Monday, September 24, 2007

एक खोया हुआ दिन

आँसू भरी आँखोंसे उसने मैले कपडे साबुन मे भिगोए,झाड़ू लगाई,बरतन मांझे। फिर भिगाये हुए कपडे धो डाले। नहानेके बादभी बड़ी रुलाई आ रही थी,लेकिन समय कहॉ था? दालें सब्जी आदी लानेके बाद पी. टी .ए की मीटिंग मे जाना था,उसीमेसे समय निकालकर दो निवाले खाने थे।

सहेलीकी सास से भी मिलना था,या फिर उनसे कलही मिला जाय?आज आसार नज़र नही आ रहे थे।

वो पी.टी.ए.की मीटिंग के लिए स्कूल पोहोंची। वहाँ उसको ख़याल आया कि बिटियाको अच्छा खासा बुखार चढ़ा हुआ था। घर लॉट ते समय वो बिटिया को डाक्टर के पास ले गयी। डाक्टर ने ख़ून तपासने के लिए कहा। रिपोर्ट दुसरे दिन मिलेगी। लेकिन डाक्टर को मलेरिया की शंका थी। हे भगवान्! बच्चों का यूनिट टेस्ट तो सरपर था। लेकिन कोई चारा नही था। वो घर पोहोंची। बच्चों के कपडे बदले। बच्ची को बिस्तरपर लिटाया। दवाई दीं। उसके सरमे दर्द था,सो थोडी देर वो पास बैठकर दबाने लगी। कुछ देर के बाद बच्ची की आंख लग गयी। उसके पास वो स्वयम भी लेटी। लेकिन तभी कॉल बेल बजी। कौन होगा इस वक़्त सोचते हुए उसने दरवाज़ा खोला तो माजी खडी थी। वे अपनी बहेन के पास हफ्ताभर रेहनेके इरादेसे गयी थी, लेकिन पैर मे मोंच आनेके कारण लॉट आयी। वहाँ देखभाल करनेवाला कोई नही था। वो उन्हें उनके कमरेमे ले गयी। पैरपे लेप लगाया। तबतक दोपहर के साढेचार बज रहे थे। उसने दो कप चाय बनाई। माजी का पैर काफी सूज रहा था,इसलिये उसने पती को फ़ोन पे कहा के घर लॉट ते समय डाक्टर को ले आयें।

फिर वो अपनी बिटिया को देखने गयी। उसका माथा बोहोत गरम लगा इसलिये ठंडे पानीकी पट्टियां रखना शुरू की। उसके पैरोंके तलवे भी ठंडे पानीसे पोंछे। रातमे क्या भोजन बनाया जाय येभी वो मनही मन सोंच रही थी। बिटिया को खाली पेट दवाई नही देनी थी पर वो क्या खायेगी इस बातकी उसे चिंता थी। अंत मे उसने खिचडी बनाई। घियाकी सब्जी बनाई। इन दोनो चीजोंको माजी हाथ भी लगायेंगी ये उसे मालूम था। उनके लिए उसने पालक पूरियोंकी तैयारी की और तभी उसके ध्यान मे आया, कि वो दही जमाना भूल गयी थी। वे बिना दहीके पूरियां खाने से रही! और दहीभी घरका जमाया हो। सोंचते,सोंचते उसने बेटेका स्कूल बैग खोला। डायरी चेक की। तय ना होनेका रिमार्क थाही। होम वर्क ज़्यादा नही था। उसने बेटे को टी.वी. के सामने से उठाया। वो छुटका होमवर्क के लिए तंग नही करता था।

दही के लिए उसने अपनी एक सहेली को फ़ोन लगाया। दही कैसे जमाना वो सहेली इसीसे सीखी थी। सहेली दही देके चली गयी। पती डाक्टर को लेकर घर आये। उन्होने माजीके पैरको एलास्टोप्लास्त लगाया। ये सब हो जानेपर उसने बिटिया को थोडा सा खाना खिलाया। बेटे को खाना परोस कर वो सामने बैठी रही। उसने थोडा नाटक करते हुए खाना खाया। पती अपनी माँ के पास बैठे थे। उन दोनो का खाना उसने माजी के कमरेमेही परोसा,फिर बोली,"आप आप माजी के कमरे मे ही सो जयिये। रात मे उन्हें बाथरूम जाने मे अन्यथा मुश्किल होगी"।

