Friday, August 31, 2007
आकाशनीम
लेकिन नरेन्द्र ने संक्षेप मे जो स्टीव को बताया उसे सुन कर मैं दंग रह गयी। उस समय नरेन्द्र को मेरे कमरे मे होने का भी शायद आभास नही रहा था। वे मानो स्वयम से बतिया रहे थे। नरेन्द्र अब भी किस क़दर अपनी प्रथम पत्नी से जुडे हुए थे। मेरे साथ उन्होने दीदी का विषय शयद ही कभी छेड़ा हो। हम दोनो ही अपनी अपनी तौर से उनसे बेहद जुडे हुए थे तथा उनका जान अपनी निजी क्षती मन कर कभी बाँट नही पाए थे। मेरे ब्याह से पहले मेरे शंकित मन को लेकर घरवालों ने समझाया था कि बाद मे सब ठीक हो जायेगा। अक्सर होही जाता है। फिक्र मत करो। दोष मेरा था या नियती का नही जानती, सब ठीक नही हुआ था। नरेन्द्र और मैं,एक छत के नीचे रहकर भी बिलकुल अकेले थे। हमसफ़र होते हुए भी हमारा जीवन दो समांतर रेखाओं की भांती चल रहा था।
Wednesday, August 29, 2007
आकाशनीम
एक दिन नरेन्द्रजी हमारे घर आये और उन्होने मुझसे अकेले मे बात करने का आग्रह किया। हमे बैठक मे अकेला छोड़ कर माँ-बाबूजी अन्दर चले गए, तब नरेंद्रजीने कहा,"देखो मीनाक्षी, किसीभी दबाव मे आकर कोयीभी निर्णय मत लेना। तुम्हारे आगे तुम्हारा सारा जीवन पडा है। ये ना हो कि तुम्हे बाद मे पछताना पडे। मैं अपनी ओरसे तुम्हे आश्वासन दे सकता हू कि तुम्हें हमेशा खुश रखने की कोशिश करुंगा। उसमे मुझे कितनी सफलता मिलेगी कह नही सकता ।"
"मैंने कहा था,नरेन्द्रजी मैं पूर्णिमासे बेहद जुड़ चुकी हूँ। आपकी और मेरे रिश्तेकी आगे परिणति क्या होगी ये बात मेरे ज़हेनमे इतनी नही आती जितनी पूर्णिमाकी चिंता सताती है। पूर्णिमाकी वजह्से मैंने इस शादीके लिए स्वीकृती देनेका निर्णय लिया है। मैं आपको क्या दे पाऊँगी कह नही सकती क्योंकि आजतक मैंने आपको सिर्फ जीजाके रुपमे ही देखा है।"
नरेन्द्रजी कुछ देर चुप रहे,फिर बोले,"ठीक है,मीनाक्षी,तो मैं इसे तुम्हारी अनुमती समझ लूँ?"
मैंने "हाँ"मे गर्दन हिला दीं।
"तो फिर किसी सुविधाजनक तिथीपर हम सादगी से शादी कर लेंगे,"नरेंद्रने मुझसे तथा मेरे घरवालोंसे कहा।
तिथी निश्चित हुई। घर मे कोयीभी शादी वाली रौनक नही थी। बाबूजी ने कुछ छुट्टी लेली। किसीके दिल मे ज़रासा भी उत्साह नही था। माँ को मैं चुपके,चुपके अपने आँचल से आँसू पोंछते देख लेती। हम दोनोही एक दुसरे से छुपके आँसू बहाते। कैसी घनी उदासीका आलम था, मानो सारी कायनात रो रही हो।
यथासमय विवाह के पश्चात् मैं पूर्णिमा के साथ नरेन्द्रजी के घर आ गयी और बाबूजी अपने तबाद्लेकी जगह चले गए। जीवनधारा किसीके लिए रुकती नही। नीला दीदीकी वही चिरपरिचित हवेली। लगता था मानो अभी किसी कमरेमे से बाहर आयेंगी। हर दरोदीवार पर उनका अस्तित्व महसूस होता रहता,हर तरफ वो अंकित थी। दीवारोंके लब होते तो वे उन्हीके गीत गाती।
नरेंद्रका व्यवहार मेरे प्रती बेहद मृदु था। हम दोनोही एकदूसरे को आहट ना करने की भरसक कोशिश करते, लेकिन हमारे बीच ना जाने कैसी एक अदृश्य दीवार ,कोई अदृश्य खाई बनी रहती जिसे हम लाँघ नही पाते। जो व्यक्ती मेरी दिवंगत दीदीका सर्वस्व था,उसके और मेरे बीच का सेतु केवल पूर्णिमाही थी। हम दोनोही चाहें भरसक इस सत्य से अनजान बन नेकी कोशिश करते, उसे नकार नही सकते। हमारे अतीव अंतरंग क्षणों मेभी एक ऎसी अदृश्य परछाई आ जाती, जो मेरी पकड़ मे नही आती। नरेंद्रमे कुछ्भी खोट नही थी। लेकिन भावनात्मक तौर पर मैं उनसे जुड़ नही प रही थी ,जैसे की एक पत्नी को जुडना चाहिए ।
"मैंने कहा था,नरेन्द्रजी मैं पूर्णिमासे बेहद जुड़ चुकी हूँ। आपकी और मेरे रिश्तेकी आगे परिणति क्या होगी ये बात मेरे ज़हेनमे इतनी नही आती जितनी पूर्णिमाकी चिंता सताती है। पूर्णिमाकी वजह्से मैंने इस शादीके लिए स्वीकृती देनेका निर्णय लिया है। मैं आपको क्या दे पाऊँगी कह नही सकती क्योंकि आजतक मैंने आपको सिर्फ जीजाके रुपमे ही देखा है।"
नरेन्द्रजी कुछ देर चुप रहे,फिर बोले,"ठीक है,मीनाक्षी,तो मैं इसे तुम्हारी अनुमती समझ लूँ?"
मैंने "हाँ"मे गर्दन हिला दीं।
"तो फिर किसी सुविधाजनक तिथीपर हम सादगी से शादी कर लेंगे,"नरेंद्रने मुझसे तथा मेरे घरवालोंसे कहा।
तिथी निश्चित हुई। घर मे कोयीभी शादी वाली रौनक नही थी। बाबूजी ने कुछ छुट्टी लेली। किसीके दिल मे ज़रासा भी उत्साह नही था। माँ को मैं चुपके,चुपके अपने आँचल से आँसू पोंछते देख लेती। हम दोनोही एक दुसरे से छुपके आँसू बहाते। कैसी घनी उदासीका आलम था, मानो सारी कायनात रो रही हो।
यथासमय विवाह के पश्चात् मैं पूर्णिमा के साथ नरेन्द्रजी के घर आ गयी और बाबूजी अपने तबाद्लेकी जगह चले गए। जीवनधारा किसीके लिए रुकती नही। नीला दीदीकी वही चिरपरिचित हवेली। लगता था मानो अभी किसी कमरेमे से बाहर आयेंगी। हर दरोदीवार पर उनका अस्तित्व महसूस होता रहता,हर तरफ वो अंकित थी। दीवारोंके लब होते तो वे उन्हीके गीत गाती।
नरेंद्रका व्यवहार मेरे प्रती बेहद मृदु था। हम दोनोही एकदूसरे को आहट ना करने की भरसक कोशिश करते, लेकिन हमारे बीच ना जाने कैसी एक अदृश्य दीवार ,कोई अदृश्य खाई बनी रहती जिसे हम लाँघ नही पाते। जो व्यक्ती मेरी दिवंगत दीदीका सर्वस्व था,उसके और मेरे बीच का सेतु केवल पूर्णिमाही थी। हम दोनोही चाहें भरसक इस सत्य से अनजान बन नेकी कोशिश करते, उसे नकार नही सकते। हमारे अतीव अंतरंग क्षणों मेभी एक ऎसी अदृश्य परछाई आ जाती, जो मेरी पकड़ मे नही आती। नरेंद्रमे कुछ्भी खोट नही थी। लेकिन भावनात्मक तौर पर मैं उनसे जुड़ नही प रही थी ,जैसे की एक पत्नी को जुडना चाहिए ।
आकाशनीम
प्रस्ताव ये था कि अगर मैं नरेन्द्र से विवाह कर लू तो कई समस्याओंका हल निकल सकता है।
माँ-बाबूजी ने प्रतिप्रश्न किया,"क्या इस बारेमे आपने नरेंद्र्जी से बातचीत की है?"
