Wednesday, June 11, 2008

मेरे जीवनसाथी........3

इनके गुस्सेसे जितना डरती रही उतनाही इनके कामकी प्रति लगन और प्रमाणिकतापे मुझे अभिमान है। इसके लिए मैनेभी जी-जानसे कोशिश की है। ना कभी इनसे कोई मांग की या ज़िद। हर तबाद्लेकी जगह पे ,वहाँ जो काम कर सकती, किया और खर्चेमे हाथ बटाती रही। मुझे ख़ुद इस बातका गर्व है की मैं ये कर सकी। इसकारण नई-नई कलाएँ सीखती और सिखाती रही।
बच्चों के संगोपनकी अधिकतर ज़िम्मेदारी मुझपरही रही। जब कभी मुझे माइग्रेन का atttack आता मैं पेनकिलर इंजेक्शन ले लेती और बच्चों कोभी नींद की दवाई देके सुला देती!!कभी,कभी मेरी बेटी पे उल्टा असर होता!!वो ज़्यादाही चंचल हो उठती!!
सेन्ट्रल गवर्नमेंट मे कुछ आठ नौ साल गुज़ारनेके बाद इन्हे फिर अपने काडर मे ...महाराष्ट्र मे, बुलाया गया और हमारा औरंगाबाद तबादला हो गया। इसके २/३ साल पहलेसे विनयजी ने गोल्फ खेलना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू मे जब बच्चे बीमार होते और और मुझे घरमे कुछ देर इनकी ज़रूरत होती,फिरभी ये अपने समयपे गोल्फ किट उठाके चल देते तो मुझे बड़ा दुःख होता। बादमे मैंने समझौता कर लिया और आदीभी हो गयी।
इनका हर दिन अति व्यस्त रहता। इसलिए मैंने अपने अलग शौक़ पैदा करना शुरू किया। कभी पाक कलाके वर्ग चलाती,कभी बोनसाई की कला सिखाती तो कभी पेच वर्क की चादरें बनाती। कभी कढाई,पेंटिंग आदी तकनीकों का मेल करके तस्वीरें बनाती, जो काफी सराही जाती हैं। घरका सारा फर्नीचर बोहोत सस्तेमे,सॉ मिल से लकडी लाके मैनेही बनवा लिया।
हमारे सहजीवन मे सबसे ज़्यादा कठिन बात जो मुझे लगी और लगती है वो इनका मूड संभालना!!जब हम कभी बाहर जानेवाले होते, और ये कह देते,"वाह! बड़ी जांच रही हो," तो समझो मूड ठीक है। ऐसे मौके बोहोत कम होते पर इन्ही मौकों पे मैं कभी कभार अपने मनकी बात या बच्चों के मुतल्लक कोई बात, इनसे कह पाती। इनके गुस्सेसे बच्चे या इनके सहकारी भी बोहोत डरते। विनय मुँह से कभी ज़ोरदार 'ओये" निकलता तो हमारा कुत्ता झट पलंग के नीचे घुस जाता, अर्दली अपनी जगसे उठके ठीकसे खडा हो जाता, बेटा अपने मुँह से अंगूठा निकाल, जहाँ होता वहीं पे खडा हो जाता, बेटी अपने हाथकी सब चीज़ें छोड़ सहम के दीवारसे सट जाती, और मैं धीरेसे पूछती," क्या हुआ? कुछ चाहिए आपको?"
ये सभीको मांगे-बिनमांगे सलाह मशविरा देते हैं पर इन्हे कोई कुछ नही कह सकता!!इन्हे किसीने सलाह दी हो ऐसी एकही मज़ेदार घटना याद है मुझे। मेरी छोटी बेहेन अपने दो-ढाई साल के बेटेको लेके हमारे पास कुछ दिनों के लिए आयी थी। मैं सिर दर्द के कारण लेटी हुई थी और मेरे सिरहाने बैठके मेरी बाई मेरा सिर दबा रही थी। हम तब शोलापूरमे थे। विनय ऑफिस जानेकी तैय्यारी मे आईने के आगे खड़े कंघी कर रहे थे। तभी मेरी बेहेनका बेटा हमारे कमरेमे आया और इनसे मुखातिब होके बोला,"मैं ये पेन ले लूँ?"
इन्हों ने कहा,"अबे, लेले...."
उसने फिर अपना सवाल दोहराया,"मैं ये पेन ले लूँ?'
इन्हों ने चिढ़कर फिर इसी तरह जवाब दिया! उसने चौथी बार अपना सवाल दोहराया, तब इन्हों ने बोहोत ज़्यादा चिडके कहा,"अबे कितनी बार कहूँ, लेले??बार, बार पूछ्ताही चला जा रहा है....एक बारमे समझ नही आता!!"
अब बच्चा बोला," आप ठीकसे जवाब दीजिये ना!कहिये, हाँ! लेलो बेटा, इसतरह से जवाब देना चाहिए!"हैरत से इनकी कंघी हवा मे रुक गयी और मेरा सिर दबाने वाली महिला पलंग के नीचे मुँह छुपाके अपनी हँसी रोकने लगी!
क्रमशः

4 comments:

PD said...

bahut badhiya hai ji..
aapke sari srinkhala main padh raha hun magar ye pahali tippani hai..
aap likhate rahiye.. :)

Anonymous said...

bhut hi aacha vakya hai. ase hi or likhati rahiye.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आखिर विनय जी को विनय का पाठ पढ़ाने वाले अध्यापक को बालक बनना पड़ा।

Udan Tashtari said...

बालक को क्या पता भय क्या होता है? बढ़िया सबक तो दे रहा है बच्चा. जारी रहिये.