Saturday, July 26, 2008

आजसे मेरा मकसद !

मैंने हालहीमे एक मूवी मेकिंग का कोर्स किया। अपनीही कहानी(जो मेरे ब्लॉग पे मौजूद है) एक छोटी फिल्मभी बना डाली। उसीका सम्पादन आजकल कर रही हूँ।
कल बंगलौर मे हुए बम धमाकों का समाचार मिला और आज शामसे सुनती जा रही हूँ अहमदाबाद मे हो रहे बम धमाकोंके बारेमे। इस फिल्मका सम्पादन करते, करते सोंचमे पडी थी की आगे अपने इस नए माध्यम का कैसे प्रयोग करूँ। एक और कहानी," दयाकी दृष्टी सदाही रखना " पे मेरा ध्यान केंद्रित हो रहा था। शायद वो मै बनाभी लूँगी क्योंकि उसमे जाने अनजाने कुछ ऐसे विषयों पे लिख बैठी हूँ, जो आजके ज़मानेमे काफी सुसंगत हैं। ( ये कथाभी मेरे ब्लॉग पे मौजूद है)। पर आजके बादसे मेरा मुख्य मक़सद रहेगा, आतंकवाद्के ख़िलाफ़ तथा जातीयवाद्के ख़िलाफ़ अपने हर माध्यम का उपयोग करना।
आप सभीसे गुज़ारिश है की मेरा "प्यारकी राह दिखा दुनियाको" ये लेख अवश्य पढ़ें। ये गुजरात मे हुए क़ौमी फसादों के बाद लिखा था। मेरे विचार से ये लेख आज उतनाही सुसंगत है, जितनाकी तब था। बडेही अफसोसकी बात है। काश! ऐसा न होता!!लेकिन इस राह्पे मेरे साथ कोई चले न चले मुझे चलनाही होगा। मेरे दादा-दादी ने अपना जीवन इस मुल्क की आज़ादीकी लड़ाई मे समर्पित कर दिया। हम आजभी आतंकवाद के शिकंजेमे जकडे हुए हैं। मुझे अपना जीवन इस शिकंजेसे मेरे देशको मुक्त करनेकी सहायतामे बिता देना है।
मुझे नही मालूम के मै इस मक़सद मे कितनी सफल रहुँगी, लेकिन शुरुआत तो करनीही है।

क्या करूँ, क्या जवाब दूँ??

July 26, 2008

क्या करूँ और क्या जवाब दूँ???

