Thursday, December 20, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १२

आशा पैसे लेके घर आयी। उसने वो लिफाफा वैसाही रख दिया। बहुओंके लिए कुछ लेगी कभी सोंचके। इसी तरह कुछ समय और बीत गया। एक दिन सहजही मिसेस सेठना का हालचाल पूछने वो उनके घर पोहोंच गयी। मिसेस सेठना हमेशा बडेही अपनेपन से उससे मिलती। तभी उनका फ़ोन बजा, उनकी बातों परसे आशा समझ गयी कि फ़ोन राजूका है।
कुछ समय बाद मिसेस सेठना गंभीर हो गयी और सिर्फ"हूँ,हूँ" ऐसा कुछ बोलती रही। फिर उन्होंने आशा को फ़ोन पकडाया और खुद सोफेपे बैठ गयीं......
मुद्दतों बाद आशा राजूकी आवाज़ सुननेवाली थी। "हेलो " कहते,कह्तेही उसकी आँखें और गला दोनोही भर आये.....और फिर वो खबर उसके कानोपे टकराई ........
राजूने शादी कर ली थी, वहीँ की एक हिन्दुस्तानी लड़कीसे........ वहीँ बसनेका निर्णय ले लिया था। वो अपनी माको नियमसे पैसे भेजता रहेगा..... । कुछ देर बाद आशाको सुनाई देना बंद हो गया.......
उसने फ़ोन रख दिया। सुन्न-सी होके वो खडी रह गयी। मिसेस सेठना ने उसे अपने पास बिठा लिया। उनकी आँखों मेभी आँसू थे।
"आशा ,मैं तेरी बोहोत बड़ी गुनाहगार हूँ । मैं खुदको कभी माफ़ नही कर पाऊँगी । बच्चे ऐसा बर्ताव करेंगे इसकी मुझे ज़राभी कल्पना होती तो मैं उन्हें परदेस नही भेजती,"बोलते,बोलते वो उठ खडी हुई।
" राजूने सिर्फ शादीही नही की बल्की अपनी पत्नी तथा उसके घरवालोंको बताया कि उसके माँ-बाप बचपन मेही मर चुके हैं! मुझे....मुझे कह रहा था कि मैं.....मैं इस बातमे साझेदार बनूँ!!शेम ऑन हिम!!भगवान् मुझे कभी क्षमा नही करेंगे....!ये मेरे हाथोंसे क्या हो गया?"

वो अब ज़ोर ज़ोर से रो रही थीं। चीखती जा रही थीं।आशाका सारा शरीर बधीर हो गया था। वो क्या सुन रही थी? उसके बेटेने उसे जीते जी मार दिया था??उसे अपने गरीब माँ-बापकी शर्म आती थी??और उसने सारी उम्र उसके इन्तेज़ारमे बिता दी थी? ममताका गला घोंट,घोंटके एकेक दिन काटा था!

अंतमे जब वो घर लौटनेके लिए खडी हुई तो उसकी दशा देख कर मिसेस सेठ्नाने अपनी कारसे उसे बस्तीमे छुड़वा दिया। झोंपडीमे आके वो कहीँ दूर शून्यमे ताकती रही। बाहर बस्तीमेके बच्चे खेल रहे थे। उसका आँगन बरसोंसे सूना था। वैसाही रहनेवाला था........
बस्तीके कितनेही लोग उससे जलते थे, लेकिन वो अपने सीनेकी आग किसे बताती??ज़िंदगी ने कैसे,कैसे मोड़ लेके उसे ऐसा अकेला कर डाला था! उसके कान मे कभी उसके छुटकोके स्वर गूँजते तो कभी आँखोंसे रिमझिम सपने झरते। उसका पती जब घर आया तो उसने मनका सारा गुबार निकला, खूब रोई। पती एकदम खामोश हो गया। फिर कुछ देर बाद बोला,"सच अगर तेरी बात सुनी होती,हम पढ़ लिख गए होते तो अपनेही बलबूतेपे बच्चे पढे होते। जोभी पढे होते, ये समय आताही नही।" आशाने कुछ जवाब दिया नही। उस रात दोनोही खाली पेट ही सो गए। सो गए केवल कहनेके लिए, आशाकी आँखोंसे नींद कोसों दूर थी।
अपूर्ण