उसने स्वयम बच्चों के कमरे मे सोने का सोंचा।

सब निपट्नेके बाद उसने थोड़े बरतन मांझे। जब सब सो गए तो वो अपनी सहेलीसे बडे दिनोसे एक किताब लाई थी,उसे पढने लैंप जलाकर आराम से कुर्सी पर बैठ गयी। तभी बिजली गुल हो गयी। ज़िन्दगीका एक और दिन अपनी हाजरी लगाकर खो गया।

Friday, September 21, 2007

एक खोया हुआ दिन

अपने बेडरूम मे बिस्तर बनानेसे पेहेले वो रसोई की ओर पतिदेव का डिब्बा तैयार करनेके लिए गयी। इसके लिए उसे रात के कुछ बरतन मांझने पडे। फिर उसने जल्दी-जल्दी कुकर चढाया। सब्जी काटी। एक ओर सब्जी बघारके रायता बनाया। कुकर उतारकर रोटियां बेलने लगी। तबतक पतिदेव कभी अखबार पढ़ रहे थे तो कभी चैनल सर्फिंग, या फिर आराम कुर्सीपे केवल सुस्ता रहे थे। अंतमे वे नहाने के लिए उठे। डिब्बा तैयार करके वो नाश्ता बनानेमे जुड़ गयी। वो बाथरूम मे घुसने के बाद पहले शेव करेंगे, फिर नहायेंगे,ये सोंचकर उसने झटपट अपने बेडरूम का बिस्तर बाना लिया।

तभी बाथरूम का दरवाज़ा थोडा सा खोलकर वो चिल्लाये,"उफ़! मेरा तौलिया नही है यहाँ! हटाती हो तो तुरंत दूसरा रखती क्यों नहीं? और बाज़ार जाओ तो मेरा साबुन भी लाना। तकरीबन ख़त्म हो गया है। कल भी मैंने तुमसे कहा था। पतिदेव तुनक रहे थे।

बिल्कुल आखरी समय नहाने जातें हैं और फिर सारा घर सर पे उठाते है। कौन समझाए इन्हें? वो झट से tauliya ले आयी। अब किसीभी क्षण बाहर आएंगे और नाश्ता मांगेंगे । उसे खुद सुबह से चाय तक पीनेकी फुर्सत नही मिली थी। उसे फुर्सत मे चाय पीनी अच्छी लगती थी और सुबह फुर्सत नाम की चीज़ ही नही होती थी। एक ज़मानेमे चाय का मग हाथ मे पकड़ कर वो काम करती थी, फिर उसने वो आदत छोड़ ही दीं।

पती के नाश्ते के लिए उसने आमलेट की तैयारी और उसे तलने के लिए डाला। पतिदेव बेडरूम मे आ गए थे। तभी फ़ोन की घंटी बजने लगी।

"ज़रा फ़ोन उठाएंगे आप?"उसने पूछा।

"तुम ही देखो ,और मेरे लिए हो तो कह दो मैं निकल चुका हूँ,"आख़िर फ़ोन के लिए वही दौड़ी। फ़ोन बेहेनका था। अमेरिकामे रहनेवाली,उनकी जानसे प्यारी मासी चल बसी थी,अचानक। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। मासी के साथ बिताये कितनेही पल आंखों के सामने दौड़ गए। दोनो बहने फोनपे रो रही थी। लेकिन पतिदेव शोर मचाके उसे वर्तमान मे ले आये।

'सुबह,सुबह इतनी देर फ़ोन पे बात करना ज़रूरी है क्या? तुम्हें गंधभी नही आती?? टोस्ट जल गए,आमलेट जल गया।"

"तुझे बाद मे फ़ोन करूंगी " कहकर उसने फ़ोन रख दिया।

उसकी आंखों की ओर देख के पतीजी ने पूछा,"अब क्या हुआ?"