कुछ महीनो पहले अमेरिकासे आयी बिटिया (अब तो जानेका समय आ गया है) और परसों पोहोंचे मेरे दामाद्से मेरा अक्सर एक बातपे टकराव हो जाता है! उनके मुताबिक हिन्दोस्तान रहने लायक जगह नही रही है!!मेरा कहना है की जो बाहर जाके बस गए हैं, उन्हें ये टिपण्णी देनेका कोई इख्तियार नही!!हाँ, यहाँ रहें, इस देशके लिए कुछ करें, तभी कुछ टीका करनेका हक बनता है!!
कुछ रोज़ पहले बिटियाके पेटमे दर्द उठा। किडनी स्टोन का निदान हुआ। दोक्टार्स जो मेरे मित्र गन हैं, सलाह देने लगे की खूब पानी पिके देखो शायद खुदही बाहर आ जाए। खैर एक दिन मैंने उस से कहा की, अच्छा हुआ जो होना था, हिन्दोस्तान मे अपनी माँ के घर हुआ। बिटियाने मचलके घुस्सेसे कहा," क़तई नही ! वहाँ होता तो अच्छा होता!अबतक तो मुझे आपातकालीन रूम मे ले गए होते और पत्थर बाहर आ गया होता"!
मै खामोश हो गयी। इस दरमियान कुछ दिनोके लिए वो अपने ननिहाल रहके आयी थी। छाया चित्रकारीका नया नया शौक़ और खूब सारी तस्वीरें खींचना ये उसकी दिनचर्यामे शामिल हो चुका है। वास्तुशात्र छोड़ वो पूरी तरह इसीको अपना व्यवसाय बनाना चाहती है। और क्यों नही??बेहद अच्छी तस्वीरें उसने खींच रखी हैं...हजारों की तादात मे...अपना ब्लॉग और वेबसाइट दोनों बना रखा है। मुझे नेटपे बैठा देख, उठ्नेका तुंरत आदेश मिल जाता है!!(अभी इत्तेफाक से बिजली है और बेटी- दामाद बाहर घूमने गए हुए हैं)!
खैर ! जब अपने नानिहालसे लौटी तो पटके दूसरे हिस्सेमेभी दर्द शुरू हो गया। उसकी दोबारा सोनोग्राफी करनेका मैंने तुंरत इन्तेजाम कर दिया। वहाँसे लौट ते हुए वो रिपोर्ट लेके हमारे डॉक्टर मित्रके पास सीधा पोहोंच गयी। उधरसे फोन करके मुझे कहा,"माँ! मुझे अपेंडिक्स का ओपेराशन करवाना होगा। डॉक्टर ने तुंरत करवाना है तो अभी एकदमसे अस्पताल पोहोंच जाओ! मै वहीं जा रही हूँ।"
मैंने कहा," बेटे, मैभी आउंगी तुम्हारे साथ। तुम बघार आके मुझे लेते जाओ।"
उसने कहा," घर तो मै आही रही हूँ। अपनी कुछ पाकिंग करूंगी तथा पहलेके रिपोर्ट्स आदी साथ ले लूंगी। पन्द्रह मिनिटों मे पोहोंच रही हूँ। आप तैयार रहिये। झटसे चलेंगे।"
मै स्नानकी तैय्यारीमे थी। मैंने कहा," बेटा मुझे कमसे आधा पौना घंटा तो लगेगाही...."
"तुम्हे इतनी देर लेने की क्या ज़रूरत है??वो इतनी देर नही रुक सकते! उन्हों ने ओपरेशन थिएटर बुक कर दिया है। एक घंटेमे मेरी सर्जरी भी तय की है!आप तुंरत निकल पडो!"
मै बोली," बेटे, मुझे बैंक सेभी कुछ रक़म निकालनी होगी...औरभी कागज़ात जो बोहोत ज़रूरी हैं, साथ लेने होंगे, मेरे अपने रहनेके लिहाज़ से कपड़े आदी रखने होंगे ...मुझे कुछ तो समय लगेगाही। तुम ऐसे करो, आगे चलो, अपना खून आदी तपस्वाना शुरू कर दो, ड्रायवर को वापस भेज दो, मै पोहोंच जाउंगी।"
बिटिया जब घर पोहोंची तो मै स्नान करके अपने कपड़े आदी रख रही थी। उसने अपनी चीज़ें इकट्ठी की और वो निकल गई। ड्राईवर लौट आया। मै रास्तेमे बैंक हो ली। अस्पताल पोहोंची तो पता चला सर्जरी का समय दोपहर ३ बजेका तय हुआ है। मेरी सांसमे साँस आयी! चलो और पूरे दो घंटे हाथमे हैं!
मैंने कमरेमे ठीकसे सामान लगा लिया। उसके टेस्ट आदी चलते रहे। शामतक सर्जरी हो गयी। रातमे बिटिया दर्दमे थी। मै जागती रही। कभी नर्सको बुलाती तो कभी उसके सूखे होंट पानी घुमाके तर करती। सुबह उसका कथीटर निकाला गया। मैंने उसे bedpan देना शुरू किया।
चार दिन पूरी सतर्क तासे गुज़ारे। कभी अजीब जगाह्पे इव लगते तो मै शिकायत लेके दौड़ पड़ती...मेरी बेटी तक्लीफ्मे है...IV बाहर हो गयी है...जहाँ डाली है वो जगह ठीक नही है...उँगली के सान्धो पे डालनेकी क्या ज़रूरत है? आदी , आदी शिकायतें जारी रहती!!माँ का दिल जो ठहरा!!
जब घर आना था उस रोज़ उसके पिता मुम्बई से पोहोंचे। हालाँकि उसे अस्पताल उस दिन छोडा जाएगा इसकी मुझे ख़बर नही थी, लेकिन क्योंकि एक पलभी न उसे न मुझे वहाँ आराम मिल रहा था, मैंने डॉक्टर से गुजारिश ज़रूर की थी। मेरे पती आए तो मैंने कहा," मै घर जाके इसके लिए ढंग का सूप और पतली खिचडी बना लाती हूँ।"
मै जैसेही घर पोहोंची, खाना चढ़ा दिया, कपडों की मशीन चला दी। ये सब करही रही थी के फोन आया," उसे डिस्चार्ज मिल रहा है!"
मै खुश हो गयी। भागके उसका कमरा ठीक किया। तकिये रचाए। बिटिया घर पोहोंची तो सब तैयार था। वो पहले मेरे कमरेमे आयी। मैनेही विनती की। मुझे उसी कमरेमे सोके उसका ध्यान रखना ज्यादा आसान होगा।
वहाँ पे तकिये आदी रचाके उसे बिठाया और मै सूप और खिचडी ले आयी। जैसेही पहला कौर मुहमे गया, मेरी लाडली चींख पडी," माँ!! ये क्या है??इसमे कितना नमक पडा है!"
मैंने हैरान होके खिचडी चखी। नमक तो ठीक था!!इनसेभी चख्वा ली । इन्हों नेभी कहा,"हाँ! नमक तो ज़्यादा नही लग रहा!"
लेकिन बिटियाने खिचडी हटा दी। सूप पिया। खिचडी मे मैंने बादमे और चावल मिला दिए। कुछ देरके बाद बिटियाने कहा," मुझे मेरेही कमरेमे ले चलो। मुझे यहाँ आराम नही लग रहा"।
मै उसे वहाँ ले गयी। कई रानते उसके साथ सोती रही। अस्पतालमे अगर मेरे सोनेवाले सोफेका हल्का-साभी आवाज़ होता मेरी लाडली दहाड़ उठती ,"माँ!! आप कितना शोर करती हो! मुझे क़तई आवाज़ बर्दाश्त नही होता! आप क्यों ऐसा करती हो?"
मै खामोश रहती। कोई बात नही। अपने नैहरमे आयी लडकी है। माँ पे कुछ तो अपनी चलायेगी!!
मैंने एकदिन उसे कह दिया," बेटा इसतरह का आराम तुम्हे अमेरिकामे कोई दे सकता था? न तुम्हे बाज़ार जानेकी फ़िक्र, न घरका कोई दूसरा काम...तुम जो चाहती हो मै हाज़िर कर देती हूँ...ड्राईवर तैनात है....कपड़े धुले धुलाये, इस्त्री होके मिल जाते हैं....एक दिनमे मैंने तुम्हारे लिए दो नाईट गाऊन सी दिए...जो तुम मुहसे निकालती हो मै दौड़के उसका इंतेज़ाम कर देती हूँ...ये सुख परदेसमे तुम्हे हासिल होता?? "
इस बातका उसके पास जवाब नही था। वो मान गयी। पर जैसे कुछ ठीक हुई, हिन्दोस्तान और माँ दोनोपे टिप्पणी कसना शुरू हो गया! वैसे किडनी स्टोन को क्रश किए बिना वो भारत छोड्नाभी नही चाहती!!
और माँ का दिल जानता है की मै उसे कितना याद करूंगी जब वो लौट जायेगी....! अपनी पैठनी साडियां कटवा रही हूँ उसके कुरते सीनेके लिए, कढाई करकेभी सिलवा राहीहूँ ...! दिनरात मेरी लाडली के खिदमत मे लगी हूँ...पर कभी, कभी रातोंमे, जब कुछ बोहोत कड़वा बोल जाती है तो चुपचाप आँसू भी बहा लेती हूँ!!
जवाब खुदही सूझ गया,ये माँ का दिल है...ऑलाद कुछभी कह जाय, वो दुआ ही देगा!!सिर्फ़ अपने देशकी नुक्ता चीनी बार-बार नही सह पाती!!

