Tuesday, July 24, 2007

ऑंखें थक ना जाएँ !!

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एक माँ के दर्द की कहानी,एक हमदर्द,औरत की ज़ुबानी!
हमारा कुछ साल पेहेले जब मुम्बई से पुणे तबादला हुआ तो मेरी बेटी वास्तुशाश्त्र के दूसरे साल मे पढ़ रही थी । सामान ट्रक मे लदवाकर जब हम रेलवे स्टेशन के लिए रवाना हुए तो उसका मुरझाया हुआ चेहरा मेरे ज़हन मे आज भी ताज़ा है। हमने उसे मुम्बई मे ही छोड़ने का निर्णय लिया था। पेहेले पी.g.की हैसियत से और फिर होस्टल मे। उसे मुम्बई मे रेहेना बिलकुल भी अच्छा नही लगता था। वहांकी भगदड़ ,शोर और मौसम की वजह से उसे होनेवाली अलेर्जी ,इन सभी से वो परेशां रहती। पर उस वक़्त हमारे पास दूसरा चाराभी नही था।
जब हमने उस से बिदा ली तो मेरी माँ के अल्फाज़ बिजली की तरह मेरे दिमाग मे कौंध गए। सालो पूर्व जब वो मेरी पढ़ाई के लिए होस्टल मे छोड़ने आयी थी ,उन्होने अपनी सहेली से कहा था,"अब तो समझो ये हमसे बिदा हो गयी!जो कुछ दिन छुट्टियों मे हमारे पास आया करेगी,बस उतनाही उसका साथ। पढायी समाप्त होते,होते तो इसकी शादीही हो जायेगी।"
मेरे साथ ठीक ऐसाही हुआ था। मैंने झटके से उस ख़याल को हटाया । "नही अब ऐसा नही होगा। हमारा शायद वापस मुम्बई तबादला हो!शायद क्यों ,वहीं होगा!"लेकिन ऐसा नही हुआ।
वास्तुशाश्त्रके कोर्स मे उसे chhuttiyan
ना के बराबर मिलती थी,और उसका पुणे आनाही नही होता,नाही किसी ना किसी कारण वश मैं उस से मिलने जा पाती। देखते ही देखते साल बीत गए। मेरी लाडली वास्तु शात्रद्न बन गयी। हमारा पुणे से कही औरही तबादला हुआ,और हमे हमारे बेटे कोभी पढ़ाई के लिए पीछे छोड़ना पडा। इसी दरमियान मेरी बेटी ने आगे की पढ़ाई के वास्ते अमेरिका जाने का निर्णय ले लिया। मेरा दिल तो तभी बैठ गया था!मेरी माँ की बिटिया कमसे कम अपने देश मे तो थी!और हमारा कुछ ही महीनोमे और भी दूर तबादला हो गया। बेटाभी था उस से कही ज़्यादा दूर रह गया।
बिटिया अमेरिका जाने की तैय्यारियोंमे लगी रही।
और फिर वो दिन भी आही गया जब हम मुम्बई के आन्तर राष्ट्रीय हवायी अड्डे पे खडे थे। कुछ ही देर मे मेरी लाडली को एक हवायी जहाज़ दूर मुझ से बोहोत दूर उड़ा ले जाने वाला था। उस वक़्त उसकी आंखोंमे भविष्य के सपने थे। ये सपने सिर्फ अमेरिकामे पढ़ाई करने के नही थे। उनमे अब उसका भावी हमसफ़र भी शामिल था। उन दोनोकी मुलाक़ात जब मेरी बेटी तीसरे वर्ष मे थी तब हुई थी,और बिटिया का अमेरिका जानेका निर्णय भी उसीकी कारण था। मेरा भावी दामाद भविष्य मे वही नौकरी करनेवाला था। मेरी लाडली के नयन मे खुशियाँ चमक रही थी,और मेरी आँखोंसे कयी महीनोसे रोके गए आंसू रोके नही रूक रहे थे। वो अपने पंखोंसे खुले आसमान मे ऊंची उड़ान भरना चाहती थी,और मैं उसे अपने पंखोंमे समेटना चाह रही थी। मुझे मित्रगण पंछियोंका उदहारण देते है। उनके बच्चे कैसे पंख निकलते ही आकाश मे उड़ान लेते है,इतनाही नही बल्कि मादा उन्हें अपने घोंसले से उड्नेके लिए मजबूर करती है। लेकिन मुझे ये तुलना अधूरी सी लगती है। पंछी बार बार घोंसला बनाते है,अंडे देते है,उनके बच्चे निकलते है,लेकिन मेरे तो ये दो ही है। उनके इतने दूर उड़ जाने मे मेरा कराह ना लाजिम था।
मेरी लाडली सात समंदर पार चली गयी। हम वापस लॉट आये । सिर्फ दोनो। पति अपने काम मे बेहद व्यस्त। बड़ा सा चार शयन कक्शो वाला मकान। हर शयन कक्ष के साथ दो दो ड्रेसिंग रूम्स और स्नानगृह। चारो ओरसे बरामदोसे घिरा हुआ।
सात एकरोमे स्तिथ । ना अडोस ना पड़ोस।
मैं बेटे के कमरे मे गयी। मन अनायास भूत कालमे दौड़ गया। मेरे कानोमे मेरे छुट्को की आवाजे गूंजने लगी,उन्ही आवाजोमे मेरी आवाज़ भी ना जानू कब मिल गयी।
"माँ!देखो तो इसने मेरी यूनिफार्म पे गीला तौलिया लटकाया है,"मेरी बेटी चीख के शिक़ायत कर रही थी!"माँ!इसने बाथरूम मे देखो कितने बाल फैलाये है!छी!इसे उठाने को कहो"!बेटा शोर मचा रहा था!
" मुझे किसी की कोई बात नही सुन नी !चलो जल्दी !स्कूल बस आने मे सिर्फ पांच मिनट बचे है!उफ़!अभीतक वाटर बोतल नही ली!"मैं भी झुंझला उठी!!
"माँ!मेरी जुराबे नही मिल रही,प्लीज़ ढूँढ दो ना",बेटा इल्तिजा कर रहा था। "रखोगे नही जगह पे तो कैसे कुछ भी मिलेगा???"मैं भी चिढ़कर बोल रही थी।
अंत मे जब दोनो स्कूल जाते तो मेरी झुन्ज्लाहट कम होती। अब आरामसे एक प्याली चाय पी जाय !मुझ पगली को कैसे समझा नही कि एक बार मेरे पंछी उड़ गए तो ना जानू आखें इन्हें देखने के लिए कितनी तरस जायेंगी???
अब इस कमरे मे कितनी खामोशी थी!सब जहाँ के तहां !चद्दर पे कहीं कोई सिलवट नही!डेस्क पे किताबोंका बेतरतीब ढ़ेर नही !कुर्सी पर इस्त्री किये कपड़ों पर गीला तौलिया फेंका हुआ नही!अलमारी मे सबकुछ अपनी जगह!
"मेरा एकही जूता है!दूसरा कहॉ गया??मेरी टाई नही दिख रही!मेरी कम्पास मे रुलर नही है!किसने लिया??"बच्चों की ये घुली मिली आवाजे नही थी।" "तो मैं क्या कर सकती हूँ ???अपनी चीज़े क्यों नही सँभालते??"पलट के चिल्लानेवाली मैं खामोश खडी थी। सजे संवरे कामरोको देख के ईर्षा करनेवाली मैं.....अब मेरे सामने ऐसाही कमरा था!"लो ये तुम्हारा इश्तेहारवाला कमरा"!!!मेरे मन ने मुझे उलाहना दीं!तुम्हे यही पसंद था ना हमेशा!हाजिर है अब ये तुम्हारे लिए!सुबह उठोगी तो ये ऐसाही मिलेगा तुम्हे!"मुझे सिस्कियां आने लगी!