"मासी चल बसी,दीदी का फ़ोन था।"

"ओह! सॉरी! लेकिन अब समय नही है, मैं चलता हूँ,"पती बोले।

"सुनो, मैं टोस्ट लगती हूँ, सिर्फ मक्खन टोस्ट खाके जाओ,"उसने आग्रह किया।

"नही कहा ना! मैं सुबह कितनी जल्दी मे होता हूँ ये तुम अच्छी तरह जानती हो,"कहकर उन्होने ब्रीफ केस उठाया और चले गए।

एक खोया हुआ दिन

"सॉरी,सॉरी,बाई नही आनेवाली है ये सुन के मेरा मूड एकदम खराब हो गया था,"वो धीरेसे बोली और खिंडा हुआ दूध साफ करके फिर बच्चों के कमरे के ओर मुड़ गयी। उसने झटपट बेटे को नहलाया। वो चारही साल का था। उसे तैयार करने मे सहायता करनीही पड़ती थी। तब तक बेटी भी उठ गयी थी। जब बिटिया नहाने गयी तो ये फिर रसोईमे दौड़ी। झटपट पराठे बनाके डिब्बे तैयार कर दिए,वाटर बोतल्स भर दीं तथा झट से कपडे बदले और बच्चों को लेकर स्कूल के बस स्टॉप पे आ गयी। खडे,खडे लडकी की पोनी टेल ठीक की। इतनेमे बस आही गयी। बच्चे बाय कर के चल दिए।


आज कपडे धोना,बरतन मान्झना ,बाथरूम साफ करना आदि सब काम उसीके ज़िम्मे थे। बच्चों के बिस्तर बनाने और पेहेले दिन के मैले कपडे उठाने के लिए जब वो बच्चों के कमरेमे गयी तो देखा,बेटे की टाई बांधना भूल गयी थी। अब उसे बेकार ही रिमार्क मिलेगा ये सोंच के उसे बुरा लगा।

Wednesday, September 19, 2007

कहानी:एक खोया हुआ दिन

क्या उसकी किसीने दिशाभूल कर दीं थी? ये रास्ता ख़त्म क्यों नही हो रहा था?हर थोडी देर बाद वो किसीसे दिशासे दिशा पूछ रही थी। उसकी मंज़िल की दिशा। कोई दाहिने जानेको कहता तो कोई बाएं मुड़ नेको कहता। वो बेहद थक गयी थी, लेकिन् अब बीचमे रुकनाभीतो मुमकिन भी तो नही था। लेकिन उसे जान कहॉ था? अचानक वो खुद भूलही गयी। अब वो घबराहट के मारे पसीने पसीने हो गयी। अब क्या किया जाय?और क्या आवाज़ है ये?इतनी कर्कश! उफ़! बंद क्यों नही हो रही है? और फिर वो अचानक नीन्द्से जग पडी। वो अपने बिस्तरमे थी और वो आवाज़ दरवाज़ेकी घंटीकी थी। तो वो क्या सपना देख रही थी! उसने राहत की सांस ली!!

वो झट से उठी , ड्रेसिंग गाऊंन पहना और दरवाज़ा खोला। दूध लानेवाला छोकरा दरवाज़पर दूध की थैलियाँ छोड़ गया था। उसने उन्हें उठाया और रसोई घरमे रख दिया। बाथरूम मे जाकर मूह्पे पानी मारा,ब्रुश किया और बच्चों के डिब्बेकी तैय्यारिया शुरू की। कल दोनोने आलू-पराठें मांगे थे। आलू उबलने तक उसके पतीभी उठ गए। "ज़रा चाय बनाओ तो तो,"पतीकी आवाज़ आयी। उसने चायके लिए पानी चढाया और एक ओर दूध तपाने रख दिया और झट बच्चों को उठाने उनके कमरेमे पोहोंची।

पेहेले बिटिया को उठाने की कोशिश की, लेकिन,"रोज़ मुझेही उठाती हो! आज संजूको उठाओ ,"कह कर वो अड़ गयी।

"बेटा, तुम्हारी कंघी करनेमे देर लगती है ना इसलिये तुम्हे उठाती हूँ, चलो उठोतो मेरी अच्छी बिटिया,"उसने प्यारसे कहा।

"नही,आज उसेही उठाओ,"कहकर बिटियाने फिरसे अपने ऊपर चद्दर तान ली।

अन्त्मे उसने संजू को उठाया। वो आधी नींद मे था। उसका हाथ पकड़ के वो उसे सिंक के पास ले गयी और उसके मूह्पे पानी मारा तथा हाथ मे ब्रुश पक्डाया । गीज़र पहलेही चला रक्खा था। चाय बनाने के लिए वो मुड्नेही वाली वाली थी कि फिर दरवाज़ेकी घंटी बजी। दरवाज़ा खोला तो अख़बार पडे देखे। कामवाली बाई अभीतक क्यों नही आयी?उसके मनमे बेकारही एक शंकाने सिर उठाया। वो फिर रसोई की ओर भागी। पानी खुल रहा था। उसने झट से चाय बनायी और अपने पती को पकडा दीं । वह अखबार लेकर ड्राइंग रूम मे चाय पीने लगा।