"नरेन्द्र से जब मैंने बात की,तो उसने साफ इनकार कर दिया। कई दिन तो कुछ सुननेकोही तैयार नही था। लेकिन पूर्णिमाका जब सवाल उठाया तो उसपर कुछ असर हुआ। तबतक मैंने सोंचा क्यों ना आप लोगोंसे इस बीच बात कर लू?मीनाक्षी पे किसीभी किस्म्का दबाव डाला जे ये तो मैं हरगिज़ नही चाहती, लेकिन एक बार उस से सलाह ली जाय,इतनी बिनती मैं ज़रूर हाथ जोडके करूंगी ,"नरेन्द्रजीकी ममतामयी माने कहा।
मैंने दरवाज़े की ओट्से ये सारी बाँतें सुनी। कुछ देर तो मुझे मेरी ज़िंदगी फिसलतीसी लगी। मुझे हमारी रिश्तेकी बुआ के अलफ़ाज़ याद आये। उन्होंने एकबार मेरा और दीदीका आपसी लगाव देखते हुए मासे कहा था,"भाभी,इन दोनोका ब्याह तो एकही दूल्हे से करना, ये दोनो अलग तो रह नही पाएंगी।"
यह सुनके मैंने तुनक कर कहा था,"बुआजी, अगर ये कानूनन जुर्म ना होता तो हम ऐसाही कर लेते।"
अब वही होनेके आसार नज़र आ रहे थे। सिर्फ जुर्म नही था क्योंकी दीदी दुनियामे नही थी। शायद ज़ुल्म ज़रूर था। मुझपर भी ,नरेंद्र्जी पर भी। ।कई दिन इसी उलझन मे बीत गए। माँ-बाबूजी ने मुझसे बात करके निर्णय मुझी पर छोड़ दिया था। पूर्णिमा मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुकी थी। और फिर समस्या एक दिन उस मोड्पर आ गयी जब निर्णय लेना बेहद ज़रूरी था। बाबूजीके तबादले का आर्डर आ गया। एक ओर नन्ही पूर्णिमा,दूसरी ओर मेरे अपने जीवन के युवा सपने। लेकिन जीत दीदीकी उस नन्ही धरोहर की हुई जिसने अनजाने मे मेरा आंचल थाम लिया था, मैही उसकी माँ थी। वो नन्ही जान दुनियाके इन पछ्डो से परे थी।
माँ-बाबूजी ने प्रतिप्रश्न किया,"क्या इस बारेमे आपने नरेंद्र्जी से बातचीत की है?"
"नरेन्द्र से जब मैंने बात की,तो उसने साफ इनकार कर दिया। कई दिन तो कुछ सुननेकोही तैयार नही था। लेकिन पूर्णिमाका जब सवाल उठाया तो उसपर कुछ असर हुआ। तबतक मैंने सोंचा क्यों ना आप लोगोंसे इस बीच बात कर लू?मीनाक्षी पे किसीभी किस्म्का दबाव डाला जे ये तो मैं हरगिज़ नही चाहती, लेकिन एक बार उस से सलाह ली जाय,इतनी बिनती मैं ज़रूर हाथ जोडके करूंगी ,"नरेन्द्रजीकी ममतामयी माने कहा।
मैंने दरवाज़े की ओट्से ये सारी बाँतें सुनी। कुछ देर तो मुझे मेरी ज़िंदगी फिसलतीसी लगी। मुझे हमारी रिश्तेकी बुआ के अलफ़ाज़ याद आये। उन्होंने एकबार मेरा और दीदीका आपसी लगाव देखते हुए मासे कहा था,"भाभी,इन दोनोका ब्याह तो एकही दूल्हे से करना, ये दोनो अलग तो रह नही पाएंगी।"
यह सुनके मैंने तुनक कर कहा था,"बुआजी, अगर ये कानूनन जुर्म ना होता तो हम ऐसाही कर लेते।"
अब वही होनेके आसार नज़र आ रहे थे। सिर्फ जुर्म नही था क्योंकी दीदी दुनियामे नही थी। शायद ज़ुल्म ज़रूर था। मुझपर भी ,नरेंद्र्जी पर भी। ।कई दिन इसी उलझन मे बीत गए। माँ-बाबूजी ने मुझसे बात करके निर्णय मुझी पर छोड़ दिया था। पूर्णिमा मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुकी थी। और फिर समस्या एक दिन उस मोड्पर आ गयी जब निर्णय लेना बेहद ज़रूरी था। बाबूजीके तबादले का आर्डर आ गया। एक ओर नन्ही पूर्णिमा,दूसरी ओर मेरे अपने जीवन के युवा सपने। लेकिन जीत दीदीकी उस नन्ही धरोहर की हुई जिसने अनजाने मे मेरा आंचल थाम लिया था, मैही उसकी माँ थी। वो नन्ही जान दुनियाके इन पछ्डो से परे थी।
Tuesday, August 28, 2007
आकाशनीम
नीला दीदी के बिना खाली घर मुझे खानेको उठता। चंद घंटे महाविद्यालय मे निकल जाते। गनीमत यह थी कि दीदी कि ससुराल रामनगर मेही थी। मेरा कालेज का आख़री साल था। दिन तेज़ीसे बीत रहे थे। घर पे मेरे ब्याहकीभी बात चल रही थी। इधर दीदीके गर्भवती होनेकी खबर सुन के दोनो परिवार आनेवाले मेहमान के बारेमे सपने बुन ने लगे। मैं अक्सर दीदी के ससुराल चली जाया करती। हम दोनो घंटो बातें करते,कई बार माजी भी आकर बैठ जाती। हमलोग मिलकर बच्चों के नामों की सूची बनाते। कभी लड़के की तो कभी लडकी की।
यथा समय दीदी को अस्पताल ले जाया गया। जब दीदी घरसे निकली तो क्या पता था कि वे वापस लौटेंगीही नही। प्रसव के दरमियाँ अत्याधिक रक्तस्राव के कारण दीदी की मृत्यु हो गयी। होनी देखिए,जिस डाक्टर के हाथ मे दीदी का केस था वो डाक्टर अचानक बेहद बीमार पड़ गया। एक अन अनुभवी डाक्टर को केस ठीक से संभालना नही आया। पीछे अपनी नन्ही , - प्यारी-सी धरोहर,एक बिटिया को छोड़ दीदी हमसे सदा के लिए बिछुड़ गयी। हम सब पर क्या गुज़री इसका बयां मैं नही सकती। वो पूरण मासी का दिन था, इसलिये सब उस बिटिया को पूर्णिमा बुलाने लगे । लेकिन उसका नामकरण संस्कार कभी हुआ ही नही। मैंने इस नन्ही -सी कली को अपने कलेजे से चिपका लिया। नरेंद्रजी अक्सर उस से हमारे घर पे आकर मिल जाया करते। जब पूर्णिमा छ: माह की हुई तो नरेन्द्र की माँ ने मेरी माँ के आगे एक प्रस्ताव रखा। कह नही सकती कि,इस प्रस्ताव के बाद या जब दीदी की मृत्यु हुई उसीके बाद दूसरा अध्याय शुरू हुआ। तबतक तो जीवन एक सीधी,सरल लकीर-सा था। जीवन मे उतार चढाव भी होते है ये सिर्फ कथा कहानियो मे सुना था और हमेशा यही लगता था कि ऎसी बाते किसी और के ही जीवन मे घट तीं होंगी अपने जीवन मे नही।
यथा समय दीदी को अस्पताल ले जाया गया। जब दीदी घरसे निकली तो क्या पता था कि वे वापस लौटेंगीही नही। प्रसव के दरमियाँ अत्याधिक रक्तस्राव के कारण दीदी की मृत्यु हो गयी। होनी देखिए,जिस डाक्टर के हाथ मे दीदी का केस था वो डाक्टर अचानक बेहद बीमार पड़ गया। एक अन अनुभवी डाक्टर को केस ठीक से संभालना नही आया। पीछे अपनी नन्ही , - प्यारी-सी धरोहर,एक बिटिया को छोड़ दीदी हमसे सदा के लिए बिछुड़ गयी। हम सब पर क्या गुज़री इसका बयां मैं नही सकती। वो पूरण मासी का दिन था, इसलिये सब उस बिटिया को पूर्णिमा बुलाने लगे । लेकिन उसका नामकरण संस्कार कभी हुआ ही नही। मैंने इस नन्ही -सी कली को अपने कलेजे से चिपका लिया। नरेंद्रजी अक्सर उस से हमारे घर पे आकर मिल जाया करते। जब पूर्णिमा छ: माह की हुई तो नरेन्द्र की माँ ने मेरी माँ के आगे एक प्रस्ताव रखा। कह नही सकती कि,इस प्रस्ताव के बाद या जब दीदी की मृत्यु हुई उसीके बाद दूसरा अध्याय शुरू हुआ। तबतक तो जीवन एक सीधी,सरल लकीर-सा था। जीवन मे उतार चढाव भी होते है ये सिर्फ कथा कहानियो मे सुना था और हमेशा यही लगता था कि ऎसी बाते किसी और के ही जीवन मे घट तीं होंगी अपने जीवन मे नही।
आकाशनीम
