"आंटी, मुझसे बोहोत बड़ी भूल हो गयी। माफीके काबिल नही हूँ,फिरभी माफी माँगता हूँ। मैं भारत लॉट आया हूँ। अब माँ बापके साथ ही रहूँगा उन्हें सुखी रखूँगा,कमसे कम कोशिश करूँगा,"संजू रो-रोके बोल रहा था।
मिसेस सेठना ने उसे बीच मे घटी सारे घटनाओका ब्योरा सुनाया,फिर पूछा,"तुम्हारी भूल तुम्हारे ध्यान मे कैसे आयी?"
"आंटी, वहाँ पर एक वृद्धाश्रम मे मुझे विज़िट पे बुलाया था। वहाँ ऐसे कई जोड़े रहते है। दोनो साथ,साथ होते है तबतक खुशभी होते है। उस दिन एक भारतीय स्त्री मुझे मिली। माँ के उम्र की होगी। पगला-सी गयी थी। मेरा हाथ छोड़ने को तैयार नही थी।
"मेरे बच्चो को मरे पास ले लाओ। ये देखो, ये पता है। यहाँ के लोग उन्हें बुलाते ही नही। कोई मेरी बात ही नही सुनता है,बेचारी रो-रोके बोल रही थी।
मैंने आश्रम मे तलाश की तो पता चला कि उसके बच्चे आनाही नही चाहते। पैसे भेज देते है। वीक एंड पे घूमने चले जाते है। मेरी आखोंके सामने मेरी माँ आ गयी। मुझ पर मानो बिजली-सी बरस पडी। मैंने उसी पल भारत लॉट नेका निर्णय ले लिया। ब्याह तो कियाही नही था, इसलिए किसीके सलाह मश्वरेकी ज़रूरत नही थी। आंटी मुझे अभी,इसीवक्त माके पास ले चलिए। "
दोनो निकल ही रहे कि आश्रमसे फ़ोन आया,आशाकी तबियत बोहोत खराब है। वो लोग पोहोचे तबतक मुख्याध्यापिका भी पोहोच गयी थी। डाक्टर भी वही थे। संजूको किसीने पहचाना नही। मिसेस सेठना ने परिचय करवाया। लीलाबाई आँखे पोंछते हुए बोली,"आज सुबह्से कुछ नही खाया पिया। बस,राजू-संजू आएँगे तभी लूँगी, यही कहती रहती है।"
मिसेस सेठना अपने साथ मोसंबी लाईं थीं ..... लीलाबाई को झट से रस निकालने को कहा। ड्रिप लगी हुई थी। मिसेस सेठना ने डाक्टर से धीमी आवाज़ मे कुछ कहा ......उन्होने गर्दन हिलाई...... संजूकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसने माका एक हाथ पकडा, दूसरा डाक्टर ने।
"माँ! देख हम आ गए है। अब ये रस लेले, वो बोला। आशाने संजूके हाथों रस ले लिया। उसके होंठ कुछ बुदबुदाने लगे। सबने एक दूसरेकी और प्रश्नार्थक दृष्टी से देखा। लीलाबाई बोली ,"वो कह रही है,'दयाकी दृष्टी सदाही रखना,'जो हमेशा गाती रहती है।" आसपास खडे लोगोकी आँखे भर आयीं........ संजू तो लौट ही आया था, डाक्टर के रूपमे राजूभी मिल गया।
समाप्त ।
धन्यवाद!!
Friday, January 25, 2008
Wednesday, January 23, 2008
दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १४
रोज़ शामको आशा लीलाबाई से पूछती,"अभीतक राजू-संजू,माया- शुभदा, कोयीभी नही आया???बच्चों की आवाजें नही आ रही???"फिर ,"अस्मिता,अस्मिता,आजा तो...देख मैं लड्डू दूँगी तुझे,"इसतरह पुकारती रहती....
माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयीही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपनेआपसेही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वोभी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती,बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"
कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवनसे तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वोभी उन्हें इतना पढा लिखाकर??
और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।
क्रमशः
माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयीही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपनेआपसेही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वोभी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती,बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"
कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवनसे तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वोभी उन्हें इतना पढा लिखाकर??