उस कमरे से निकल के मैं मेरी बिटियाके कमरेमे आयी। इतने दिनोसे पोर्टफोलियो के चक्कर मे बिखरे हुए कागजात,ऍप्लिकेशन फोर्म्स,साथ,साथ चल रही पैकिंग,और बिखरे हुए कपडे,अधखुली सूट केसेस ....अब कुछ भी नही था वहाँ....!मैंने घबराकर दोनो लैंप जला दिए!वो कुछ मुद्दत से बडे नियम से व्यायाम करती थी। उसने दीवार पे कुछ आसनों के पोस्टर लगा रखे थे......केवल वही उसके अस्तित्व की निशानी...खाली ड्रेसिंग टेबल (वैसे वो makeup तो इस्तेमाल नही करती थी).....ड्रेसिंग टेबल पे उसके कागज़ कलम ही पडे रहेते थे....पलंग पे फेंका दुपट्टा नही....हाँ अल्मारीके पास कोनेमे पडी उसकी कोल्हापुरी चप्पल ज़रूर थी। मैं सबको हमेशा बडे गर्व से कहती थी की मेरी बेटी मेरी सहेली की तरह है,हम ख़ूब गप लडाते है,आपसमे हंसी मजाक करते है,एकदूसरेके कपडे पेहेनते है। मुम्बई मे रेहेते हुए भी उसका परिधान सादगी भरा था। हाथ करघे का शलवार कुर्ता तथा कोल्हापुरी चप्पल।