ऐसे नामवर सर्जन का बेटा चित्रकार कैसे बना, येभी एक अचरज था, लेकिन सुना था, बाप ने अपने बेटे को हमेशा प्रोत्साहन ही दिया। खैर! नरेंद्रजी अपनी माँ को लेकर एक दिन हमारे घर आ गए और दीदी के रिश्ते की बात पक्की हो गयी। जल्द ही शादीका दिनभी आ गया। ख़ुशी और दुःख का एक ही साथ ऐसा एहसास मुझे कभी नही हुआ था। दुल्हन बनी नीला दीदी के चहरे से नज़ारे हटाये नही हटती थीं,और कुछ ही देर मे बिदा हो रही मेरी ये अभिन्न , अंतरंग सहेली अपनी ससुराल चली जायेगी इस का दुःख मेरी आंखें नम किये जा रहा था। बिछुड़ते समय हम दोनो गले लगकर ख़ूब रो ली।
Tuesday, August 21, 2007
अपने निहायत तनहा लम्होंमें यही दीवाना बना देने वाली आकाशनीम की महक मुझे दूर,दूर ले जाती,अपने लड़कपन मे, जब जब मैं इस गंध से नही जुडी थी।
हमारा छोटासा परिवार था। बाबूजी सरकारी मुलाजिम थे। हम दो बेहेने थीं। नीलाक्षी दीदी बड़ी थीं और गुडिया-सी सुन्दर,नाज़ुक। मैं सांवली,श्यामली। लेकिन किशोरावस्था मे पोहोंचने तक हम दोनो अभिन्न सहेलिया बन गयी। मुझे कभी कोई काली कहता तो नीलाक्षी दीदी बर्दाश्त नही कर पाती, कहती,"अजन्ताकी मूर्तें देखीं है कभी? पत्थर की,काली,लेकिन कितनी लुभावनी ,तराशी हुई! हमारी मीनू वैसी ही है"।
दोस्त रिश्तेदार हमेशा माँ-बाबूजी से कहा करते,"बहनो मे ऐसा प्यार कम ही देखा है। हमारा यहाँ तो बहने,बहने या भाई -बेहेन लगातार झगड़ते ही रहते है।"
"नज़र ना लगाओ भई,भगवान् करे करे इनका इसी तरह बरकरार रहे,ये दोनो इसी डोर से बंधी रहें ,"माँ कहा करती।
नीला दीदी को चित्रकला मे विशेष रुची थी। इसी वजह से प्रातिथ यश चित्रकार नरेंद्रजी से उनका परिचय हुआ। अपने चित्रों की प्रदर्शनी मे नरेंद्रजी ने उन्हें देखा और और उनका पोर्ट्रेट बनने की अनुमती मांगी थी। कई बार जब नरेंद्रजी के स्टूडियो मे, जो उनकी पुरानी हवेली मे था,पेंटिंग का सेशन चलता तब मैं वहाँ मौजूद रहती। उन दोनों के संबंधों का बढ़ता माधुर्य मुझ से छुपा नही था। वैसे भी नीला दीदी मुझ से कुछ छुपाती नही थी। उनकी प्रतिनिधी बनके माँ-बाबूजी को भी मैंने आगाह कर दिया था। दोनों ही तरक्की पसंद खयालों के थे, और नरेन्द्र जीं मे कोई खोट भी नही थी। सिर्फ नीला दीदी की पढाई पूरी होनेका इंतज़ार था,जो यथासमय पूरी होही गयी। नरेंद्रजी का अपनी माँ के अलावा और कोई करीबी रिश्तेदार भी नही था। उनके पिता एक ज़माने मे रामनगर के जाने माने सर्जन थे। परदेस मे बसने के कई हाथ से छोड़ कर उन्हों ने रामनगर मेही अस्पताल खोला था। इसी कारण उन्होने काफी पुश्तैनी ज़मीन जायदाद बेच दीं थी। कुछ्ही समय पहले उनका एक सड़क दुर्घटना मे निधन हो गया था। तबसे अप्स्पताल का कारोबार माँ जीं तथा नरेंद्रजी संभाल ते थे। उनका रामनगर के बाहरी इलाके मे बड़ा-सा हवेली नुमा पुश्तैनी मकान था,"पर्वत महल"।
हमारा छोटासा परिवार था। बाबूजी सरकारी मुलाजिम थे। हम दो बेहेने थीं। नीलाक्षी दीदी बड़ी थीं और गुडिया-सी सुन्दर,नाज़ुक। मैं सांवली,श्यामली। लेकिन किशोरावस्था मे पोहोंचने तक हम दोनो अभिन्न सहेलिया बन गयी। मुझे कभी कोई काली कहता तो नीलाक्षी दीदी बर्दाश्त नही कर पाती, कहती,"अजन्ताकी मूर्तें देखीं है कभी? पत्थर की,काली,लेकिन कितनी लुभावनी ,तराशी हुई! हमारी मीनू वैसी ही है"।
दोस्त रिश्तेदार हमेशा माँ-बाबूजी से कहा करते,"बहनो मे ऐसा प्यार कम ही देखा है। हमारा यहाँ तो बहने,बहने या भाई -बेहेन लगातार झगड़ते ही रहते है।"
"नज़र ना लगाओ भई,भगवान् करे करे इनका इसी तरह बरकरार रहे,ये दोनो इसी डोर से बंधी रहें ,"माँ कहा करती।
नीला दीदी को चित्रकला मे विशेष रुची थी। इसी वजह से प्रातिथ यश चित्रकार नरेंद्रजी से उनका परिचय हुआ। अपने चित्रों की प्रदर्शनी मे नरेंद्रजी ने उन्हें देखा और और उनका पोर्ट्रेट बनने की अनुमती मांगी थी। कई बार जब नरेंद्रजी के स्टूडियो मे, जो उनकी पुरानी हवेली मे था,पेंटिंग का सेशन चलता तब मैं वहाँ मौजूद रहती। उन दोनों के संबंधों का बढ़ता माधुर्य मुझ से छुपा नही था। वैसे भी नीला दीदी मुझ से कुछ छुपाती नही थी। उनकी प्रतिनिधी बनके माँ-बाबूजी को भी मैंने आगाह कर दिया था। दोनों ही तरक्की पसंद खयालों के थे, और नरेन्द्र जीं मे कोई खोट भी नही थी। सिर्फ नीला दीदी की पढाई पूरी होनेका इंतज़ार था,जो यथासमय पूरी होही गयी। नरेंद्रजी का अपनी माँ के अलावा और कोई करीबी रिश्तेदार भी नही था। उनके पिता एक ज़माने मे रामनगर के जाने माने सर्जन थे। परदेस मे बसने के कई हाथ से छोड़ कर उन्हों ने रामनगर मेही अस्पताल खोला था। इसी कारण उन्होने काफी पुश्तैनी ज़मीन जायदाद बेच दीं थी। कुछ्ही समय पहले उनका एक सड़क दुर्घटना मे निधन हो गया था। तबसे अप्स्पताल का कारोबार माँ जीं तथा नरेंद्रजी संभाल ते थे। उनका रामनगर के बाहरी इलाके मे बड़ा-सा हवेली नुमा पुश्तैनी मकान था,"पर्वत महल"।
"मीनाक्षीजी,आपकी रचनाओंमे इतना दर्द क्यों है?आप इंसानी जज्बात की गहराईयों तक इतनी सहजता से कैसे पोहोंच जाती है?" मेरे वाचक चहेते मुझसे अक्सर सवाल किया करते और मैं मुस्कुराकर टाल जाती। एक असीम दर्द की अनुभूति जो एक एक कलाकृति बनकर उभरती रही,उसका थाह भला कब कौन ले सकता था! अपनी काव्य रचनाओं के रुप मे बह निकले जज्बात मुझे लोगोंकी निगाहों मे प्रतिभावान बाना जाते। कई पुरस्कृत संग्रहों ने मुझे प्रतिभा की ओर पोहोचा दिया था।
Monday, August 20, 2007
आकाशनीम
"शाम के समारोह के बाद गाडी हवेली के गेट मे घुसी तो अचानक महसूस हुआ कि जाड़ों की शुरुआत हो चुकी है। फिर एकबार आकाशनीम की मदहोश बनाने वाली सुगंध फिजा मे समां गयी थी। एक ऎसी सुगंध जो जीवन मे बुझे हुए चरागों की गंध को कुछ देर के लिए भुला देती। मेरा अतीत इस गंध से किस तरह जुडा है ,मेरे अलावा इस राज़ को और जानता ही कौन था! शाम के धुनदल के मे इसकी महक आतेही अपने आप पर काबू पाना मुझे कितना मुश्किल लगता था!!अपने हाथों पे हुआ किसी का स्पर्श याद आता,दो समंदर सी गहरी आँखें मानसपटल पे उभर आतीं और मैं डूबती चली जाती। एक ऐसा स्पर्श जो इतने वर्षों बाद भी मेरी कया रोमांचित कर देता।
ज़िंदगी की लम्बी खिजा मे फूटा एक नन्हा-सा अंकुर जो मैंने अंतर्मन मे संजोया था,जिसे सारे तूफानों से बचाने के लिए मेरे मन:प्राण हरदम सतर्क थे,ताउम्र इस नन्हे कोंपल की मुझे रक्षा करनी थी। वरना इस रूखी , सूखी जिनगी मे अपने फ़र्जों की अदायगी के अलावा बचाही क्या था?
