Friday, June 13, 2008

मेरे जीवनसाथी...6

विनय को हमेशा मुझसे ये शिकायत रही के मैं उनके युनिफोर्म पे कितने स्टार लगे हैं, कैसे लगे हैं, पदक किस तरह से लगाए जाते हैं, हरेक तरक्की के बाद स्टार्समे क्या फर्क पड़ता है, आदी बातों को ठीकसे याद नही रखती। इसकी एक वजह शायद ये होगी के जब हमारी शादी हुई तबसे के हम औरंगाबाद आए तबतक(तकरीबन ९ साल) विनय डेप्युटेशन पे थे। वहाँ युनिफोर्म नही पेहेनना होता था। मुझे उन्हें रोज़मर्रा के कपडों मे देखने की आदत-सी हो गयी थी।
और फिर मेरे मनमे एक धारणा बैठ गयी थी की मैंने तो विनय नामके एक इन्सानसे प्यार किया है, उससे शादी की है, नाकी किसी अफसरसे!इनके क्या, सारे घरके कपड़े मैं हमेशा अपने हाथों से धोती, ख़ुद इस्त्री करती,(डेप्युटेशन पे वैसेभी उस ज़मानेमे कोई अर्दली नही होते थे), बल्कि घरका साराही काम,सफाई से लेके खाना बनानेतक खुद्ही करती थी। अब जब ख़ास युनिफोर्म तैयार करने के लिए अर्दली हाजिर हैं, तो सिर्फ़ दो पल पहले विनय एकबार चेक कर लें की सब ठीक-ठाक अपनी जगह पे है तो कितना अच्छा हो!!मुझे मिगरैन की काफी तकलीफ रहने लगी थी। बच्चे छोटे थे,सास-ससुरकी पूरी देखभाल करती थी तो ये एक काम हर अफसरने ख़ुद करना चाहिए ऐसा मेरा मानना था। लेकिन ये बात मैं इनके सामने कभी नही कह पायी, येभी एक सच है...डाँट ज़रूर चुपचाप सुन लेती थी!!और येभी सच है की इतने बरसों बादभी ये एक काम मेरी समझ मेही नयी आया !!
आजभी अगर कोई मुझसे पूछे की पोलीसकी अत्युच पोस्ट्से सेवा निवृत्त होंते समय इनका युनिफोर्म कैसा दिखता था, तो मेरा जवाब रहेगा, भाई मैं तो विनय कोही निहारती रहती उनके युनिफोर्म को थोडेही!! अभिमान तो मुझे एक अत्यन्त कार्यक्षम अफसरपे था, नाकी उसके युनिफोर्म के रखरखाव का!युनिफोर्म तो हर कोई पोलिस मे भर्ती हुआ अफसर अपनी श्रेणी के अनुसार पेहेनता है, पर पेहेनके अपनी ड्यूटी कैसे निभाता है...फर्क तो सिर्फ़ यहाँ है!!कई बार ऐसे प्रसंग आए की ऊपरी दबाव और अपनी ईमानदारी इन दोमेसे एक चुनना अवश्य था। हर बार मैं विनयसे कहती, कश्मकश का कोई प्रश्न हैही नही। जो अपनी सद्सद विवेक बुद्धी को मान्य हो वही करना है, चाहे इस्तीफा क्यों ना देना पड़े। मैं उनके साथ झोंपड़े मेभी रेहनेको हरहालमे तैयार थी। खैर! ईश्वरकी कृपा कहूँ या बडों का आशीर्वाद, इनका सेवाकाल सन्मान के साथ बीत गया। महाराष्ट्र का पोलिस महकमा जिन गिने चुने अफसरान पे नाज़ करता है, विनय ज़रूर उनमेसे एक हैं। हम दोनोंने , बल्कि हमारे बच्चों नेभी सब कष्ट उठाये पर कुर्सीका अपमान कभी बर्दाश्त नही किया।
क्रमशः

5 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत अच्छा संस्मरण चल रहा है, जारी रहें.

Anonymous said...

bahut aacha vakya hai.or likhate rhe.

दिनेशराय द्विवेदी said...

एक व्यक्ति बड़ा खुद ही नहीं बनता। उस के बड़ा बनने में कई लोगों का बलिदान सम्मिलित होता है। इस बलिदान का प्रतिफल होता है केवल प्यार और प्यार, और भरोसा।

डॉ .अनुराग said...

ऐसे लोग आजकल कम ही मिलते है ओर ऐसे जीवन साथी भी....अच्छा लगा आपका संस्मरण पढ़ना .....लिखती रहे.....

अनूप शुक्ल said...

पुलिस जैसी नौकरी में ऊंचे पद से अगर कोई ईमानदार बना रहकर इज्जत से रिटायर होता है तो इसमें अफ़सर का जितना योगदान होता है, उसके घर वालों का भी उतना ही योगदान होता है। इस लिहाज से आप भी बधाई की पात्र हैं।