था इस बातसे संगीता अच्छी तरह अवगत थी।
"ठीक है,मैं अपने लिए बनाने चली थी ,सोंचा आपसेभी पूछ लूँ,"कहकर वो ड्राइंग तथा डायनिंग की बगल मे जो ओपन किचन था ,वहाँ गयी और अपने लिए कोफी बनाके ले आयी। वो उसे निहारता रहा। प्रसव के बाद उसका किंचित-सा वज़न बढ़ गया था,लेकिन अब वो किसी कॉलेज कन्या की तरह दिख रही थी।
"कैसा चल रहा है तुम्हारा काम धंदा?"सागरने पूछा।
असलमे उसकी तटस्थ तासे वो चकरा गया था। वो सोंचता था की संगीता इस तरह के सवाल करेगी के,"इधर कैसे आना हुआ?"
फिर वो उससे क्षमा मांग के ,पिछली बाँतें भूलनेके लिए कहेगा ,इसतरह का मन बना के वो आया था।
"बिलकुल मज़ेमे चल रहा है सबकुछ,"उसका जीवन कैसा चल रहा है,ये तो उसने पूछा ही नही। वैसे उसे सब पताही था। उसके पास क्यों आया येभी संगीता ने उससे पूछा नही।
"संगीता,मैं किसलिए आया हूँ ये तुम ने मुझसे पूछा ही नही?"पूछ ते हुए उसकी ज़बान सूख रही थी।
"ये बात मैं क्यों पूछू ?आप आये है ,आपही बताएँगे!"संगीताने कहा।
"संगीता,मुझे ये आप,आप कहना बंद करो,"अचानक सागर ने ऊंचे स्वरमे कहा।
"देखिए,चिल्लायिये मत। आप मेरे घर अपनी मर्ज़ीसे आये है,और मुझसेही ऊंचे स्वरमे बात कर रहे है?कमाल है!"संगीताने अबभी संयत स्वरमे कहा।
"सुनो संगीता.......,मैं तुम्हे फिरसे घर ले जाने के लिए आया था,क्या तुम आओगी,ये पूछने आया हूँ। जो हुआ उसके लिए मुझे बेहद अफ़सोस है। मैं पश्चात्ताप की अग्नीसे झुलस रहा हूँ। मुझे तुमसे बोहोत सारी बातें करनी हैं,एक नए सिरेसे ज़िंदगी शुरू करनी है.........संगीता...,"सागर इल्तिजा करने लगा ।
संगीताने उसे बीछ मेही रोक दिया,"देखिए,मैं कभीभी वापस लौटूंगी , ये ख़याल आप अपने दिमाग से पूरी तरह निकाल दीजिए। आप मेरे निरपराध बच्चे का क़त्ल कर ने निकले थे। ऐसे आदमी के साथ ज़िंदगी गुज़ारनेकी मूर्खता मैं फिर कभी नही करूंगी।" वो अभीभी सादे स्वरमे बतिया रही थी,उसके लह्जेमे बर्फीली ठंडक थी।

किसी राह्पर 5

एक सुबह उठके उसने बच्चे को छुआ तो उसे निष्प्राण पाया। उसने कोई शोर नही मचाया। साथ सोये सागर को भी नही जगाया। बच्चे को गोद मे उठाकर वो अपनी सास के पास गयी तथा उन्हें बताया। सागर कोभी उन्होनेही जगाया, जहाँ,जहाँ, फ़ोन करने थे किये। जो जो क्रिया कर्म ,विधियाँ होनी थी शुरू हो गयी। अडोसी,पड़ोसी,रिश्तेदार आ गए। जब उस नन्ही जान की अन्तिम यात्रा का समय आया,बस तब संगीता अपनी सास तथा माके गले लग के रोली। फिर अपने ससुरकी ओर मुड़कर बोली ,"बच्चे का क्रिया कर्म आप करेंगे।" समझने वाले बात को समझ गए।
उसने बैंक मे जाना शुरू कर दिया। सागर एक हिरोइन के साथ मुम्बई मे घूमता फिरता है ,ये बात उसके पढ्नेमे तथा सुननेमे आ गयी थी। सागर कुछ दिनोके लिए पूना आया था। एक दिन सुबह उठा तो उसे पास मे पड़ा एक कागज़ दिखा। आँखें मलते हुए उसने पढा,
"सागर,
हमारा साथ बस इतनाही था। मैंने बैंक द्वारा दिया गया फ़्लैट कुछ दिन पहलेही कब्ज़मे ले लिया था। मेरी ओरसे अब तुम पूर्ण तया स्वतंत्र हो। जब चाहो तलाक़ ले सकते हो।
संगीता"
सागर काफी दिनों के बाद पुणे आया था अपनी माँ के पास जाके उसने पूछा,"संगीता तुम्हे बताके गयी?"
"हाँ! बताके गयी",माँ ने शांत भाव से जवाब दिया।
"तुमने उससे कुछ कहा नही?मतलब रोका नही?"सागर ने पूछा।
"क्यों और किसके लिए? तुमने तो अपनी उससे अलग अपनी ज़िंदगी बानाही ली है। वैसेभी उसने घर छोड़ा है,मुझे या तुम्हारे बाबूजी को नही छोड़ा है,"माँ ने कहा।
सागर खामोश हो गया। मनही मन निश्चिंत भी हो गया। अब वो पूरी तरह अपनी मनमानी कर सकता था। वो हिरोइन भी उसके मुम्बई के फ़्लैट मे रहने लगी। दिन बीतते गए और सागर की कुछ फिल्मे एकदम फ्लॉप गयी। कुछ फिल्मों मे उसकी अदाकारीभी घटिया थी, येभी अलग,अलग अखबार तथा पर्चियों मे छपके आया। बचत नाम की आदत तो सागर के जीवन मे थी ही नही। सागर की ये प्रवृत्ती देख करही संगीताने अपने बैंक का खाता अपने ही नाम पे रखा था। सागर उसकी उस हिरोइन के साथ परदेस भ्रमण कर आया था। फिल्मी दोस्तो के साथ पंच तारांकित होटलों मे मेहेंगी पार्टीस ,मेहेंगे कपडे,मेहेंगे तोहफे ये सब कुछ वो करताही चला गया और फिर वो दिनभी आया जिस दिन उसे एहसास हुआ के संगीता नामक सपोर्ट सिस्टम अब उसकी ज़िन्दगी मे नही है। वो चिडचिडा हो गया, और उसके पसेसिव बर्ताव के कारण वो हिरोइन भी उसे छोड़ के चल दी....

अब क्या किया जाय उसकी समझ मे नही आ रहा था। गुमनामी के अँधेरे से बचने के लिए उसने कुछ बड़ी ही घटिया फिल्मोंमे ,घटिया किर्दारोंको निभाया। इससे उसकी औरभी बदनामी हुई। उसे एक दिन एक और बात याद आयी के पिछले कुछ महीनोसे उसने अपनी माँ को पैसेभी नही दिए है। पेंशन वाले पिताके पैसोंसे माँ घर किस तरह चला रही होगी?
क्रमशः

Sunday, October 7, 2007

किसी राह्पर 4

"सागर इधर आओ!"कोनेमे खडे सागरको उसकी माने बुलाया। सागरने सब सुनही लिया था। वो आगे आया लेकिन किसीसे नज़रें मिल नही पाया। नीचे मूह लटकाए बोला,"कौन देखभाल करेगा ऐसे बच्चेकी??मैं सभीके भलेकी खातिर कह रहा था।"
"भलेकी खातिर? अरे हत्या करनेवाला था तू उस निरपराध जीवकी?? बाप होते हुए? तुझे शर्म नही आयी?"सागरकी माँ घुस्सेसे बोली।
सागर सागर संगीतासे कुछ्भी बात किये बिना बाहर निकल गया। संगीताने मनही मन निश्चय किया,वो अपने आगेका भवितव्य स्वीकार करेगी।,चाहे उसे जोभी कीमत चुकानी पडे। बच्चे को कमसे कम एक महीना अस्पताल मे रखना ज़रूरी था। दुसरे दिन जब डाक्टर ने उसे चलनेकी इजाज़त दीं तो incubator मे रखे अपने उस असहाय जीव को उसने देखा । वो ज़्यादा दिन जिंदा नही रह सकता ये कोयीभी बता सकता था,लेकिन जबतक जियेगा,वो अपनी जान निछावर करेगी,ये उसने तय कर लिया।
महीनेभर के बाद वो और उसका बच्चा घर आये। संगीताने अपने बैंक वालोंको पहलेही स्थिती बता दीं थी। बैंक ने उसे हर प्रकार से सहायता दीं।
आजकल सागर और उसके बीच बातचीत ना के बराबर ही होती थी। लेकिन सास उसकी बेहद मदद करती लगभग छ: महीनोके बाद वो बालक संगीताकी नज़दीकी का एहसास करने लगा। संगीता उसके पलनेके पास आती तो उसके होटों पे हल्की-सी मुस्कान आती। ये देख कर संगीता का दिल भर आता। उसे लगता,कुछ्ही दिनोके लिए क्यों ना हो, उसकी मेहनत सार्थक हुई है।

Saturday, October 6, 2007

किसी राह्पर 3

जब उसे धीरे धीरे होश आने लगा तो तपते तेलकी तरह उसके कनोमे शब्द पड़ा,'retarded'."डाक्टर,संगीताको आप बताये ही मत। उसे बतायें कि बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ। हमे ये नही चाहिऐ। इस भयंकर चीज़ को कौन संभालेगा?"ये आवाज़ सागर की थी। संगीताकी आँखें अभीतक खुल नही पा रही थी। मुहसे शब्द भी नही निकल रहे थे,लेकिन वो सबकुछ सुन पा रही थी।
"स्श! धीरे बोलिए!संगीता किसीभी समय होशमे आ सकती है और बच्चा कैसाभी हो ,वो तुम्हारी ऑलाद है। डाक्टर के नाते मैं इसे मर्नेके लिए नही छोड़ सकता। तुम्हारी दृष्टी से वो सिर्फ एक मांस का गोला होगा लेकिन उसमे प्राण हैं,"डाक्टर की आवाज़ धीमी लेकिन सख्त थी।
"आपसे ग़र नही हो सकता तो मैं इसका खात्मा करता हूँ,"सागर की घृणा भरी आवाज़।
"खबरदार! ऐसा कुछ किया तो मैं तुम्हे पुलिस के हवाले कर दूंगा,"डाक्टर की तेज़ आवाज़।
अब संगीता की आँखें धीरे,धीरे खुलने लगीं। पलकें थरथराने लगीं। उसने सबसे पहले ,"माँ" कह कर पुकारा। डाक्टर पास आकार बोले,"कहो कैसा लग रहा है?मैं बुलवाता हूँ तुम्हारी माँ को।"
माँ और सास दोनोही अन्दर आयी और उसकी दोनो ओर बैठ गईँ। माने उसका हाथ हाथ मे लिया तथा सासुमा उसके सरपर हाथ फेरने लगी।
"माजी,"वो अपनी सास की ओर देखते हुए बोली,"हमारा बच्चा नॉर्मल नही है?"
"हमे मालूम है बेटी,भगवान् की ऐसीही मर्जी। तुम चिन्ता मत करो। येभी दिन हम काट लेंगे,"सास प्यारसे बोली।
"लेकिन माजी सागर ने जो कहा वोभी मैंने सुन लिया है,"कहते,कहते संगीताकी आँखें भर आयीं।
"क्या कहा सागर ने?"माजीने पूछा।
सागरने जो कहा था,वो संगीताने उन्हें बता दिया। सुनकर उसकी सास और माँ दोनोही दंग रह गयी।

किसी राह्पर 2

बी.कॉम.की परीक्षा हो गयी। कुछ दिन मौज मस्तीमे गए और फिर संगीताकी एम्.बी.ए.की पढी,कॉलेज,और एक विशिष्ट दिनचर्या शुरू हो गयी। सुबह्से शामतक,कभी,कभी,रातमे दस बजेतक उसके क्लासेस चलते रहते। उसके बनिस्बत सागरके पास अपनी ड्रामा की प्राक्टिस के अलावा काफी समय रहता। वो संगीता को मिलनेके लिए बुलाता रहता,लेकिन संगीताके पास एक रविवारको छोड़कर ,और वोभी कभी कभार,समय रेह्ताही नही। इसतरह की दिनचर्या देख सागर चिढ जाता,"येभी कोई ज़िंदगी है?"वो संगीतासे पूछता।
"देखो सागर,ज़िन्दगीमे अगर कुछ पाना हो तो कुछ खोनाभी पड़ता है। ये मैं नही कह रही,हमारे बुज़ुर्गोने कह रखा है,"संगीता उसे समझानेकी भरसक कोशिश करती।
"तुम्हे सभी क्लासेस अटेंड करना ज़रूरी है?कभी मेरे ड्रामा की प्राक्टिस देखनेका तुम्हारा मन नही करता?ऐसीभी क्या व्यस्तता की जो ज़िन्दगीका सारा मज़ाही छीन ले?" सागर बेहेस करता।
"तुम्हारे ड्रामा की प्राक्टिस देखने का मेरा बोहोत मन करता है, लेकिन इसलिये मैं अपने क्लासेस मिस नही कर सकती,"संगीता को हल्की-सी सख्ती जतानी पड़ती।
एक बार सागर को एक फिल्म्के स्क्रीन टेस्ट की ऑफर आयी। उस समय संगीता उसके साथ जा पायी। टेस्ट सफल रहा और सागर को एक फिल्म मे काम करनेका मौका मिला। अबतक संगीताका एक साल पूरा हो चुका था लेकिन गर्मियोंकी छुट्टी मे उसे कोर्स के एक भाग के तौरपर
किसी कम्पनी मे काम करना ज़रूरी था। उसने मार्केटिंग लिया था। पूनामेही उसे दो महीनेका काम मिल गया।
एक दिन शाम को सागर अपनी फिल्म की स्क्रिप्ट लेकर संगीता के घर पोहोंचा। उसके रोल के बारे मे बता कर उसने संगीता की राय मांगी,तो संगीता बोली,"सच कहूं सागर?चिढ मत जान। कहानी बिलकुल बेकार है। कुछ्भी दम नही, वही घिसी पीती। अब तुम अपना रोल किस तरह निभाते हो इसपे शायद तुम्हारा भविष्य कुछ निर्भर हो।"
"मुझे लगाही था कि तुम इसी तरह कुछ कहोगी। मेरी यह पहली शुरुआत है, कम से कम मेरा चेहरा तो जनता के सामने आयेगा, लोग मेरा अभिनय देखेंगे। अन्यथा कब तक इंतज़ार करूंगा मैं?"सागर खीझ कर बोला।
"चिढ़ते क्यों हो? तुम्ही ने मेरी राय पूछी। निर्णय तो तुम्ही को लेना है!"संगीता बोली।
उसका दूसरा साल शुरू हुआ और सागर की शूटिंग भी। सागर अलग अलग लोकेशन्स पर घूम ने लगा। फिल्म रिलीज़ होनेतक संगीता का दूसरा सालभी ख़त्म होने आ रहा था और उसे कैम्पस इंटरव्यू मेही बोहोत अच्छी ओफर्स आयी थी। उन्ही मेसे उसने एक प्रतिष्ठित बैंक की नौकरी स्वीकार कर ली क्योंकि काम पूनामेही करना था। बढिया तनख्वाह, कार तथा फ़्लैट, ये सब उसी पाकेज का हिस्सा थे।
सागरकी फिल्म तो पटकी खा गयी लेकिन उसका अभिनय तथा व्यक्तित्व कुछ निर्माता निरदेशकोंको भा गया।
सागर का घर पूनामेही था। वो अपनी माँ-बापकी इकलौती ऑलाद था। उसने और फिल्मे साईन करनेके बाद पेइंग गेस्ट्की हैसियत से मुम्बैमे जगह लेली। सागर संगीता का अब ब्याह हो जाना चाहिए ऐसा दोनोके घरोंसे आग्रह शुरू हो गया और जल्द होभी गया। संगीताके सास ससुर दोनोही बडे ममतामयी और समझदार थे। उन दोनोको अधिक से अधिक समय इकठ्ठा बितानेका मौक़ा मिले ऎसी उनकी भरसक कोशिश रहती।
सागर की व्यस्तता बढती जा रही थी। अब उसने मुमबैमे अपना एक छोटासा फ़्लैट भी ले लिया,जिसे संगीताने बड़ी कलात्मक्तासे सजाया। समय तथा छुट्टी रेहनेपर वो कभीकभार सागर की फिल्मी दावतोंमे भी जाती। हमेशा पारम्परिक कलात्मक वेशभूषामे। उसके चेहरेमे उसकी बातचीत के तरीके मे कुछ ऐसा आकर्षण था,जो लोगोंको उसकी ओर खींच लाता। अर्धनग्न फिल्मी अभिनेत्रियों को छोड़ लोग उसके इर्द गिर्द मंडराते।
इसी तरह तेज़ीसे दिन बीत ते गए। देखतेही दो साल हो गए और संगीता के पैर भारी हो गए। मायका और ससुराल दोनो ओर सब उस खुशीके दिनका इंतज़ार करने लगे जब किसी नन्हे मुन्ने की किलकारियाँ घरमे गूंजेंगी।
"तुम्हे बेटा चाहिए या बेटी?"एक बार सागर ने संगीता को पूछा।
"मुझे कुछ भी चलेगा। बस भगवान् हमे स्वस्थ बच्चा दे,"संगीता बोली,और फिर प्रसूती का दिन भी आ गया। सागर अपनी शूटिंग कुछ दिन मुल्तवी रख के संगीता के पास पूना मेही रूक गया। संगीता को प्रसूती कक्ष मे जाया गया। काफी देर के इंतज़ार के बाद डाक्टर ने बताया के सिज़ेरियन करना पड़ेगा। होभी गया। जब उसे कमरेमे लाए तब तक वो बेहोश थी।