ज़िंदगी की लम्बी खिजा मे फूटा एक नन्हा-सा अंकुर जो मैंने अंतर्मन मे संजोया था,जिसे सारे तूफानों से बचाने के लिए मेरे मन:प्राण हरदम सतर्क थे,ताउम्र इस नन्हे कोंपल की मुझे रक्षा करनी थी। वरना इस रूखी , सूखी जिनगी मे अपने फ़र्जों की अदायगी के अलावा बचाही क्या था?
Friday, August 3, 2007
नैहर (कहानी)
पिछले एक महीने से अलग,अलग नलियो मे जकड़ी पडी तथा कोमा मे गयी अपनी माँ को वो देख रही थी । कभी उस के सर पे हाथ फेरती , कभी उसका हाथ पकड़ती। हर बार उसे पुकारती,"माँ!देखो ना!मैं आ गयी हूँ!"
उसके मन मे आशा एक नन्हा-सा दिया टिमटिमाता रहता। शायद आख़री सांस लेनेसे पहेले किसी तरह उसकी माको पता चले कि उसकी लाडली बेटी मृत्युशया के पास थी। मन ही मन वल हज़ारों बार इश्वर से बिनती करती रहती,हे भगवान्!सिर्फ एक बार इसकी आँखें खुलवा दो,मुझे देख लेने दो,मेरे नजदीक होने का एहसास दिलवा दो।
लेकिन ऐसा हुआ नही। एक बार पूरी रात उसकी आंख नही लगी,पर तड़के झपकी लग गयी। जब डाक्टर माँ को देखने कमरे मे आये तो वो hadbada के जग पडी। डाक्टर ने हमेशा की तरह उस की माँ को तपासने की शुरुआत की और तुरंत उस की ओर मुड़ के बोले,"I ऍम सॉरी शी इस नो मोर"।
डाक्टर उसके परिवार के पुराने परिचित थे। उनका अक्सर उसके पीहर मे आना जाना हुआ करता था। उन्हों ने धीरे से उसके कन्धों पे थपथपाया। नर्स ने माँ को लगी हुई नलिया निकालने की शुरुआत कर दीं। उसकी आंखों से आँसू ओंकी धारा बहने लगी थी। उसके पास होने का कोई भी एहसास उसकी माँ को नही हुआ था। उसने आने मे बोहोत देर कर दीं थी। "माँ!तुमने मुझे कितनी बड़ी सज़ा दीं",उसका मन दर्द से कराह उठा।
उसके बाद धीरे,धीरे जोभी विधियां होनी थी होती रही। लोगों को फोन किये गए। उनके फार्म हौस पे लोग इक्ट्ठे हो गए। उसका भाई रीती रिवाज निभाता रहा। वो गुमसुम-सी देखती रही।
जब घर पे काम करने वाली औरतों ने ज़ोर से रोना धोना शुरू किया तब वो बेसाख्ता उन पे चींख उठी ,"खामोश!रोना है तो बाहर निकल जाओ!"
इन सब औरतों के साथ उसके पिता के कभी ना कभी अनैतिक संबंध रह चुके थे। उसे बेहद घुस्सा आया। उन औरतों के जिस्म पे सोना था,उन के पक्के घर बन चुके थे। माँ को उसके पिता ने कभी सोने की चेन तक नही दीं थी। माँ ने खुद ये सब झेल कर भी कभी किसी को बताया नही था। उसीने एकबार अपनी आंखों से देख लिया था। अपने आपे से बाहर हो गयी थी वो तब। इतनी सुन्दर, शालीन,गुणवती पत्नी होने के बावजूद उसके पिता ने ऐसा क्यों किया?अपने पितापे आये क्रोध के कारण उसने अपने पीहर जाना काफी कम कर दिया था।
वो काफी प्रतिथ यश वकील थी। माँ पर होने वाले अन्याय होने वाले एहसास होने के बाद उसने उस किस्म की परिस्थितयों से गुजरने वाली महिलाओं से फ़ीस लेनी बंद कर दीं थी। लेकिन माँ उसे बार, बार बुलाती रहती । उसे कहती, ''मेरी खातिर आओ। हमेशा दो दिन रहके लॉट जाती हो। तुम से कितनी सारी बांतें करने का मन होता है। कभी तो समय निकाल कर आठ-दस रोज़ आओ। मैंने तो कोई गुनाह नही किया। देखो, मैंने सब कुछ हँसते ,हँसते सह लिया। शायद यही मेरी किस्मत थी। मेरे पास और कोई रास्ता नही था। बच्चों को लेके मैं कहॉ जाती?मेरा तो कोई पीहर नही था!!तेरा है। कयी बार मन करता है,तेरा सर अपनी गोद मे रख कर सहलाती रहूँ। "
माँ की बिनती हमेशा चालू रहती। कभी,कभी वो अपनी बेटी को भेज देती। नानी-नवासी की ख़ूब पटती। मानो दोनो बड़ी गहरी सहेलियां हो!उसकी बेटी शादी के बाद जब ऑस्ट्रेलिया चली गयी तब माँ कितना रोई थी!!