और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।
क्रमशः
दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १३
फिर दिन महीने साल खिसकने लगे। इस प्रसंग के बाद आशा एकदम बुढ़िया-सी गयी। बेचारा उसका पती फिरभी उसके लिए गजरे, बडे, कपडे लाता गया। एक दी वो उससे बोला,"मैं आज जल्दी आऊँगा। हम पिक्चर देखने चलेंगे। तू तैयार रहना। "
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिरभी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की और भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल डी। उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।
जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।
इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी कामपे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनोंकी गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।
सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो होही गयी थी,उसके मस्तिष्क पेभी भारी सदमा पोह्चा था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......
सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशाकी खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशाको चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशापे पडी आपत्तीके लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।
आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???"शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः
उसकी कतई इच्छा नही थी। फिरभी वो तैयार होके बैठ गयी। इतनेमे उसने देखा,बस्तीके लोग, बच्चे, मेन रोड की और भागे चले जा रहे थे। पता नही क्या है, उसके मनमे आया, फिर वो भी उस तरफ चल डी। उसे आते देख भीड़ थोडी हटने लगी। अपघात???किसका??तभी उसे कुछ अंतरपर पडा गजरा दिखा, बिखरे हुए आलू बडे दिखे, टूटी हुई साइकल दिखी और वो बेहोश हो गयी।
जब होशमे आयी ,तो अपनी टपरी मे थी। टपरी के बाहर सफ़ेद कपडेमे लिपटा उसका सुहाग पडा था। साथ मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका भी थी। अन्तिम सफर की तैय्यारियाँ हो रहीं थीं। पंडित कुछ कर रहा था, कुछ-कुछ बोल रहा था। फिर सब ख़त्म हो गया। उसका जीवनसाथी भी उस छोड़ किसी अनजान सफरपे निकल पडा था। वो फूट फूट के रो पडी।
इसके बाद वो पगला-सी गयी। कभी कामपे जाती थी तो कभी नही। दिन,महीनोंकी गिनती उसे रही नही। अडोस-पड़ोस का कोई उसे खिला देता,नलकेपे ले जाके उसे नेहला देता, तथा कभी कभार कंघी कर देता। एक दिन ऐसीही अवस्थामे वो अपने झोंपडेसे बाहर निकली। अँधेरा था। किसी चीज़ से ठोकर खाके गिर पडी और गिरते समय जब चीखी तो अडोस-पड़ोस के लोग दौडे। उसे अस्पताल ले जाया गया। मिसेस सेठना और मुख्याध्यापिका को खबर दी गयी। दोनोही तुरंत भागी चली आयी। मिसेस सेठनाने खर्च की सारी ज़िम्मेदारी उठा ली।
सुबह जब उसे आधा-अधूरा होश आया तब वो कुछ बुदबुदा रही थी, किसीको बुला रही थी। डाक्टर के अनुसार वो बेहद कमज़ोर तो होही गयी थी,उसके मस्तिष्क पेभी भारी सदमा पोह्चा था। उसके लिए अकेले झोंपड़े मे रहना खतरेसे खाली नही था......
सरपर का ज़ख्म ठीक होनेके बाद मिसेस सेठना ने उसे वृद्धाश्रम मे रखनेका निर्णय लिया। उन्होने आश्रम को डोनेशन भी दिया, लीलाबाई नामकी एक आया आशाकी खिदमत मे रखवा दी। एक पहचानवाले डाक्टर को रोज़ शाम क्लिनिक जानेसे पहले एक बार आशाको चेक करनेकी विनती की। बेचारी मिसेस सेठना, आशापे पडी आपत्तीके लिए खुदको ही ज़िम्मेदार ठहराती रही।
आशा कुछ रोज़ बाद घूमने फिरने लगी,लेकिन वो कहाँ है ये उसे समझमे आना बंद हो गया। स्पप्न और सत्यके बीछ्का अंतर मिटता चला गया। रोज़ सवेरे वो लीलाबाई से कहती,"मुझे बगियामे ले चल",और रोजही वहाँ आके कहती,"मेरी जूही की बेल कहाँ है??मोतियाभी दिख नही रहा!!मेरे बगीचेका किसने सत्यानास किया???"शामको राजू-संजू आएँगे तो मैं उनसे कहूँगी मेरी बगिया फिरसे ठीक कर दो।"
क्रमशः
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