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Friday, July 25, 2008

बिजली गुल !!

मै तो शमा बनके जल उठी पर मेरे जलनेसे संगणक तो चालू नही हो सका!!अब कोई क्या करे जब बारह, बारह घंटे बिजली गुल रहे??इनवर्टर पे नेट कनेक्ट किया पर इनवर्टर बिना बिजलीके चार्ज कैसे हो!!इसलिए मेरे दोस्तों आपकी क्षमा मांगती हूँ के न तो किसी औरके चिट्ठेपे जाके आनंद उठा पा रही हूँ, नाही अपने चिट्ठेपे लिख पा रही हूँ! अपनी बनाई छोटी-सी फ़िल्म काभी संपादन रुक गया है क्योंकि पेशेवर संपादक रातको तो आ नही सकते !दूसरे कई सारे ब्लॉग से जुड़कर बड़ी खुश हो रही थी के अब आसानीसे जी चाहे वहाँ फुदक फुदक के चली जाया करुँगी ! खैर, इस नए दिनक्रम की आदत पड़ने मे कुछ वक़्त ज़रूर लगेगा। जहाँ चाह वहाँ राह, तो कुछ दिनोमे इसकाभी कुछ न कुछ हल तो निकालाही जाएगा!
अब शब्बा ख़ैर कहते हुए अलविदा लेती हूँ! दो पलही सही, कुछ तो संवाद साध सकी!

Tuesday, July 22, 2008

जल उठी शमा....!

शामिले ज़िन्दगीके चरागों ने
पेशे खिदमत अँधेरा किया,
मैंने खुदको जला लिया,
रौशने राहोंके ख़ातिर ,
शाम ढलते बनके शमा!
मुझे तो उजाला न मिला,
पर सुना, चंद राह्गीरोंको
थोड़ा-सा हौसला ज़रूर मिला....
अब सेहर होनेको है ,
ये शमा बुझनेको है,
जो रातमे जलते हैं,
वो कब सेहर देखते हैं?
शमा

शायद आइन्दा ज़्यादा लगन से लिख पाउंगी...अब तो कुछ ज़रूरी कामोने घेर रखा है,जो नज़रंदाज़ नही किए जा सकते!!

