Wednesday, May 30, 2007

मजरूह रूह..

एक मजरूह रूह,दिन एक,
उड़ चली लंबे सफ़र पे
थक के कुछ देर रुकी
इक वीरान सी डगर पे
गुजरते राह्गीरने देखा उसे
तो हैरत से पूछा उसे,
'ये क्या हुआ तुझे?
लहू टपक रहा है कैसे
ये नीर झर रहा कहाँ से ?'
रूह बोली,था एक कोई
जल्लाद,जैसे हो तुम्ही!
पंख मेरे जलाए
दिल किया छलनी
कैद्से हूँ उड़ चली!
था रौशनी औरोके लिए
पथदीप हज़ारोंके लिए!
मुझे गुमराह किया
लौने हरवक्त जलाया (अपूर्ण)

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