Friday, October 5, 2007

किसी राह्पर 1

सागर और संगीता कॉलेज की कैंटीन मे बैठ के गपशप कर रहे थे। साथ गरमा गरम काफ़ी भी थी। इस जोडी से अब पूरा कैम्पस परिचित हो चुका था । शुरुमे जब उनके ग्रूपके अलावा दोनो मेलजोल बढ़ाते तो बाकी संगी साथी उन्हें ख़ूब छेड़ते ,लेकिन अब सबने जान लिया था कि ये अलग होनेवाली जोडी नही है।
इन दोनोका परिचय कॉलेज के ड्रामा के कारण हुआ था। दोनोको अभिनयका शौक़ था और जानकारिभी। दोनोही अपनी भूमिका जीं जान लगाके करते और देखने वालोंको लगता मानो वे बिलकुल मंझे हुए कलाकार हो। दोनोही इस समय बी.कॉम.के आखरी सालमे थे। पढाई मे संगीता सागरसे बढकर थी। बी.कॉम.के बाद वो एम्.बी.ए .करना चाहती थी। हालहीमे उसका सी.ई.टी.का रिजल्ट निकला था तथा वो उसमे दूसरे स्थान पे आयी थी। ये अपने आपमें एक बड़ी उपलब्धी थी। उसे पूनाके किसीभी प्रातिथ यश एम्.बी.ए. के कॉलेज मे प्रवेश मिल सकता था। दोनो इसी बारेमे बतिया रहे थे। सागरने अभिनयका क्षेत्र चुन लिया था तथा स्वयमको उसीमे पूर्णतया समर्पित करना चाहता था। वो संगीताकोभी यही करनेके लिए प्रेरित कर रहा था।
"देखो सागर,नाटक सिनेमा आदी क्षेत्रोमे किस्मतका काफी हिस्सा होता है,सिर्फ मेहनत या लगन काम नही आती। लोटरीकी तरह है ये सब। लग गयी तो लग गयी,वरना इंतज़ार ही इंतज़ार। हम दोनोमेसे एक को तो सुनिश्चित तनख्वाह की नौकरी करनीही पडेगी। अभिनय के क्षेत्रमे कितनेही चहरे उभरते,और प्रतिभाशाली होकरभी सिर्फ हाज़री लगाके ग़ायब हो जातें है।"संगीता सागर को बडीही संजीदगीसे समझा रही थी। वैसेभी उसकी विचारधारा बडीही परिपक्व थी। उसके पिता,जब वो बारहवी मे थी ,तभी चल बसें थे। उसकी और दो छोटी बहने थी। उसके चाचाने अपने भाईके परिवारको हर तरह्से मदद की थी और संगीता इस कारण उनकी सदैव रुणी थी।
"संगीता,तुम जो कह रही हो,वो मैं समझता हूँ, लेकिन ज़िंदगी हमे अपनी मर्ज़ीसे जीनी चाहिऐ। इसके लिए अगर थोडा रिस्क ले लिया जाये तो क्या हर्ज है? थोडी आशावादी बनो। प्रसार माध्यमोने हमे अच्छी प्रसिद्धी दी है। आंतर महाविद्यालयीन स्पर्धाएं हमने जीती है। अच्छी,अच्छी पत्रिकायोंमे ,अखबारोंमे हमारी मुलाकातें छपी हैं। मुझे अपना भविष्य उज्वल नज़र आ रहा है,"सागर उसे मनानेकी भरसक कोशिश कर रहा था।
संगीता उसके हाथ थामके,मुस्करा पडी और बोली,"नही सागर,एम्.बी.ए.करनेका ये अवसर मैं कतई नही गवाना चाहती । तुम करो नाटक सिनेमा। तुम्हारे यशमे मैं अपना यश मनके संतोष कर लूंगी। कहते है ना कामयाब पुरुष के पीछेकी स्त्री!"
सागर समझ गया कि इस मामलेमे संगीता अडिग रहेगी। कैंटीन से उठके दोनो अपने अपने घर चले.....
क्रमश:

Monday, September 24, 2007

एक खोया हुआ दिन

आँसू भरी आँखोंसे उसने मैले कपडे साबुन मे भिगोए,झाड़ू लगाई,बरतन मांझे। फिर भिगाये हुए कपडे धो डाले। नहानेके बादभी बड़ी रुलाई आ रही थी,लेकिन समय कहॉ था? दालें सब्जी आदी लानेके बाद पी. टी .ए की मीटिंग मे जाना था,उसीमेसे समय निकालकर दो निवाले खाने थे।

सहेलीकी सास से भी मिलना था,या फिर उनसे कलही मिला जाय?आज आसार नज़र नही आ रहे थे।

वो पी.टी.ए.की मीटिंग के लिए स्कूल पोहोंची। वहाँ उसको ख़याल आया कि बिटियाको अच्छा खासा बुखार चढ़ा हुआ था। घर लॉट ते समय वो बिटिया को डाक्टर के पास ले गयी। डाक्टर ने ख़ून तपासने के लिए कहा। रिपोर्ट दुसरे दिन मिलेगी। लेकिन डाक्टर को मलेरिया की शंका थी। हे भगवान्! बच्चों का यूनिट टेस्ट तो सरपर था। लेकिन कोई चारा नही था। वो घर पोहोंची। बच्चों के कपडे बदले। बच्ची को बिस्तरपर लिटाया। दवाई दीं। उसके सरमे दर्द था,सो थोडी देर वो पास बैठकर दबाने लगी। कुछ देर के बाद बच्ची की आंख लग गयी। उसके पास वो स्वयम भी लेटी। लेकिन तभी कॉल बेल बजी। कौन होगा इस वक़्त सोचते हुए उसने दरवाज़ा खोला तो माजी खडी थी। वे अपनी बहेन के पास हफ्ताभर रेहनेके इरादेसे गयी थी, लेकिन पैर मे मोंच आनेके कारण लॉट आयी। वहाँ देखभाल करनेवाला कोई नही था। वो उन्हें उनके कमरेमे ले गयी। पैरपे लेप लगाया। तबतक दोपहर के साढेचार बज रहे थे। उसने दो कप चाय बनाई। माजी का पैर काफी सूज रहा था,इसलिये उसने पती को फ़ोन पे कहा के घर लॉट ते समय डाक्टर को ले आयें।

फिर वो अपनी बिटिया को देखने गयी। उसका माथा बोहोत गरम लगा इसलिये ठंडे पानीकी पट्टियां रखना शुरू की। उसके पैरोंके तलवे भी ठंडे पानीसे पोंछे। रातमे क्या भोजन बनाया जाय येभी वो मनही मन सोंच रही थी। बिटिया को खाली पेट दवाई नही देनी थी पर वो क्या खायेगी इस बातकी उसे चिंता थी। अंत मे उसने खिचडी बनाई। घियाकी सब्जी बनाई। इन दोनो चीजोंको माजी हाथ भी लगायेंगी ये उसे मालूम था। उनके लिए उसने पालक पूरियोंकी तैयारी की और तभी उसके ध्यान मे आया, कि वो दही जमाना भूल गयी थी। वे बिना दहीके पूरियां खाने से रही! और दहीभी घरका जमाया हो। सोंचते,सोंचते उसने बेटेका स्कूल बैग खोला। डायरी चेक की। तय ना होनेका रिमार्क थाही। होम वर्क ज़्यादा नही था। उसने बेटे को टी.वी. के सामने से उठाया। वो छुटका होमवर्क के लिए तंग नही करता था।

दही के लिए उसने अपनी एक सहेली को फ़ोन लगाया। दही कैसे जमाना वो सहेली इसीसे सीखी थी। सहेली दही देके चली गयी। पती डाक्टर को लेकर घर आये। उन्होने माजीके पैरको एलास्टोप्लास्त लगाया। ये सब हो जानेपर उसने बिटिया को थोडा सा खाना खिलाया। बेटे को खाना परोस कर वो सामने बैठी रही। उसने थोडा नाटक करते हुए खाना खाया। पती अपनी माँ के पास बैठे थे। उन दोनो का खाना उसने माजी के कमरेमेही परोसा,फिर बोली,"आप आप माजी के कमरे मे ही सो जयिये। रात मे उन्हें बाथरूम जाने मे अन्यथा मुश्किल होगी"।

उसने स्वयम बच्चों के कमरे मे सोने का सोंचा।

सब निपट्नेके बाद उसने थोड़े बरतन मांझे। जब सब सो गए तो वो अपनी सहेलीसे बडे दिनोसे एक किताब लाई थी,उसे पढने लैंप जलाकर आराम से कुर्सी पर बैठ गयी। तभी बिजली गुल हो गयी। ज़िन्दगीका एक और दिन अपनी हाजरी लगाकर खो गया।

Friday, September 21, 2007

एक खोया हुआ दिन

अपने बेडरूम मे बिस्तर बनानेसे पेहेले वो रसोई की ओर पतिदेव का डिब्बा तैयार करनेके लिए गयी। इसके लिए उसे रात के कुछ बरतन मांझने पडे। फिर उसने जल्दी-जल्दी कुकर चढाया। सब्जी काटी। एक ओर सब्जी बघारके रायता बनाया। कुकर उतारकर रोटियां बेलने लगी। तबतक पतिदेव कभी अखबार पढ़ रहे थे तो कभी चैनल सर्फिंग, या फिर आराम कुर्सीपे केवल सुस्ता रहे थे। अंतमे वे नहाने के लिए उठे। डिब्बा तैयार करके वो नाश्ता बनानेमे जुड़ गयी। वो बाथरूम मे घुसने के बाद पहले शेव करेंगे, फिर नहायेंगे,ये सोंचकर उसने झटपट अपने बेडरूम का बिस्तर बाना लिया।

तभी बाथरूम का दरवाज़ा थोडा सा खोलकर वो चिल्लाये,"उफ़! मेरा तौलिया नही है यहाँ! हटाती हो तो तुरंत दूसरा रखती क्यों नहीं? और बाज़ार जाओ तो मेरा साबुन भी लाना। तकरीबन ख़त्म हो गया है। कल भी मैंने तुमसे कहा था। पतिदेव तुनक रहे थे।

बिल्कुल आखरी समय नहाने जातें हैं और फिर सारा घर सर पे उठाते है। कौन समझाए इन्हें? वो झट से tauliya ले आयी। अब किसीभी क्षण बाहर आएंगे और नाश्ता मांगेंगे । उसे खुद सुबह से चाय तक पीनेकी फुर्सत नही मिली थी। उसे फुर्सत मे चाय पीनी अच्छी लगती थी और सुबह फुर्सत नाम की चीज़ ही नही होती थी। एक ज़मानेमे चाय का मग हाथ मे पकड़ कर वो काम करती थी, फिर उसने वो आदत छोड़ ही दीं।

पती के नाश्ते के लिए उसने आमलेट की तैयारी और उसे तलने के लिए डाला। पतिदेव बेडरूम मे आ गए थे। तभी फ़ोन की घंटी बजने लगी।

"ज़रा फ़ोन उठाएंगे आप?"उसने पूछा।

"तुम ही देखो ,और मेरे लिए हो तो कह दो मैं निकल चुका हूँ,"आख़िर फ़ोन के लिए वही दौड़ी। फ़ोन बेहेनका था। अमेरिकामे रहनेवाली,उनकी जानसे प्यारी मासी चल बसी थी,अचानक। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। मासी के साथ बिताये कितनेही पल आंखों के सामने दौड़ गए। दोनो बहने फोनपे रो रही थी। लेकिन पतिदेव शोर मचाके उसे वर्तमान मे ले आये।

'सुबह,सुबह इतनी देर फ़ोन पे बात करना ज़रूरी है क्या? तुम्हें गंधभी नही आती?? टोस्ट जल गए,आमलेट जल गया।"

"तुझे बाद मे फ़ोन करूंगी " कहकर उसने फ़ोन रख दिया।

उसकी आंखों की ओर देख के पतीजी ने पूछा,"अब क्या हुआ?"

"मासी चल बसी,दीदी का फ़ोन था।"

"ओह! सॉरी! लेकिन अब समय नही है, मैं चलता हूँ,"पती बोले।

"सुनो, मैं टोस्ट लगती हूँ, सिर्फ मक्खन टोस्ट खाके जाओ,"उसने आग्रह किया।

"नही कहा ना! मैं सुबह कितनी जल्दी मे होता हूँ ये तुम अच्छी तरह जानती हो,"कहकर उन्होने ब्रीफ केस उठाया और चले गए।

एक खोया हुआ दिन

"सॉरी,सॉरी,बाई नही आनेवाली है ये सुन के मेरा मूड एकदम खराब हो गया था,"वो धीरेसे बोली और खिंडा हुआ दूध साफ करके फिर बच्चों के कमरे के ओर मुड़ गयी। उसने झटपट बेटे को नहलाया। वो चारही साल का था। उसे तैयार करने मे सहायता करनीही पड़ती थी। तब तक बेटी भी उठ गयी थी। जब बिटिया नहाने गयी तो ये फिर रसोईमे दौड़ी। झटपट पराठे बनाके डिब्बे तैयार कर दिए,वाटर बोतल्स भर दीं तथा झट से कपडे बदले और बच्चों को लेकर स्कूल के बस स्टॉप पे आ गयी। खडे,खडे लडकी की पोनी टेल ठीक की। इतनेमे बस आही गयी। बच्चे बाय कर के चल दिए।


आज कपडे धोना,बरतन मान्झना ,बाथरूम साफ करना आदि सब काम उसीके ज़िम्मे थे। बच्चों के बिस्तर बनाने और पेहेले दिन के मैले कपडे उठाने के लिए जब वो बच्चों के कमरेमे गयी तो देखा,बेटे की टाई बांधना भूल गयी थी। अब उसे बेकार ही रिमार्क मिलेगा ये सोंच के उसे बुरा लगा।

Wednesday, September 19, 2007

कहानी:एक खोया हुआ दिन

क्या उसकी किसीने दिशाभूल कर दीं थी? ये रास्ता ख़त्म क्यों नही हो रहा था?हर थोडी देर बाद वो किसीसे दिशासे दिशा पूछ रही थी। उसकी मंज़िल की दिशा। कोई दाहिने जानेको कहता तो कोई बाएं मुड़ नेको कहता। वो बेहद थक गयी थी, लेकिन् अब बीचमे रुकनाभीतो मुमकिन भी तो नही था। लेकिन उसे जान कहॉ था? अचानक वो खुद भूलही गयी। अब वो घबराहट के मारे पसीने पसीने हो गयी। अब क्या किया जाय?और क्या आवाज़ है ये?इतनी कर्कश! उफ़! बंद क्यों नही हो रही है? और फिर वो अचानक नीन्द्से जग पडी। वो अपने बिस्तरमे थी और वो आवाज़ दरवाज़ेकी घंटीकी थी। तो वो क्या सपना देख रही थी! उसने राहत की सांस ली!!

वो झट से उठी , ड्रेसिंग गाऊंन पहना और दरवाज़ा खोला। दूध लानेवाला छोकरा दरवाज़पर दूध की थैलियाँ छोड़ गया था। उसने उन्हें उठाया और रसोई घरमे रख दिया। बाथरूम मे जाकर मूह्पे पानी मारा,ब्रुश किया और बच्चों के डिब्बेकी तैय्यारिया शुरू की। कल दोनोने आलू-पराठें मांगे थे। आलू उबलने तक उसके पतीभी उठ गए। "ज़रा चाय बनाओ तो तो,"पतीकी आवाज़ आयी। उसने चायके लिए पानी चढाया और एक ओर दूध तपाने रख दिया और झट बच्चों को उठाने उनके कमरेमे पोहोंची।

पेहेले बिटिया को उठाने की कोशिश की, लेकिन,"रोज़ मुझेही उठाती हो! आज संजूको उठाओ ,"कह कर वो अड़ गयी।

"बेटा, तुम्हारी कंघी करनेमे देर लगती है ना इसलिये तुम्हे उठाती हूँ, चलो उठोतो मेरी अच्छी बिटिया,"उसने प्यारसे कहा।

"नही,आज उसेही उठाओ,"कहकर बिटियाने फिरसे अपने ऊपर चद्दर तान ली।

अन्त्मे उसने संजू को उठाया। वो आधी नींद मे था। उसका हाथ पकड़ के वो उसे सिंक के पास ले गयी और उसके मूह्पे पानी मारा तथा हाथ मे ब्रुश पक्डाया । गीज़र पहलेही चला रक्खा था। चाय बनाने के लिए वो मुड्नेही वाली वाली थी कि फिर दरवाज़ेकी घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो अख़बार पडे देखे। कामवाली बाई अभीतक क्यों नही आयी?उसके मनमे बेकारही एक शंकाने सिर उठाया। वो फिर रसोई की ओर भागी। पानी खुल रहा था। उसने झट से चाय बनायी और अपने पती को पकडा दीं । वह अखबार लेकर ड्राइंग रूम मे चाय पीने लगा।

बच्चों के कमरेमे क्या चल रहा है ये देखने के लिए वो फिर उस ओर मुड्नेही वाली थी कि तभी फिर बेल बजी।

"अमित ज़रा देखोना, कौन है! बाई ही होगी!,"वो इल्तिजाके सुर मे बोली।

"कमाल करती हो! तुम खडी हो और मुझे उठ्नेको कहती हो,"पतिदेव चिढ़कर बोले।

उसने दरवाज़ा खोला तो बाई की लडकी खडी थी।

"अरे,तू कैसे आयी?"