Sunday, July 20, 2008

Sunday, July 6, 2008

जा,उड़ जारे पंछी!६)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

और फिर तेरे सिंगारके दिन शुरू हो गए!!तुझे शोर शराबा पसंद नही था। संगीत जैसे किसी कार्यक्रमका आयोजन नही था,लेकिन इस मौके के लिए मौज़ूम हों, ऐसे कुछ ख़ास गीत CDs मे टेप करा लिए थे...सब पुराने, मीठे, शीतल, कानोको सुहाने लगनेवाले !धीमी आवाजमे वो बजते रहे,लोग आते जाते रहे, खानपान होता रहा। मेरी अपनी कुछ सहेलियों को तथा कुछ रिश्तेदारों को मै वर्षों बाद मिलनेवाली थी!
तेरी हथेलियों तथा पगतलियों पे हीना सजने लगी तो मेरी आँखें झरने लगी। इतनी प्यारी लगी तू के मैंने अपनी आंखों से काजल निकाल तेरे कानके पीछे एक टीका लगा दिया। हर माँ को अपनी बेटी सुंदर लगती है,और हर दुल्हन अपनी-अपनी तौरसे बेहद सुंदर होती है।
हीना लगनेके दूसरे दिन बंगलोर के लिए प्रस्थान। वहाँ के अलग रीतरिवाज...तेरे कपड़े,साडियां,ज़ेवरात,कंगन-चूडियाँ, तेरा सादा-सादा लेकिन मोहक सिंगार....यही मेरी दुनिया बन गयी!!मैंने बिलकुल अलग ढंगसे तेरी चोलियाँ सिलवायीं थी। काफी पुराने बंगाली ढंग का मुझपे असर था। मेरी बालिका वधु!!ये ख़याल जैसा मेरे मनमे आया वैसाही तेरी मासी के मनमेभी आया। तेरी साडियां,चोलियाँ,जेवरात सबकुछ बेहद सराहा गया।
फेरे ख़त्म हुए और मेरे मनका बाँध टूट गया!! अपनी माँ के गले लग मैंने अपने आसूँओ को राहत देदी। उस वक्त की वो तस्वीर....एक माँ,दूसरी माँ के गले लग रो रही थी...एक माँ अपनी बिटियासे कह रही थी...यही तो जगरीत है मेरी बच्ची ...आज तेरी दुनिया तुझसे जुदा हो रही है...सालों पहले मैनेभी अपनी दुनियाको ऐसेही बिदा कर दिया था!....
मेरे वो रिमझिम झरते नयनभी तेरे गालों पे कुछ तलाश रहे थे....बस एक बूँद जो बरसों पहले तूने मुझे भेंट की थी....बस एक बूँद अपनी तर्जनी पे लेके कुछ पल उसे मै तेरी तरफसे मुझे मिला सबसे हसीन तोहफा समझने वाली थी!!सिर्फ़ एक मोती!!पर उस वक्त मै वो तोह्फेसे वंचित रह गयी....
और मुंबई का वो स्वागत समारोह! उसके अगलेही दिन तू फिर बंगलोर, अपनी ससुराल चली गयी। तेरे लौटने के दो दिनों बाद राघव आ गया।
तुम्हारी बिदायीके उन आखरी दो दिनोमे मै लगातार बातें करती रही। कबके भूले बिसरे प्रसंग,किस्से याद करती रही...उस बडबड के पीछे कारण था.....मुझे अपने मनकी अस्वस्थता,चलबिचल, तेरे बिरह्के आँसू, और न जानू क्या कुछ छुपाना था....तुझे हवाई अड्डे पे से लाने गयी थी, तब भी मैंने इसीतरह लगातार बातें की थी,साथ आयी तेरी मासी के पास....अति उत्साह और हजारों शंका कुशंकाएँ....सब मुझे दुनियासे छुपाना था!!
क्या अब तू सच मे पराई हो गयी?तुझे एक किसी इख्तियारसे कुछ कहनेके दिन बीत गए??
"चलो,चलो सामान नीचे ले जाना शुरू करो....!"तेरे पिताकी आवाज़। आख़री वक़त मैंने तेरी ९ वार की कांजीवरम से दो खूबसूरत रजाईयाँ बना डाली!!कमसे तुम दोनों उसे देख तो सकोगे इस बहने, इस्तेमाल तो होंगी...वरना वहाँ पड़े,पड़े उनका क्या हश्र होता??राघव ने ख़रीदी हुई किताबे निकालके इनकी बक्सों मे जगह बना ली। मैंने बादमे सी-मेल से उन किताबोंको भेज देनेका सोंच लिया।
हम सब परिवारवाले तुझे बिदा करने नीचे आ गए। विमान सुबह ४ बजे उडनेवाला था। मुझे सभी ने हवाई अड्डे पे जानेसे रोका। तेरे पिता और भाई गाडीमे बैठे, साथ तू और राघव भी। उस एक मोतीकी चाह अधूरी ही रह गयी...अब तेरा मेरा ये बिरह कितने दिनोका??गाडी चल पडी तो मन बोला, जा मेरे प्यारे पंछी...जा उड़ जा....उड़ जा अपने आसमान मे दूर,दूर, ऊचाईयों तक पोहोंच जा...!लेकिन मेरी चिडिया,जब कभी माँ याद आए,इस घोंसलेमे उडके चली आना...मेरे पंखोंसे अधिक सुरक्षित,शीतल जगह तुझे दुनिया मे दूसरी कोई नही मिलेगी। थक जाए तो विश्राम के लिए चली आना। अब तो हमारे आकाशभी अलग-अलग हो गए हैं...तेरे आकाशमे मुक्त उड़ान भर ले मेरे बच्चे!!पर इस घोंसलेको भुला न देना!!
जब तेरी दुनिया मे सूरज पूरबमे लालिमा बिखेरेगा,तब मेरे यहाँ सूनी-सी शाम ढलेगी...तभी तो लगता है, हमारे आसमान,हमारे क्षितिज अब कितने जुदा हो गए??

समाप्त

Saturday, July 5, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!५)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संवाद)

