एक मजरूह रूह दिन एक
उड़ चली लंबे सफ़र पे,
थक के कुछ देर रुकी
वीरानसी डगर पे ।
गुज़रते राह्गीरने देखा उसे
तो हैरतसे पूछा उसे
'ये क्या हुआ तुझे?
ये लहूसा टपक रहा कैसे ?
नीरसा झर रहा कहाँसे?'
रूह बोली,'था एक कोई
जल्लाद जैसे के हो तुम्ही
पंख मेरे कटाये
हर दिन रुलाया, दिए ज़खम्भी
उस क़ैद से हू उड़ चली!
था रौशनी ओरोंके लिए,
बना रहनुमा हज़ारोंके लिए
मुझे तो गुमराह किया,
उसकी लौने हरदम जलाया
मंज़िलके निशां तो क्या,
गुम गयी राहभी!
किरनके लिए रही तरसती
ना जानू कैसे मेरे दिन बीते
कितनी बीती मेरी रांते
गिनती हो ना सकी
काले स्याह अंधेरेमे !
चल,जा,छोड़ मत छेड़ मुझे,
झंकार दूं मैं वो बीनाकी तार नही!
ग़र गुमशुदगीके मेरे
चर्चे तू सुने
कहना ,हाँ,मिली थी
रूह एक थकी हारी ,
साथ कहना येभी,
मैंने कहा था,मेरी
ग़ैर मौजूदगी
हो चर्चे इतने,
इस काबिल थी कभी?
खोजोगे मुझे,
कैसे,किसलिये?
मेरा अता ना पता कोई,
सब रिश्तोंसे दूर चली,
सब नाते तोड़ चली!
बरसों हुए वजूद मिटे
बात कल परसो की तो नही...
लेखीका की ओरसे नम्र निवेदन:किसीभी लेखन का बिना इजाज़त और कही इस्तेमाल ना करे।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)


My StumbleUpon Page


No comments:
Post a Comment