"माँ बीमार है,वो तीन चार दिन नही आयेगी,ये बताने आयी,"लडकी ने जवाब दिया।

इस लडकी को इसी ने स्कूल मे प्रवेश दिलवाया था। बाई नही आयेगी ये सुनकर उसका मूड एकदम खराब हो गया। आज पी.टी.ए.की मीटिंग थी। सहेली की सास बीमार थी,उसेभी मिलने जान था। रात के खाने के लिए सब्जियाँ लानी थीं। उसका वाचन तो कबसे बंद हो गया था। बाई की लडकी तो कबकी चली गयी लेकिन वो अपने खयालोंमे खोयी हुई दरवाज़ेपर्ही खडी रही। अचानक उसे रसोयीमेसे बास आयी। दूध उबल रहा था। वो दौड़ी। गंध पतीको भी आयी। वो फिरसे चिढ़कर बोले, 'क्या,कर के रही हो?कहॉ ध्यान है तुम्हारा?तुम्हे पता हैना कि दूध उबल जाता है तो मुझे और माको बिलकुल अच्छा नही लगता?"

Monday, September 10, 2007

आकाशनीम

"मीना,
इतने सालोंबाद तुम्हारे नाम के आगे क्या संबोधन लिखूं, नही जनता। लेकिन इतने सालोंबाद हिदोस्तान और फिर रामनगर खींच लानेवाली तुम्ही हो। मैं शाम जब रामनगर पोहोचा तो सीधे तुम्हारे घर आया। वहाँ आकर माजी के बारेमे ,नरेंद्र के बारेमे पता चला। मुझे बेहद दुःख हुआ। पता नही, इतने साल तुमने किस तरह अकेले काटे होंगे!!तुम भी घरपर नही हो सो मैंने होटल मे ठहरने का इरादा लिया है। चिट्ठी तुम्हारे बूढ़े नौकर रामूको देकर जा रहा हूँ। होटल का कार्ड साथमे है। तुमसे मिलनेकी बेहद इच्छा,इंतजार है। आशा है तुम चिट्ठी पढ़ही मुझसे सम्पर्क ज़रूर करोगी।
तुम्हारा
स्टीव"
मीनाक्षी दौड़ते हुए हवेली के पिछवाडे गयी जहाँ रामूकाका का घर था और उन्हें ज़ोर जोरसे आवाज़ लगाके जगाया,"रामू काका!!ये चिट्ठी आयी थी और तुमने मुझे तुरंत बताया क्यों नही?"

रामूकाका hadbada के बोले "बहूजी , मैंने आपके लिखने वाले कमरे मे रखी थी। फिर दो बार मैं आपसे कहने कमरेमे झांक गया। आप लिखने मे एकदम खो गईँ थीं। मेरी आवाज़ भी नही सुनी, इसलिये उल्टे पैर लॉट गया। सोंचा,सवेरेही बता दूंगा।"
"अच्छा,अच्छा,अब ड्राइवर को तुरंत इस होटल के पतेपे भेजो। वहां स्टीव साहब रुके हैं, उन्हें लाना है,"कहते हुए उसने रामूकाका को होटल का कार्ड थमाया। फिर दौड़ी आकाशनीम की तरफ। तना पकड़ के उसे झकझोरा । सफ़ेद,सुगन्धित फूलोंकी वर्षा हो गयी। महक छा गयी। स्टीव आ गया था। उसका स्वागत करना था। अब उन्हें कोयीभी शक्ती दूर नही करेगी। नियती के घटना क्रम मे वो नियत क्षण आ गया था। वो हारी नही थी। उसने उस सुबह की, उस सुहाने सूर्योदयकी प्रतीक्षा की थी जो जल्द ही होनेवाला था। एक निश्चित उषा:काल ,सिर्फ भीक मे मिली सूरज की बिछडी किरण नही,शामकी लालिमाकी लकीर नही।

समाप्त

आकाशनीम

पूर्णिमा अपनी दादीकी मृत्युसे हिल गयी थी। मेरा दुःख मैं शब्दोंमे बयाँ नही कर सकती। कहनेको वो स्त्री मेरी सास थी लेकिन मुझे कितनी अच्छी तरह समझा था! मेरी कमजोरी जानकार भी कभी मुझे उलाहना नही दीं थी, बल्कि उसे मेरा समर्पण कहा था। नरेंद्र अन्दरही अन्दर अपना दुःख पी गए। जब माजी की दहन क्रिया के बाद वे घर आये तो मैं उनसे लिपटकर ख़ूब रोई थी। तब ना तो वे मेरे पती थे,केवल एक हितचिन्तक, स्नेही, जो मेरी क्षती को, मेरे अपर दर्द को ख़ूब भली भांती समझते थे। मेरी पीठ पर हाथ फिरकर वे मुझे सांत्वना देते रहे। उनके व्यक्तित्व मे महानता का एक वाले औरभी बढ़ गया। अन्दर ही अन्दर दर्द नरेंद्रनेभी बेहद सहा होगा।

मुझे कई बार महसूस होता जैसे नरेंद्र किसी अपराध-बोध तले दबें हो । माजीकी मृत्युके ठीक छ: साल बाद नरेंद्र को र्हिदय विकारका पहला झटका आया। उसमेसे तो वो बच गए, लेकिन दो साल के बाद जो दूसरा झटका आया उसमे वे नही बच पाए। एक महान कलाकार का, एक महान इन्सान का, जो मेरा पती था , लेकिन मेरी दीदीका प्रेमी था, अंत हो गया।

इतनी बड़ी हवेलीमे नौकरोंके अलावा केवल मैं और पूर्णिमा रह गए। नरेंद्र के बाद्के दो वरषोमे मैं और पूर्णिमा सहिलियाँ-सी बन गयी। पूर्णिमा मुझसे कभी कुछ नही छिपाती, नाही मेरी कोई बात टालती। वैसेभी वो अपनी उम्र से बढकर संजीदा थी। एक दिन उसने मेरा "आकाशनीम" काव्यसंग्रह पढा ,तो मुझ से पूछ बैठी,"मासिमा , तुम्हारी कवितामे इतनी वेदना क्यों है?क्या तुमने इतनी वेदनाका सचमुच अनुभव किया है?"

"पूर्णी, आज मैं तुम्हें अपने अतीतके बारेमे बिलकूल सच,सच बताऊंगी , एक सहेली मानकर,"मैंने कहा और उसे उसकी माके बारेमे,स्टीव के बारेमे और उस स्नेहमयी औरत, जो उसकी दादी थी, सब कुछ बता दिया। बल्कि , नरेंद्र और माजी की प्रेरणा सेही मैंने अपने लेखनको प्रकाशित करना आरम्भ किया था।

पूर्णी मन्त्र मुग्ध-सी सुनती रही। जब मैं रुकी तो बोली," मासीमा! क्या स्टीव का पता तुम्हारे पास नही है?"

"पगली!!उस बात को बारह,तेरह साल बीत गए। ऐसे कोई मेरे इंतज़ार मे बैठा थोडेही होगा ?और फिर तू जो है, तू मेरे लिए क्या है तू खुद नही जानती। ना जाने मैं ऎसी कितनी जिंदगियां तुझ पे वार दूं! सच मान, पूर्णी, मुझे अपनी औलाद ना होनेका एक पलभी कभी दुःख नही हुआ।"

मैंने उसका सर अपनी गोदीमे रखते हुए कहा। अठारह साल की पूर्णी कितनी नीला दीदी जैसी दिखती थी, उतनीही सुन्दर, नाज़ुक,उतनीही स्नेहमयी।

फिर उसेभी दिल्ली होस्टेल्मे जाना पड़ गया पढ़ाई के लिए। जाते समय हम दोनो पहले तो एक दूसरेसे छिपकर,फिर एकदूसरे को गले लगाकर कितना रोये थे! मैं उसे छोड़ने दिल्ली गयी थी,जब लौटी तो वो सफ़र मुझे कितना अंतहीन लगा था!!किसी दिन वो ब्याह के बाद चली जायेगी, तो मैं कितनी अकेली हो जाऊंगी, ये ख़याल कितना असह्य था। फिर वही वेदना, वही दर्द मेरी धमनियोंसे बहकर कागज़ पर उभरता रहा। मेरे प्रकाशित कव्यसंग्रहोने मुझे शोहरत के शिखर पे बिठा दिया,जहाँ उतनीही तनहां हूँ,जितनी के पहले थी।"

इतना लिखके मीनाक्षीने कमरेकी घड़ीमे देखा। सुबह के चार बजने वाले थे। घड़ी के नीचे शीशम की एक लम्बी-सी मेज़ रखी हुई थी। उसे उसपर एक बंद लिफाफा नज़र आया। उसने अचरज से उसे उठाया और उसपे लिखा अपना नाम पढा। कुछ पल उसे विश्वास ही नही हुआ। स्टीव की लिखावट! उसने खोलनेसे पहले लिफाफेको कांपते हाथोंसे कुछ देर पकड़े रखा। कहीं ये भ्रम ना हो!! फिर खोल के उसे पढने लगी,"............

अगली किश्त मे

आकाशनीम

"घबराओ मत मीनू! ये कोई अदालत नही है। मैनेभी प्यार किया है। अगर तुम्हे स्टीव से प्यार हो गया तो कोई पाप नही है। अपराध तो तुमसे नियातिने किया है। आगे जब भी तुम्हरा दिल घबराए, तुम उदास महसूस करो, मेरे पास चली आना। यकीन मानो, मीनू, मैभी इन आंखों मे ऎसी गहरी उदासी देखता हूँ तो मेरा मन घबरा उठता है। आओ, तुम्हे पूर्णिमाके कमरेमे ले चलता हूँ।"

उस धैर्य और गामभीर्य की प्रतिमूर्ती के प्रती मैं और भी नतमस्तक हो गयी। इतने विशाल र्हिदयी पुरुषकी , इतने महान कलाकार की पत्नी होनेका सौभाग्य नियती ने मुझे दिया था लेकिन मेरे साथ ये विडम्बना भी कर डाली थी के ये रिश्ता केवल नाम मात्र के लिए हो कर रह गया था।

येही नियती का विधान था।

और माजी! वो स्नेह की उमड़ती अविरल धरा, जिसने बार, बार सरोबार किया था, जिसने मुझे दियाही दिया था, माँगा कुछ नही था, उनके बारेमे क्या कहूँ!!उनकी उम्र ज्यादा नही थी। मुझे याद आया, दीदी के विवाह का दिन, जब सब माजी को नरेंद्र की बड़ी बहन समझ रहे थे। तेजस्वी कान्ती,गौरवर्ण , काले घने बाल, फूर्तीली चाल,हँसमुख, शालीन चेहरा, किसेभी मोह ले! दीदीकी मृत्युने उनके जीवनके कई साल छीन लिए थे। वे बुढिया गयी थीं।

उनके मृत्युकी पूर्व संध्या मुझे याद है। बेहद कमजोर हाथोंसे उन्होने मेरे माथेको छुआ था और कहा था," बेटी, मैं तेरी रुणी हूँ। तूने पूर्णिमा और नरेंद्र के लिए, मेरे लिए, इस घरके लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया। बदलेमे तूने क्या पाया ये मैं नही जानती, लेकिन क्या खोया ये जानती हूँ। किसी ना किसी रुपमे, कभी ना कभी, तेरा समर्पण तुझे फल देगा। इंतज़ार करना।"

मैं अवाक् सुन रही थी। मैंने उस दुबले पतले शरीरमे अपना मूह छुपाया और अपने आसुओं को राहत देदी। माजीने सूरजकी पहली किरनके साथ आख़री सांस ली थी।

Sunday, September 9, 2007

आकाशनीम

स्टीव जानेके चौथे दिनही लॉट आया तो मुझे बड़ा आनंद मिश्रित अचरज हुआ।

"अरे तुम?" तुम को और चार रोज़ बाद आना था ना?मैंने पूछा।

स्टीव ने कहा ,"हाँ! लेकिन एक बात एकदम सच, सच बताऊँ तो बुरा तो नही मानोगी?"

"नही तो!"

"जानती हो मीना, मुझे हर सूर्यास्त के समय तुम्हारी बेहद याद आती। मुझे लगता किसीकी उदास-सी,बड़ी बड़ी आँखें मेरा इंतज़ार कर रही होन। मैंने सोंचा, जो थोडा और समय मेरा हिंदुस्तान मे बचा है, क्यों ना तुम्हारेही साथ बिताऊ?फिर ऐसा अवसर आये ना आये?"कहकर स्टीव ने बड़ी निश्छल निगाहों से मुझे देखा। मैं अन्दर तक सिहर गयी।

सच, स्टीव एक दिन चला जाएगा। फिर वही सूनापन, वही अकेलापन, अबकी बार कुछ ज़्यादाही, क्योंकी अब मुझ से मेरा कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ती बिछड़ जाएगा, जी से मैं अपनी मर्यादायों की वजह से कह भी नही पा रही थी कि वो मुझे कितना अधिक प्रिय है। मरे जीवनमे उसका क्या स्थान है। नियति के चक्र मे ये निर्धारित नही था।

फिर रहे सहे दिनों मे हमारी दोस्ती और भी प्रगाढ़ होती चली गयी। एकदूसरेसे कितना कुछ खुलकर बतियाने लगे। स्टीव ने मेरे और कितने सारे स्केचेस बना डाले। पिछले baramade me गुज़री वो जादुई शामें, वही आकाशनीम,वही ढलता सूरज। वही तारोंभारा आसमान, दूर पश्चिम मे दिखती पहाड़ियां। यही दिन मेरे भविष्य का सहारा बन ने वाले थे। मैं इन दिनों का हर पल थाम लेना चाहती थी। हर एक पल को भरपूर जीना चाहती थी, जानती थी, ये लम्हें लौटकर फिर कभी नही आएंगे।

स्टीव जिस दिन लौटने वाला था, उसकी पूर्व संध्या मे हम जब बरमदेमे बैठे तो मेरी हालत अजीब-सी थी। शायद स्टीव की भी रही होगी।कहना इतना कुछ था लेकिन उचित अनुचित के द्वंद्व मे कह नही सकी। तभी स्टीव की निगाहें मुझ पे ठहरी हुई महसूस हुईं। जैसेही मैंने उसकी ओर देखा, उसने कुर्सीकी हत्थे पे रखा मेरा हाथ थमा और कहा,"मीना,जीवन मे कभी कमजोर मत पडा। तुम कमालकी बहादुर औरत हो। मैं ऐसा कुछ नही कहूंगा या कहूंगा जिस से तुम कमजोर पड़ जाओ। लेकिन याद रखना,मैं कभी भी भुला नही पाउंगा।"

उस एक लम्हे को थामकर मुझे सदियोंका सफ़र करना था। वही दो पलका स्पर्श मैं आजतक नही भुला पायी। जाडोंमे मैं रामनगर छोड़कर कभी कहीं नहीं जाती थी। इन्हीं दिनों तो स्टीव आया था। इसी आकाशनीम की गंध तले उसने मुझे वो किरण दीं थी, जिसकी मुझे चाह थी, जिस से मुझे तसल्ली कर लेनी चाहिए थी, लेकिन हुई नही थी। असीम वेदना, विछोह की वेदना, जो स्याही से कागज़ पे उतरती रही, कभी सारे किनारे लांघकर बाढ्की तरह, कभी सयंत , संयमी नववधू की तरह।

स्टीव के जाने के बाद मेहमानों वाला कमरा मैंने अपना लेखन का कमरा बनवा लिया और मेहमानों के लिए घरके पूरब मे बाना एक कमरा ठीक करवा लिया।

स्टीव ने जाने के बाद दो पत्र लिखे जो मेरे और नरेंद्र के नाम पर थे। मैंने मन ही मन कितने जवाब दे डाले लेकिन पता नही क्यों,पत्रोंमे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते हुए मेरे हाथ हमेशा रूक गए। जिस रास्तेकी कोई मंज़िल ना हो उस पर चलकर फिर लौटना पड़ जाये तो कितनी थकन ,कितना दर्द होता है, ये मैं जान गयी थी। और आगे बढकर लौटनेसे क्या फायदा? अधिक दर्द सहनेकी ताक़त मुझ मे नही थी, वोभी चुपचाप, पूर्णिमा, माजी,नरेंद्र, सबके आगे मुखौटा पहन कर। माँ-बाबूजी को तो मैंने अपने निजी जीवन की थाह कभी लगनेही नही दीं थी। उन्हें मैं कोई तकलीफ पोह्चाना नही चाहती थी।

उन दो पत्रों के बाद स्टीव की ओरसे और कोई पत्र नही आया। मुझे लगा,मेरे जीवनका एक निहायत सुन्दर अध्याय किसी सपनेकी तरह ख़त्म हो गया।

एक दिन देर रात मैं अपने कमरेमे लेखन कर रही थी लेकिन स्टीव की याद इस्कदर सता रही थी कि ना जाने मैं कब वहाँसे उठकर नरेंद्र के स्टूडियो मे चली गयी और अचानक से उनकी पीठ से लिपटकर रो पडी। उन्हों ने मेरी बांह पकड़कर स्टूडियो मे रखी कुर्सी पे बिठाया और हलके,हलके मेरा सिर थपथपाते रहे। वे काफी देर खामोश रहे। जब मेरी सिस्कियां कुछ कम हुई तो बडे प्यारसे बोले,"स्टीव की बोहोत याद आ रही है मीनू?"

