एक बार विनय किसी कारण हमारे ४ सालके बेटेको डाँट के दफ्तर चले गए। बेटा उनके जानेके बाद आखों मे आँसू भरकर मेरे पास आया और बोला," माँ जी तुमने इस "आदमी के" साथ शादी क्यों की....क्यों की??मैं बोलता ल्हेता,बोलता ल्हेता था,मत करो,मत करो, फिरभी तुमने की!!"उस पूरे दिन वो अपने पिताको "वो आदमी" इस नामसे संबोधित करता रहा!!देर शाम जब ये घर आए तो फिर मेरे पास आके बोला,"आ गया वो आदमी फिरसे!"
जब मैंने ये किस्सा अपने पीहर मे सुनाया तो सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए!!
एक और वाकया याद आ रहा है। तब भी मेरे बेटेकी उम्र ४ ही वर्षकी थी। एक दिन बडेही भोलेपनसे उसने मुझे पूछा," तुमने शादी क्यों की?"
मैंने कहा,"मेरा मन था शादी करनेका इसलिए की!"
उसने हैरतसे पूछा,"तुम्हारा मन था या तुम्हे कोई सरकारी ओल्दल था शादी कल्नेका?"
मैं हँस ने लगी और बोली,"बेटा ऐसे कोई सरकारी ऑर्डर से थोडेही शादी करता है?"
उसकी आँखें औरभी गोल,गोल हो गयी,बोला,"तो तुमने अपने मल्ज़ीसे शादी की?"
मैंने उसके भोलेसे मुखडेको चूमते हुए कहा," हाँ बेटा! मैंने अपनी मर्जीसे शादी की!"
"माजी!!तुम्हारा दिमाग ख़राब हो गया था?"
अब इस मासूमियत को क्या कहिये!!जिस-जिसने ये किस्सा सुना ठहाके मारके हंस पड़े!!समेत विनय के!!वैसेभी विनय उसके भोलेपनसे कही बातों पे नाराज़ नही होते थे। बेटी क्योंकी तुतलाती नही थी, उसकी भोली बातोंकाभी वो अक्सर बुरा मान जाते और उस नन्ही जानको छोटी-सी उम्रमेही काफी डाँट सुननी पड़ती थी। खैर!
जैसे,जैसे अपने अतीतमे झांक रही हूँ, कई यादें उभर रही हैं। उनमेसे कुछ तो बयान कर सकती हूँ।
हम शोलापूरमे थे तबकी ये घटना है। औरंगाबाद मे स्टेट पोलिस गेम्स आयोजित किए गए थे। हम लोग बच्चों के साथ कारसे औरंगाबाद के लिए चल पड़े। रास्तेमे मेरे मायकेमे एक रात रुकनेका कार्यक्रम था। सुबह-सुबह हम फिर औरंगाबाद्के लिए चल पड़े। वहाँ से केवल डेढ़ घंटेका रास्ता था। उसी शाम एक कार्यक्रम का नियोजन किया गया था। ऐसे कार्यक्रम हमेशा औपचारिक होते हैं। हम लोग हमारे एक बडेही अंतरंग मित्र के परिवारके साथ उन्हीके घर रुके थे। बच्चों को खिलापिलाके मैंने सुला दिया, और बाहर आके समयके बारेमे एकबार इनको आगाह कर दिया। मेरा हमेशा इनसे आग्रह रहता था की रोज़ समय रहते एकबार अपनी युनिफोर्म आदी पे(जिसमे जूतेभी शामिल थे),नज़र डाल लिया करें। इस मुतल्लक किसीभी अन्य व्यक्तीपे निर्भर ना रहें, समेत मेरे। हालाँकी मैं बेहद सतर्क रहती थी। मेरे कहनेके बावजूद ये अपने मित्रों से बतियाते रहे। खैर, जब इनको एहसास हुआ की अब बोहोतही कम समय बचा है, ये तैयार होने कमरेमे चले गए। कुछ ही पलोंमे इन्हों ने मुझे आवाज़ देकर अन्दर बुलाया और पूछा," मेरे जूतों की थैली कहाँ है?"
मैंने डरते हुए कहा,"शायद कारकी डिकीमेही होगी!!शोलापूरसे चलते समय तो मैंने पक्का रखी थी !" मेरे सर्दियोंके दिन होकेभी पसीने छूट गए!!
मैं दौडके कारके पास गयी और डिकी खुलवाई। डिकी तो खाली पडी थी!!मैंने जब ड्राईवर से थैलीके बारेमे पूछा तो वो बोला की उसने तो रातको वो थैली निकालके मेरे मायकेमे, वहाँ के बरामदेमे रख दी थी!मुझे स्वयं इस बातकी कतई ख़बर नही थी!!मैंने तो उसे निकालनेके लिए कहाही नही था! मैंने तो केवल एक रात भर की ज़रूरत जितनाही समान उतरवाया था। सूखे हुए होठों से ये बात मैंने विनयको बताई। उसके बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया हुई ये मैं अपने पाठकों के साथ बाँटना नही चाहती!!खैर! विनयने अपने मेज़बानके जूते अपने पैरोंमे किसितरह ठूंसे और हमलोग कार्यक्रमके स्थलपे पोहोंच गए। दूसरे दिन तडके एक आदमीको मेरे पीहर दौडाया गया तथा जूते बरामद हुए!!
बात जूतों की निकली तो जूतों काही एक और प्रसंग तो बेहद मजेदार है!!मतलब के अब मज़ेदार लग रहा है।
क्रमशः
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