हाँ! तो सुनिए जूतोंका ये वाला किस्सा !सोलापूर मे रहते,जनवरी के महीनेमे विनयको प्रमोशन मिला D. I. G. के तौरपे। वो पुणे पोहोंचे "अडिशनल कमिशनर" के पद पे। क्योंकि ये स्कूलोंके मिड्सेशन के समय का तबादला था, पुणेमे घर खाली नही था। ये पुणे मे पुलिस मेस मे रहने लगे और मैं शोलापूरहीमे अपने बच्चे और सासू माँ के साथ पीछे रुक गयी। कुछ महीनों पहले इन्हे राष्ट्रपती पदक मिलनेकी घोषणा हो चुकी थी । २६ जनवरीको पदक प्रदान समारोह मुम्बई के राजभवन मे होनेवाला था। ऐसे समारोह बडेही formal होते हैं। एकसाथ कई पदक प्रदान होते हैं। एक मिनिट कीभी देरी जायज़ नही होती।
मैं अपनी बेहेन के घर, जो मुम्बई मे रहती है, सीधे शोलापूरसे पोहोंची। विनय पुणेसे पोहोंचे। जब इनके तैयार होने का समय आया तो सबने कमरा खाली कर दिया। मैभी बाहर निकल आयी। बेहेन,बहनोई और मैं तो कबसे तैयार खड़े थे। कुछ्ही पलोंमे इनकी दहाड़ सुनाई पडी,"what the bloody hell!"
हम सब एक दूसरेका मुँह ताकने लगे!!अब क्या हो गया??सभीके चेहरों पे सवाल था!!समय तो बोहोत कम बचा था। समारोहमे देरसे पोहोंचनेका सवालही नही उठता था!!मैंने घबराते हुए कमरेपे दस्तक दी। दोनों जूते एकही पैरके थे और अबके packing भी इन्होंनेही की थी!किसीपे चिंघाड़ नेका मन तो बोहोत हो रहा था इन्हे, सो मैही मिली!!जैसेही मैंने कुछ कहना शुरू किया,इन्होने एकदमसे मुझे खामोश रेहनेको कह दिया। ये तेज़ीसे घरके बाहर निकल गए!!हमलोगों ने दौडके taxee बुलाई। शुक्र था के हमारे पासेस हमारेही पास थे!!ज़ाहिर था की विनयने रास्तेमे कहीं जूते खरीद लिए क्योंकी वो हमारे पहले जूतों सहित हाज़िर थे! लेकिन जबतक मैंने इन्हे देखा नही, मैं बेहद परेशान हो उठी थी!!इतनी के राजभवन के द्वारपे जब एक अधिकारीने हमारे पासेस मांगे तो मैंने अपना goggles का केस उसे थमा दिया!
क्रमशः
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3 comments:
अभी तक के सारे अंक पढ़े। बच्चे की बात और यह कहना इस आदमी से शादी क्यों की मजेदार लगा। लिखती रहें।
बाप रे बाप-बहुत तेज गुस्सा है भई. आगे सुनाईये.
आप के जीवनसाथी विनय जी के जीवन की जो कमियाँ हैं वे सामने आ रही हैं। लेकिन लगता है वे बहुत ही कर्तव्य परायण पुलिस अफसर हैं। समय की कमी, काम की अधिकता, काम के तनाव आदि बहुत सी ऐसी बातें हैं जो जीवन मे इस तरह का टेड़ापन पैदा कर सकती हैं। जरा उन के जीवन के कुछ उजले पक्षों से भी परिचित कराएँ।
एक आप की कथा के सोपान शीघ्रता से आ रहे हैं एक दिन में दो-दो। जरा इन्हें दिन में एक ही कर दें तो पढने में सुविधा रहे। वरना अनेक पाठक इन से वंचित ही रह जाएँगे।
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