Saturday, July 26, 2008

क्या करूँ, क्या जवाब दूँ??

July 26, 2008

क्या करूँ और क्या जवाब दूँ???

कुछ महीनो पहले अमेरिकासे आयी बिटिया (अब तो जानेका समय आ गया है) और परसों पोहोंचे मेरे दामाद्से मेरा अक्सर एक बातपे टकराव हो जाता है! उनके मुताबिक हिन्दोस्तान रहने लायक जगह नही रही है!!मेरा कहना है की जो बाहर जाके बस गए हैं, उन्हें ये टिपण्णी देनेका कोई इख्तियार नही!!हाँ, यहाँ रहें, इस देशके लिए कुछ करें, तभी कुछ टीका करनेका हक बनता है!!
कुछ रोज़ पहले बिटियाके पेटमे दर्द उठा। किडनी स्टोन का निदान हुआ। दोक्टार्स जो मेरे मित्र गन हैं, सलाह देने लगे की खूब पानी पिके देखो शायद खुदही बाहर आ जाए। खैर एक दिन मैंने उस से कहा की, अच्छा हुआ जो होना था, हिन्दोस्तान मे अपनी माँ के घर हुआ। बिटियाने मचलके घुस्सेसे कहा," क़तई नही ! वहाँ होता तो अच्छा होता!अबतक तो मुझे आपातकालीन रूम मे ले गए होते और पत्थर बाहर आ गया होता"!
मै खामोश हो गयी। इस दरमियान कुछ दिनोके लिए वो अपने ननिहाल रहके आयी थी। छाया चित्रकारीका नया नया शौक़ और खूब सारी तस्वीरें खींचना ये उसकी दिनचर्यामे शामिल हो चुका है। वास्तुशात्र छोड़ वो पूरी तरह इसीको अपना व्यवसाय बनाना चाहती है। और क्यों नही??बेहद अच्छी तस्वीरें उसने खींच रखी हैं...हजारों की तादात मे...अपना ब्लॉग और वेबसाइट दोनों बना रखा है। मुझे नेटपे बैठा देख, उठ्नेका तुंरत आदेश मिल जाता है!!(अभी इत्तेफाक से बिजली है और बेटी- दामाद बाहर घूमने गए हुए हैं)!
खैर ! जब अपने नानिहालसे लौटी तो पटके दूसरे हिस्सेमेभी दर्द शुरू हो गया। उसकी दोबारा सोनोग्राफी करनेका मैंने तुंरत इन्तेजाम कर दिया। वहाँसे लौट ते हुए वो रिपोर्ट लेके हमारे डॉक्टर मित्रके पास सीधा पोहोंच गयी। उधरसे फोन करके मुझे कहा,"माँ! मुझे अपेंडिक्स का ओपेराशन करवाना होगा। डॉक्टर ने तुंरत करवाना है तो अभी एकदमसे अस्पताल पोहोंच जाओ! मै वहीं जा रही हूँ।"
मैंने कहा," बेटे, मैभी आउंगी तुम्हारे साथ। तुम बघार आके मुझे लेते जाओ।"
उसने कहा," घर तो मै आही रही हूँ। अपनी कुछ पाकिंग करूंगी तथा पहलेके रिपोर्ट्स आदी साथ ले लूंगी। पन्द्रह मिनिटों मे पोहोंच रही हूँ। आप तैयार रहिये। झटसे चलेंगे।"
मै स्नानकी तैय्यारीमे थी। मैंने कहा," बेटा मुझे कमसे आधा पौना घंटा तो लगेगाही...."
"तुम्हे इतनी देर लेने की क्या ज़रूरत है??वो इतनी देर नही रुक सकते! उन्हों ने ओपरेशन थिएटर बुक कर दिया है। एक घंटेमे मेरी सर्जरी भी तय की है!आप तुंरत निकल पडो!"
मै बोली," बेटे, मुझे बैंक सेभी कुछ रक़म निकालनी होगी...औरभी कागज़ात जो बोहोत ज़रूरी हैं, साथ लेने होंगे, मेरे अपने रहनेके लिहाज़ से कपड़े आदी रखने होंगे ...मुझे कुछ तो समय लगेगाही। तुम ऐसे करो, आगे चलो, अपना खून आदी तपस्वाना शुरू कर दो, ड्रायवर को वापस भेज दो, मै पोहोंच जाउंगी।"
बिटिया जब घर पोहोंची तो मै स्नान करके अपने कपड़े आदी रख रही थी। उसने अपनी चीज़ें इकट्ठी की और वो निकल गई। ड्राईवर लौट आया। मै रास्तेमे बैंक हो ली। अस्पताल पोहोंची तो पता चला सर्जरी का समय दोपहर ३ बजेका तय हुआ है। मेरी सांसमे साँस आयी! चलो और पूरे दो घंटे हाथमे हैं!
मैंने कमरेमे ठीकसे सामान लगा लिया। उसके टेस्ट आदी चलते रहे। शामतक सर्जरी हो गयी। रातमे बिटिया दर्दमे थी। मै जागती रही। कभी नर्सको बुलाती तो कभी उसके सूखे होंट पानी घुमाके तर करती। सुबह उसका कथीटर निकाला गया। मैंने उसे bedpan देना शुरू किया।
चार दिन पूरी सतर्क तासे गुज़ारे। कभी अजीब जगाह्पे इव लगते तो मै शिकायत लेके दौड़ पड़ती...मेरी बेटी तक्लीफ्मे है...IV बाहर हो गयी है...जहाँ डाली है वो जगह ठीक नही है...उँगली के सान्धो पे डालनेकी क्या ज़रूरत है? आदी , आदी शिकायतें जारी रहती!!माँ का दिल जो ठहरा!!
