Sunday, October 28, 2007

दयाकी दृष्टी.सदाही रखना ! ८

मुख्याध्यापिकाने कहा,"आशा, बच्चों का इसीमे कल्याण है। ऐसा सुनहरा अवसर इन्हें फिरसे नही मिलेगा। तुम दोनो मिलकर इनको कितना पढा लोगे?और मिसेज़ सेठना अगर इसी शहर मे किसी बडे स्कूल मी प्रवेश दिला दें, सारा खर्चा कर दें, फिरभी अगर तुम्हारे बच्चों के मित्रों को असली स्थिती का पता चलेगा तब इनमे बेहद हीनभाव भर जाएगा। ज्यादा सोंचो मत। "हाँ" कर दो। "

आशा ने "हाँ" तो भर दी लेकिन घर आकर वो खूब रोई । बच्चे उससे चिपक कर बैठे रहे। कुछ देर बाद आँसूं की धाराएँ रूक गयी। वो अपलक टपरी के बाहर उड़नेवाले कचरे को देखती रही। उसमे का काफी कचरा पास ही मे बहनेवाली खुली नाली मे उड़कर गिर रहा था........

हाँ!! उसका बंगला,उसका सपनोंका बंगला,उसका अपना बंगला, कभी अस्तित्व मे थाही नही। वो हिना, वो जूही का मंडुआ ,बाम्बू का जमघट, उससे लिपटी मधुमालती, वो बगिया जिसमे पँछी शबनम चुगते थे,जिस बंगले की छतसे वो सूर्योदय निहारती ,कुछ,कुछ्भी तो नही था!

बच्चे गए। उससे पहले मिसेस सेठना ने उनके लिए अंग्रेजीकी ट्यूशन लगवाकर बोहोत अच्छी तैय्यारी करवा ली। उनके लिए बढिया कपडे सिलवाये! सब तेहज़ीब सिखलाई। एक हिल स्टेशन पे खुद्की जिम्मेदारी पे प्रवेश दिलवा दिया। वहाँ के मुख्याध्यापक तथा trustees उनके अच्छे परिचित थे। सब ने सहयोग किया।

बच्चों पर शुरू मे खास ध्यान दिया गया। मिसेस सेठना ने पत्रव्यवहार के लिए अपना पता दिया। अपने माँ-बाप देश के दुसरे कोने मे रहते हैं, तथा उनकी तबादले की नौकरी है, इसलिए हम सेठना आंटी के घर जाएँगे तथा हमारे ममी-पापा हमे वहीं मिलने आएँगे, यही सब क्लास के बच्चों को कहने की हिदायत दी गयी। शुरुमे बच्चे भौंचक्के से हो गए, लेकिन धीरे,धीरे उन्हें आदत हो गयी।
अपूर्ण

1 comment:

Udan Tashtari said...

सही है, जारी रखो. कोशिश हो एक पूरा सारगर्भित अंश एक कणिका में रहे और अगला सस्पेंश अगली कणिका का इन्तजार करवाये. सुझाव मात्र है, अन्यथा न लें.