मै घरके बीछो बीछ खडी रहती और नज़र हर ओर तेज़ीसे घुमाती। रसोई मे नारंगी रंगका लैंप शेड..और दीवारपे नीला कैंडल स्टैंड...कोनेमे ये चार फ्रेम्स, सिरेमिक टाइल पे लगी ये खूंटी रसोई के सिंक के पास...पीले तथा केसरिया रंगों की पैरपोंछ्नियाँ... ...!!और,हाँ...स्नानगृह भी बैठक जितनाही सुंदर दिखना चाहिए....!!तो ये यहाँ बड़े तौलिये, ये छोटे तौलिये, यहाँ भी छोटी-छोटी फ्रेम्स ...नयी साबुनदानी लानी होगी...कांचके शेल्फ पे फूलदान...स्नेहल से कहूंगी ...उसके नीचेवाले फूलवाले को ख़बर देनेके लिए....रोज़ लम्बी टहनी के फ़ूल ला देगा , कभी पीले गुलाब,कभी सेवंती,साथ ताज़े पत्ते भी...
तेरी चोलियाँ सीने के लिए मै नासिक से पुराना दर्जी बुलानेवाली थी...आके यहीं रहने वाला था...बक्सों मेसे सारी-के सारी किनारे बाहर निकाली गयी,लेसेस निकली, जालियाँ निकली, ज़रीके फूल निकले....हाँ, इस चोलीपे ये लेस अच्छी लगेगी,इसवालेपे ये किनार...इसकी बाहें इसतरह सिलवानी हैं...पीठपे ये ज़र सजेगी....ओहो!!राघव के लिए अभी चूडीदार पजामे-कुरते लाने हैं !!
दिनभर का सब ब्योरा मै तुझे इ-मेल करती। एक दिन तूने लिखा,माँ अब बसभी करो तैय्यारियाँ....!!
और मैंने जवाब मे लिखा, मुझे हर एक पल पूरी तरह जीना है..."इस पलकी छाओं मे उस पलका डेरा है, ये पल उजाला है, बाकी अँधेरा है,ये पल गँवाना ना, ये पलही तेरा है,जीनेवाले सोंच ले,यही वक्त है,करले तू पूरी आरज़ू ...
आगेभी जाने ना तू, पीछेभी जाने ना तू, जोभी है, बस यही एक पल है"!(पंक्तियों का सिलसिला ग़लत हो सकता है!)
सच, मेरी ज़िंदगी के वो स्वर्णिम क्षण थे...कभी ना लौटके आनेवाले लम्हें...भरपूर आनंद उठाना मुझे उन सब लम्हों का...!
अरे, तुझे कौनसी फ्रेम्स अच्छी लगेंगी सबसे अधिक?? मै पूछ ही लेती!!तू कहती सारीके सारी...लेकिन ले नही जा पाउंगी...!!
उफ़!!चूडियाँ औरबिंदी लानी है है ना अभी!!
और अचानक से किसी संथ क्षण, मनमे ख़याल झाँक जाता...पगली!!होशमे आ...संभाल अपनेआपको...सावध हो जा...चुटकी बजातेही ये दिन ख़त्म हो जायेंगे...फिर इसी जगह खडी रहके तू इन सजी दीवारों को भरी हुई आंखों से निहारेगी...चुम्हलाया हुआ घर सवारेगी-संभालेगी..वोभी कुछ ही दिनों के लिए....इनका सेवा निवृत्ती का समय बस आनेही वाला है...बंजारे अपने आख़री मकाम के लिए चल देंगे....!इनके DGPke हैसियतसे जो सेवा काल रहा, उसमे मैंने कुछ एहेम ज़िम्मेदारियाँ निभानी थी..एक तो तेरी शादी, जिसमे गलतीसे भी किसीको आमंत्रित ना करना बेहद बड़ी भूल होगी...IPS अफसरों के एसोसिशन की अध्यक्षा की तौरपे मैंने, हर स्तर के अफ्सरानके पत्नियोंको अपने संस्मरण लिख भेजनेके लिए आमंत्रित किया था। इस तरह का ये पहला अवसर था,जब अफसरों की अर्धान्गिनियाँ अपने संस्मरण लिखनेवाली थीं...और वो प्रकाशित होनेवाले थे.." WE THE WIVES".द्विभाषिक किताबकी मराठी आवृत्ती का नाम था,"सांग मना, ऐक मना"। हिन्दीमे," कह मेरे दिल,सुन मेरे दिल"। साथ ही मेरी किताबोंका प्रकाशन होना था। नासिक मे स्टेट पोलिस गेम्सका आयोजन करना था। और उतनाही एहेम काम...पुनेमे रहनेके लिए फ्लैट खोजना था।
जैसा मैंने सोंचा था, वैसाही हुआ। एक तूफानकी तरह तुम दोनों आए, साथ मेहमान भी आए, घर भर गया, शादीका घर, शादीकी जल्दबाजी!!सारा खाना मैही बनाती...फूल सजते...चादरें रोज़ नयी बिछाती....बैठक मेभी हर रोज़ नयी साज-सज्जा करती। ये मौक़ा फिर न आना था....
क्रमशः।

Friday, July 4, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!४)(माँ का अपनी बेटीसे मूक संभाषण.)