माँ की एक फुफेरी बहन haiderabaad मे रहती थी। दोनोका आपस मे बड़ा लगाव था। कभी कभार माँ उसे और उसके छोटे भाई को लेके हैदेराबाद जाती। मौसी उनके ख़ूब लाड करतीं। मौसी के पांच बच्चे थे। उसकी माली हालत भी कुछ खास अच्छी नही थी। माँ भी बिना आरक्षण थर्ड क्लास मेही सफ़र किया करती। लॉट ते समय मौसी सभी को कपडे खरीद देंती । लेकिन माँ ने मौसी को कभी कुछ दिया हो,उसे याद नही। उसके पिता उसकी माँ को कभी अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए कुछ पैसे देतेही नही थे।
इतने मे भाई ने हलके से उसके कन्धों पे हाथ रखा। "वासांसि जीर्नानि यथा विहाय,नवानि गृन्हाती नारोपरानी। तथा शरीरानी विहाय, जीर्न्यानी अन्यानी संयाति नवानि देही। "यह सब मंत्रोच्चार हो चुके थे। और भी जो कुछ होना था हो चुका था। माँ की अन्तिम यात्रा शुरू होने वाली थी। उसे उठाया गया। बाहर लाया गया। घर गेट से दूर था। वो गेट तक गयी और देर तक देखती रही। उसकी जननी कभी ना लौटने के लिए जा रही थी।
कुछ देर बाद भई लौटा.कितना समय लगा उसे पता नही चला। स्नानादि हो गए। कुछ लोग रुके, कुछ लोग चले गए । अचानक उसके ख़्याल मे आया,माँ की चिता की साथ,साथ उसका नैहर भी जल गया था। अब वो किसीकी गोद मे अपना सर नही रख पायेगी।
दस बारह दिनों बाद वो वापस लॉट गयी। उसकी बेटी ऐसे समय मे ऑस्ट्रेलिया से आयेगी ऎसी उसे भोली-सी उम्मीद थी। लेकिन वो नही आ पायी। "सिर्फ हफ्ता भर आओ,"कहके उसने बड़ा आग्रह किया,लेकिन वो नही आयी। अब उसे महसूस हुआ कि,जब उसे उसकी माँ बुलाती रहती और वो नही जाती तो उसकी माँ पे क्या गुज़रती होगी।
दिन बीत ते गए। उसका भाई उसे कभी कभार बुलाता लेकिन माँ बिना सूने घर मे जाने से वो कतराती तथा एक अपराध बोध भी सताता। फिर एक दिन उसके भाई का फ़ोन आया। उसने वो पुश्तैनी घर तथा आसपास की ज़मीन बेचने का फैसला किया था। उसने कहा,"माँ एक बैग आपके लिए रखा था, वो मेरी नज़रों से परे हो गया और मैं आप को बताना ही भूल गया। अबके आप ज़रूर आईये और अपने घर को आखरी बार देख भी जाईये ',कहते हुए भाई का गला भी भर आया। अब उसने जाने का निश्चय कर ही लिया और वो गयी भी।
वो पोहोंची तबतक काफी सामान पैक हो चुका था। माँ को बगीचे मे काम करने का बेहद शौक़ था।शायद अपने मन की गहराई मे छुपे दर्द से ध्यान हटाने का उसका वो एक तरीका था। रॉक गार्डन ,अलग,अलग रितुओं मे होने वाले फूल,किस्म,किस्म,की बेलें,मोतियां तथा गुलाब की क्यारियां,ख़ूब सारे crotans , तथा और कयी सारे पौधों से बगिया सजी रहती थी। कयी बार आसपास के लोग खास उस बगीचे को देखने आते।
उसने उस बगीचे मे एक नज़र फैलायी और उसे उस बगीचे के भग्नावशेष भी नही दिखाई दिए। कुछ अधमरे पौधे ,तथा कुछ क्यारियां जिनमे उग रही घांस के अलावा वहाँ कुछ भी नही था। सुबह उठके वो बाहर आयी। वहाँ वो पुराना,दादाजी के हाथ का लगा नीम का पेड खङा था। कितनी मीठी,मीठी स्मृतियां जुडी थी उस पेड के साथ!!हाँ उस पे एक ज़माने मे बंधा झूला अब नही था। उस झूले पे दादाजी उसे झुलाया करते थे। सामने हारसिंगार का पेड था। उसपर बचपन मे खेले खेल याद आता रहे। नीचे बिखरे फूल याद आये,सफ़ेद,छोटे ,छोटे,लाल,लाल टहनी वाले। वो बकुल का पेड जिसकी टहनियों पे बैठ कर वो श्लोक कवितायेँ आदि याद करती थी वहीं था, गुज़रे वक्त का गवाह बनके । "शैले,शैले ना मानिक्यम"..उसकी अपनी ही आवाज़ उसके कानों मे गूँज गयी । ज़मीन पर डालियाँ टिका के खडे आम के पेड, वो छोटी,छोटी पग डंडियाँ ,आगे,आगे दौड़ने वाली वो और पीछे,पीछे दौड़ते दादाजी,नैहर की मिट्टी से मटमैले पैर, बरामदे मे झूलती कुर्सी पे बैठी ,कभी स्वेटर तो कभी लेस बुनती दादीमा,इन सब यादों को संजोये हुए ये उसका बचपन और जवानी का आशियाना, उस से सदा के लिए जुदा होने जा रहा था। सादी- सी लेकिन स्टार्च की हुई साडी पहने ,जूडा बनाए हुए,हँसमुख माँ,कभी बगीचे मे रमने वाली तो कभी रसोयी मे,अपना दुःख कभी ना जताने वाली वो माता,उसके अस्तित्व से भरा हर कोना बिकने वाला था। मानो, उसका बचपन बिक रहा हो।
खडे,खडे उसे उस बैग की याद आयी। भाईने वो लाकर देदी। क्या रखा होगा इसमे माने??देखा तो ऊपर ही एक पीला-सा हुआ ख़त पडा था। ख़त खोलके वो पढने लगी। माँ ने लिखा था,"मेरी बिटिया,इसमे मैंने तेरा और तेरी बिटिया का बचपन संजोके थाम के रखने की कोशिश की है। मेरे पास देने जैसा और तो कुछ भी नही। ये तुझे भी संजोना हो तो संजोना। मन मे एक तूफान-सा उठ रहा है। कितना कुछ लिखने की इच्छा हो रही है लेकिन अलफ़ाज़ नही मिल रहे। कैसी,कैसी यादें आ रहीं हैं ।
चांद लम्हें भर की नन्ही-सी जान को बाहों मे लिया था,कैसा प्यार उमड़ आया था! मातृत्व ऐसा होता है? पलभर मे दुनिया ही बदल देता है??कितनी दुआएं निकली थीं दिल से तेरे लिए,कैसी बहारों की तमन्ना की थी तेरे लिए,तेरे हिस्से के सारे गम,राहों के सारे कांटें मैंने माँग लिए थे।
"धीरे,धीरे दिन गुजरते गए। मेरी आवाज़ सुन के तूने गर्दन घुमाना शुरू किया। तू मुस्काराने लगी,करवट लेने लगी। सब कुछ मनपे अंकित होता रहा। सहारा लेके तेरा बैठना ,मेरे हाथसे पहला कौर,उंगली पकड़ के लिया पहला क़दम,मुहसे पहली बार निकला "माँ',कितना संगीतमय था वो! घरके कोने,कोने से निकलती तेरी तेरी किलकारियाँ,स्कूल का पहला दिन, सहमा-सा तेरा चेहरा और नम होती मेरी ऑंखें,इसके अलावा भी और कितना कुछ!
"तू ब्याह के बाद ससुराल गयी तो हर कोनेसे "माँ"की गूँज सुनाई देती थी,लगता था,अभी किसी कोनेसे आके मेरे गलेमे बाँहें डालेगी, फ़ोन बजता तो दौड़ पड़ती, हरवक्त लगता,तेराही होगा!!