उन्ही दिनोंकी,एक बड़ी ही मन को गुदगुदा देनेवाली घटना याद है मुझे। उसके क्लास की study tour जानेवाली थी । उसने मुझे बडेही इसरार के साथ रेलवे स्टेशन चलने को कहा . .मैं भी तैयार हो गयी। स्टेशन पोहोच के उनसे मुझे अपने क्लास के साथियोसे तथा उनके माता पिता जो वहाँ आये थे,उन सभीसे बडेही गर्व से मिलवाया। फिर मुझे शरारत भरी आखोंसे देखते हुए बोली,"माँ,अब तुम्हे जाना है तो जाओ। "

"क्यों??जब आही गयी हूँ तो मैं ट्रेन छूटने तक रूक जाती हूँ!"मैंने कहा।

"नही,जाओ ना!तुम्हें क्यों लायी थी ये लॉट के bataungee !" उसकी आंखों मे बड़ी चमक थी।

"ठीक है...तुम कहती हो तो जाती हूँ!" कहके मैं घर चली आयी। और उसके सफरसे लौटने का इंतज़ार करने लगी। वो जब लौटी स्टेशन वाली बात मुझे याद भी नही थी। अपने सफ़र के बारेमे बताते हुए उसने मुझ से कहा,"माँ तुम पूछोगी नही,केमैं तुम्हें स्टेशन क्यों ले गयी थी??"

"हाँ,हाँ बताओ,बताओ,क्यों ले गयी थी??" मैनेभी कुतूहल से पूछा!

वो बोली,"मुझे मेरे सारे क्लास को दिखाना था कि मेरी माँ कितनी नाज़ुक और खूबसूरत भी है! अभी तक उन्हों ने तुम्हारे talents के बारेमे ही सुन रखा था! हाँ ,तुम्हारे हाथ का खाना ज़रूर चखा था....पर तुम्हे देखा नही था!!जानती हो,जैसे ही तुम थोडी दूर गयी ,सारा क्लास मुझपे झपट पडा !सब kehane लगे ,अरी तुम्हारी माँ तो बेहद खूबसूरत है! तुम्हारी साडी और जूडेपे भी सब मर मिटे। "मेरे मन मे सच उस वक़्त जो खुशीकी लेहेर उठी ,मैं उसका कभी बयां नही कर सकती!हर बच्चे को अपनी माँ दुनिया शायद सब से सुन्दर माँ लगती होगी। लेकिन मेरी लाडली जिस विश्वास और अभिमान के साथ मुझे स्टेशन ले गयी थी,मुझे सच मे अपने आप को आईने मे देखने का मन किया!

मेरा मन और अधिक भूतकाल मे दौड़ गया। हमलोग तब भी मुम्बई मे ही थे। बेटी ने तभी तभी स्कूल जाना शुरू किया था। वो स्कूल बस से जाती थी। एक दिन स्कूल से मुझे फ़ोन आया। स्कूल बस गलती से उसे बिना लिए चली गयी थी। मैं तुरंत स्कूल दौड़ी । उसे ऑफिस मे बिठाया गया था। उसके एक गाल पे आँसू एक कतरा था। मैंने हल्केसे उसे पोंछ डाला,तो वो बोली,"माँ!मुझे लगा,तुम जल्दी नही आओगी,इसलिये पता नही कहॉ से ये पानी मेरी गाल पे आ गया।"