सितम्बर के माह मे तेरे पिता का महाराष्ट्र के डीजीपी के हैसियतसे बढोत्री हुई। इत्तेफाक़न उस समय मै अस्पतालमे थी और इस खुशीके मौकेका घरपे रहके आनंद न उठा सकी !पर सपनेभी जो बात मुझे सच न लगती वो बात हो गयी!हमें सरकारकी ओरसे वही फ्लैट मिला जिसमे हम १० वर्ष पूर्व मुंबई की पोस्टिंग मे रह चुके थे...वही बेहद प्यारे पड़ोसी, जिन्हें मै अपना हिदी कथा संग्रह समर्पित कर चुकी थी!!हमें इस फ्लैट मे रहनेका ७ माह से ज्यादा मौक़ा नही मिलनेवाला था, लेकिन मेरी खुशीकी कोई सीमा न थी!!हम पड़ोसियों के दरवाज़े हमेशा एक दूसरेके लिए खुलेही रहा करते थे!
अस्पताल से लौटतेही मैंने अपना साजो-सामा नए फ्लैट मे सजा लिया। कुल दो दिनही गुज़रे थे की एक खबरने मुझे हिला दिया। हमारे पड़ोसी, जो IAS के अफसर थे,और निहायत अच्छे इंसान उन्हें कैंसर का निदान हो गया। पूरे परिवार ने इस बातको बोहोत बहादुरी से स्वीकारा। उनकी जब शल्य चिकित्छा हुई तब उनके घर लौटने से पहले,मैंने उस घरको भी उसी तरह सजाके रखा,जैसे वो घरभी शादीका हो!! वे घर आए तो एक बच्चे की तरह खुशी से उछल पड़े !मैंने और उनकी पत्नी, ममता ने मिलके लिफ्ट के आगेकी कॉमन लैंडिंग भी ऐसे सजायी के आनेवाले को समझ ना आए किस फ्लैट के लिए मुड़ना है! छोटी-सी बैठक, गमले,फूलोंके हार, निरंजन, रंगोली,.....पता नही और क्या कुछ!!उनके घरके लिए मैंने वोल पीसेस भी बनाये थे। नेम प्लेट भी एकदम अलग हटके बनायी। कॉमन लैंडिंग मे भी मैंने फ्रेम किए हुए वाल्पीसेस सजा दिए। ममता ने अपनी माँ की पुरानी ज़रीदार साडियोंको सोफा के दोनों और सजा दिया। कभी भी इससे पहले नए घरमे समान हिलानेमे मुझे इतनी खुशी नही हुई थी जितनी के तब! सिर्फ़ दिलमे एक कसक थी....रमेशजी का कैंसर!!उन्हें तेरे ब्याह्का कितना अरमान था। ऐसी हालत मेभी वो बंगलौर आनेकी तैयारी कर रहे थे। महारष्ट्र मे विधानसभाका सर्दियोंका सेशन नागपूर मे होता है। वे सीधा वहीं से आनेवाले थे। हम सोचते क्या हैं और होता क्या है....!वो दोनों हमारे घर तेरी मेहेंदीके समारोह के लिएभी न आ सके!उनका कीमोका सेशन था उस दिन!मुंबई के स्वागत समारोह मेभी आ न सके क्योंकि नागपूर का सेशन एक दिन देरीसे ख़त्म हुआ। तेरे ब्याह्के कुछ ही दिनोबाद उनके लिवर का भी ओपरेशन कराना पडा। आज ठीक एक वर्ष पूर्व उस अत्यन्त बहादुर और नेक इंसान का देहांत हो गया। खैर! उनकी बात चली तो मै कहाँ से कहाँ बह निकली....लौटती हूँ गृहसज्जा की ओर...
घर हर तरहसे,हर किस्म से श्रृंगारित करने लगी मै। शादीके दिनोमे मेहमान आयेंगे, तू आयेगी, बल्कि तुम दोनों आयोगे इस लिहाज़ से घर साफ़- सुंदर दिखना था। क्या करुँ ,क्या न करूँ....हाँ लिफ्टके प्रवेशद्वारपे जहाँ servant क्वार्टर की ओर सीढीयाँ जाती थी , वहांभी परदे लग गए...बीछो-बीछ खूबसूरत-सी दरी डाली गयी...शुभेन्द्र तथा पुन्यश्री , ममताके दोनों बच्चे , उन्हेभी उतनाही उत्साह था। मेरे भी सरपे एक जुनून सवार था। तेरे पिता तो नागपूर मे थे...काफी जिम्मेदारियाँ मुझपे आन पडी थी। आमंत्रितों की फेहरिस्त बनाना...हर शेहेर्मे किसी एक नज़दीकी दोस्तको अपने हाथोंसे पत्रिका बाँट नेकी बिनती करना...उसी समय,उनको तोह्फेभी पोहोचा देना...बंगलोर की BSF मेस के कैम्पस मे किसको कहाँ ठहराना ...किसकी किसके साथ पटेगी ये सब सोंच -विचारके!! जबकी मेस मैंने देखीही नही थी... सब कागज़ के प्लान देखके तय करना था!!
और तेरे आनेका दिन करीब आने लगा....जिस दिन तू आयेगी...उस दिन तुम्हारे कमरेमे कौनसा बेड कवर बिछेगा??कौनसे परदे लगेंगे??कौनसा गुलदान,कौनसे फूल??पीले गुलाब, पीली सेवंती, साथ लेडीस लैस...यहाँ सिरामिक का गुलदान,यहाँ,पीतल का,यहाँ ताम्बेका...ये राजस्थानी वंदनवार। कब दिन निकलता और कब डूबता पताही नही चलता।
क्रमश

Thursday, July 3, 2008

जा, उड़ जारे पंछी!३)अपनी बेटीसे माँ का मूक संभाषण...