बच्चों के कमरेमे क्या चल रहा है ये देखने के लिए वो फिर उस ओर मुड्नेही वाली थी कि तभी फिर बेल बजी।

"अमित ज़रा देखोना, कौन है! बाई ही होगी!,"वो इल्तिजाके सुर मे बोली।

"कमाल करती हो! तुम खडी हो और मुझे उठ्नेको कहती हो,"पतिदेव चिढ़कर बोले।

उसने दरवाज़ा खोला तो बाई की लडकी खडी थी।

"अरे,तू कैसे आयी?"

"माँ बीमार है,वो तीन चार दिन नही आयेगी,ये बताने आयी,"लडकी ने जवाब दिया।

इस लडकी को इसी ने स्कूल मे प्रवेश दिलवाया था। बाई नही आयेगी ये सुनकर उसका मूड एकदम खराब हो गया। आज पी.टी.ए.की मीटिंग थी। सहेली की सास बीमार थी,उसेभी मिलने जान था। रात के खाने के लिए सब्जियाँ लानी थीं। उसका वाचन तो कबसे बंद हो गया था। बाई की लडकी तो कबकी चली गयी लेकिन वो अपने खयालोंमे खोयी हुई दरवाज़ेपर्ही खडी रही। अचानक उसे रसोयीमेसे बास आयी। दूध उबल रहा था। वो दौड़ी। गंध पतीको भी आयी। वो फिरसे चिढ़कर बोले, 'क्या,कर के रही हो?कहॉ ध्यान है तुम्हारा?तुम्हे पता हैना कि दूध उबल जाता है तो मुझे और माको बिलकुल अच्छा नही लगता?"

Monday, September 10, 2007

आकाशनीम

"मीना,
इतने सालोंबाद तुम्हारे नाम के आगे क्या संबोधन लिखूं, नही जनता। लेकिन इतने सालोंबाद हिदोस्तान और फिर रामनगर खींच लानेवाली तुम्ही हो। मैं शाम जब रामनगर पोहोचा तो सीधे तुम्हारे घर आया। वहाँ आकर माजी के बारेमे ,नरेंद्र के बारेमे पता चला। मुझे बेहद दुःख हुआ। पता नही, इतने साल तुमने किस तरह अकेले काटे होंगे!!तुम भी घरपर नही हो सो मैंने होटल मे ठहरने का इरादा लिया है। चिट्ठी तुम्हारे बूढ़े नौकर रामूको देकर जा रहा हूँ। होटल का कार्ड साथमे है। तुमसे मिलनेकी बेहद इच्छा,इंतजार है। आशा है तुम चिट्ठी पढ़ही मुझसे सम्पर्क ज़रूर करोगी।
तुम्हारा
स्टीव"
मीनाक्षी दौड़ते हुए हवेली के पिछवाडे गयी जहाँ रामूकाका का घर था और उन्हें ज़ोर जोरसे आवाज़ लगाके जगाया,"रामू काका!!ये चिट्ठी आयी थी और तुमने मुझे तुरंत बताया क्यों नही?"

रामूकाका hadbada के बोले "बहूजी , मैंने आपके लिखने वाले कमरे मे रखी थी। फिर दो बार मैं आपसे कहने कमरेमे झांक गया। आप लिखने मे एकदम खो गईँ थीं। मेरी आवाज़ भी नही सुनी, इसलिये उल्टे पैर लॉट गया। सोंचा,सवेरेही बता दूंगा।"
"अच्छा,अच्छा,अब ड्राइवर को तुरंत इस होटल के पतेपे भेजो। वहां स्टीव साहब रुके हैं, उन्हें लाना है,"कहते हुए उसने रामूकाका को होटल का कार्ड थमाया। फिर दौड़ी आकाशनीम की तरफ। तना पकड़ के उसे झकझोरा । सफ़ेद,सुगन्धित फूलोंकी वर्षा हो गयी। महक छा गयी। स्टीव आ गया था। उसका स्वागत करना था। अब उन्हें कोयीभी शक्ती दूर नही करेगी। नियती के घटना क्रम मे वो नियत क्षण आ गया था। वो हारी नही थी। उसने उस सुबह की, उस सुहाने सूर्योदयकी प्रतीक्षा की थी जो जल्द ही होनेवाला था। एक निश्चित उषा:काल ,सिर्फ भीक मे मिली सूरज की बिछडी किरण नही,शामकी लालिमाकी लकीर नही।

