अपने निहायत तनहा लम्होंमें यही दीवाना बना देने वाली आकाशनीम की महक मुझे दूर,दूर ले जाती,अपने लड़कपन मे, जब जब मैं इस गंध से नही जुडी थी।
हमारा छोटासा परिवार था। बाबूजी सरकारी मुलाजिम थे। हम दो बेहेने थीं। नीलाक्षी दीदी बड़ी थीं और गुडिया-सी सुन्दर,नाज़ुक। मैं सांवली,श्यामली। लेकिन किशोरावस्था मे पोहोंचने तक हम दोनो अभिन्न सहेलिया बन गयी। मुझे कभी कोई काली कहता तो नीलाक्षी दीदी बर्दाश्त नही कर पाती, कहती,"अजन्ताकी मूर्तें देखीं है कभी? पत्थर की,काली,लेकिन कितनी लुभावनी ,तराशी हुई! हमारी मीनू वैसी ही है"।
दोस्त रिश्तेदार हमेशा माँ-बाबूजी से कहा करते,"बहनो मे ऐसा प्यार कम ही देखा है। हमारा यहाँ तो बहने,बहने या भाई -बेहेन लगातार झगड़ते ही रहते है।"
"नज़र ना लगाओ भई,भगवान् करे करे इनका इसी तरह बरकरार रहे,ये दोनो इसी डोर से बंधी रहें ,"माँ कहा करती।
नीला दीदी को चित्रकला मे विशेष रुची थी। इसी वजह से प्रातिथ यश चित्रकार नरेंद्रजी से उनका परिचय हुआ। अपने चित्रों की प्रदर्शनी मे नरेंद्रजी ने उन्हें देखा और और उनका पोर्ट्रेट बनने की अनुमती मांगी थी। कई बार जब नरेंद्रजी के स्टूडियो मे, जो उनकी पुरानी हवेली मे था,पेंटिंग का सेशन चलता तब मैं वहाँ मौजूद रहती। उन दोनों के संबंधों का बढ़ता माधुर्य मुझ से छुपा नही था। वैसे भी नीला दीदी मुझ से कुछ छुपाती नही थी। उनकी प्रतिनिधी बनके माँ-बाबूजी को भी मैंने आगाह कर दिया था। दोनों ही तरक्की पसंद खयालों के थे, और नरेन्द्र जीं मे कोई खोट भी नही थी। सिर्फ नीला दीदी की पढाई पूरी होनेका इंतज़ार था,जो यथासमय पूरी होही गयी। नरेंद्रजी का अपनी माँ के अलावा और कोई करीबी रिश्तेदार भी नही था। उनके पिता एक ज़माने मे रामनगर के जाने माने सर्जन थे। परदेस मे बसने के कई हाथ से छोड़ कर उन्हों ने रामनगर मेही अस्पताल खोला था। इसी कारण उन्होने काफी पुश्तैनी ज़मीन जायदाद बेच दीं थी। कुछ्ही समय पहले उनका एक सड़क दुर्घटना मे निधन हो गया था। तबसे अप्स्पताल का कारोबार माँ जीं तथा नरेंद्रजी संभाल ते थे। उनका रामनगर के बाहरी इलाके मे बड़ा-सा हवेली नुमा पुश्तैनी मकान था,"पर्वत महल"।
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