दिन महीने बीतते गए और तेरी पढाई भी ख़त्म हुई। तुझे अवोर्ड भी मिला। मुझे बड़ी खुशी हुई। बस उसीके पहलेका तेरा शादीके बारेमे वो फ़ोन आया था। तेरे ब्याह्के एक-दो दिनों बाद ई मेल द्वारा मैंने तुझसे पूछा," यहांसे जो साडियां ले गयी थी, उनमेसे ब्याह के समय कौनसी पहनी तुने? और बाल कैसे काढे थे...जूडा बनाया था या की...?"
"अरे माँ, साडी कहाँ से पहेनती? समय कहाँ था इन सब का?? शर्ट और जींस पेही रजिस्ट्रेशन कर लिया।और जूडा क्या बनाना... बस पोनी टेल बाँध ली...."! तेरा सीधा,सरल,बडाही व्यावहारिक जवाब!
सूट केसेस भर-भर के रखी हुई दादी-परदादी के ज़मानेकी वो ज़रीकी किनारे, वो फूल,वो लेसेस, .....और न जाने क्या कुछ...जिनमेसे मै तेरे लिए एक संसार खडा करनेवाली थी...सबसे अलाहिदा एक दुल्हन सजाने वाली थी...सामान समेटते समय फिर एकबार सब बक्सोमे करीनेसे रखा गया, मलमल के कपडेमे लपेटके, नेपथलीन बोल्स डालके.....
कुछ कलावाधीके बाद तुने और राघव ने लिखा की तुम दोनोका वैदिक विधीसे विवाह हो, ऐसा उसके घरवाले चाहते हैं। अंतमे तय हुआ की १५ दिसम्बर, ये आखरी शुभ मुहूर्त था, जो की तय किया गया। उसे अभी तकरीबन ७/८ महीनोका अवधी था। पर मुझमे एक नई जान आ गयी। हर दिन ताज़गी भरा लगने लगा। तू मुझे फेहरिस्त बना-बनाके भेजने लगी....माँ, मुझे मेरे घरके लिए तुम्हारे हाथों से बने लैंप शेड चाहियें..., और हाँ,फ्युटन कवर का नांप भेज रही हूँ...कैसी डिजाईन बनाओगी?? परदोंके नांप आए...मैंने परदे सी लिए...उन्हें बांधनेके लिए क्रोशियेकी लेस बनायी। माँ! मै तुम्हारी दीवारोंपेसे मेरे पसंद के वालपीसेस ले जाऊंगी....!(ज़ाहिर था की वो सब मेरेही हाथों से बने हुए थे)!अच्छा, मेरे लिए टॉप्स खरीद्के रख लेना ,हैण्ड लूम के!.....मैंने कुछ तो पार्सल से और कुछ आने-जाने वालों के साथ चीज़ें भेजनेका सिलसिला शुरू कर दिया। बिलकुल पारंपारिक, ख़ास हिन्दुस्तानी तौरतरीकों से बनी चीज़ें...कारीगरों के पास जाके ख़रीदी हुई....ये रुची तुझे मेरेसेही मिली थी।
तेरे ब्याह्के मौकेपे मुझे बोहोतसों को तोहफे देनेकी हार्दिक इच्छा थी...तेरे पिताके दोस्त तथा उनके परिवारवालों को, उनके सह्कारियोंको , मेरे ससुराल और मायके वालों को, मेरी अपनी सखी सहेलियों को...मैंने कबसे इन बांतों की तैय्यारी शुरू कर रखी थी... समय-समय पे होनेवाली प्रदर्शनियों से कुछ-कुछ खरीद के रख लिया करती थी...हरेक को उसकी पसंद के अनुसार मुझे भेंट देनी थी.....बोहोतसों को अपने हाथोसे बनी वस्तुएं देनेकी मेरी चाह थी.....किसीकोभी, कुछभी होलसेलमे खरीदके पकडाना नही था। कई बरसोंसे मैंने सोनेके सिक्के इकट्ठे किए थे...अपनी कमायीमेसे...उसमेसे तेरे लिए मै ख़ुद डिजाईन बनाके गहने घड़वाने लगी, एकदम परंपरागत ...माँ के लिए एक ख़ास तरीकेका गहना,जेठानीकी कुछ वैसासाही... तेरी मासीके लिए मूंगे और मोतीका कानका...रुनझुन के लिए कानके छोटे,छोटे झुमके...!तेरी सासुमाने तेरे लिए किस किस्म की साडियां लेनी चाहियें,इसकी एक फेहरिस्त मुझे भेज रखी थी। उनमे सफ़ेद या काला धागा ना हो ये ख़ास हिदायत थी!!फिरभी मै और तेरी मासी बार-बार वही उठा लाते जो नही होना चाहिए था, और मै दौड़ते भागते लौटाने जाया करती...!
क्रमशः

Tuesday, July 1, 2008

जा, उड़ जारे पंछी! २)