समाप्त

आकाशनीम

पूर्णिमा अपनी दादीकी मृत्युसे हिल गयी थी। मेरा दुःख मैं शब्दोंमे बयाँ नही कर सकती। कहनेको वो स्त्री मेरी सास थी लेकिन मुझे कितनी अच्छी तरह समझा था! मेरी कमजोरी जानकार भी कभी मुझे उलाहना नही दीं थी, बल्कि उसे मेरा समर्पण कहा था। नरेंद्र अन्दरही अन्दर अपना दुःख पी गए। जब माजी की दहन क्रिया के बाद वे घर आये तो मैं उनसे लिपटकर ख़ूब रोई थी। तब ना तो वे मेरे पती थे,केवल एक हितचिन्तक, स्नेही, जो मेरी क्षती को, मेरे अपर दर्द को ख़ूब भली भांती समझते थे। मेरी पीठ पर हाथ फिरकर वे मुझे सांत्वना देते रहे। उनके व्यक्तित्व मे महानता का एक वाले औरभी बढ़ गया। अन्दर ही अन्दर दर्द नरेंद्रनेभी बेहद सहा होगा।

मुझे कई बार महसूस होता जैसे नरेंद्र किसी अपराध-बोध तले दबें हो । माजीकी मृत्युके ठीक छ: साल बाद नरेंद्र को र्हिदय विकारका पहला झटका आया। उसमेसे तो वो बच गए, लेकिन दो साल के बाद जो दूसरा झटका आया उसमे वे नही बच पाए। एक महान कलाकार का, एक महान इन्सान का, जो मेरा पती था , लेकिन मेरी दीदीका प्रेमी था, अंत हो गया।

इतनी बड़ी हवेलीमे नौकरोंके अलावा केवल मैं और पूर्णिमा रह गए। नरेंद्र के बाद्के दो वरषोमे मैं और पूर्णिमा सहिलियाँ-सी बन गयी। पूर्णिमा मुझसे कभी कुछ नही छिपाती, नाही मेरी कोई बात टालती। वैसेभी वो अपनी उम्र से बढकर संजीदा थी। एक दिन उसने मेरा "आकाशनीम" काव्यसंग्रह पढा ,तो मुझ से पूछ बैठी,"मासिमा , तुम्हारी कवितामे इतनी वेदना क्यों है?क्या तुमने इतनी वेदनाका सचमुच अनुभव किया है?"

"पूर्णी, आज मैं तुम्हें अपने अतीतके बारेमे बिलकूल सच,सच बताऊंगी , एक सहेली मानकर,"मैंने कहा और उसे उसकी माके बारेमे,स्टीव के बारेमे और उस स्नेहमयी औरत, जो उसकी दादी थी, सब कुछ बता दिया। बल्कि , नरेंद्र और माजी की प्रेरणा सेही मैंने अपने लेखनको प्रकाशित करना आरम्भ किया था।

पूर्णी मन्त्र मुग्ध-सी सुनती रही। जब मैं रुकी तो बोली," मासीमा! क्या स्टीव का पता तुम्हारे पास नही है?"

"पगली!!उस बात को बारह,तेरह साल बीत गए। ऐसे कोई मेरे इंतज़ार मे बैठा थोडेही होगा ?और फिर तू जो है, तू मेरे लिए क्या है तू खुद नही जानती। ना जाने मैं ऎसी कितनी जिंदगियां तुझ पे वार दूं! सच मान, पूर्णी, मुझे अपनी औलाद ना होनेका एक पलभी कभी दुःख नही हुआ।"

मैंने उसका सर अपनी गोदीमे रखते हुए कहा। अठारह साल की पूर्णी कितनी नीला दीदी जैसी दिखती थी, उतनीही सुन्दर, नाज़ुक,उतनीही स्नेहमयी।