मुझे काटो तो ख़ून नही! मैं चौंक कर खडी होने लगी ,"नरेन्द्र!!"

आकाशनीम

रातमे खानेके बाद मैंने पूर्णिमा को लम्बी सी कहानी सुना के सुलाया। नरेन्द्र स्टूडियो मे चले गए। मैं और स्टीव बगीचे मे आकाशनीम के तले कुर्सियां डालकर बैठ गए। कुछ देर की छुप्पी के बाद स्टीव ने कहा,"मीना, तुम वाकई पूर्णिमा की माँ बन गयी हो। ऐसा त्याग हमारी पश्चिम की संस्कृती मे देखने को नही मिलता। "

"स्टीव हमारे देश मे ऐसा कई बार होता है। पहली पत्नी के मृत्यु के बाद अगर अगर उसकी कोई औलाद हो और पत्नी की ग़ैर शादीशुदा बेहेन हो, तो औलाद के खातिर उसकी बेहेन से शादी कर दीं जाती है। कई विवाह सफल भी होते होंगे, कई मुखौटे भी। वैसे भी सफल विवाह का कोई भरोसा तो नही। दो स्वतंत्र जीवोंका कब आपस मे टकराव हो जाय क्या कहा जा सकता है!!हिंदुस्तान मे ऐसे टकराओं को घरकी देहलीज़ के भीतर ही रखा जाता है। वैसे नरेन्द्र और मुझमे कोई टकराव, कोई अनबन नही, लेकिन...."मैं इसी लेकिन पे आके खामोश हो जाती।

"तुम नरेंद्र की माँ कीभी बोहोत सेवा करती हो। इसतरह बहु बूढ़ी, बीमार सास की सेवा करे , हमारी तरफ देखनेको कमही मिलता है। हर कोई अपनी,अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त रेहेता है। दूसरों के लिए कुछ करने की फुर्सत नही होती,"स्टीव ने कहा।

"स्टीव,वहाँ समाज का ढांचा ऐसा बन गया है। वहाँ हर किसीको कमाने के लिया बाहर निकलना पड़ता है। देखो,मुझपे ऎसी कोई बंदिश नही और मेरी सासभी निहायत अच्छी औरत है। बेमिसाल अच्छी स्त्री। उन्होने कभी भी दीदी की या मेरी ज़िंदगी मे दखल अंदाजी नही की। चलो माजी जाग रही होंगी, कुछ देर हम उनके पास बैठ जाते हैं," कहके मैं खडी हो गयी और हमलोग माजी के कमरे मे गए।

Wednesday, September 5, 2007

आकाशनीम

'नही,नही! मैंने कभी इस ओर ध्यान नही दिया, वैसे किसीको चित्र बनाते हुए देखना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन आप खाना तो खा लीजिये, फिर अपना काम शुरू करना। कुछ देर नरेन्द्र से बातें कीजीये, तब तक मैं पूर्णिमा और माजी को खाना खिलवा देती हूँ। "

"चलो, ठीक है,"स्टीव ने कहा और हम दोनो कमरेसे बहार निकल पडे। मैंने पेहेले पूर्णिमा को खाना खिला के सुलाया फिर माजी के कमरे मे उनका खाना ले गयी और अपने हाथोंसे उन्हें खिलाती रही। ये मेरा रोज़ का नियम बन गया था।

जब स्टीव ,नरेन्द्र और मैं मेज़ पे खाने बैठे तो मैंने गौर किया कि नरेन्द्र तो खामोशी से खा रहे थे, लेकिन मेरे और स्टीव के बीच बातों का सिलसिला इसतरह चला मानो हम दो बिछडे दोस्त बरसों बाद मिले हों, जिन्हें एकदूसरे से बोहोत कुछ पूछना हो,जानना हो। नरेन्द्र जल्दीही खाना खत्म करके उठ गए और फिर अपने काम मे लग गए। मैं और स्टीव बैठक मे कुछ देर बातें करने लगे। मुझे महसूस होता रहा कि हम दोनो एक दूसरेसे कितना कुछ कहना चाहते है,एक दूसरेसे किता कुछ जानना चाहते है।

दुसरे दिन मेरी आंख खुलनेसे पहले नरेन्द्र स्टूडियो मे पूरी लगन से काम कर रहे थे। मैंने पूर्णिमा को उठाके तैयार किया और स्कूल भेजा । नाश्ते की तैयारी की और स्टीव के कमरे कि ओर मुड़ गयी। दरवाजा खुला था। दस्तक देकर अन्दर गयी तो वो पिछले बरामदे मे ईज़ल रख कर चित्र अंकित कर रहा था। चित्र देख के मैं बिलकूल स्तब्ध रह गयी। पूरे चित्र पर मानो दो उदास पारदर्शी आंखें छायीं हुई थीं ,जो डूबते सुरजको निहार रही थी। चित्र पूरा नही हुआ था,लेकिन आशय स्पष्ट था। मेरी कविता।

"कैसा लगा चित्र??अभी अधूरा है वैसे,"स्टीव ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।

"स्टीव........"मैं आगे बोलना चाह रही थी कि ये चित्र अधूरा ही रहेगा। इन आंखों की उदासी मिटेगी नही, ये आँखें ताउम्र इंतज़ार करेंगी, इसे छोड़ दो,मत पूरा करो। लेकिन मुँह सूख-सा गया। होटोसे अल्फाज़ निकले नही।

"मीना,बताओ ना?"स्टीव ने फिरसे पूछा।

"स्टीव,तुम बोहोत अछे चित्रकार हो,"मैंने धीरेसे कहा।

"बस, इतनाही?"उसने पूछा।

ऐसा लगा मानो ये आदमी मुझे बोहोत गहराई तक जान गया हो, अपनी सीमा मे रहते हुए दूर,दूर तक मेरे अंतर मे पोहोंच गया हो, मेरी तनहाईयों को इसने पूरी तरह भांप लिया हो।

"हाँ! फिलहाल इतनाही। मुझे काफी काम निपटाना है। फिर तुम्हे उस पहाड़ी की दूसरी तरफ,जहाँ रामनगर का किला है ,वहाँ ले चलूँगी। नरेन्द्र ने खास हिदायत दीं है,"मैंने खुदको और वातावरण को सहज बनाने की कोशिश करते हुए कहा और चाय के प्याले वहांसे लेकर चल दीं। पर बड़ी देरतक अपने आप को सहज नही कर पायी। हे भगवान्! मुझे ये क्या हो रहा है? मैं अनायास किस लिए इसलिये खिचती चली जा रही हूँ !

आकाशनीम

कुछ देर बाद नरेन्द्र ने कहा,"अच्छा,मुझे अब कुछ देर स्टूडियो मे काम करना है। स्टीव, मीना तुम्हे तुम्हारा कमरा दिखा देगी और तुम्हे जहाँ घूमना है, घुमा भी देगी। दोगी ना मीना? दोस्त,तुम ऐसे समय आये हो जब मैं अपनी प्रदर्शनी के काम मे बेहद व्यस्त हूँ। आशा है मुझे माफ़ करोगे। "

"बिलकूल! तुम अपना काम करो मैं अपना!,"स्टीव ने कहा था और हम स्टूडियो से बाहर निकल आये थे। मैंने पेहेले स्टीव को उसका कमरा दिखाया। फिर कुछ देर रसोई मे लगी रही,कुछ देर पूर्णिमा के साथ, कुछ देर माँ जीं के साथ। बाद मे मैंने स्टीव के कमरे पे दस्तक देके पूछना चाहा कि कहीं उसे किसी चीज़ की आवश्यकता तो नही। देखा तो वो बरम्देमे बैठ निस्तब्ध उस दिशामे देख रहा था जहाँ पहडियोंकी ओटमे सूरज बस डूबने ही वाला था। पश्चिम दिशा रंगोंकी होली खेल रही थी।

अनायास मैं कमरा पार करके वहाँ चली गयी और धीमेसे बोली,"मुझेभी यहाँ सूर्यास्त देखना बोहोत अच्छा लगा था, कल इसी आकाशनीम की महक की पार्श्वभूमी मे। तुम्हे जान के हैरत होगी कि तीन साल के वैवाहिक जीवन मे मैं इस तरफ पहेली बार आयी और वो दृश्य इतना मनोरम था कि मैंने एक कविता भी लिख डाली। अपने जीवन की पहली कविता और शायद अन्तिम भी। "

"सच! क्या मैं सुन सकता हू वो कविता?" स्टीव ने बड़ी उत्सुकता और भोलेपन से पूछा।

"अरे! वो तो हिंदी मे है! उसका तो मुझे भाषांतर सुनना होगा, जोकी काफी गद्यमय होगा!,"मैंने कहा।

"कोई बात नही,सुनाओ तो सही,भाषांतर से आशय तो नही ,"स्टीव बोला।

मैंने वहीं रखे बुक शेल्फ परसे डायरी निकाली और उस कविताका भावार्थ सुनाने लगी, 'रौशनी की विदाई का समय कितना खूबसूरत होता है,लेकिन कितना दुखदायी भी।

धीरे,धीरे जब ये मखमली अँधेरा अपनी ओटमे सारा परिसर घेर लेटा है तो लगता है कभी फिर उजाला भी होगा?

क्या यही अँधेरा अन्तिम सच है या या फिर वो लालिमा जिसने पीछे डूबे गरिमामय दिनकी दास्ताँ सुनाई और फिर अँधेरे मे मिट गयी?

शायद हर किसीका सच अपना होता है। उसका अपना नज़रिया, उसका अपना उनुभाव।

मेरे जीवन मे डूबा सूरज फिर से निकला ही नही। मेरे मनके अँधेरे मे किरणों का फिर कहींसे प्रवेश ही नही।

ए शाम! मैं आज अपने मनके सारे द्वार खोल दूंगी ।

तू अपनी लालिमा की सिर्फ एक किरण मेरे लिए छोड़ जा।"

स्टीव की ओर मैंने देखा तो वो अपलक मुझे निहार रहा था। फिर बोला,"काश मैं हिंदी भाषा समझ पाता! खैर! ये तो समझ रहा हूँ कि इस कविताके पीछे सुन्दरता के अलावा असीम दर्द भी छुपा हुआ है, कारण नही जनता, लेकिन इस कविता पर एक चित्र ज़रूर बनाउंगा। अभी,आज रात मे," कह के उसने अपनी चित्र कला का सारा समन निकला, फिर बोला,"मुझे वाटर कलर अधिक अछे लगते है। क्या नरेन्द्र के साथ रहते तुम भी दो चार स्ट्रोक्स मारना सीख गयी हो या नही?"

Friday, August 31, 2007

आकाशनीम

लेकिन नरेन्द्र ने संक्षेप मे जो स्टीव को बताया उसे सुन कर मैं दंग रह गयी। उस समय नरेन्द्र को मेरे कमरे मे होने का भी शायद आभास नही रहा था। वे मानो स्वयम से बतिया रहे थे। नरेन्द्र अब भी किस क़दर अपनी प्रथम पत्नी से जुडे हुए थे। मेरे साथ उन्होने दीदी का विषय शयद ही कभी छेड़ा हो। हम दोनो ही अपनी अपनी तौर से उनसे बेहद जुडे हुए थे तथा उनका जान अपनी निजी क्षती मन कर कभी बाँट नही पाए थे। मेरे ब्याह से पहले मेरे शंकित मन को लेकर घरवालों ने समझाया था कि बाद मे सब ठीक हो जायेगा। अक्सर होही जाता है। फिक्र मत करो। दोष मेरा था या नियती का नही जानती, सब ठीक नही हुआ था। नरेन्द्र और मैं,एक छत के नीचे रहकर भी बिलकुल अकेले थे। हमसफ़र होते हुए भी हमारा जीवन दो समांतर रेखाओं की भांती चल रहा था।

Wednesday, August 29, 2007

आकाशनीम

एक दिन नरेन्द्रजी हमारे घर आये और उन्होने मुझसे अकेले मे बात करने का आग्रह किया। हमे बैठक मे अकेला छोड़ कर माँ-बाबूजी अन्दर चले गए, तब नरेंद्रजीने कहा,"देखो मीनाक्षी, किसीभी दबाव मे आकर कोयीभी निर्णय मत लेना। तुम्हारे आगे तुम्हारा सारा जीवन पडा है। ये ना हो कि तुम्हे बाद मे पछताना पडे। मैं अपनी ओरसे तुम्हे आश्वासन दे सकता हू कि तुम्हें हमेशा खुश रखने की कोशिश करुंगा। उसमे मुझे कितनी सफलता मिलेगी कह नही सकता ।"

"मैंने कहा था,नरेन्द्रजी मैं पूर्णिमासे बेहद जुड़ चुकी हूँ। आपकी और मेरे रिश्तेकी आगे परिणति क्या होगी ये बात मेरे ज़हेनमे इतनी नही आती जितनी पूर्णिमाकी चिंता सताती है। पूर्णिमाकी वजह्से मैंने इस शादीके लिए स्वीकृती देनेका निर्णय लिया है। मैं आपको क्या दे पाऊँगी कह नही सकती क्योंकि आजतक मैंने आपको सिर्फ जीजाके रुपमे ही देखा है।"

नरेन्द्रजी कुछ देर चुप रहे,फिर बोले,"ठीक है,मीनाक्षी,तो मैं इसे तुम्हारी अनुमती समझ लूँ?"

मैंने "हाँ"मे गर्दन हिला दीं।

"तो फिर किसी सुविधाजनक तिथीपर हम सादगी से शादी कर लेंगे,"नरेंद्रने मुझसे तथा मेरे घरवालोंसे कहा।

तिथी निश्चित हुई। घर मे कोयीभी शादी वाली रौनक नही थी। बाबूजी ने कुछ छुट्टी लेली। किसीके दिल मे ज़रासा भी उत्साह नही था। माँ को मैं चुपके,चुपके अपने आँचल से आँसू पोंछते देख लेती। हम दोनोही एक दुसरे से छुपके आँसू बहाते। कैसी घनी उदासीका आलम था, मानो सारी कायनात रो रही हो।

यथासमय विवाह के पश्चात् मैं पूर्णिमा के साथ नरेन्द्रजी के घर आ गयी और बाबूजी अपने तबाद्लेकी जगह चले गए। जीवनधारा किसीके लिए रुकती नही। नीला दीदीकी वही चिरपरिचित हवेली। लगता था मानो अभी किसी कमरेमे से बाहर आयेंगी। हर दरोदीवार पर उनका अस्तित्व महसूस होता रहता,हर तरफ वो अंकित थी। दीवारोंके लब होते तो वे उन्हीके गीत गाती।

नरेंद्रका व्यवहार मेरे प्रती बेहद मृदु था। हम दोनोही एकदूसरे को आहट ना करने की भरसक कोशिश करते, लेकिन हमारे बीच ना जाने कैसी एक अदृश्य दीवार ,कोई अदृश्य खाई बनी रहती जिसे हम लाँघ नही पाते। जो व्यक्ती मेरी दिवंगत दीदीका सर्वस्व था,उसके और मेरे बीच का सेतु केवल पूर्णिमाही थी। हम दोनोही चाहें भरसक इस सत्य से अनजान बन नेकी कोशिश करते, उसे नकार नही सकते। हमारे अतीव अंतरंग क्षणों मेभी एक ऎसी अदृश्य परछाई आ जाती, जो मेरी पकड़ मे नही आती। नरेंद्रमे कुछ्भी खोट नही थी। लेकिन भावनात्मक तौर पर मैं उनसे जुड़ नही प रही थी ,जैसे की एक पत्नी को जुडना चाहिए ।

आकाशनीम

प्रस्ताव ये था कि अगर मैं नरेन्द्र से विवाह कर लू तो कई समस्याओंका हल निकल सकता है।

माँ-बाबूजी ने प्रतिप्रश्न किया,"क्या इस बारेमे आपने नरेंद्र्जी से बातचीत की है?"