जब घर आना था उस रोज़ उसके पिता मुम्बई से पोहोंचे। हालाँकि उसे अस्पताल उस दिन छोडा जाएगा इसकी मुझे ख़बर नही थी, लेकिन क्योंकि एक पलभी न उसे न मुझे वहाँ आराम मिल रहा था, मैंने डॉक्टर से गुजारिश ज़रूर की थी। मेरे पती आए तो मैंने कहा," मै घर जाके इसके लिए ढंग का सूप और पतली खिचडी बना लाती हूँ।"
मै जैसेही घर पोहोंची, खाना चढ़ा दिया, कपडों की मशीन चला दी। ये सब करही रही थी के फोन आया," उसे डिस्चार्ज मिल रहा है!"
मै खुश हो गयी। भागके उसका कमरा ठीक किया। तकिये रचाए। बिटिया घर पोहोंची तो सब तैयार था। वो पहले मेरे कमरेमे आयी। मैनेही विनती की। मुझे उसी कमरेमे सोके उसका ध्यान रखना ज्यादा आसान होगा।
वहाँ पे तकिये आदी रचाके उसे बिठाया और मै सूप और खिचडी ले आयी। जैसेही पहला कौर मुहमे गया, मेरी लाडली चींख पडी," माँ!! ये क्या है??इसमे कितना नमक पडा है!"
मैंने हैरान होके खिचडी चखी। नमक तो ठीक था!!इनसेभी चख्वा ली । इन्हों नेभी कहा,"हाँ! नमक तो ज़्यादा नही लग रहा!"
लेकिन बिटियाने खिचडी हटा दी। सूप पिया। खिचडी मे मैंने बादमे और चावल मिला दिए। कुछ देरके बाद बिटियाने कहा," मुझे मेरेही कमरेमे ले चलो। मुझे यहाँ आराम नही लग रहा"।
मै उसे वहाँ ले गयी। कई रानते उसके साथ सोती रही। अस्पतालमे अगर मेरे सोनेवाले सोफेका हल्का-साभी आवाज़ होता मेरी लाडली दहाड़ उठती ,"माँ!! आप कितना शोर करती हो! मुझे क़तई आवाज़ बर्दाश्त नही होता! आप क्यों ऐसा करती हो?"
मै खामोश रहती। कोई बात नही। अपने नैहरमे आयी लडकी है। माँ पे कुछ तो अपनी चलायेगी!!
मैंने एकदिन उसे कह दिया," बेटा इसतरह का आराम तुम्हे अमेरिकामे कोई दे सकता था? न तुम्हे बाज़ार जानेकी फ़िक्र, न घरका कोई दूसरा काम...तुम जो चाहती हो मै हाज़िर कर देती हूँ...ड्राईवर तैनात है....कपड़े धुले धुलाये, इस्त्री होके मिल जाते हैं....एक दिनमे मैंने तुम्हारे लिए दो नाईट गाऊन सी दिए...जो तुम मुहसे निकालती हो मै दौड़के उसका इंतेज़ाम कर देती हूँ...ये सुख परदेसमे तुम्हे हासिल होता?? "
इस बातका उसके पास जवाब नही था। वो मान गयी। पर जैसे कुछ ठीक हुई, हिन्दोस्तान और माँ दोनोपे टिप्पणी कसना शुरू हो गया! वैसे किडनी स्टोन को क्रश किए बिना वो भारत छोड्नाभी नही चाहती!!
और माँ का दिल जानता है की मै उसे कितना याद करूंगी जब वो लौट जायेगी....! अपनी पैठनी साडियां कटवा रही हूँ उसके कुरते सीनेके लिए, कढाई करकेभी सिलवा राहीहूँ ...! दिनरात मेरी लाडली के खिदमत मे लगी हूँ...पर कभी, कभी रातोंमे, जब कुछ बोहोत कड़वा बोल जाती है तो चुपचाप आँसू भी बहा लेती हूँ!!
जवाब खुदही सूझ गया,ये माँ का दिल है...ऑलाद कुछभी कह जाय, वो दुआ ही देगा!!सिर्फ़ अपने देशकी नुक्ता चीनी बार-बार नही सह पाती!!

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2 comments:

लोकेश Lokesh said...

शमा जी, कभी कभी ही ऐसा होता है कि ब्लॉग पढ़ने बाद टिप्पणी कर पाने का निर्णय लूँ!
आपकी इस बेहतरीन पोस्ट के लिये बधाई।
टिप्पणी लिखने का खास कारण बनी- इस पोस्ट की अंतिम पंक्ति।
लिखते रहिये, ऐसी ही निश्छल।

नीरज गोस्वामी said...

आप ने जो लिखा है वो बहुत इमानदारी से लिखा है...मैं आप और आपकी बेटी की उलझन समझ सकता हूँ...विदेश यात्राओं के दौरान बहुत से भारतियों से मिलना होता है...वे लोग सुविधाओं का त्याग ना करपाने के कारन उस दुनिया को जो उनकी नहीं है अपना मान बैठने को विवश हैं. बच्चे जब कड़वा बोलते हैं तो कष्ट तो होता ही है.
नीरज