Wednesday, December 19, 2007

दयाकी दृष्टी सदाही रखना ! ११

बच्चों को अंग्रेज़ी स्कूल मे भेजकर , अमरीका जानेकी इजाज़त देकर कोई गलती तो नही की,बार,बार उसके मनमे आने लगा। अब बोहोत देर हो चुकी थी। उसने हताश निगाहोंसे मिसेस सेठना को देखा। बच्चों को उच् शिक्षण उपलब्ध कर देनेमे उनकी कोईभी खुदगर्ज़ी नही थी । आशा ये अच्छी तरह जानती थी। मिसेस सेठना आगे आयी,उसके हाथ थामे,कंधे थपथपाए ,धीरज दिया। राजू चला गया। सात समंदर पार। अपनी माकी पोहोंच से बोहोत दूर।

आशा और उसका पती फिर एकबार अपनी झोपडीमे एकाकी जीवन जीने लगे। दिनमे स्कूलका काम, मुख्याधापिकाके घरके बर्तन-कपडे,फिर खुद्के घरका काम। उसके पतीको उसके मनकी दशा दिखती थी । गराजसे घर आते समय कभी कभार वो उसके लिए गजरा लाता,कभी बडे, तो कभी ब्लाऊज़ पीस।

दो साल बाद संजूभी अमरीका चला गया । आशा और उसके पतीकी दिनचर्या वैसीही चलती रही। कभी कभी कोई ग्राहक खुश होके उसे टिप देता तो वो आशाके लिए साडी ले आता। भगवान् की दयासे उसे कोई व्यसन नही था। एक बोहोत दिनों तक वो कुछ नही लाया। दीवाली पास थी। थोडी बोहोत मिठाई,नमकीन बनाते समय आशाको छोटे,छोटे राजू-संजू याद आ रहे थे। लड्डू, चकली,चेवडा,गुजिया बनाते समय कैसी ललचाई निगाहोंसे इन सब चीजों को देखते रहते, उससे चिपक कर बैठे रहते।

आँचल से आँसू पोंछते ,पोंछते वो यादों मे खो गयी थी । पती कब पीछे आके खड़ा हो गया, उसे पताभी नही चला। उसने हल्केसे आशाके हाथोंमे एक गुलाबी कागज़ की पुडिया दी तथा एक थैली पकडाई। पुडियामे सोनेका मंगलसूत्र था, थैलीमे ज़री की साडी.......!
आशा बेहद खुश हो उठी! मुद्दतों बाद उसके चेहरेपे हँसी छलकी!! वोभी उठी..... उसने एक बक्सा खोला.... उसमेसे एक थैली निकली, जिसमे अपनी तन्ख्वाह्से बचाके अपने पतीके लिए खरीदे हुए कपडे थे.... टीचर्स ने समय,समय पे दी हुई टिप्स्मेसे खरीदी हुई सोनेकी चेन थी.....
पतीकोभी बेहद ख़ुशी हुई। एक अरसे बाद दोनो आपसमे बैठके बतियाते रहे, वो अपने ग्राह्कोके बारेमे बताता रहा, वो अपने स्कूलके बारेमे बताती रही।

समय बीतता गया। बच्चे शुरुमे मिसेस सेठनाके पतेपे ख़त भेजते रहते थे। आहिस्ता,आहिस्ता खतोंकी संख्या कम होती गयी और फिर तकरीबन बंद-सी हो गयी। फ़ोन आते, माँ-बापके बारेमे पूछताछ होती। एक बार मिसेस सेठ्नाने आशाको घर बुलवाया और उसके हाथमे एक लिफाफा पकडा के कहा," आशा ये पैसे है,तेरे बच्चों ने मेरे बैंक मे तेरे लिए ट्रान्सफर किये थे। रख ले। तेरे बच्चे एहसान फरामोश नही निकलेंगे। तुझे नही भूलेंगे।"
अपूर्ण"