दिन महीने बीतते गए और तेरी पढाई भी ख़त्म हुई। तुझे अवोर्ड भी मिला। मुझे बड़ी खुशी हुई। बस उसीके पहलेका तेरा शादीके बारेमे वो फ़ोन आया था। तेरे ब्याह्के एक-दो दिनों बाद ई मेल द्वारा मैंने तुझसे पूछा," यहांसे जो साडियां ले गयी थी, उनमेसे ब्याह के समय कौनसी पहनी तुने? और बाल कैसे काढे थे...जूडा बनाया था या की...?"
"अरे माँ, साडी कहाँ से पहेनती? समय कहाँ था इन सब का?? शर्ट और जींस पेही रजिस्ट्रेशन कर लिया।और जूडा क्या बनाना... बस पोनी टेल बाँध ली...."! तेरा सीधा,सरल,बडाही व्यावहारिक जवाब!
सूट केसेस भर-भर के रखी हुई दादी-परदादी के ज़मानेकी वो ज़रीकी किनारे, वो फूल,वो लेसेस, .....और न जाने क्या कुछ...जिनमेसे मै तेरे लिए एक संसार खडा करनेवाली थी...सबसे अलाहिदा एक दुल्हन सजाने वाली थी...सामान समेटते समय फिर एकबार सब बक्सोमे करीनेसे रखा गया, मलमल के कपडेमे लपेटके, नेपथलीन बोल्स डालके.....
कुछ कलावाधीके बाद तुने और राघव ने लिखा की तुम दोनोका वैदिक विधीसे विवाह हो, ऐसा उसके घरवाले चाहते हैं। अंतमे तय हुआ की १५ दिसम्बर, ये आखरी शुभ मुहूर्त था, जो की तय किया गया। उसे अभी तकरीबन ७/८ महीनोका अवधी था। पर मुझमे एक नई जान आ गयी। हर दिन ताज़गी भरा लगने लगा। तू मुझे फेहरिस्त बना-बनाके भेजने लगी....माँ, मुझे मेरे घरके लिए तुम्हारे हाथों से बने लैंप शेड चाहियें..., और हाँ,फ्युटन कवर का नांप भेज रही हूँ...कैसी डिजाईन बनाओगी?? परदोंके नांप आए...मैंने परदे सी लिए...उन्हें बांधनेके लिए क्रोशियेकी लेस बनायी। माँ! मै तुम्हारी दीवारोंपेसे मेरे पसंद के वालपीसेस ले जाऊंगी....!(ज़ाहिर था की वो सब मेरेही हाथों से बने हुए थे)!अच्छा, मेरे लिए टॉप्स खरीद्के रख लेना ,हैण्ड लूम के!.....मैंने कुछ तो पार्सल से और कुछ आने-जाने वालों के साथ चीज़ें भेजनेका सिलसिला शुरू कर दिया। बिलकुल पारंपारिक, ख़ास हिन्दुस्तानी तौरतरीकों से बनी चीज़ें...कारीगरों के पास जाके ख़रीदी हुई....ये रुची तुझे मेरेसेही मिली थी।
तेरे ब्याह्के मौकेपे मुझे बोहोतसों को तोहफे देनेकी हार्दिक इच्छा थी...तेरे पिताके दोस्त तथा उनके परिवारवालों को, उनके सह्कारियोंको , मेरे ससुराल और मायके वालों को, मेरी अपनी सखी सहेलियों को...मैंने कबसे इन बांतों की तैय्यारी शुरू कर रखी थी... समय-समय पे होनेवाली प्रदर्शनियों से कुछ-कुछ खरीद के रख लिया करती थी...हरेक को उसकी पसंद के अनुसार मुझे भेंट देनी थी.....बोहोतसों को अपने हाथोसे बनी वस्तुएं देनेकी मेरी चाह थी.....किसीकोभी, कुछभी होलसेलमे खरीदके पकडाना नही था। कई बरसोंसे मैंने सोनेके सिक्के इकट्ठे किए थे...अपनी कमायीमेसे...उसमेसे तेरे लिए मै ख़ुद डिजाईन बनाके गहने घड़वाने लगी, एकदम परंपरागत ...माँ के लिए एक ख़ास तरीकेका गहना,जेठानीकी कुछ वैसासाही... तेरी मासीके लिए मूंगे और मोतीका कानका...रुनझुन के लिए कानके छोटे,छोटे झुमके...!तेरी सासुमाने तेरे लिए किस किस्म की साडियां लेनी चाहियें,इसकी एक फेहरिस्त मुझे भेज रखी थी। उनमे सफ़ेद या काला धागा ना हो ये ख़ास हिदायत थी!!फिरभी मै और तेरी मासी बार-बार वही उठा लाते जो नही होना चाहिए था, और मै दौड़ते भागते लौटाने जाया करती...!
क्रमशः
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Thursday, July 3, 2008
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