Monday, August 20, 2007

आकाशनीम

"शाम के समारोह के बाद गाडी हवेली के गेट मे घुसी तो अचानक महसूस हुआ कि जाड़ों की शुरुआत हो चुकी है। फिर एकबार आकाशनीम की मदहोश बनाने वाली सुगंध फिजा मे समां गयी थी। एक ऎसी सुगंध जो जीवन मे बुझे हुए चरागों की गंध को कुछ देर के लिए भुला देती। मेरा अतीत इस गंध से किस तरह जुडा है ,मेरे अलावा इस राज़ को और जानता ही कौन था! शाम के धुनदल के मे इसकी महक आतेही अपने आप पर काबू पाना मुझे कितना मुश्किल लगता था!!अपने हाथों पे हुआ किसी का स्पर्श याद आता,दो समंदर सी गहरी आँखें मानसपटल पे उभर आतीं और मैं डूबती चली जाती। एक ऐसा स्पर्श जो इतने वर्षों बाद भी मेरी कया रोमांचित कर देता।

ज़िंदगी की लम्बी खिजा मे फूटा एक नन्हा-सा अंकुर जो मैंने अंतर्मन मे संजोया था,जिसे सारे तूफानों से बचाने के लिए मेरे मन:प्राण हरदम सतर्क थे,ताउम्र इस नन्हे कोंपल की मुझे रक्षा करनी थी। वरना इस रूखी , सूखी जिनगी मे अपने फ़र्जों की अदायगी के अलावा बचाही क्या था?

1 comment:

इरशाद अली said...

आकाशनीम मुझे सबसे अच्छी लगी। इसे पढ़कर लगता है कि आप कहानी के तकनीक पक्षों को भलीं-भातीं समझपाती है। विजूअल्स खेंचनें में माहिर हो। मीनाक्षी के मन का अर्तद्वद को किस तरह से अभिव्यक्त करना था यह केवल मीनाक्षी ही जानती है या फिर आप।