साल भरमे उनके द्वारपर एक और खुशीने दस्तक दी। मायके पैर भरी हो गए। आशा फिर सपनोके दुनियामे खो गयी। मैं ऐसा करूंगी,मैं वैसा करूंगी,मायाकी सहेलियोंको बुलाऊंगी ,मायाकी खूब खबर रखूंगी। इश्वर मेरे आंचल मेभी समां न सके इतना भर भरके दान तू मुझे दे रहा है। बच्चे अलग रहने चले जाते है,बूढे माँ-बाप निराधार हो जाते है,पोते,पोतियोंका लाड प्यार करनेकी किस्मत कितनोको मिलती है?वो बार इश्वर के चरणों मे नतमस्तक हो जाती।
माया को यथासमय लडकी हुई। आशाको लड़कीका बेहद शौक था। लड़कियोंको सजाने-सवारनेका कुछ औरही मज़ा होता है। चलने लगेगी तो रुनझुन पाजेब बजेंगे। क्या करू और क्या न ,ऐसी उसकी हालत हो गयी। नामों की सूची बनती गयी। 'अस्मिता'नाम सबको अच्छा लगा।
नामकरण की तैय्यारी,फ़ोन,दिन महीने सरकते गए। अस्मिता बैठने लगी, चलने लगी, पाज़ेब बजने लगे,तोतले बोल और किलकारियाँ घरमे गूँजने लगीं.....
अबतक आशा तथा उसका पती सेवानिवृत्त हो चुके थे। फिर अस्मिताकी नर्सरी ,उसका खान पान,उसे पार्क मे घुमाना, लोरी गा कर सुलाना,सारा,सारा सुख वो भोग रही थी.......
इस सबके चलते एक दिन संजीव अपनी माँ को बताया कि उसे एक लडकी पसंद आयी है। उसीके कॉलेज मे पढ़ ने वाली लेकिन उसकी जूनियर । संजू बालविभागमे पोस्ट ग्राजुएशन कर रहा था। आशाने किसी भी किस्म की आपत्ती नही दिखाई,बल्कि खुद लड़किवालोंको आमंत्रित किया। लडकी के माँ-बाप दोनोही डाक्टर थे। लडकी स्मार्ट थी। उसकी एम्.बी.बी.एस के बादकी internship रह गयी थी। internship के बाद ब्याह तय हुआ।
अपूर्ण
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