Wednesday, January 23, 2008

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! १४

रोज़ शामको आशा लीलाबाई से पूछती,"अभीतक राजू-संजू,माया- शुभदा, कोयीभी नही आया???बच्चों की आवाजें नही आ रही???"फिर ,"अस्मिता,अस्मिता,आजा तो...देख मैं लड्डू दूँगी तुझे,"इसतरह पुकारती रहती....

माया-शुभदा,अस्मिता....ये सब उसकी ज़िन्दगीमे कभी आयीही नही,इसका होश कब था उसे???कभी वो अपनेआपसेही बुदबुदाती,हाथ जोड़कर प्रणाम करती,तथा लीलाबाई से कहती,"ईश्वरकी कितनी कृपा है मुझपे! माँगा हुआ सब मिला,जो नही माँगा वोभी उस दयावान ने दे दिया। ऐसे जान न्योछावर करने वाले बच्चे, ऐसी हिलमिलके रहनेवाली बहुए, इतने प्यारे पोते-पोती,बता ऐसा सौभाग्य कितने लोगोको मिलता है??"

कई बार लीलाबाई अपने पल्लूसे आँखे पोंछती। उसके तो बच्चे ही नही थे। उसके मनमे आता, इस दुखियारी के जीवनसे तो मेरा जीवन कहीं बेहतर!बच्चे होकर इसने क्या पाया??और वोभी उन्हें इतना पढा लिखाकर??
और एक दिन मिसेस सेठना के घर संजू अचानक आ धमका...!!उनके पैरोपे पड़ गया। सिसक सिसक कर रोने लगा। मिसेस सेठना अब काफी बूढी हो गयी थी। उन्हें संजूको पहचानने मे समय लगा।
क्रमशः

1 comment:

जेपी नारायण said...

पूरा लिखें। यह जीवंत जीवनवृत्ति पठनीय होगी।