अब पीछे मुड़कर देखती हूँ ,तो लगता है,वो एक आँसू उसने मुझे दीं हुई सब से कीमती भेंट थी। काश! उसे मैं मोती बनाके किसी डिब्बी मे रख सकती!कुछ दिन पेहेले मैं अपने कैसेट प्लेयर पे रफी का gaayaa ,"बाबुल की दुआएँ लेती जा,"गाना सुन रही थी तो उसने झुन्ज्लाकर मुझ से कहा,"माँ!कैसे रोंदु गाने सुनती हो!इसीलिये तुम्हें डिप्रेशन होता है!"
एक और प्रसंग मुझे याद आया । तब हमलोग ठाने मे थे। बिटिया की उम्र कोई छ: साल की होगी। उसे उस वक़्त कुछ बडाही भयानक इन्फेक्शन हो गया।एक सौ चार -पांच तक का बुखार,मतली। उसे सुबह शाम इंजेक्शन लगते थे। इंजेक्शन देने दोक्टिओर आते तो नन्ही सी जान मुझे कहती,"माँ!तुम डरना मत!मुझे बिलकूल दर्द नही होता है!तुम दूसरी तरफ देखो। डाक्टर अंकल जब माँ दूसरी तरफ देखे तब मुझे इंजेक्शन देना,ठीक है?"मेरी आंखों मे आये आंसू छुपाने के लिए मैं अपना चेहरा फेर लेती!

वो जब थोडी ठीक हुई तो उस ने मुझसे नोट बुक तथा पेंसिल मांगी और मुझपे एक निहायत खूबसूरत निबंध लिख डाला!उसने लिखा,"जब मैं बीमारीसे उठी तो माँ ने मेरे बालोंमे हल्का-हल्का तेल लगाके कंघी की फिर चोटी बनाई। गरम पानीमे तौलिया दुबाके बदन पोंछा। फिर बोहोत प्यारी खुशबु वाला,मेरी पसंद का powder लगाया.जब मैं बीमार थी तब वो मुझे बड़ा गंदा खाना देतीं थी। लेकिन उसीसे तो मैं ठीक हुई!"ऐसा और बोहोत कुछ! मैं ख़ुशी से फूले ना समाई! वो निबंध मैंने उसकी teacher को पढने के लिए दिया और फिर वो मुझे वापस मिलाही नही! काश! मैंने उसकी इक कॉपी बनाके teacher को दीं होती! वो लेख तो एक बच्ची ने अपनी माँ को दिया हुआ अनमोल प्रशास्तिपत्रक था! एक नायाब tribute!!

अभी,अभी तक जब हम मुम्बई मे थे,वो मुझे देर रात बैठ के लंबे लंबे ख़त लिखती ,जिनमे अपने मनकी सारी भडास उंडेल देती!

पत्र के अंत मे दो चहरे बनाती,एक लिखने के पेहेलेका बड़ा दुखी सा,और एक मनकी शांती पाया हुआ,बडाही
सन्तुष्ट! उसे मेरे migraine के दर्द की हमेशा चिंता रहती।

आज हवायी अड्डे परका उसका चेहेरा याद करती हू तो दिलमे एक कसक्सी होती है!!लगता है एकबार तो उसकी अन्खोंमे मुझे,मुझसे इतना दूर जाता हुए हल्की सी नमी दिखती!!ऐसी नमी जो मुझे आश्वस्त करती के उसे अपनी माँ वहाभी याद आयेगी जितनी मुम्बई से आती थी!!काश! हवायी अड्डे परभी उसके गालपे जुदाई का सिर्फ एक आंसू लुढ़क आया होता जो मेरे कलेजेको ठंडक पोहोचाता ! एक मोती जो बरसों पेहेले मेरी इसी लाडली ने मुझे दिया था! जानती हूँ,उसका मेरे लिए लगाव,प्यार सब बरकारार है!फिरभी मेरी दिलने एक आश्वासन चाहा था!

मन फिर एकबार और एक बार बच्चों के बचपन मे दौड़ गया। हम उन दिनों aurangabadme थे । मेरा बेटा केवल दो साल का था। बड़ा प्यारासा तुतलाता था!एक रात मेरे पीछे पड़ गया,"माँ मुझे कहानी छुनाओ ना!,"उसने भोले पनसे मेरा आँचल खीचा। मैंने अपना आँचल छुडाते हुए कहा,"चलो अच्छे बच्चे बनके सो जाओ तो!!मुझे कितने काम करने है अभी!दादीमा

को खानाभी देना है!"

"तो छोटी वाली कहानी सुना दो ना!",उसने औरभी इल्तिजा भरा सुर मे कहा।

"तुम्हे पता है ना वो वी विली विन्की क्या करता है.....जो बच्चे अपनी माँ की बात नही सुनते,उनकी माँ को ही वो ले जाता है...बच्चों को पीछे ही छोड़ देता है"! कितनी भयानक बात मैंने मेरे मासूम से बच्चे को कह दीं! मुड़ के देखती हूँ तो अपनेआप को इतना शर्मिन्दा महसूस करती हूँ ,के बता नही सकती। सब कुछ छोड के एक दो मिनिट की कहानी क्यों नही सुनाई मैंने उसे?? कभी कभार ही तो वो चाहता था!