"आहिस्ता,आहिस्ता आदत पड़ गयी। फिर तेरी बिटियाके जनम ने एक नयी ख़ुशी,नया उल्लास जीवन मे भर दिया। उसके लिए नयी,नयी चीज़े बनाने मे बड़ा अनंद आता। जब तू उस नन्ही-सी जान को लेके मेरे पास आती,वो मुझ से लिपट ती तो एक अजीब-सा सुकून मिलता। ब्याह के बाद वोभी ऑस्ट्रेलिया चली गयी तो जीवन का एक अध्याय मानो ख़त्म हो गया।
"अंत मे इतनाही कहूँगी कि ज़िंदगी मे जब कभी अँधेरा छा जाये,मन की ऑंखें खोल देना,उजाला अपने आप हो जाएगा,कोई राह हाथ पकड़ लेगी,कभी किसी दोराहे मे फंस के किसी मोड़ पे रूक मत जाना। हमेशा धीरज रखना।अन्तिम सत्य के दर्शन ज़रूर होंगे। हाँ!दुनिया मे नित्य कुछ भी नही,जीवन अनित्य से नित्य की ओर का एक सफ़र है। अगर भोर तुम्हारी मंज़िल है तो भोर से पहले उठ के सफ़र पे चल देना,तुम्हे मंज़िल ज़रूर मिल जायेगी। खैर !तुझे देखने के लिए आँखें हमेशा तरसती रहती हैं। मेरी लाडली,मेरा आर्शीवाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा,सुखी रहना,खुश रहना।
तुम्हे बोहोत,बोहोत प्यार करने वाली तुम्हारी
माँ"
रिमझिम झरने वाले नयनों से,कांपते हाथों से,उसने बैग मे टटोल ना शुरू किया। एक फाईल मे ,बचपन मे की हुई उसकी चित्रकला के पन्ने थे। पीले पडे हुए। एक नोटबुक थी जिसमे वो एक सुभाषित लिखा करती थी। दूसरी नोटबुक मे उसने उसकी पसंद की तसवीरें ,ग्रीटिंग कार्ड्स आदि पर से काट के चिपकायी हुई थी। एक थैली मे उसकी स्कूल की प्रगती पुस्तकें थी। स्कूल कालेज की पत्रिकाएँ जिसमे उसके फोटो थे,लेख थे। कुछ कपडे की potliyaa थीं,जिसमे छोटे ,छोटे, दुपट्टे थे,जिन्हे पहले तो वो स्वयम और बाद मे उसकी छुटकी बेटी गले मे डाल के घूमा करती थी। छोटे,छोटे फ्रोक्स थे। कुछ उसके, कुछ उसकी बिटिया के थे , जो माँ ने ही सिये थे। खतों का एक गट्ठा था। कुछ वो थे जो उसने समय,समय पर अपनी माँ को लिखे थे, तो कुछ उसकी बिटियाने अपने नन्हें,नन्हे हाथों से अपनी नानी को लिखे थे। एक लकड़ी का डिब्बा था। उसमे अलग,अलग मेलोंसे कांच तथा पीतल के हार,छोटी,छोटी कांच की चूडिया,छल्ले और झुमके थे। कुछ कपडे की गुडियां थी जो माँ ने पहले उसके लिए फिर उसकी बिटिया के लिए बनायी थी,कुछ छोटे,छोटे खिलौनों के बरतन थे। एक अल्बम थी जिसमे उसके पलने मे की तस्वीरो के अलावा उसकी बिटिया के बचपन के फोटो भी थे। बोहोत देर तक वो वहाँ बैठी रही। फिर कब उठ खडी हुई उसे खुद पता नही चला।
छ: शयन कक्शोंवाला ,छ: स्नान गृह तथा तीन बैठकों वाला, बरामदों से घिरा हुआ वो घर था। वो उस मे घूमने लगी। यहाँ ,इस खिड्कीमे एक पुराना ग्रामोफोन हुआ करता था,तथा साथ,साथ रेकॉर्ड्स एक गट्ठा। "घूंघट के पट खोल रे ,तोहे पिया मिलेंगे",ये सुर उसके कानोंमे गूँज ने लगे। बचपन मे इन शब्दोंके मायने उसे पता नही चले थे। बाद मे समझ आयी,"घूंघट के पट "मतलब मानसपटल पे चढी अज्ञान की परतें। उन्हें खोला जाय तो अन्तिम सत्य का दर्शन होगा। "कहो ना आस निरास भई",माँ हमेशा गुनगुनाया करती थी। फिर ना जाने कितने ही गाने कानों मे गूँज ने लगे,"ईचक दाना,बीचक दाना,दाना ऊपर दाना","नन्हे
मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मे क्या है...."इसी बीच किसी वक़्त उसने खाना खाया। शाम को फिर वो सारा परिसर आंखों मे ,मन मे बसाने निकल पडी। र्हिदय मे कुछ तार टूट से रहे थे।
दिलमे एक असीम दर्द लेके वो रातमे सोई। बड़ी देरसे नींद लगी। सुबह ट्रक आने लगे। उनकी आवाजों से वो जग गयी। सामान भरना शुरू हो गया था। देखते ही देखते घर खाली होने लगा। खाली घरमे आवाजें गूंजने लगी। उसकी ट्रेन का समय होने लगा था। भीने कार निकाली। उसने अपने नैहर पे एक आख़री नज़र डाली। यहाँ एक दिन बुलडोज़र फिरेगा,जिन पेदोंकी टहनियों पे वो कभी खेली कूदी थी वो सब धराशायी हो जायेंगे। वहाँ सिमेंटके ब्लोक्स खडे हो जायेंगे।जो वास्तु उसके लिए इतने मायने रखती थी ,वही कितनी क्षणभंगुर बन रही थी। कुछ भी तो चिरंतन नही इस धर्तीपर। सच ही तो लिखा था माँ ने अपनी चिट्ठी मे। उसकी आंखें बार छल छला रही थी।
वो कार मे बैठी,साथ माँ का दिया हुआ वो बैग भी था। कार स्टार्ट हुई। घर नज़र से ओझल होनेतक पीछे मुड़ कर वो देखती रही। सच! सभी अनित्य है। यही तो अन्तिम सच है। "घूंघट के पट खोल रे"बार बार ये धुन उसके मनमे बजती रही। स्टेशन आ गया। कुछ देरमे ट्रेन भी आ गयी। आंसू भरे नयनों से उसने अपने भाई से विदा ली और ट्रेन मे चढ़ गयी। जब ट्रेन चली तो उसके मन मे आया, अब दोबारा वो यहाँ कभी नही आ पयागी। किस्से वक़्त, कहीं और सफ़र करते समय जब दो मिनट के लिए इस स्टेशन पे गाडी रुकेगी, तो वो खिड़की से झंकेगी, मन मे ख़्याल आयगा, कभी यहाँ अपना नैहर हुआ करता था। अनायास दूर जाते स्टेशन की ओर उसने हाथ हिलाया। उस गाँव की बिटिया ने अपने नैहर से आखरी बिदा ली।
समाप्त.
उसके मन मे आशा एक नन्हा-सा दिया टिमटिमाता रहता। शायद आख़री सांस लेनेसे पहेले किसी तरह उसकी माको पता चले कि उसकी लाडली बेटी मृत्युशया के पास थी। मन ही मन वल हज़ारों बार इश्वर से बिनती करती रहती,हे भगवान्!सिर्फ एक बार इसकी आँखें खुलवा दो,मुझे देख लेने दो,मेरे नजदीक होने का एहसास दिलवा दो।
लेकिन ऐसा हुआ नही। एक बार पूरी रात उसकी आंख नही लगी,पर तड़के झपकी लग गयी। जब डाक्टर माँ को देखने कमरे मे आये तो वो hadbada के जग पडी। डाक्टर ने हमेशा की तरह उस की माँ को तपासने की शुरुआत की और तुरंत उस की ओर मुड़ के बोले,"I ऍम सॉरी शी इस नो मोर"।
डाक्टर उसके परिवार के पुराने परिचित थे। उनका अक्सर उसके पीहर मे आना जाना हुआ करता था। उन्हों ने धीरे से उसके कन्धों पे थपथपाया। नर्स ने माँ को लगी हुई नलिया निकालने की शुरुआत कर दीं। उसकी आंखों से आँसू ओंकी धारा बहने लगी थी। उसके पास होने का कोई भी एहसास उसकी माँ को नही हुआ था। उसने आने मे बोहोत देर कर दीं थी। "माँ!तुमने मुझे कितनी बड़ी सज़ा दीं",उसका मन दर्द से कराह उठा।
उसके बाद धीरे,धीरे जोभी विधियां होनी थी होती रही। लोगों को फोन किये गए। उनके फार्म हौस पे लोग इक्ट्ठे हो गए। उसका भाई रीती रिवाज निभाता रहा। वो गुमसुम-सी देखती रही।
जब घर पे काम करने वाली औरतों ने ज़ोर से रोना धोना शुरू किया तब वो बेसाख्ता उन पे चींख उठी ,"खामोश!रोना है तो बाहर निकल जाओ!"