"नरेन्द्र से जब मैंने बात की,तो उसने साफ इनकार कर दिया। कई दिन तो कुछ सुननेकोही तैयार नही था। लेकिन पूर्णिमाका जब सवाल उठाया तो उसपर कुछ असर हुआ। तबतक मैंने सोंचा क्यों ना आप लोगोंसे इस बीच बात कर लू?मीनाक्षी पे किसीभी किस्म्का दबाव डाला जे ये तो मैं हरगिज़ नही चाहती, लेकिन एक बार उस से सलाह ली जाय,इतनी बिनती मैं ज़रूर हाथ जोडके करूंगी ,"नरेन्द्रजीकी ममतामयी माने कहा।

मैंने दरवाज़े की ओट्से ये सारी बाँतें सुनी। कुछ देर तो मुझे मेरी ज़िंदगी फिसलतीसी लगी। मुझे हमारी रिश्तेकी बुआ के अलफ़ाज़ याद आये। उन्होंने एकबार मेरा और दीदीका आपसी लगाव देखते हुए मासे कहा था,"भाभी,इन दोनोका ब्याह तो एकही दूल्हे से करना, ये दोनो अलग तो रह नही पाएंगी।"

यह सुनके मैंने तुनक कर कहा था,"बुआजी, अगर ये कानूनन जुर्म ना होता तो हम ऐसाही कर लेते।"

अब वही होनेके आसार नज़र आ रहे थे। सिर्फ जुर्म नही था क्योंकी दीदी दुनियामे नही थी। शायद ज़ुल्म ज़रूर था। मुझपर भी ,नरेंद्र्जी पर भी। ।कई दिन इसी उलझन मे बीत गए। माँ-बाबूजी ने मुझसे बात करके निर्णय मुझी पर छोड़ दिया था। पूर्णिमा मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुकी थी। और फिर समस्या एक दिन उस मोड्पर आ गयी जब निर्णय लेना बेहद ज़रूरी था। बाबूजीके तबादले का आर्डर आ गया। एक ओर नन्ही पूर्णिमा,दूसरी ओर मेरे अपने जीवन के युवा सपने। लेकिन जीत दीदीकी उस नन्ही धरोहर की हुई जिसने अनजाने मे मेरा आंचल थाम लिया था, मैही उसकी माँ थी। वो नन्ही जान दुनियाके इन पछ्डो से परे थी।

Tuesday, August 28, 2007

आकाशनीम

नीला दीदी के बिना खाली घर मुझे खानेको उठता। चंद घंटे महाविद्यालय मे निकल जाते। गनीमत यह थी कि दीदी कि ससुराल रामनगर मेही थी। मेरा कालेज का आख़री साल था। दिन तेज़ीसे बीत रहे थे। घर पे मेरे ब्याहकीभी बात चल रही थी। इधर दीदीके गर्भवती होनेकी खबर सुन के दोनो परिवार आनेवाले मेहमान के बारेमे सपने बुन ने लगे। मैं अक्सर दीदी के ससुराल चली जाया करती। हम दोनो घंटो बातें करते,कई बार माजी भी आकर बैठ जाती। हमलोग मिलकर बच्चों के नामों की सूची बनाते। कभी लड़के की तो कभी लडकी की।


यथा समय दीदी को अस्पताल ले जाया गया। जब दीदी घरसे निकली तो क्या पता था कि वे वापस लौटेंगीही नही। प्रसव के दरमियाँ अत्याधिक रक्तस्राव के कारण दीदी की मृत्यु हो गयी। होनी देखिए,जिस डाक्टर के हाथ मे दीदी का केस था वो डाक्टर अचानक बेहद बीमार पड़ गया। एक अन अनुभवी डाक्टर को केस ठीक से संभालना नही आया। पीछे अपनी नन्ही , - प्यारी-सी धरोहर,एक बिटिया को छोड़ दीदी हमसे सदा के लिए बिछुड़ गयी। हम सब पर क्या गुज़री इसका बयां मैं नही सकती। वो पूरण मासी का दिन था, इसलिये सब उस बिटिया को पूर्णिमा बुलाने लगे । लेकिन उसका नामकरण संस्कार कभी हुआ ही नही। मैंने इस नन्ही -सी कली को अपने कलेजे से चिपका लिया। नरेंद्रजी अक्सर उस से हमारे घर पे आकर मिल जाया करते। जब पूर्णिमा छ: माह की हुई तो नरेन्द्र की माँ ने मेरी माँ के आगे एक प्रस्ताव रखा। कह नही सकती कि,इस प्रस्ताव के बाद या जब दीदी की मृत्यु हुई उसीके बाद दूसरा अध्याय शुरू हुआ। तबतक तो जीवन एक सीधी,सरल लकीर-सा था। जीवन मे उतार चढाव भी होते है ये सिर्फ कथा कहानियो मे सुना था और हमेशा यही लगता था कि ऎसी बाते किसी और के ही जीवन मे घट तीं होंगी अपने जीवन मे नही।

आकाशनीम

ऐसे नामवर सर्जन का बेटा चित्रकार कैसे बना, येभी एक अचरज था, लेकिन सुना था, बाप ने अपने बेटे को हमेशा प्रोत्साहन ही दिया। खैर! नरेंद्रजी अपनी माँ को लेकर एक दिन हमारे घर आ गए और दीदी के रिश्ते की बात पक्की हो गयी। जल्द ही शादीका दिनभी आ गया। ख़ुशी और दुःख का एक ही साथ ऐसा एहसास मुझे कभी नही हुआ था। दुल्हन बनी नीला दीदी के चहरे से नज़ारे हटाये नही हटती थीं,और कुछ ही देर मे बिदा हो रही मेरी ये अभिन्न , अंतरंग सहेली अपनी ससुराल चली जायेगी इस का दुःख मेरी आंखें नम किये जा रहा था। बिछुड़ते समय हम दोनो गले लगकर ख़ूब रो ली।

Tuesday, August 21, 2007

अपने निहायत तनहा लम्होंमें यही दीवाना बना देने वाली आकाशनीम की महक मुझे दूर,दूर ले जाती,अपने लड़कपन मे, जब जब मैं इस गंध से नही जुडी थी।

हमारा छोटासा परिवार था। बाबूजी सरकारी मुलाजिम थे। हम दो बेहेने थीं। नीलाक्षी दीदी बड़ी थीं और गुडिया-सी सुन्दर,नाज़ुक। मैं सांवली,श्यामली। लेकिन किशोरावस्था मे पोहोंचने तक हम दोनो अभिन्न सहेलिया बन गयी। मुझे कभी कोई काली कहता तो नीलाक्षी दीदी बर्दाश्त नही कर पाती, कहती,"अजन्ताकी मूर्तें देखीं है कभी? पत्थर की,काली,लेकिन कितनी लुभावनी ,तराशी हुई! हमारी मीनू वैसी ही है"।

दोस्त रिश्तेदार हमेशा माँ-बाबूजी से कहा करते,"बहनो मे ऐसा प्यार कम ही देखा है। हमारा यहाँ तो बहने,बहने या भाई -बेहेन लगातार झगड़ते ही रहते है।"

"नज़र ना लगाओ भई,भगवान् करे करे इनका इसी तरह बरकरार रहे,ये दोनो इसी डोर से बंधी रहें ,"माँ कहा करती।

नीला दीदी को चित्रकला मे विशेष रुची थी। इसी वजह से प्रातिथ यश चित्रकार नरेंद्रजी से उनका परिचय हुआ। अपने चित्रों की प्रदर्शनी मे नरेंद्रजी ने उन्हें देखा और और उनका पोर्ट्रेट बनने की अनुमती मांगी थी। कई बार जब नरेंद्रजी के स्टूडियो मे, जो उनकी पुरानी हवेली मे था,पेंटिंग का सेशन चलता तब मैं वहाँ मौजूद रहती। उन दोनों के संबंधों का बढ़ता माधुर्य मुझ से छुपा नही था। वैसे भी नीला दीदी मुझ से कुछ छुपाती नही थी। उनकी प्रतिनिधी बनके माँ-बाबूजी को भी मैंने आगाह कर दिया था। दोनों ही तरक्की पसंद खयालों के थे, और नरेन्द्र जीं मे कोई खोट भी नही थी। सिर्फ नीला दीदी की पढाई पूरी होनेका इंतज़ार था,जो यथासमय पूरी होही गयी। नरेंद्रजी का अपनी माँ के अलावा और कोई करीबी रिश्तेदार भी नही था। उनके पिता एक ज़माने मे रामनगर के जाने माने सर्जन थे। परदेस मे बसने के कई हाथ से छोड़ कर उन्हों ने रामनगर मेही अस्पताल खोला था। इसी कारण उन्होने काफी पुश्तैनी ज़मीन जायदाद बेच दीं थी। कुछ्ही समय पहले उनका एक सड़क दुर्घटना मे निधन हो गया था। तबसे अप्स्पताल का कारोबार माँ जीं तथा नरेंद्रजी संभाल ते थे। उनका रामनगर के बाहरी इलाके मे बड़ा-सा हवेली नुमा पुश्तैनी मकान था,"पर्वत महल"।
"मीनाक्षीजी,आपकी रचनाओंमे इतना दर्द क्यों है?आप इंसानी जज्बात की गहराईयों तक इतनी सहजता से कैसे पोहोंच जाती है?" मेरे वाचक चहेते मुझसे अक्सर सवाल किया करते और मैं मुस्कुराकर टाल जाती। एक असीम दर्द की अनुभूति जो एक एक कलाकृति बनकर उभरती रही,उसका थाह भला कब कौन ले सकता था! अपनी काव्य रचनाओं के रुप मे बह निकले जज्बात मुझे लोगोंकी निगाहों मे प्रतिभावान बाना जाते। कई पुरस्कृत संग्रहों ने मुझे प्रतिभा की ओर पोहोचा दिया था।

Monday, August 20, 2007

आकाशनीम

"शाम के समारोह के बाद गाडी हवेली के गेट मे घुसी तो अचानक महसूस हुआ कि जाड़ों की शुरुआत हो चुकी है। फिर एकबार आकाशनीम की मदहोश बनाने वाली सुगंध फिजा मे समां गयी थी। एक ऎसी सुगंध जो जीवन मे बुझे हुए चरागों की गंध को कुछ देर के लिए भुला देती। मेरा अतीत इस गंध से किस तरह जुडा है ,मेरे अलावा इस राज़ को और जानता ही कौन था! शाम के धुनदल के मे इसकी महक आतेही अपने आप पर काबू पाना मुझे कितना मुश्किल लगता था!!अपने हाथों पे हुआ किसी का स्पर्श याद आता,दो समंदर सी गहरी आँखें मानसपटल पे उभर आतीं और मैं डूबती चली जाती। एक ऐसा स्पर्श जो इतने वर्षों बाद भी मेरी कया रोमांचित कर देता।

ज़िंदगी की लम्बी खिजा मे फूटा एक नन्हा-सा अंकुर जो मैंने अंतर्मन मे संजोया था,जिसे सारे तूफानों से बचाने के लिए मेरे मन:प्राण हरदम सतर्क थे,ताउम्र इस नन्हे कोंपल की मुझे रक्षा करनी थी। वरना इस रूखी , सूखी जिनगी मे अपने फ़र्जों की अदायगी के अलावा बचाही क्या था?

Friday, August 3, 2007

नैहर (कहानी)

पिछले एक महीने से अलग,अलग नलियो मे जकड़ी पडी तथा कोमा मे गयी अपनी माँ को वो देख रही थी । कभी उस के सर पे हाथ फेरती , कभी उसका हाथ पकड़ती। हर बार उसे पुकारती,"माँ!देखो ना!मैं आ गयी हूँ!"
उसके मन मे आशा एक नन्हा-सा दिया टिमटिमाता रहता। शायद आख़री सांस लेनेसे पहेले किसी तरह उसकी माको पता चले कि उसकी लाडली बेटी मृत्युशया के पास थी। मन ही मन वल हज़ारों बार इश्वर से बिनती करती रहती,हे भगवान्!सिर्फ एक बार इसकी आँखें खुलवा दो,मुझे देख लेने दो,मेरे नजदीक होने का एहसास दिलवा दो।
लेकिन ऐसा हुआ नही। एक बार पूरी रात उसकी आंख नही लगी,पर तड़के झपकी लग गयी। जब डाक्टर माँ को देखने कमरे मे आये तो वो hadbada के जग पडी। डाक्टर ने हमेशा की तरह उस की माँ को तपासने की शुरुआत की और तुरंत उस की ओर मुड़ के बोले,"I ऍम सॉरी शी इस नो मोर"।

डाक्टर उसके परिवार के पुराने परिचित थे। उनका अक्सर उसके पीहर मे आना जाना हुआ करता था। उन्हों ने धीरे से उसके कन्धों पे थपथपाया। नर्स ने माँ को लगी हुई नलिया निकालने की शुरुआत कर दीं। उसकी आंखों से आँसू ओंकी धारा बहने लगी थी। उसके पास होने का कोई भी एहसास उसकी माँ को नही हुआ था। उसने आने मे बोहोत देर कर दीं थी। "माँ!तुमने मुझे कितनी बड़ी सज़ा दीं",उसका मन दर्द से कराह उठा।
उसके बाद धीरे,धीरे जोभी विधियां होनी थी होती रही। लोगों को फोन किये गए। उनके फार्म हौस पे लोग इक्ट्ठे हो गए। उसका भाई रीती रिवाज निभाता रहा। वो गुमसुम-सी देखती रही।

जब घर पे काम करने वाली औरतों ने ज़ोर से रोना धोना शुरू किया तब वो बेसाख्ता उन पे चींख उठी ,"खामोश!रोना है तो बाहर निकल जाओ!"
इन सब औरतों के साथ उसके पिता के कभी ना कभी अनैतिक संबंध रह चुके थे। उसे बेहद घुस्सा आया। उन औरतों के जिस्म पे सोना था,उन के पक्के घर बन चुके थे। माँ को उसके पिता ने कभी सोने की चेन तक नही दीं थी। माँ ने खुद ये सब झेल कर भी कभी किसी को बताया नही था। उसीने एकबार अपनी आंखों से देख लिया था। अपने आपे से बाहर हो गयी थी वो तब। इतनी सुन्दर, शालीन,गुणवती पत्नी होने के बावजूद उसके पिता ने ऐसा क्यों किया?अपने पितापे आये क्रोध के कारण उसने अपने पीहर जाना काफी कम कर दिया था।
वो काफी प्रतिथ यश वकील थी। माँ पर होने वाले अन्याय होने वाले एहसास होने के बाद उसने उस किस्म की परिस्थितयों से गुजरने वाली महिलाओं से फ़ीस लेनी बंद कर दीं थी। लेकिन माँ उसे बार, बार बुलाती रहती । उसे कहती, ''मेरी खातिर आओ। हमेशा दो दिन रहके लॉट जाती हो। तुम से कितनी सारी बांतें करने का मन होता है। कभी तो समय निकाल कर आठ-दस रोज़ आओ। मैंने तो कोई गुनाह नही किया। देखो, मैंने सब कुछ हँसते ,हँसते सह लिया। शायद यही मेरी किस्मत थी। मेरे पास और कोई रास्ता नही था। बच्चों को लेके मैं कहॉ जाती?मेरा तो कोई पीहर नही था!!तेरा है। कयी बार मन करता है,तेरा सर अपनी गोद मे रख कर सहलाती रहूँ। "
माँ की बिनती हमेशा चालू रहती। कभी,कभी वो अपनी बेटी को भेज देती। नानी-नवासी की ख़ूब पटती। मानो दोनो बड़ी गहरी सहेलियां हो!उसकी बेटी शादी के बाद जब ऑस्ट्रेलिया चली गयी तब माँ कितना रोई थी!!
माँ की एक फुफेरी बहन haiderabaad मे रहती थी। दोनोका आपस मे बड़ा लगाव था। कभी कभार माँ उसे और उसके छोटे भाई को लेके हैदेराबाद जाती। मौसी उनके ख़ूब लाड करतीं। मौसी के पांच बच्चे थे। उसकी माली हालत भी कुछ खास अच्छी नही थी। माँ भी बिना आरक्षण थर्ड क्लास मेही सफ़र किया करती। लॉट ते समय मौसी सभी को कपडे खरीद देंती । लेकिन माँ ने मौसी को कभी कुछ दिया हो,उसे याद नही। उसके पिता उसकी माँ को कभी अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए कुछ पैसे देतेही नही थे।

इतने मे भाई ने हलके से उसके कन्धों पे हाथ रखा। "वासांसि जीर्नानि यथा विहाय,नवानि गृन्हाती नारोपरानी। तथा शरीरानी विहाय, जीर्न्यानी अन्यानी संयाति नवानि देही। "यह सब मंत्रोच्चार हो चुके थे। और भी जो कुछ होना था हो चुका था। माँ की अन्तिम यात्रा शुरू होने वाली थी। उसे उठाया गया। बाहर लाया गया। घर गेट से दूर था। वो गेट तक गयी और देर तक देखती रही। उसकी जननी कभी ना लौटने के लिए जा रही थी।
कुछ देर बाद भई लौटा.कितना समय लगा उसे पता नही चला। स्नानादि हो गए। कुछ लोग रुके, कुछ लोग चले गए । अचानक उसके ख़्याल मे आया,माँ की चिता की साथ,साथ उसका नैहर भी जल गया था। अब वो किसीकी गोद मे अपना सर नही रख पायेगी।
दस बारह दिनों बाद वो वापस लॉट गयी। उसकी बेटी ऐसे समय मे ऑस्ट्रेलिया से आयेगी ऎसी उसे भोली-सी उम्मीद थी। लेकिन वो नही आ पायी। "सिर्फ हफ्ता भर आओ,"कहके उसने बड़ा आग्रह किया,लेकिन वो नही आयी। अब उसे महसूस हुआ कि,जब उसे उसकी माँ बुलाती रहती और वो नही जाती तो उसकी माँ पे क्या गुज़रती होगी।

