Saturday, June 14, 2008

मेरे जीवनसाथी ...7

विनयको खाना बनानेका भी शौक़ है। इसलिए खानेके चिकित्छक भी हैं!! और शायद इसीलिए मैभी ढेरों व्यंजन बनाना सीख गयी....इस हदतक के पाक कलाके वर्गभी लेती रही!!
विनयने अपने माता-पिताकी उनके अंत तक सेवाभी खूब की। मेरी सासू माँ, उनकी उम्र के आखरी छः -सात साल नाबीना हो गयी थीं, फिरभी मैं उन्हें भाग्यशाली समझती हूँ, क्योंकी वे अपने बेटेके नज़रों से दुनिया देख सकतीं थीं। इस मामले मे विनयको मैं श्रवणकुमार कहूँगी।
इनके स्वभावविशेष का एक और पहलू ना बताऊँ तो बात बड़ी अधूरी-सी रहेगी। इनका बचपन तथा नौकरी लगनेतक का समय बेहद तंगी और अनिश्चितता के माहौल मे गुज़रा। भारत-पाकिस्तान के विभाजन के समय मेरे ससूरजी की सारी जायदाद पाकिस्तान(लहौरमे तथा रावलपिंडी)मे रह गयी। गरीबी क्या होती है, इस बात का एहसास इन्हे हमेशा रहता था। इसी सन्दर्भ मे मुझे एक बात याद आ रही है। दिवाली के दिनों मे लख्मी पूजन के रोज़ हम दोनों लोगों-दोस्तों को मिलमिला के घर लौट रहे थे। मैंने एक फटेहाल जोडेको ठेला ढोते हुए देख लिया। अपनी पर्स मैं साथ लेके नही चली थी, इस बातपे मुझे बडीही कोफ्त हुई!तभी मानो जैसे इन्हों ने मेरे मनकी बात भाँप ली हो, गाडी रुकवा दी। अपनी जेब टटोली और जितने रुपये मिले, उस जोडेको दे दिए और बोले,"अब मेरा असली लक्ष्मीपूजन हुआ!"
मैं हँस के बोली,"तो इधर भी कुछ कृपा हो जाए!"(क्यों कि मेरा जन्म लक्ष्मी-पूजन के दिन हुआ था, मेरे दादाजी ने मेरे नाम के साथ "लक्ष्मी "जोड़ दिया था, और गृहलक्ष्मी तो मैं थी ही!)
हमारी तू-तू, मैं-मैं की ये कुछ खट्टी-मीठी यादें हैं। हमारे सहजीवन की बातें करती हूँ तो ये गीत याद आता है,"यूँ चल पड़े हैं राही सफरमे, जैसे नदी और किनारा, प्यासे ही रहते हैं फिरभी किनारें, लिपटा करे उनसे धारा....!"साथ-साथ चलते हुएभी कभी-कभार जो अकेलापन मुझे लगा, वो इन्हेभी लगा होगा।जब भी दो भिन्न-भिन्न माहौल मे पले बढे व्यक्ती हमसफ़र बनतें हैं तो कुछ विचारों का संघर्ष लाज़मी होता है।कई बार मैंने अपनेआपको टूटकर बिखरा हुआ पाया,लेकिन सफर जारी रहा। ऐसे अनुभवों ने मुझे तोडा लेकिन परिपक्व और अंतर्मुखी भी बना दिया।
भविष्य किसने देखा है? मैं हमेशा चाहुँगी के ये मुझे इस दुनियासे पहले बिदा कर दें। इसमे मेरा अपना स्वार्थ है। मैं अकेले रह नही सकती। विनय तो शायद मुझे स्मशान मे छोड़, सीधा गोल्फ खेलने चले जाएं( ये गोल्फ़र्स का घिसा-पिटा विनोद है), लेकिन मैं! मैं सती तो नही जाऊँगी, हरेक एक दिन मेरे लिए तिल-तिल मरनेके बराबर होगा!
सम्पूर्ण

9 comments:

डॉ .अनुराग said...

likhti rahe....kuch sansmaran ke liye sahitiyik bhasha ki darkaar nahi rahti.

अजय कुमार झा said...

ye shamma chaahe bhee to ham bhujn e nahin denge kasam se, aur haan vinay jee ke baare mein aur bhee bataaiye na , sachee ham bor nahin honge . aap likhtee rahein , warna ham padhenge kise.

Anonymous said...

मैंने आपकी 'मेरे जीवन साथी' सीरीज की सारी पोस्ट पढ़ीं। आपके लेखन की सहजता और ईमानदारी बेहद पसन्द आयी। दुआ है कि आप लोग लंबे समय तक साथ-साथ रहें। लिखती रहें। इंतजार रहेगा।

http://hindini.com/fursatiya

दिनेशराय द्विवेदी said...

शमा जी, विनय जी की बहुत सी खूबियाँ अनछुई रह गई हैं। कि यह अंकमाला समापन ले गई।
भविष्य में बताइएगा।

Neeraj Rohilla said...

शमाजी,
आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया लेकिन "मेरे जीवनसाथी" की सारी कडियाँ पढ डाली । आपका लेखन बहुत सहज है, अब तो आपका लिखा पढने का आगे भी इन्तजार रहेगा ।

Udan Tashtari said...

पूरी सीरीज बहुत उम्दा रही. एक प्रवाह था जो हमेशा अगली कड़ी का इन्तजार करवाता रहा. ऐसे ही तो लेखन सफल कहलाता है. आगे भी आपके लेखन का इन्तजार रहेगा. शुभकामनाऐं.

डा. अमर कुमार said...

ओह हः !

बाल भवन जबलपुर said...

behatreen bebaaq

ilesh said...

puri lekh mala....yaani ki aapke jeevan ke kuchh pane ek sath padh liye...behtarin aur bhavnatmak raha...suru se leke ant tak pata hi nahi chala kab ye lekh mala aapne sampurn kardi.....ek jatka sa laga ki aare aise kaise sampurn ho gaya...ek pravah jo chal raha tha ekdam se ruk kaise gaya?.....

likhti rahe.....God bless u