इन सब औरतों के साथ उसके पिता के कभी ना कभी अनैतिक संबंध रह चुके थे। उसे बेहद घुस्सा आया। उन औरतों के जिस्म पे सोना था,उन के पक्के घर बन चुके थे। माँ को उसके पिता ने कभी सोने की चेन तक नही दीं थी। माँ ने खुद ये सब झेल कर भी कभी किसी को बताया नही था। उसीने एकबार अपनी आंखों से देख लिया था। अपने आपे से बाहर हो गयी थी वो तब। इतनी सुन्दर, शालीन,गुणवती पत्नी होने के बावजूद उसके पिता ने ऐसा क्यों किया?अपने पितापे आये क्रोध के कारण उसने अपने पीहर जाना काफी कम कर दिया था।
वो काफी प्रतिथ यश वकील थी। माँ पर होने वाले अन्याय होने वाले एहसास होने के बाद उसने उस किस्म की परिस्थितयों से गुजरने वाली महिलाओं से फ़ीस लेनी बंद कर दीं थी। लेकिन माँ उसे बार, बार बुलाती रहती । उसे कहती, ''मेरी खातिर आओ। हमेशा दो दिन रहके लॉट जाती हो। तुम से कितनी सारी बांतें करने का मन होता है। कभी तो समय निकाल कर आठ-दस रोज़ आओ। मैंने तो कोई गुनाह नही किया। देखो, मैंने सब कुछ हँसते ,हँसते सह लिया। शायद यही मेरी किस्मत थी। मेरे पास और कोई रास्ता नही था। बच्चों को लेके मैं कहॉ जाती?मेरा तो कोई पीहर नही था!!तेरा है। कयी बार मन करता है,तेरा सर अपनी गोद मे रख कर सहलाती रहूँ। "
माँ की बिनती हमेशा चालू रहती। कभी,कभी वो अपनी बेटी को भेज देती। नानी-नवासी की ख़ूब पटती। मानो दोनो बड़ी गहरी सहेलियां हो!उसकी बेटी शादी के बाद जब ऑस्ट्रेलिया चली गयी तब माँ कितना रोई थी!!
माँ की एक फुफेरी बहन haiderabaad मे रहती थी। दोनोका आपस मे बड़ा लगाव था। कभी कभार माँ उसे और उसके छोटे भाई को लेके हैदेराबाद जाती। मौसी उनके ख़ूब लाड करतीं। मौसी के पांच बच्चे थे। उसकी माली हालत भी कुछ खास अच्छी नही थी। माँ भी बिना आरक्षण थर्ड क्लास मेही सफ़र किया करती। लॉट ते समय मौसी सभी को कपडे खरीद देंती । लेकिन माँ ने मौसी को कभी कुछ दिया हो,उसे याद नही। उसके पिता उसकी माँ को कभी अपनी मर्जी से खर्च करने के लिए कुछ पैसे देतेही नही थे।
इतने मे भाई ने हलके से उसके कन्धों पे हाथ रखा। "वासांसि जीर्नानि यथा विहाय,नवानि गृन्हाती नारोपरानी। तथा शरीरानी विहाय, जीर्न्यानी अन्यानी संयाति नवानि देही। "यह सब मंत्रोच्चार हो चुके थे। और भी जो कुछ होना था हो चुका था। माँ की अन्तिम यात्रा शुरू होने वाली थी। उसे उठाया गया। बाहर लाया गया। घर गेट से दूर था। वो गेट तक गयी और देर तक देखती रही। उसकी जननी कभी ना लौटने के लिए जा रही थी।
कुछ देर बाद भई लौटा.कितना समय लगा उसे पता नही चला। स्नानादि हो गए। कुछ लोग रुके, कुछ लोग चले गए । अचानक उसके ख़्याल मे आया,माँ की चिता की साथ,साथ उसका नैहर भी जल गया था। अब वो किसीकी गोद मे अपना सर नही रख पायेगी।
दस बारह दिनों बाद वो वापस लॉट गयी। उसकी बेटी ऐसे समय मे ऑस्ट्रेलिया से आयेगी ऎसी उसे भोली-सी उम्मीद थी। लेकिन वो नही आ पायी। "सिर्फ हफ्ता भर आओ,"कहके उसने बड़ा आग्रह किया,लेकिन वो नही आयी। अब उसे महसूस हुआ कि,जब उसे उसकी माँ बुलाती रहती और वो नही जाती तो उसकी माँ पे क्या गुज़रती होगी।
दिन बीत ते गए। उसका भाई उसे कभी कभार बुलाता लेकिन माँ बिना सूने घर मे जाने से वो कतराती तथा एक अपराध बोध भी सताता। फिर एक दिन उसके भाई का फ़ोन आया। उसने वो पुश्तैनी घर तथा आसपास की ज़मीन बेचने का फैसला किया था। उसने कहा,"माँ एक बैग आपके लिए रखा था, वो मेरी नज़रों से परे हो गया और मैं आप को बताना ही भूल गया। अबके आप ज़रूर आईये और अपने घर को आखरी बार देख भी जाईये ',कहते हुए भाई का गला भी भर आया। अब उसने जाने का निश्चय कर ही लिया और वो गयी भी।
वो पोहोंची तबतक काफी सामान पैक हो चुका था। माँ को बगीचे मे काम करने का बेहद शौक़ था।शायद अपने मन की गहराई मे छुपे दर्द से ध्यान हटाने का उसका वो एक तरीका था। रॉक गार्डन ,अलग,अलग रितुओं मे होने वाले फूल,किस्म,किस्म,की बेलें,मोतियां तथा गुलाब की क्यारियां,ख़ूब सारे crotans , तथा और कयी सारे पौधों से बगिया सजी रहती थी। कयी बार आसपास के लोग खास उस बगीचे को देखने आते।
उसने उस बगीचे मे एक नज़र फैलायी और उसे उस बगीचे के भग्नावशेष भी नही दिखाई दिए। कुछ अधमरे पौधे ,तथा कुछ क्यारियां जिनमे उग रही घांस के अलावा वहाँ कुछ भी नही था। सुबह उठके वो बाहर आयी। वहाँ वो पुराना,दादाजी के हाथ का लगा नीम का पेड खङा था। कितनी मीठी,मीठी स्मृतियां जुडी थी उस पेड के साथ!!हाँ उस पे एक ज़माने मे बंधा झूला अब नही था। उस झूले पे दादाजी उसे झुलाया करते थे। सामने हारसिंगार का पेड था। उसपर बचपन मे खेले खेल याद आता रहे। नीचे बिखरे फूल याद आये,सफ़ेद,छोटे ,छोटे,लाल,लाल टहनी वाले। वो बकुल का पेड जिसकी टहनियों पे बैठ कर वो श्लोक कवितायेँ आदि याद करती थी वहीं था, गुज़रे वक्त का गवाह बनके । "शैले,शैले ना मानिक्यम"..उसकी अपनी ही आवाज़ उसके कानों मे गूँज गयी । ज़मीन पर डालियाँ टिका के खडे आम के पेड, वो छोटी,छोटी पग डंडियाँ ,आगे,आगे दौड़ने वाली वो और पीछे,पीछे दौड़ते दादाजी,नैहर की मिट्टी से मटमैले पैर, बरामदे मे झूलती कुर्सी पे बैठी ,कभी स्वेटर तो कभी लेस बुनती दादीमा,इन सब यादों को संजोये हुए ये उसका बचपन और जवानी का आशियाना, उस से सदा के लिए जुदा होने जा रहा था। सादी- सी लेकिन स्टार्च की हुई साडी पहने ,जूडा बनाए हुए,हँसमुख माँ,कभी बगीचे मे रमने वाली तो कभी रसोयी मे,अपना दुःख कभी ना जताने वाली वो माता,उसके अस्तित्व से भरा हर कोना बिकने वाला था। मानो, उसका बचपन बिक रहा हो।
खडे,खडे उसे उस बैग की याद आयी। भाईने वो लाकर देदी। क्या रखा होगा इसमे माने??देखा तो ऊपर ही एक पीला-सा हुआ ख़त पडा था। ख़त खोलके वो पढने लगी। माँ ने लिखा था,"मेरी बिटिया,इसमे मैंने तेरा और तेरी बिटिया का बचपन संजोके थाम के रखने की कोशिश की है। मेरे पास देने जैसा और तो कुछ भी नही। ये तुझे भी संजोना हो तो संजोना। मन मे एक तूफान-सा उठ रहा है। कितना कुछ लिखने की इच्छा हो रही है लेकिन अलफ़ाज़ नही मिल रहे। कैसी,कैसी यादें आ रहीं हैं ।
चांद लम्हें भर की नन्ही-सी जान को बाहों मे लिया था,कैसा प्यार उमड़ आया था! मातृत्व ऐसा होता है? पलभर मे दुनिया ही बदल देता है??कितनी दुआएं निकली थीं दिल से तेरे लिए,कैसी बहारों की तमन्ना की थी तेरे लिए,तेरे हिस्से के सारे गम,राहों के सारे कांटें मैंने माँग लिए थे।
"धीरे,धीरे दिन गुजरते गए। मेरी आवाज़ सुन के तूने गर्दन घुमाना शुरू किया। तू मुस्काराने लगी,करवट लेने लगी। सब कुछ मनपे अंकित होता रहा। सहारा लेके तेरा बैठना ,मेरे हाथसे पहला कौर,उंगली पकड़ के लिया पहला क़दम,मुहसे पहली बार निकला "माँ',कितना संगीतमय था वो! घरके कोने,कोने से निकलती तेरी तेरी किलकारियाँ,स्कूल का पहला दिन, सहमा-सा तेरा चेहरा और नम होती मेरी ऑंखें,इसके अलावा भी और कितना कुछ!