दिन बीत ते गए। उसका भाई उसे कभी कभार बुलाता लेकिन माँ बिना सूने घर मे जाने से वो कतराती तथा एक अपराध बोध भी सताता। फिर एक दिन उसके भाई का फ़ोन आया। उसने वो पुश्तैनी घर तथा आसपास की ज़मीन बेचने का फैसला किया था। उसने कहा,"माँ एक बैग आपके लिए रखा था, वो मेरी नज़रों से परे हो गया और मैं आप को बताना ही भूल गया। अबके आप ज़रूर आईये और अपने घर को आखरी बार देख भी जाईये ',कहते हुए भाई का गला भी भर आया। अब उसने जाने का निश्चय कर ही लिया और वो गयी भी।
वो पोहोंची तबतक काफी सामान पैक हो चुका था। माँ को बगीचे मे काम करने का बेहद शौक़ था।शायद अपने मन की गहराई मे छुपे दर्द से ध्यान हटाने का उसका वो एक तरीका था। रॉक गार्डन ,अलग,अलग रितुओं मे होने वाले फूल,किस्म,किस्म,की बेलें,मोतियां तथा गुलाब की क्यारियां,ख़ूब सारे crotans , तथा और कयी सारे पौधों से बगिया सजी रहती थी। कयी बार आसपास के लोग खास उस बगीचे को देखने आते।
उसने उस बगीचे मे एक नज़र फैलायी और उसे उस बगीचे के भग्नावशेष भी नही दिखाई दिए। कुछ अधमरे पौधे ,तथा कुछ क्यारियां जिनमे उग रही घांस के अलावा वहाँ कुछ भी नही था। सुबह उठके वो बाहर आयी। वहाँ वो पुराना,दादाजी के हाथ का लगा नीम का पेड खङा था। कितनी मीठी,मीठी स्मृतियां जुडी थी उस पेड के साथ!!हाँ उस पे एक ज़माने मे बंधा झूला अब नही था। उस झूले पे दादाजी उसे झुलाया करते थे। सामने हारसिंगार का पेड था। उसपर बचपन मे खेले खेल याद आता रहे। नीचे बिखरे फूल याद आये,सफ़ेद,छोटे ,छोटे,लाल,लाल टहनी वाले। वो बकुल का पेड जिसकी टहनियों पे बैठ कर वो श्लोक कवितायेँ आदि याद करती थी वहीं था, गुज़रे वक्त का गवाह बनके । "शैले,शैले ना मानिक्यम"..उसकी अपनी ही आवाज़ उसके कानों मे गूँज गयी । ज़मीन पर डालियाँ टिका के खडे आम के पेड, वो छोटी,छोटी पग डंडियाँ ,आगे,आगे दौड़ने वाली वो और पीछे,पीछे दौड़ते दादाजी,नैहर की मिट्टी से मटमैले पैर, बरामदे मे झूलती कुर्सी पे बैठी ,कभी स्वेटर तो कभी लेस बुनती दादीमा,इन सब यादों को संजोये हुए ये उसका बचपन और जवानी का आशियाना, उस से सदा के लिए जुदा होने जा रहा था। सादी- सी लेकिन स्टार्च की हुई साडी पहने ,जूडा बनाए हुए,हँसमुख माँ,कभी बगीचे मे रमने वाली तो कभी रसोयी मे,अपना दुःख कभी ना जताने वाली वो माता,उसके अस्तित्व से भरा हर कोना बिकने वाला था। मानो, उसका बचपन बिक रहा हो।
खडे,खडे उसे उस बैग की याद आयी। भाईने वो लाकर देदी। क्या रखा होगा इसमे माने??देखा तो ऊपर ही एक पीला-सा हुआ ख़त पडा था। ख़त खोलके वो पढने लगी। माँ ने लिखा था,"मेरी बिटिया,इसमे मैंने तेरा और तेरी बिटिया का बचपन संजोके थाम के रखने की कोशिश की है। मेरे पास देने जैसा और तो कुछ भी नही। ये तुझे भी संजोना हो तो संजोना। मन मे एक तूफान-सा उठ रहा है। कितना कुछ लिखने की इच्छा हो रही है लेकिन अलफ़ाज़ नही मिल रहे। कैसी,कैसी यादें आ रहीं हैं ।
चांद लम्हें भर की नन्ही-सी जान को बाहों मे लिया था,कैसा प्यार उमड़ आया था! मातृत्व ऐसा होता है? पलभर मे दुनिया ही बदल देता है??कितनी दुआएं निकली थीं दिल से तेरे लिए,कैसी बहारों की तमन्ना की थी तेरे लिए,तेरे हिस्से के सारे गम,राहों के सारे कांटें मैंने माँग लिए थे।
"धीरे,धीरे दिन गुजरते गए। मेरी आवाज़ सुन के तूने गर्दन घुमाना शुरू किया। तू मुस्काराने लगी,करवट लेने लगी। सब कुछ मनपे अंकित होता रहा। सहारा लेके तेरा बैठना ,मेरे हाथसे पहला कौर,उंगली पकड़ के लिया पहला क़दम,मुहसे पहली बार निकला "माँ',कितना संगीतमय था वो! घरके कोने,कोने से निकलती तेरी तेरी किलकारियाँ,स्कूल का पहला दिन, सहमा-सा तेरा चेहरा और नम होती मेरी ऑंखें,इसके अलावा भी और कितना कुछ!
"तू ब्याह के बाद ससुराल गयी तो हर कोनेसे "माँ"की गूँज सुनाई देती थी,लगता था,अभी किसी कोनेसे आके मेरे गलेमे बाँहें डालेगी, फ़ोन बजता तो दौड़ पड़ती, हरवक्त लगता,तेराही होगा!!
"आहिस्ता,आहिस्ता आदत पड़ गयी। फिर तेरी बिटियाके जनम ने एक नयी ख़ुशी,नया उल्लास जीवन मे भर दिया। उसके लिए नयी,नयी चीज़े बनाने मे बड़ा अनंद आता। जब तू उस नन्ही-सी जान को लेके मेरे पास आती,वो मुझ से लिपट ती तो एक अजीब-सा सुकून मिलता। ब्याह के बाद वोभी ऑस्ट्रेलिया चली गयी तो जीवन का एक अध्याय मानो ख़त्म हो गया।
"अंत मे इतनाही कहूँगी कि ज़िंदगी मे जब कभी अँधेरा छा जाये,मन की ऑंखें खोल देना,उजाला अपने आप हो जाएगा,कोई राह हाथ पकड़ लेगी,कभी किसी दोराहे मे फंस के किसी मोड़ पे रूक मत जाना। हमेशा धीरज रखना।अन्तिम सत्य के दर्शन ज़रूर होंगे। हाँ!दुनिया मे नित्य कुछ भी नही,जीवन अनित्य से नित्य की ओर का एक सफ़र है। अगर भोर तुम्हारी मंज़िल है तो भोर से पहले उठ के सफ़र पे चल देना,तुम्हे मंज़िल ज़रूर मिल जायेगी। खैर !तुझे देखने के लिए आँखें हमेशा तरसती रहती हैं। मेरी लाडली,मेरा आर्शीवाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा,सुखी रहना,खुश रहना।
तुम्हे बोहोत,बोहोत प्यार करने वाली तुम्हारी
माँ"

रिमझिम झरने वाले नयनों से,कांपते हाथों से,उसने बैग मे टटोल ना शुरू किया। एक फाईल मे ,बचपन मे की हुई उसकी चित्रकला के पन्ने थे। पीले पडे हुए। एक नोटबुक थी जिसमे वो एक सुभाषित लिखा करती थी। दूसरी नोटबुक मे उसने उसकी पसंद की तसवीरें ,ग्रीटिंग कार्ड्स आदि पर से काट के चिपकायी हुई थी। एक थैली मे उसकी स्कूल की प्रगती पुस्तकें थी। स्कूल कालेज की पत्रिकाएँ जिसमे उसके फोटो थे,लेख थे। कुछ कपडे की potliyaa थीं,जिसमे छोटे ,छोटे, दुपट्टे थे,जिन्हे पहले तो वो स्वयम और बाद मे उसकी छुटकी बेटी गले मे डाल के घूमा करती थी। छोटे,छोटे फ्रोक्स थे। कुछ उसके, कुछ उसकी बिटिया के थे , जो माँ ने ही सिये थे। खतों का एक गट्ठा था। कुछ वो थे जो उसने समय,समय पर अपनी माँ को लिखे थे, तो कुछ उसकी बिटियाने अपने नन्हें,नन्हे हाथों से अपनी नानी को लिखे थे। एक लकड़ी का डिब्बा था। उसमे अलग,अलग मेलोंसे कांच तथा पीतल के हार,छोटी,छोटी कांच की चूडिया,छल्ले और झुमके थे। कुछ कपडे की गुडियां थी जो माँ ने पहले उसके लिए फिर उसकी बिटिया के लिए बनायी थी,कुछ छोटे,छोटे खिलौनों के बरतन थे। एक अल्बम थी जिसमे उसके पलने मे की तस्वीरो के अलावा उसकी बिटिया के बचपन के फोटो भी थे। बोहोत देर तक वो वहाँ बैठी रही। फिर कब उठ खडी हुई उसे खुद पता नही चला।

छ: शयन कक्शोंवाला ,छ: स्नान गृह तथा तीन बैठकों वाला, बरामदों से घिरा हुआ वो घर था। वो उस मे घूमने लगी। यहाँ ,इस खिड्कीमे एक पुराना ग्रामोफोन हुआ करता था,तथा साथ,साथ रेकॉर्ड्स एक गट्ठा। "घूंघट के पट खोल रे ,तोहे पिया मिलेंगे",ये सुर उसके कानोंमे गूँज ने लगे। बचपन मे इन शब्दोंके मायने उसे पता नही चले थे। बाद मे समझ आयी,"घूंघट के पट "मतलब मानसपटल पे चढी अज्ञान की परतें। उन्हें खोला जाय तो अन्तिम सत्य का दर्शन होगा। "कहो ना आस निरास भई",माँ हमेशा गुनगुनाया करती थी। फिर ना जाने कितने ही गाने कानों मे गूँज ने लगे,"ईचक दाना,बीचक दाना,दाना ऊपर दाना","नन्हे
मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मे क्या है...."इसी बीच किसी वक़्त उसने खाना खाया। शाम को फिर वो सारा परिसर आंखों मे ,मन मे बसाने निकल पडी। र्हिदय मे कुछ तार टूट से रहे थे।
दिलमे एक असीम दर्द लेके वो रातमे सोई। बड़ी देरसे नींद लगी। सुबह ट्रक आने लगे। उनकी आवाजों से वो जग गयी। सामान भरना शुरू हो गया था। देखते ही देखते घर खाली होने लगा। खाली घरमे आवाजें गूंजने लगी। उसकी ट्रेन का समय होने लगा था। भीने कार निकाली। उसने अपने नैहर पे एक आख़री नज़र डाली। यहाँ एक दिन बुलडोज़र फिरेगा,जिन पेदोंकी टहनियों पे वो कभी खेली कूदी थी वो सब धराशायी हो जायेंगे। वहाँ सिमेंटके ब्लोक्स खडे हो जायेंगे।जो वास्तु उसके लिए इतने मायने रखती थी ,वही कितनी क्षणभंगुर बन रही थी। कुछ भी तो चिरंतन नही इस धर्तीपर। सच ही तो लिखा था माँ ने अपनी चिट्ठी मे। उसकी आंखें बार छल छला रही थी।
वो कार मे बैठी,साथ माँ का दिया हुआ वो बैग भी था। कार स्टार्ट हुई। घर नज़र से ओझल होनेतक पीछे मुड़ कर वो देखती रही। सच! सभी अनित्य है। यही तो अन्तिम सच है। "घूंघट के पट खोल रे"बार बार ये धुन उसके मनमे बजती रही। स्टेशन आ गया। कुछ देरमे ट्रेन भी आ गयी। आंसू भरे नयनों से उसने अपने भाई से विदा ली और ट्रेन मे चढ़ गयी। जब ट्रेन चली तो उसके मन मे आया, अब दोबारा वो यहाँ कभी नही आ पयागी। किस्से वक़्त, कहीं और सफ़र करते समय जब दो मिनट के लिए इस स्टेशन पे गाडी रुकेगी, तो वो खिड़की से झंकेगी, मन मे ख़्याल आयगा, कभी यहाँ अपना नैहर हुआ करता था। अनायास दूर जाते स्टेशन की ओर उसने हाथ हिलाया। उस गाँव की बिटिया ने अपने नैहर से आखरी बिदा ली।
समाप्त.

Saturday, July 28, 2007

नीले पीले फूल ( कहानी)

भई, अबके गर्मियों की छुट्टियों मे हिंदुस्तान मेही कहीं चलेंगे। परदेस चलने का कुछ मूड नहीं बन रहा!"सुबह
बाथरूम मे खड़ा विपुल शेव करते करते अपनी पत्नी नीरा से बतियाने लगा। कुछ देर उसकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार कर फिर आगे बोल पडा ,"सोंचता हूँ,पहले तो शिमला चल पड़ें ,फिर आगे की देखी जायेगी। वैसे तो घिसी पिटी जगह है, गर्मियों मे भीड़ भी रहेगी ,लेकिन बच्चे भी तो बेरौनक जगह जाना नही चाहते ना अब!"

विपुल बिना नीरा की ओर देखे बोला चला जा रहा था। अगर देख लेता तो शायद बड़ा चकित हो जाता। हिमाचल की उस राजधानी का नाम सुनते ही नीरा ऎसी कंपित हो उठी , जैसे किसी हिमशिखा से चला सर्द हवा का झोंका उसे छू गया हो! उस के मन का एक मूर्छित सोया कोना हज़ारों झंकारों के साथ जाग उठा। पिछली शाम dryclean हो आयी साडीयां अलमारी मे लटकाती नीरा एकदम रूक सी गयी, मानो उस की किसीभी हलचल से विपुल अपना विचार बदल ना दे। नीरा के इस बर्ताव के पीछे एक रहस्य था,जो दबा पडा एक किताब के पन्नोमे,और वो किताब पडी हुई थी उसी अलमारी मे,पिछले कयी वर्षों से।

"भई!कुछ बोलो भी!!क्या सरकार को हमारा ख़्याल पसंद नही आया?अगर नही तो तुम जहाँ कहोगी वहीं चलेंगे, परदेस ही कही चलना है तो ....."

"नही,नही,ऎसी बात नही!!मैं तो बस किसी सोंच में उलझ गयी थी......अबकी बार वाकई शिमला ही चलेंगे,"नीराने अपने आप पे काबू पाते हुए कहा। लेकिन फिरभी उस का अन्तिम वाक्य गौर से सुन ने वाले को लगता जैसे अर्धस्पप्नावस्था मे कहा गया हो। विपुल का घ्यान नही था। शेव ख़त्म होतेही ही उसने नहाने के लिए बाथरूम का दरवाजा बंद कर लिया।

बच्चे तो सुबह ही स्कूल चले गए थे। नाश्ता करके विपुल भी जब ऑफिस चला गया तो नीरा ने अपनी अलमारी खोली। उसमे से वो किताब निकाली और खोला वो पन्ना जहाँ चंद सूख नीले,पीले फूल चिपके हुए थे उसने उन्हें धीरेसे छुआ और अनायास बोल पडी ,"उसका पता मैं लगा पाऊँगी?"

खडी ,खडी ही नीरा अतीत मे खो गयी। बीस साल पहले अपने माँ-बाबूजी के साथ वो शिमला गयी थी। केवल चौदह वर्षीया लडकी थी तब नीरा।
"होटल हिमाचल"मे रुके थे वे लोग। साफ सुथरा,बड़ी ही सुन्दर जगह स्थित होटल था वो। वहाँ एक अठारह,उन्नीस साल का वेटर काम करता था। ख़ूब हंसमुख,लेकिन उतनाही सभ्य और बेहद फूर्तीला। बाबूजी तो उसपर एकदम लट्टू हो गए थे। सुबह और रात मे तो वो नज़र आता था dining हाल मे लेकिन दिनके समय नही। एक दिन बाबूजीने पूछ ही लिया,"भई तुम दिन मे नही नज़र आते?सिर्फ सुबह और रातमेही काम करते हो क्या?"

"जीं,दिन मे मैं कालेज जाता हूँ। "
"अच्छा? क्या पढ़ते हो?" बाबूजी ने पूछा।
मैं m.b.b.s के फर्स्ट year मे हूँ। "वो बोला।
"वाह,भई वाह!!बडे होनहार हो!! लेकिन बुरा ना मानो तो एक बात पूछूं बेटा?" बाबूजी ने बडे प्यारसे कहा।
"जीं,बिलकुल पूछिए,"उसने नम्रता से जवाब दिया।
"बेटा तुम्हारे घरमे और कोई कमाने वाला नही है क्या?मेरा मतलब है,वैसे तो खुद कमाना और पढना अच्छी बात है। आत्मसम्मान बना रहता है,लेकिन मेडिसिन की पढाई कुछ अधिक होती है ना इसलिये पूछ रहा हूँ," बाबूजी बोले।
"बाबूजी, दरअसल मेरे पिताका कुछ साल पहले बीमारी से देहांत हो गया । हम लोग रहनेवाले देहरादून के थे। पिताजी का वहाँ छोटा सा कारोबार था। माँ तो मेरे बचपन मे ही चल बसीं थीं। मैं अकेली ही संतान था। मेरे पिताजी का अपने छोटे भाई पर बड़ा विश्वास था। मरने से पहले अपना सारा कारोबार पितीजी ने उन्हें सौप दिया। सोंचा,चाचाजी कारोबार के पैसों से मुझे पढा देंगे और बादमे यथासमय कारोबार मेरे हवाले कर देंगे। लेकिन चाचाजी ने सब हड़प लिया। घर मे मुझे बड़ा तंग करने लगे। मैं अपनी पढाई हरगिज़ नही छोड़ना चाहता था। घर छोड़ काम की तलाश मे यहाँ चला आया। इस होटल मे काम करते हुए पढने लगा।
"दरअसल, इस होटल के जो मालिक है ना, बडेही भले आदमी है। उन्हों नेही पहले तो स्कूल मे, फिर मेडिकल कालेज मे दाखिला कराया। उनकी ऑलाद नही है। अकेले ही रहते है। कहते है, पढाई का पूरा खर्चा वोही देंगे। मुझे तो काम करे से भी रोकते हैं,पर मेरा मन नही मानता। सुबह एक डेढ़ घंटा तथा रात मे एक डेढ़ घंटा काम कर लेता हूँ। "
कुतूहल और प्रशंसा से नीरा भी सब कुछ सुन रही थी। वाकई कितना नेक और सरल,सच्चा इन्सान है ये! होटल के मालिक के प्रती भी उस का मन श्रद्घा से भर आया।
"शाबाश बेटे,शाबाश! बोहोत ख़ूब!!अच्छा बताओ तुम्हारा नाम क्या है?"बाबूजी ने पूछा।
"नाम तो मेरा निरंजन है,वैसे सब मुझे राजू ही कहते है।" निरंजन ने बताया।
जब निरंजन वहाँ से हट गया तो माँ ने भी कह दिया,"बड़ाही होनहार लड़का है! भगवान् इसे सफलता दे और होटल के मालिक को लम्बी उम्र!!"

