Wednesday, August 29, 2007

आकाशनीम

प्रस्ताव ये था कि अगर मैं नरेन्द्र से विवाह कर लू तो कई समस्याओंका हल निकल सकता है।

माँ-बाबूजी ने प्रतिप्रश्न किया,"क्या इस बारेमे आपने नरेंद्र्जी से बातचीत की है?"

"नरेन्द्र से जब मैंने बात की,तो उसने साफ इनकार कर दिया। कई दिन तो कुछ सुननेकोही तैयार नही था। लेकिन पूर्णिमाका जब सवाल उठाया तो उसपर कुछ असर हुआ। तबतक मैंने सोंचा क्यों ना आप लोगोंसे इस बीच बात कर लू?मीनाक्षी पे किसीभी किस्म्का दबाव डाला जे ये तो मैं हरगिज़ नही चाहती, लेकिन एक बार उस से सलाह ली जाय,इतनी बिनती मैं ज़रूर हाथ जोडके करूंगी ,"नरेन्द्रजीकी ममतामयी माने कहा।

मैंने दरवाज़े की ओट्से ये सारी बाँतें सुनी। कुछ देर तो मुझे मेरी ज़िंदगी फिसलतीसी लगी। मुझे हमारी रिश्तेकी बुआ के अलफ़ाज़ याद आये। उन्होंने एकबार मेरा और दीदीका आपसी लगाव देखते हुए मासे कहा था,"भाभी,इन दोनोका ब्याह तो एकही दूल्हे से करना, ये दोनो अलग तो रह नही पाएंगी।"

यह सुनके मैंने तुनक कर कहा था,"बुआजी, अगर ये कानूनन जुर्म ना होता तो हम ऐसाही कर लेते।"

अब वही होनेके आसार नज़र आ रहे थे। सिर्फ जुर्म नही था क्योंकी दीदी दुनियामे नही थी। शायद ज़ुल्म ज़रूर था। मुझपर भी ,नरेंद्र्जी पर भी। ।कई दिन इसी उलझन मे बीत गए। माँ-बाबूजी ने मुझसे बात करके निर्णय मुझी पर छोड़ दिया था। पूर्णिमा मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुकी थी। और फिर समस्या एक दिन उस मोड्पर आ गयी जब निर्णय लेना बेहद ज़रूरी था। बाबूजीके तबादले का आर्डर आ गया। एक ओर नन्ही पूर्णिमा,दूसरी ओर मेरे अपने जीवन के युवा सपने। लेकिन जीत दीदीकी उस नन्ही धरोहर की हुई जिसने अनजाने मे मेरा आंचल थाम लिया था, मैही उसकी माँ थी। वो नन्ही जान दुनियाके इन पछ्डो से परे थी।

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