अब जब औरंगाबाद की स्मृतियां छा गईँ तो और एक बात याद आ गयी। ये बचपन से अंगूठा चूसता था और मेरी परिवार वाले मेरी पीछे पड़ जाते थे कि मैं उसकी ये आदत छुडाऊ !मुझे ख़ूब पता था कि ये आदत इसतरहा छुडाये नही छूटेगी लेकिन मैं उनके दवाव मे आही गयी। एक दिन उसे अपने पास ले बैठी और कहा,"देखो,तुम्हारी माँ अंगूठा नही चूसती,तुम्हारे बाबा नही चूसते.... "आदि,आदि अनेक लोगोंकी लिस्ट सुना दीं मैंने उसे...उसने अंगूठा मूहमे से निकाला,तो मुझे लगा,ओ वाक़ई इसपे मेरी बात का कुछ तो असर हुआ है!!अगलेही पल निहायत संजीदगी से बोला,"तो फिर उन छब को बोलो ना छूस्नेको!!".अंगूठा वापस मूहमे और सिर फिरसे मेरी गोदी मे !!..अकेलेमे भी कभी उसकी ये बात याद आती है है तो एक आंख हंसती है एक रोती है।

अभी,अभी कालेज मे भी रात मे अंगूठा चूसने वाला छुटका,सोनेसे पहले एक बार ज़रूर लाड प्यार करवाने के लिए मेरी गोदीमे सिर रखने वाला मेरा लाडला,परदेस रेहनेकी बात करेगा और मुझे उस से किसी भी सम्पर्क के लिए तरसना पडेगा...कभी दिमाग मे आयाही नही था....भूल गयी थी ये पंख मैनेही इन्हें दिए है......अब इनकी उड़ान पे मेरा कोई इख्तियार नही.....लेकिन दिलको कैसे समझाऊ??दोस्तोने फिर कहा, लोग तो बच्चे अमेरिका जाते हैं ,तो मिठाई बाँटते है.....तुम्हे क्या हो गया है????"सच मानो तो मेरा मूह कड़वा हो गया था.....!

फिर एकबार मन वर्तमान मे आ गया!!घर मे किस कदर सन्नाटा है....कंप्यूटर पे कौन बैठेगा इस बात पे झगडा नही,खाली पडा हुआ कंप्यूटर,कौनसा चॅनल देखना है टी.वी.पर,कोई बहस नही और कोई कुछ नही देखेगा ,कहके चिल्ला देने वाली मैं खामोश खडी..इतनी खामोशी के, मुझ से सही नही गयी......मैंने एक चैनल लगा दिया......मुझे घर मे कुछ तो आवाज़ चाहिए थी....मानवी आवाज़.....मेरे कितने ही छन्द थे.....लेकिन मुझे इसवक्त मेरे अपने मेरे अतराफ़ मे चाहिऐ थे......

मेरे बच्चो!जानती हूँ जीवन मूल्यों मे तेज़ी से बदलाव आ रहा है।! तुम्हारी पीढी के लिए भौगोलिक सीमा रेशायें नगण्य होती जा रही है!फिरभी कभी तो इस देश मे लॉट आना। यही भूमी तुम्हारी जन्मदात्री है। मेरी अत्माकी यही पुकार है। इस जन्म भूमी को तुम्हीने स्वर्ग से ना सही अमेरिका से बेहतर बनाना है!!मेरा आशीर्वाद तुम्हारे पीछे है और आँखें तुम्हारी वापसी के इंतज़ार मे!!कहीं ये थक ना जाएँ....गगन को छू लेनेवाले मेहेल और मांकी झोंपडी की ये टक्कर है......ऐसा ना हो के मेरे जीवन की शाम राह तकते तकते रात मे तबदील हो जाये....

समाप्त नम्र निवेदन:कृपया किसी भी लेखन का अन्यत्र उपयोग ना करें!

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

शमा जी,आप की इस रचना को पढ़ कर एक माँ के भीतर छुपे दर्द का एहसास होता है। ्बहुत ही सहज शब्दों में अपने दर्द को ब्या किया है।आप ने जो कमैन्ट्स किया था और जो मुक्तक पसंद किया था शायद उस का कारण भी यही अकेलेपन का एहसास रहा होगा।आप के कमैन्ट् के लिए धन्यवाद।