एक दिन सुबह होटल के lon के एक कोनेमे नीरा को कुछ घांसके फूल दिखाई दिए। बडेही सुन्दर,कोमल। उसने धूप सेकते बैठे बाबूजी से चिहुक के कहा,"बाबूजी! देखिए तो! कितने सुन्दर फूल है ये!!"
इन्हें तोड़ कर अपनी किसी किताब मे रख लेना। ये एक यादगार बन जायेंगे,"बाबूजी बोले।
"आज नही। जिस दिन चंडीगढ़ के लिए वापस चलेंगे ना, उस दिन मैं इन्हें किताब मे दबा कर रख लूंगी",नीरा ने कहा था।

जिस दिन चलने लगे उस दिन नीरा उन फूलोंके बारेमे भूल ही गयी। माँ टैक्सी मे समान रखवा रहीं थी,बाबूजी होटल का बिल अदा कर रहे थे,नीरा ,कुछ भूला तो नही ,ये देखने के लिए अपने कमरे के ओर बढ़ी तो दरवाज़ेपर वही घांस के फूल लिए निरंजन खङा था।
"उस दिन आप अपने बाबूजी से कह रही थी ना,ये फूल बडे सुन्दर हैं,"कहते हुए उसने उन घांस के फूलोंका छोटासा गुच्छा नीरा की ओर बढाया। चकित ,भरमायी -सी नीराने आंखें उठाके उसे देखा तो पाया कि वो बेहद उदास निगाहोंसे उसे अपलक देख रहा था। एक अबीब-सी , अजनबी संवेदना उसके अन्दर तक दौड़ गयी, जिसका उस समय उसका अबोध किशोर मन नामकरण नही कर पाया। महसूस हुई कान और गालों पर एक अनोंखी गरमी। उसने निरंजन के हाथोंसे फूल लिए और शरमा कर टैक्सी की ओर चल दीं। निरंजन उसके पीछे आया । तब तक बिल अदा करके बाबूजी भी वहाँ पोहोच चुके थे।
नीरा के हाथ मे फूल देखे तो बोले,"अरे फूल इक्ट्ठे कर रही थी हमारी बिटिया!"
"जीं,!"इस से आगे नीरा कुछ बोल नही पायी।
माँ बाबूजी ने निरंजन की ओर मुखातिब हो उसे जीं भर के शुभ कामनाएं दीं। निरंजन ने हाथ जोडे और टैक्सी चलने के पहले ही तेज़ कदमों से अन्दर मुड़ गया। नीरा समझ नही पायी कि उसकी आंखों मे उन वादियों के कोहरे की नमी थी!
चंडीगढ़ से जब वे लोग शिमला की ओर चले थे पूरा रास्ता नीरा चिड़िया की तरह चिहुकती आयी थी। लॉटते हुए उसे उस अर्ध क्षण की अनुभूती ने कितना अंतर्मुखी बना दिया था!

घर पहुँचते ही नारा ने उन फूलोंको अपनी एक किताब मे दबा दिया। देखते ही देखते वर्ष बीत ते गए। उन गर्मियों के बाद उस परिवार का कभी दोबारा शिमला जाना ही नही हुआ। उन्नीस वर्ष की पूरी होते,होते नीरा की विपुल से शादी भी हो गयी।
विपुल के पास धन दौलत की विपुलता तो थीही , उसने नीरा लो चाहा भी बेहद। वैसे स्वभावत: वो बड़ा हँसमुख और बातूनी था।
एक दिन उसने नीरा को कहा था,"तुम जब भी बाहर निकला करो ना, तब धूप का काला चश्मा आंखों पे लगा लिया करो"।
"क्यों",नीरा ने हैरत से पूछा था।
"पता नही,मेरी तरह कौन,कौन बेचारे इन इनकी गिरफ्त मे आकर घायल होते होंगे?"विपुलने छेड़ा।
"अच्छा??जैसे लोगों को मेरी आँखों मे झांक ने के अलावा दूसरा कोई काम ही नही!"नीरा ने कहा था।
"अजी,हम भी उन्ही निकम्मों मे से एक हैं,क्या भूल गईँ?तुम जब चंडीगढ़ से अपने चाचा के पास आयी थी तो canaught प्लेस मे हमने तुम्हे देख लिया था, और ऐसा पीछा किया, ज़िंदगी भर छूटेगा नही,"विपुल ने शरारत से याद दिलाया था।
लेकिन इतना भरा पूरा घर-संसार होते हुए भी नीरा के मन का एक कोना बिलकुल सूना ,अछूता रह गया था। एक सुनसान,अंधेरी गूफा की तरह।

ना जाने नीरा कितनी देर खयालों मे खोयी रही। जब गर्मियों की छुट्टियों की जब तैयारियां होने लगी तो नीरा मे एक अजीब सी चेतना भर गयी। लड़कपन की अधीरता से वो शिमला जानेका इंतज़ार करने लगी। इतना उल्लसित उसे उसके परिवालों ने शायद ही कभी देखा था।
"अपनी ही कार से चलेंगे!",उसने विपुल से आग्रह किया।
विपुल ने मान भी लिया।
सारा रास्ता नीरा खयालों मे खोयी रही । क्या निरंजन का पता मिलेगा??क्या वो शिमला मे ही होगा?बाबूजी से तो उसने एक दिन यही कहा था डाक्टर बन के वो शिमला मेही काम करेगा। लेकिन ज़िंदगी का क्या भरोसा?किस वक़्त किस मोड़ पर ले जाये?उसने विवाह भी कर लिया होगा!!लेकिन कर भी लिया हो तो क्या??उसके अतीत के वो कुछ पल जो नितांत उसके अपने थे, उसमे तो किसी की साझेदारी नही हो सकती!केवल उसने उन पलोंको जिया है,और किसी ने तो नही!उन पलोंकी स्मुतियों को उजागर करनेकी चाह मन और जीवन की सारी सीमा रेखाओं को पार कर उसे व्याकुल,अधीर बनाती रही।
शिमला पहुँचने के दुसरे ही दिन उसने दिन विपुल तथा बच्चों से कहा,"भयी,आज मैं अकेलेही शिमला मे कुछ देर घूमूंगी, खुद ही ड्राइव भी करूंगी । "
विपुल हैरानी उसे देखता रहा,बोला,"अकेली? क्यों?और खुद ही ड्राइव भी करोगी?तुम देहली मे तो इतना डरती हो कार चलाने से और यहाँ ड्राइव करोगी??इन अनजान पहाड़ी रास्तोंपे??
"बस ऐसे ही मन कर रहा है.बोहोत साल पेहेले माँ-बाबूजी के साथ यहाँ आयी थी। उन्ही यादोंको अकेले उजागर करना चाहती हूँ",नीरा ना चाहते हुए भी कुछ खोयी-सी बोली।
ओहो??ऎसी कौनसी यादें हैं जो हम नही बाँट सकते ?और फिर होटलकी भी कार सर्विस है,उससे जाओ। गाडी मत चलाओ। आख़िर किसलिये रिस्क लेना चाहती हो?" विपुल ने हर तरह से उसे रोकना चाहा, लेकिन नीरा के साथ हर बेहेस बेअसर थी। बच्चे भी माँ के इस बदले हुए रुप को हैरत से देखते रहे, बोले कुछ भी नही। विपुल ने हार के कार की चाभियाँ नीरा को पकडा दीं और हताश हो कमरेमे बैठ गया।
नीरा ने होटल से रोड़ मैप ले लिया और "होटल हिमाचल"की ओर चल दीं। एक अनाम धुन मे सवार,कहीं कोई अपराध बोध नही। केवल एक आत्यंतिक उत्कंठा। क्या निरंजन को वो तलाश पायेगी??

"होटल हिमाचल"पोहोंच के उसने कार पार्क की। होटल का हूलीया काफी बदला हुआ नज़र आ रहा था। पहले कितना साफ सुथरा हुआ करता था ये होटल!
काउंटर पर पोहोच कर उसने मेनेजर से कहा, 'देखिए मैं यहाँ किसी का पता पूछने आयी हूँ, कुछ बीस साल पहले हम यहाँ एक बार आये थे तब...."
"बीस साल पहले?पिछले दस सालोंसे मैं यहाँ मेनेजर हूँ। किसका पता चाहती हैं आप?"मेनेजर ने उसकी बात काट ते हुए उस से प्रतिप्रश्न किया।
"ओह! क्या इस होटल के मालिक से मिल सकती हूँ मैं?"नीरा ने बड़ी आशा से पूछा।
"इस होटल के जो पुराने मलिक थे,देहांत हो गया,कुछ सात साल पहेले। नए मालिक तो...."
हे भगवान्!पुराने मालिक का देहांत हो गया?"नीरा एकदम हताश हो उठी। अब कौन उसे निरंजन का पता बतायेगा??
उसकी निराशा देख,मेनेजर ने उस से कहा,"देखिए,इस होटल के जो पुराने मालिक थे,सुना है उन्होने एक वेटर को बिलकूल अपने बेटे की तरह रखा था, शायद वो आपकी ......"
"कहाँ है वो? क्या करता है?शिमला मे ही है?क्या आप मुझे उसका पता बता पायेंगे?"नीरा का खोया उल्लास लॉट आया और उसने सवालों की बौछार कर दीं।
"वो आजकल शिमला मे ही है, काफी जाना माना डाक्टर है,डाक्टर निरंजन्कुमार। पुराने मालिक ने पढाई के लिए उसे परदेस भी भेजा था,और उन्होनेही अस्पताल भी खुलवा दिया। "

मेनेजर जैसे,जैसे बताता गया,नीरा का चेहरा खुशी से खिलता गया। निरंजन के अस्पताल का पता जान ने के लिए वो बेताब हो उठी।
maneger ने एक कागज पे उसे रास्ते समझाते हुए पता लिख दिया। नीरा ने बे-सब्रीसे उसके हाथ से कागज छीना अपनी कार की ओर तेज़ीसे दौड़ पडी,ख़ुशी और उत्कंठा से उसका शरीर काँप सा रहा था। ये ऎसी उत्कंठा,ऐसा अछूता,अनूठा कंपन उसके लिए तकरीबन अपरिचित ही था। जिस व्यक्ती को उसने वर्षों पहेले केवल एकही बार देखा था,क्या वो ऎसी विलक्षण संवेदना जगह सकता है??नीरा को अपने आप पे अचरज हो रहा था।
अस्पताल होटल से ज़्यादा दूर नही था। पता ढूँढने मे नीरा को खास परेशानी नही हुई। गाते अन्दर घुसते ही उसने देखा कि छोटा-सा लेकिन काफी साफ सुथरा था अस्पताल। मुख्य द्वार से अन्दर जाते ही सामने बैठी receptionist ने उसे एक कार्ड थमाया, जिस पे नीरा ने कांपते हाथों से अपना नाम लिखा और वापस किया। हाल मे कुछ और लोग भी बैठे हुए थे। नीरा एक कुर्सी पर जा बैठी। इतना उत्कंठा भरा इंतज़ार तो नवपरिनीता नीरा ने सुहाग रात के दिन अपने पती का भी नही किया था। आज उसे वो व्यक्ती दिखने वाला था,जिसे इतने वर्षों मे वो कभी भी नही भूली थी। नीरा को देखते ही वो अनायास कह उठेगा,"अरे आप!!इतने सालों बाद?"
"पहचाना मुझे?" कांपते होंटों से कुछ अलफ़ाज़ फिसल पड़ेंगे। इस पर निरंजन का क्या जवाब रहेगा?
अचानक उसका नाम पुकारा गया। दरवाजा खोल कर अन्दर जाने तक उसका मुँह सूख गया शरीर पसीने से लथपथ। सामने वही निरंजन था।
नीरा मूर्तिवत खडी उसे देखती रही।
"आयिये , बैठिये !!"किसी व्यावसायिक डाक्टर की सभ्यता से निरंजन ने उस से कहा।
"हे भगवान्!!इसने लगता है,मुझे पहचाना ही नही!,"निरंजन उसे पहचानेगा नही, इस संभावना का तो उसने अनुमान ही नही किया था। वो जड़वत कुर्सी पे बैठ गयी।
"कहिये क्या तकलीफ है आप को?"डाक्टर उसे पूछ रहा था।
"जीं.....तकलीफ......नही....मुझे....मैं..."नीरा की समझ मे नही आ रहा था कि उस से कैसे पूछे,कैसे बताये??
"हाँ,हाँ,कहिये!!आप कुछ परेशान-सी लग रही हैं। आपके साथ औरभी कोई है या आप अकेली आयी हैं?"निरंजन उस से पूछ रहा था।
"जीं नही...मेरा मतलब है,जीं हाँ.......होटल मे हैं......मेरे पती और बच्चे। मैं आपके अस्पताल मे अकेली आयी हूँ। मैं पूछना चाह रही थी कि आप "होटल हिमाचल"जानते हैं?"नीरा ने पूछने की कोशिश की।
"क्या आप वहाँ रुकी हैं? वहाँ पर कोई बीमार है?मतलब आप मुझे visit पे बुलाने आयीं हैं?"
"नही,नही, मैं वहाँ नही रुकी हूँ। विजिट पे भी नही बुलाना चाहती। मैं तो .....क्या उस होटल के पुराने मालिक को...कभी....आप...जानते थे??"
नीरा की खुद समझ नही आ रहा था कि वो क्या बोल रही है।
"क्या आप उनके बारेमे जानना चाहती हैं?अफ़सोस!वो अब इस दुनिया मे नही रहे। कुछ सात साल पहेले उनका निधन हो गया,"डाक्टर निरंजन ने बताया।
"जीं...वो तो मैंने भी सुना। लेकिन...लेकिन...अबसे बीस साल पहेले हम उस होटल मे रुके थे। मतलब मैं और मेरे माँ-बाबूजी। उस समय वहाँ पे एक........."अब नीरा बेहद व्याकुल हो उठी। उसके कतई समझ मे नही आ रहा था वो उस डाक्टर से कैसे पूछे क्या कि क्या वो वही राजू है? अंत मे उसने पर्स मेसे वो लिफाफा निकाला, जिसमे वो घांस के नीले, पीले फूल रख कर साथ लाई थी। धीरे से उन फूलोंको निरंजन के सामने रखते हुए उसने पूछा,"क्या आप इन फूलोंको पहचानते हैं?क्या आपने ये फूल कभी किसीको .. ....",इसके आगे उस से बोला नही गया।
"ये क्या फूल हैं?शायद आप किसीकी तलाश मे यहाँ आयीं है!!कुछ गलत फेहेमी तो नही हुई आपको?"निरंजन ने बडे ही शांत भाव से कहा। नीर को सारी दुनिया घूमती हुई-सी नज़र आने लगी।
"क्या सच मे आप इन फूलोंको नही जानते??कुछ याद नही आपको?"नीरा बेताब हो उठी।
"नही तो!!देखिए,मैंने कहा ना,आप किसी गलत जगह पोहोंच गयी है!"निरंजन ने हल्की-सी मुस्कान के साथ फिर एकबार कहा।
"ओह!"'नीरा के होटों से एक अस्फुट-सी आह निकली।कुर्सी को थामते हुए डगमगाते क़दमों से खडी हुई,और धीरे, धीरे दरवाज़े की ओर बढ़ी। दरवाज़े का नोब घुमाते हुए एक बार फिर उसके दिल ने चाहा,जैसे वो घूम जाये,निरंजन से सीधा सवाल करे,"क्या तुम वही निरंजन नही हो? वही निरंजन,जिसने बीस साल पहले एक चौदह वर्षीया लडकी को ये घंस के फूल थमाये थे,उसे ऎसी निगाहोंसे देखा था,जिसे वो लडकी आज तलक भुला नही पायी?निरंजन !मैं वही लडकी हूँ!क्या अब भी मुझे जानोगे नही?"
लेकिन तबतक डाक्टर ने अगले patient के लिए बेल बजा दीं थी। वो बाहर निकली। कुछ ही देर पहले खुशनुमा हवामे लहराती एक चुनर तूफान की जकड मे मानो तार,तार हुई जा रही थी।
थोडी देर काउंटर को पकड़ के नीरा खडी हो गयी। अपने आप पे काबू पाने की भरसक कोशिश करती रही। फिर उसने अपने पर्समे से ,जिस होटल मे वे लोग रुके थे ,उसका फ़ोन number ,रूम नंबर तथा नाम receptionist को थमाते हुए बोली,"please,ज़रा इस नंबर पे मेरी बात करा देंगी आप?"
फ़ोन मिलाके receptionist ने नीरा को थमाया।
"हेल्लो,"धीरेसे नीराने कहा।
"हेल्लो!!नीरा??कहाँ से बोल रही हो??क्या बात है?"उधर से विपुल की चिंतित आवाज़ आयी।
"सुनो,विपुल,मैं रास्ता भटक गयी थी। किसी गलत फ़हमी मे किसी डाक्टर निरंजन कुमार की अस्पताल मे आ गयी। तुम यहाँ आकर....."
"अरे,तो अपने होटल का नाम बता के रास्ता पूछ लो!इतना मशहूर होटल है.....कोयीभी रास्ता बता देगा....घबराओ मत",विपुल ने उधर से कहा।
"नही विपुल,अब मुझ मे कार चलाने की हिम्मत नही। दरअसल तबीयत कुछ खराब लग रही है। तुम यहाँ आके मुझे ले जाओ please!"नीरा ने इल्तिजा भरे स्वर मे कहा।
"देखा ना मैं पहेले ही कह रहा था,गाडी चलाने की तुम्हें आदत नही है। ठीक है,पहोचता हूँ वहाँ। ज़रा ठीक से नाम बताना तो!"
नीरा ने नाम बताया और विपुल ने फ़ोन रख दिया।
बाहर तो धूप थी,लेकिन नीरा की आखों मे बंद वो एक निरंतर पल, बूँद-सा फिसल कर वक़्त के घने कोहरे मे खो गया। वो ठगी-सी,लुटी-सी देखती रही।
उसने पर्स मे से वो लिफाफा निकाला,जिसमे वो नीले-पीले फूल सहेज के देहली से चली थी,बरसों संजोये फूल!वेटिंग रूम के कोने मे एक कूडादानी थी। नीरा ने उसमे धीरे से लिफाफा छोड़ दिया।