"तू ब्याह के बाद ससुराल गयी तो हर कोनेसे "माँ"की गूँज सुनाई देती थी,लगता था,अभी किसी कोनेसे आके मेरे गलेमे बाँहें डालेगी, फ़ोन बजता तो दौड़ पड़ती, हरवक्त लगता,तेराही होगा!!
"आहिस्ता,आहिस्ता आदत पड़ गयी। फिर तेरी बिटियाके जनम ने एक नयी ख़ुशी,नया उल्लास जीवन मे भर दिया। उसके लिए नयी,नयी चीज़े बनाने मे बड़ा अनंद आता। जब तू उस नन्ही-सी जान को लेके मेरे पास आती,वो मुझ से लिपट ती तो एक अजीब-सा सुकून मिलता। ब्याह के बाद वोभी ऑस्ट्रेलिया चली गयी तो जीवन का एक अध्याय मानो ख़त्म हो गया।
"अंत मे इतनाही कहूँगी कि ज़िंदगी मे जब कभी अँधेरा छा जाये,मन की ऑंखें खोल देना,उजाला अपने आप हो जाएगा,कोई राह हाथ पकड़ लेगी,कभी किसी दोराहे मे फंस के किसी मोड़ पे रूक मत जाना। हमेशा धीरज रखना।अन्तिम सत्य के दर्शन ज़रूर होंगे। हाँ!दुनिया मे नित्य कुछ भी नही,जीवन अनित्य से नित्य की ओर का एक सफ़र है। अगर भोर तुम्हारी मंज़िल है तो भोर से पहले उठ के सफ़र पे चल देना,तुम्हे मंज़िल ज़रूर मिल जायेगी। खैर !तुझे देखने के लिए आँखें हमेशा तरसती रहती हैं। मेरी लाडली,मेरा आर्शीवाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा,सुखी रहना,खुश रहना।
तुम्हे बोहोत,बोहोत प्यार करने वाली तुम्हारी
माँ"
रिमझिम झरने वाले नयनों से,कांपते हाथों से,उसने बैग मे टटोल ना शुरू किया। एक फाईल मे ,बचपन मे की हुई उसकी चित्रकला के पन्ने थे। पीले पडे हुए। एक नोटबुक थी जिसमे वो एक सुभाषित लिखा करती थी। दूसरी नोटबुक मे उसने उसकी पसंद की तसवीरें ,ग्रीटिंग कार्ड्स आदि पर से काट के चिपकायी हुई थी। एक थैली मे उसकी स्कूल की प्रगती पुस्तकें थी। स्कूल कालेज की पत्रिकाएँ जिसमे उसके फोटो थे,लेख थे। कुछ कपडे की potliyaa थीं,जिसमे छोटे ,छोटे, दुपट्टे थे,जिन्हे पहले तो वो स्वयम और बाद मे उसकी छुटकी बेटी गले मे डाल के घूमा करती थी। छोटे,छोटे फ्रोक्स थे। कुछ उसके, कुछ उसकी बिटिया के थे , जो माँ ने ही सिये थे। खतों का एक गट्ठा था। कुछ वो थे जो उसने समय,समय पर अपनी माँ को लिखे थे, तो कुछ उसकी बिटियाने अपने नन्हें,नन्हे हाथों से अपनी नानी को लिखे थे। एक लकड़ी का डिब्बा था। उसमे अलग,अलग मेलोंसे कांच तथा पीतल के हार,छोटी,छोटी कांच की चूडिया,छल्ले और झुमके थे। कुछ कपडे की गुडियां थी जो माँ ने पहले उसके लिए फिर उसकी बिटिया के लिए बनायी थी,कुछ छोटे,छोटे खिलौनों के बरतन थे। एक अल्बम थी जिसमे उसके पलने मे की तस्वीरो के अलावा उसकी बिटिया के बचपन के फोटो भी थे। बोहोत देर तक वो वहाँ बैठी रही। फिर कब उठ खडी हुई उसे खुद पता नही चला।
छ: शयन कक्शोंवाला ,छ: स्नान गृह तथा तीन बैठकों वाला, बरामदों से घिरा हुआ वो घर था। वो उस मे घूमने लगी। यहाँ ,इस खिड्कीमे एक पुराना ग्रामोफोन हुआ करता था,तथा साथ,साथ रेकॉर्ड्स एक गट्ठा। "घूंघट के पट खोल रे ,तोहे पिया मिलेंगे",ये सुर उसके कानोंमे गूँज ने लगे। बचपन मे इन शब्दोंके मायने उसे पता नही चले थे। बाद मे समझ आयी,"घूंघट के पट "मतलब मानसपटल पे चढी अज्ञान की परतें। उन्हें खोला जाय तो अन्तिम सत्य का दर्शन होगा। "कहो ना आस निरास भई",माँ हमेशा गुनगुनाया करती थी। फिर ना जाने कितने ही गाने कानों मे गूँज ने लगे,"ईचक दाना,बीचक दाना,दाना ऊपर दाना","नन्हे
मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी मे क्या है...."इसी बीच किसी वक़्त उसने खाना खाया। शाम को फिर वो सारा परिसर आंखों मे ,मन मे बसाने निकल पडी। र्हिदय मे कुछ तार टूट से रहे थे।
दिलमे एक असीम दर्द लेके वो रातमे सोई। बड़ी देरसे नींद लगी। सुबह ट्रक आने लगे। उनकी आवाजों से वो जग गयी। सामान भरना शुरू हो गया था। देखते ही देखते घर खाली होने लगा। खाली घरमे आवाजें गूंजने लगी। उसकी ट्रेन का समय होने लगा था। भीने कार निकाली। उसने अपने नैहर पे एक आख़री नज़र डाली। यहाँ एक दिन बुलडोज़र फिरेगा,जिन पेदोंकी टहनियों पे वो कभी खेली कूदी थी वो सब धराशायी हो जायेंगे। वहाँ सिमेंटके ब्लोक्स खडे हो जायेंगे।जो वास्तु उसके लिए इतने मायने रखती थी ,वही कितनी क्षणभंगुर बन रही थी। कुछ भी तो चिरंतन नही इस धर्तीपर। सच ही तो लिखा था माँ ने अपनी चिट्ठी मे। उसकी आंखें बार छल छला रही थी।
वो कार मे बैठी,साथ माँ का दिया हुआ वो बैग भी था। कार स्टार्ट हुई। घर नज़र से ओझल होनेतक पीछे मुड़ कर वो देखती रही। सच! सभी अनित्य है। यही तो अन्तिम सच है। "घूंघट के पट खोल रे"बार बार ये धुन उसके मनमे बजती रही। स्टेशन आ गया। कुछ देरमे ट्रेन भी आ गयी। आंसू भरे नयनों से उसने अपने भाई से विदा ली और ट्रेन मे चढ़ गयी। जब ट्रेन चली तो उसके मन मे आया, अब दोबारा वो यहाँ कभी नही आ पयागी। किस्से वक़्त, कहीं और सफ़र करते समय जब दो मिनट के लिए इस स्टेशन पे गाडी रुकेगी, तो वो खिड़की से झंकेगी, मन मे ख़्याल आयगा, कभी यहाँ अपना नैहर हुआ करता था। अनायास दूर जाते स्टेशन की ओर उसने हाथ हिलाया। उस गाँव की बिटिया ने अपने नैहर से आखरी बिदा ली।
समाप्त.
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