मेरी लाडली, तुझे पता है तेरा मुझे दिया सबसे बेहतरीन तोहफा कौनसा है, जो मै कभी नही भूल सकती? तुझे कैसे याद होगा? तू सिर्फ़ ३ वर्षकी तो थी। बस कुछ दिन पहलेही स्कूल जाना शुरू हुआ था तेरा। एक दिन स्कूलसे फोन आया के स्कूल बस तुझे लिए बिना निकल गयी है। मै भागी दौड़ी स्कूल पोहोंची। स्कूलके दफ्तर मे तुझे बिठाया गया था। सहमा हुआ -सा चेहरा था तेरा। मैंने तुझे अपने पास लिया तो तेरे गालपे एक आँसू अटका दिखा। मैंने धीरेसे उसे पोंछा तब तूने मुझसे कहा," माँ! मुझे लगा तुम्हे आनेमे अगर देर हो गयी तो मै क्या करुँगी? तब पता नही कहाँ से ये बूँद मेरे गालपे आ गयी?"
जानती है, आज मुझे लगता है, काश! मै उस बूँद को मोती बनाके एक डिबियामे रख सकती! तूने मुझे दिया सबसे पेशकीमती तोहफा था वो!!सहमेसे,भोले, मासूम गालपे बह निकली एक बूँद!
क्या याद करूँ क्या न करूँ??तेरा दसवीं का साल, फिर बारवीं का साल। तुझे हर क़िस्म की किताबें पढ़नेका बेहद शौक़ था/है। साहित्य/वांग्मय मे बोहोत रुची थी तुझे और समझभी। उसीतरह पर्यावरण के बारेमेभी तू बड़ी सतर्क रहती और उसमे रुची तो थीही। वास्तुशात्र भी पसंदका विषय था। हमें लगा, वास्तुशास्त्र करते हुए तू पहले दो विषयोंपे ज़रूर ध्यान दे सकेगी, लेकिन साहित्य करते,करते वास्तुशात्र नही मुमकिन था। अंतमे बारवीं के बाद तूने वास्तुशास्त्र की पढाई शुरू कर दी।
वास्तुशास्त्र के तीसरे सालमे तू थी और तभी तेरा और राघव का परिचय हुआ। उसके पहले मै मनोमन तेरी किसकिस से जोड़ी जमाती रहती, गर तू सुनले तो बड़ा मज़ा आएगा तुझे! तू और राघव एक दूजेके बारेमे संजीदा हो ये सुनके मुझे असीम खुशी हुई। अव्वल तो मै समझी के राघव पूनेकाही लड़का है...फिर पता चला की उसके माता-पिता बंगलौर मे रहते हैं और राघव छात्रावास मे रहके इंजीनियरिंग की पढाई कर रहा है। हल्की-सी कसक हुई दिलमे। हम पूनेमे स्थायिक होनेकी सोंच रहे थे,लेकिन वो कसक चंद पलही रही। मै बोहोत उत्साहित थी। उसमे मुझे मेरी दादीका मिज़ाज मिला था! ना जाने कबसे उन्हों ने अपनी पोतीओं के लिए तरह तरह की चीज़ें बनाना तथा इकट्ठी करना शुरू कर दिया था!!वही मैंने तेरे लिए शुरू कर दिया!!अपने हाथों से चादरे बनाना, किस्म-किस्म के कुशन कवर्स सीना,patchwork करना , अप्लीक करना ,कढाई करना और ना जाने क्या,क्या!खूबसूरत तौलिये इकट्ठे किए, परदे सिये, अपनी सारी कलात्मकता ध्यान मे रख के वोलपीसेस बनाये,सुंदर-सुंदर दरियां इकट्ठी कर ली। हाथके बुने lampshades ,सिरामिक और पीतल तथा ताम्बे के फूलदान......कितनी फेहरिस्त बताऊँ अब!!दादी-परदादीके ज़मानेकी सब लेसेस, किनारे,कढाई किए हुए पुर्जे, पुराने दुपट्टे, जिनपे खालिस सोनेसे कढाई की गयी थी, जालीदार कुर्तियाँ.....इन सबका इस्तेमाल करके मै तेरे लिए चोलियाँ सीनेवाली थी!!सबसे अलग, सबसे जुदा!!३/४ बक्से ले आयी, उनमे नीचे प्लास्टिक बिछाया, हरेक चीज़की अलग पोटलियाँ बनी, प्लास्टिक के ऊपर नेप्थलीन balls डाले गए, और ये सब रखा गया। बस अब तेरी पढाई ख़त्म होनेका इन्तेज़ार था मुझे! नौकरी तो तुझे मिलनीही थी!!सपनों की दुनियामे मै उड़ने लगी।
और एक दिन पता चला के राघव आगेकी पढाई के लिए अमरीका जानेवाला है और तूभी आगेकी पढाई वहीं करेगी और फिर नौकरीभी वहींपे......मेरे हर सपनेपे पानी फिर गया....आगेकी पढ़ईके लिए पहले राघव और एक सालके बाद तू,इसतरह दोनों चले गए....हम पती- पत्नीकी तरह वो बक्से भी बंजारों की भांती गाँव-गाँव, शेहेर-शेहेर घुमते रहे।
सालभर के बाद तू कुछ दिनोके लिए भारत आयी। हम सब तेरे भावी ससुराल, बंगलोर, हो आए। शादीकी तारीख तय करनेकी भरसक कोशिश की पर योग नही हुआ।
अमरीका जानेके पहलेसेही मुझे तेरे मिज़ाजमे कुछ बदलाव महसूस हुआ था। तू जल्दी-से छोटी-छोटी बातों पे चिड ने लगी थी। तेरी सहनशक्ती कम हो गयी थी। मै गौर कर रही थी पर कुछ कर नही पा रही थी। क्या इसकी वजह मेरी बिगड़ती हुई सहेत थी? तेरे दूर जानेके खायालसे दिमाग मे भरा नैराश्य था? जोभी हो, तू आयी और और उतनीही तेजीसे वापसभी लौट गयी। दोस्त-सहेलियां, खरीदारी,इन सबमेसे मेरे लिए तेरे पास समय बचाही नही। पहलेकी तरह हम दोनोमे कोई अन्तरंग बातें या गपशप होही नही पाई।
क्रमशः