विपुल तेज़ी से सीढियाँ लांघता हुआ बढ रहा था। नीरा ने झट धूप का चश्मा आंखों पर लगा लिया। कहीं विपुल उन सजल आंखों मे की धुन्द देख ना ले।
"तुम भी कमाल करती हो नीरा!!अस्पताल कैसे पोहोंची?जाना कहाँ चाह रही थी??मैं कह भी रहा था होटल की कार लेलो,लेकिन पता नही उस समय तुम्हारे सर पे क्या सवार था??"विपुल बोलता चला जा रहा था।
"कुछ नही,विपुल,जो सवार था,उतर गया। बस ऐसेही अकेले कुछ वक़्त गुज़रना चाहती थी ",नीरा ने अपने आप को ज़ब्त करने की भरसक कोशिश करते हुए कहा। अब शिमला की वो हसीं वादियाँ उसके लिए रेगिस्तान की वीरान्यियां बन चुकी थी।

रात मे काम ख़त्म करके निरंजन्कुमार अपने निवास पे डायरी लिख रहे थे,"नीरा!!पहली बार मुझे उसका नाम मालूम हुआ। जब मैंने उसे कम्रेमे घुसते देखा,तो मैं स्तब्ध रह गया। इतने वर्षों बाद मेरे सामने वही आँखें ,जिन्हें मैंने किस किस मे नही तलाशा! उन आखोंको मैं भला भूला ही कब था??अपने आपको कितनी मुश्किल से सम्भाला!अब भी वे आँखें वैसी ही थीं!उतनी ही निश्छल, niraagas !जब मैंने पहचान नेसे इनकार किया तो उफ़!कितनी आहट!उनमे की दीप्ती जैसे बुझ-सी गयी। लगा,बढ कर उसे थाम लूं,और कह दूं,"हाँ नीरा,मैं वही निरंजन हूँ,जिसे खोजती हुई तुम यहाँ आयी हो। 'लेकिन बड़ी निर्ममता से मैंने खुदको रोका। वो शादीशुदा थी। उसके कार्ड पे लिखा था,मिसेस नीरा सेठ। हमारे रास्ते कबके जुदा हो चुके थे।
प्रथमत: मुझे लगा,वो वाकयी patient के तौर पे आयी है। इतने वर्षों तक उसने मुझे याद रखा होगा,ये तो मैं सोंच भी नही सकता था। जब हम पहली बार मिले थे,तब मैं था ही क्या??केवल एक वेटर!!लेकिन जब एहसास हुआ कि वो मेरी ही खोज मे है तो हैरानी के साथ असीम ख़ुशी भी महसूस हुई। फिर भी मैंने निर्दयता से अपरिचय जताया। नियती की विडम्बना ही सही,लेकिन हम दोनो के वजूद का सम्मान अपरिचय बनाए रखने मेही था.,वरना पता नही उस मृगजल के धारा प्रवाह मे पतित हो हम किस ओर बह निकलते!!उबरना कितना मुश्किल होता!वक़्त उसे मरहम लगा ही देगा। वक़्त!!किसी भी डाक्टर से बड़ा डाक्टर!!
लेकिन सोंचता हूँ तो सिहर उठता हूँ!!मेरे प्रती इतनी गहरी आसक्ती रखते हुए,उसने अपने पती के साथ इतने साल कैसे बिताये होंगे!!अतीत को अनागत मे बदल ने के प्रयास मे क्या उसने अपना वर्तमान नही खोया होगा??मैंने तो शादी ही नही की। उन आखों की गिरफ्त मे गिरफ्तार मैं रिहा कब हुआ??लेकिन नीरा??
अच्छा हुआ इन फूलों का लिफाफा वो मेरे अस्पताल मे फेंक गयी। भगवान् करे इन फूलों के साथ,साथ वो अपनी संजोयी यादें भी फ़ेंक दे। वो यादें और ये नीरा के स्पर्शित फूल,अब मेरी धरोहर रहेंगे। शायद मेरे ना पहचाननेसे वो मुझ से नफरत ही करने लगी हो। लेकिन उसके लिए तो इस मोहमयी म्रुगत्रिश्ना से ये नफरत ही अच्छी। "
डाक्टर निरंजन ने अपनी डायरी मे बडे जतन से वो फूल रखे और धीरे से उसे उठा अपने सीने से लगा लिया। अनायास ही उनकी ऑंखें भर आयी।
सम्पूर्ण।

Thursday, July 26, 2007

प्यार की राह दिखा दुनियाको...

ये लेख मैंने तब लिखा था,जब गुजरात मे हुए फसांदों से मेरा मन तड़प उठा था....


कयी महीनो से मैं और आपलोग भी गुजरात मे घटी घटनायों का ब्योरा पढ़ रहे हैं । कोईभी तर्क संगत व्यक्ती जो घटा है या घट रहा है उस से सहमत नही हो सकता। इस मे कोई दो राय नही। अपनी अपनी ओर से कई लोगों ने जागृती लानेकी की कोशिश की,लेख लिखे गए तथा t.v.आदि के ज़रिये जागरुकता लाने का प्रयास हुआ। हिंदुस्तान मे क़ौमी फ़साद कोई पहली बार नही हुआ।
भिवंडी,मालेगाओ जैसी जगहें भी इन मामलों मे नाज़ुक मानी जाती हैं। मेरे बचपन मे मैंने जमशेद्पूर के क़ौमी फसादों के बारेमे किसीसे आँखों देखा हाल सुना था। छ:छ:महीनों के बच्चोंको ,ऊपरी मंजिलों से उनकी माँओं के सामने पटक दिया गया था,छोटे बच्चोंके सामने उनके माँ बाप को काट के जला दिया गया था।
इसी तरह स्थिती गुजरात मे हुई और हाल ही मे मेरी मुलाक़ात कुछ ऐसे लोगोंसे हुई जिन्होंने ये सबकुछ अपनी आँखोंसे देखा था,जो बच तो निकले, लेकिन इन सदमों के निशां ता उम्र नही भुला पाएंगे ! ये कैसा जुनून सवार हो जाता है इन्सानोपे जो हैवान भी कहलाने लायक नही रहते??क्यों होता है ऐसा??इनकी सद-असद विवेक बुद्धी कहॉ चली जाती है या होती ही नही??इनके मन मे कितना अंधियारा होता होगा!!क्या ऐसे लोगों को कभी भी पश्च्याताप होता होगा??क्या भविष्य मे अपनी मृत्यु शय्या पे पडे ये शांती से मर पाएँगे?? सुना है मन के हज़ारो नयन होते हैं, ये लोग देश की न्याय व्यवस्था से बच भी निकालें तो क्या अपने मन से बच पायेंगे ???आख़िर धर्म क्या है??इसकी परिभाषा क्या है?ऐसे सैकड़ों,हज़ारों सवाल मेरे मन मे डूबते उभरते रहते हैं ,जो इसकी तह तक जाने के लिए मुझे मजबूर करते हैं । ऐसेही कुछ ख़याल आपसे बाँटना चाहती हूँ।
बचपन मे अपनी सहेलियोंके घर जाया करती थी। उनके घर के बडे बुज़ुर्गोंको देखा करती थी। जब कभी उनके बुज़ुर्ग उन्हें आशीष देते थे तो मैंने कभी किसीके मुँह से ये नही सुना कि तुम इंसान बनो ,इस देश के अच्छे नागरिक बनो !!
मैंने लोगों को कयी सारे तीज त्यौहार मनाते देखा,ख़ूब ज़ोर शोर से देखा,लेकिन किसी को निजी तौर पे अपने घर मे स्वतंत्रता दिवस या फिर गणतंत्र दिवस मनाते नही देखा। ये दो दिन ऐसे बन सकते थे जो हर हिन्दुस्तानी एकसाथ मना सकता था,मिठाई बाँट सकता था,एक दुसरे को बधाई दे सकता था!!मैंने किसी माँ को अपने बच्चों से कहते नही सुना,"इस देश को रखना मेरे बच्चों संभल के..!"एक अच्छा नागरिक बनना क्या होता है,इसकी शिक्षा कितने घरोंसे बच्चों को दी जाती है??इस मंदिर मे जाओ,उस दर्गा पे जाओ। यहाँ मन माँगी मुराद पूरी होगी। बेटा इंजीनियर या डाक्टर बन जाये इसलिये मन्नतें माँगती माँओं को देखा,बेटी का विवाह अच्छे घर मे हो जाये ऎसी दुआएँ करते देखा(जिसमे कोई बुराई नही)लेकिन संतान विशाल र्हिदयी इन्सान बन जाये ऎसी दुआ कितने माता पिता करते है???
श्रीमद् भगवत गीतामे श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं ,"हे भारत!(अर्जुन) जब,जब धर्म की ग्लानी होती है,तथा अधर्म का अभ्युत्थान होता है,तब,तब,धर्म की रक्षा करने के लिए तथा अधर्म का विनाश करने के लिए मैं जन्म लेता हूँ"। भगवन ने "हिंदु धर्मस्य ग्लानि "या "मुस्लिम धर्मस्य ग्लानी " ऐसा तो कहीं नही कहा!!इसी का मतलब है कि प्राचीन भारतीय भाषाओंमे "धर्म"शब्द का प्रयोग स्वभाव धर्म या निसर्ग के नियमोंको लेकर किया गया था, ना कि किसी जाती-प्रजाती को, जो मानव निर्मित है। इसका विवरण ऐसे कर सकते हैं , जैसे कि,अग्नी का "स्वभाव "धर्म है जलना और जलाना। निसर्ग के नियम सभी के लिए एक समान होते हैं। निसर्ग कहीं कोई भेद भाव नहीं करता।कडी धूप मे निकला व्यक्ती, चाहे वो कोयीभी हो,सूरज की तपिश से बच से पायेगा?क्या हिंदू को मलेरिया हो जाये तो उसकी दवाई कुछ और होगी और किसी मुस्लिम हो जाये तो उसकी कुछ और??
"मज़हब नही सिखाता आपस मे बैर रखना,हिंदी हैं हम,वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा",इसकी शिक्षा घर घर मे क्यों नही दी जाती ?ना हमारे घरोंमे दी जाती है ना हमारी पाठशालाओं में। बडे अफ़सोस के साथ ये कहना पडेगा तथा मान ना पडेगा।
जब मेरे बच्चे स्कूल तथा कालेज जाते थे और उनके सह्पाठियोंकी माँओं से मेरा मिलना होता था, तो चर्चा का विषय केवल बच्चोंकी पढ़ाई ,ट्यूशन और विविध परीक्षायों मिले मे अंकों को लेकर होता था। ज़िंदा रहने के लिए रोजी रोटी कमाना ज़रूरी है, इस बात को लेकर किसे इनकार है??लेकिन बच्चों के दिलों दिमाग़ मे भाई चारा और मानवता भर देना उतनाही ज़रूरी है। मैंने कयी मुहँ से सुना,"काश! अँगरेज़ हमे छोड़ के नही गए होते!!"मतलब अव्वल तो हम अपने घर मे चोरों को घुसने दें,फिर उन्हें अपना घर लूटने दें,और कहें कि वे घर मे ही घुसे रहते तो कितना अच्छा होता!!अपने आप को इस क़दर हतबल कर लें कि पराधीनता बेहतर लगे!!
चंद लोगोंके भड़काने से गर हम भड़क उठते हैं , एक दूसरे की जान लेनेपे अमादा हो जाते हैं,तो दोष हमारा भी है। कभी तो अपने अन्दर झाँके!!हम क्यों गुमराह होते चले जा रहे है??और तो और ,जो लोग हमे गुमराह करतें है,उन्हें ही हम अपने रहनुमा समझने लगते हैं !!कहाँ गए वो ढाई आखर प्रेम के??गुजरात की हालत देख कर क्यों कुछ लोगों को कहना पड़ा कि हमारी आँखें दुनिया के आगे शर्म से झुक गयी हैं??हमे हमारे हुन्दुस्तानी होने पे गर्व के बदले लानत महसूस हो रही है??क्या भारतकी प्राचीन सभ्यता केवल मंदिर -मस्जिद मे सिमटके रहती है??और दिलोंमे रहती है झुलसती हुई आग जो बार बार शोला बनके भड़क उठती है!!
"भाई को भाई काटेंगे,वायस श्रुगाल सुख लूटेंगे -"ये बात कवि दिनकर के "राष्मिरथी"इस महाकाव्यमे श्रीकृष्ण दुर्योधन को कहते हैं । यहाँ पड़ोसी ने पड़ोसियों को काटा और जिन्होंने सुख लूटा उनका यहाँ ज़िक्र कर के अपने कागज़ कलम गंदे नही करना चाहती।
जिनका आपसी विश्वास उठ गया है उसे लौटने मे कितनी सदियाँ लगेंगी ?हमारे देश के इतिहास मे और ऐसे कितने लानछनास्पद वाकयात घटेंगे ,जिसके पहले कि हमारी आँखें खुलेंगी ??क्या दुर्योधन की तरह हमारी भी मती मारी गयी है??जिन्होंने ये कुकर्म किये उन्हें बहे हुए लहू की गन्ध तंग नही करेगी? उनकी आंखों के आगेसे वो विध्वंसक दृश्य कभी हट पायेंगे?
जिन माताओं के सामने उनके बच्चोंको तड़पता हुआ मरने के लिए छोड़ दिया गया,क्या उन माताओंकी हाय इन हैवानो की आत्मा को कभी शांती मिलने देगी?क्या असहाय जीवों की हत्या करने मे इन लोगों को मर्दानगी का एहसास हुआ होगा??
मैंने कयी तथाकथित बुद्धीजीवों को इन क़ौमी फसादों का ज़िम्मेदार उस महान आत्मा को,जिस का नाम गांधी था,ठहराते हुए सुना है। ऐसे बुद्धीजीवीयों ने अपनी ज़िन्दगीमे अपनी ज़बान हिलाने के अलावा शायद ही कुछ और काम किया होगा। वो क्या समझें उस महात्मा को जिसने अपनी कुर्बानियों के बदले मे ना कोई तख़्त माँगा ना कोई ताज। "अमृत दिया सभी को मगर खुद ज़हर पिया ", कवी प्रदीप ने लिखा है। जिस दिन उस महात्मा की चिता जली होगी सच,महाकाल रोया होगा। ऐसे शांती और अहिंसा के पुजारी पे ऐसा घिनौना इलज़ाम लगाना असंवेदनशीलता की हद है।हैरानी तो इस बात की भी होती है कि, इस गौतम और गांधी के देश मे लोग इस तरह हिंसा पे अमादा हो जाते हैं!!!इस देश की तमाम माताओं से,भाई बहनों से मेरी हाथ जोडके विनती कि वे अपनी अपनी मान्यतायों के अलावा बच्चों को जैसे जनम घुट्टी पिलाई जाती है,उस तरह संदेश दे,"प्यार की राह दिखा दुनिया को ,रोके जो नफरत की आंधी!,तुममे ही कोई होगा गौतम,तुममे ही कोई होगा गांधी!"
ये हम सभी की ज़िम्मेदारी है। दुनिया की निगाहें हम पे हैं। देखना है, हम इसे किस तरह निभाते हैं। कोई मोर्चा नही ले जाना है,ना ही कोई भाषण देना है। आँखें मूँद के वो नज़ारा सामने लाने की कोशिश कीजिये जो गुजरात ने देखा होगा,वरना ये आँधी,ये बगूले,हम तक पोहोंचते देर ना लगेगी।
समाप्त