फिर उसेभी दिल्ली होस्टेल्मे जाना पड़ गया पढ़ाई के लिए। जाते समय हम दोनो पहले तो एक दूसरेसे छिपकर,फिर एकदूसरे को गले लगाकर कितना रोये थे! मैं उसे छोड़ने दिल्ली गयी थी,जब लौटी तो वो सफ़र मुझे कितना अंतहीन लगा था!!किसी दिन वो ब्याह के बाद चली जायेगी, तो मैं कितनी अकेली हो जाऊंगी, ये ख़याल कितना असह्य था। फिर वही वेदना, वही दर्द मेरी धमनियोंसे बहकर कागज़ पर उभरता रहा। मेरे प्रकाशित कव्यसंग्रहोने मुझे शोहरत के शिखर पे बिठा दिया,जहाँ उतनीही तनहां हूँ,जितनी के पहले थी।"

इतना लिखके मीनाक्षीने कमरेकी घड़ीमे देखा। सुबह के चार बजने वाले थे। घड़ी के नीचे शीशम की एक लम्बी-सी मेज़ रखी हुई थी। उसे उसपर एक बंद लिफाफा नज़र आया। उसने अचरज से उसे उठाया और उसपे लिखा अपना नाम पढा। कुछ पल उसे विश्वास ही नही हुआ। स्टीव की लिखावट! उसने खोलनेसे पहले लिफाफेको कांपते हाथोंसे कुछ देर पकड़े रखा। कहीं ये भ्रम ना हो!! फिर खोल के उसे पढने लगी,"............

अगली किश्त मे

आकाशनीम

"घबराओ मत मीनू! ये कोई अदालत नही है। मैनेभी प्यार किया है। अगर तुम्हे स्टीव से प्यार हो गया तो कोई पाप नही है। अपराध तो तुमसे नियातिने किया है। आगे जब भी तुम्हरा दिल घबराए, तुम उदास महसूस करो, मेरे पास चली आना। यकीन मानो, मीनू, मैभी इन आंखों मे ऎसी गहरी उदासी देखता हूँ तो मेरा मन घबरा उठता है। आओ, तुम्हे पूर्णिमाके कमरेमे ले चलता हूँ।"

उस धैर्य और गामभीर्य की प्रतिमूर्ती के प्रती मैं और भी नतमस्तक हो गयी। इतने विशाल र्हिदयी पुरुषकी , इतने महान कलाकार की पत्नी होनेका सौभाग्य नियती ने मुझे दिया था लेकिन मेरे साथ ये विडम्बना भी कर डाली थी के ये रिश्ता केवल नाम मात्र के लिए हो कर रह गया था।

येही नियती का विधान था।

और माजी! वो स्नेह की उमड़ती अविरल धरा, जिसने बार, बार सरोबार किया था, जिसने मुझे दियाही दिया था, माँगा कुछ नही था, उनके बारेमे क्या कहूँ!!उनकी उम्र ज्यादा नही थी। मुझे याद आया, दीदी के विवाह का दिन, जब सब माजी को नरेंद्र की बड़ी बहन समझ रहे थे। तेजस्वी कान्ती,गौरवर्ण , काले घने बाल, फूर्तीली चाल,हँसमुख, शालीन चेहरा, किसेभी मोह ले! दीदीकी मृत्युने उनके जीवनके कई साल छीन लिए थे। वे बुढिया गयी थीं।

उनके मृत्युकी पूर्व संध्या मुझे याद है। बेहद कमजोर हाथोंसे उन्होने मेरे माथेको छुआ था और कहा था," बेटी, मैं तेरी रुणी हूँ। तूने पूर्णिमा और नरेंद्र के लिए, मेरे लिए, इस घरके लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया। बदलेमे तूने क्या पाया ये मैं नही जानती, लेकिन क्या खोया ये जानती हूँ। किसी ना किसी रुपमे, कभी ना कभी, तेरा समर्पण तुझे फल देगा। इंतज़ार करना।"

मैं अवाक् सुन रही थी। मैंने उस दुबले पतले शरीरमे अपना मूह छुपाया और अपने आसुओं को राहत देदी। माजीने सूरजकी पहली किरनके साथ आख़री सांस ली थी।

Sunday, September 9, 2007

आकाशनीम

स्टीव जानेके चौथे दिनही लॉट आया तो मुझे बड़ा आनंद मिश्रित अचरज हुआ।

"अरे तुम?" तुम को और चार रोज़ बाद आना था ना?मैंने पूछा।

स्टीव ने कहा ,"हाँ! लेकिन एक बात एकदम सच, सच बताऊँ तो बुरा तो नही मानोगी?"

"नही तो!"

"जानती हो मीना, मुझे हर सूर्यास्त के समय तुम्हारी बेहद याद आती। मुझे लगता किसीकी उदास-सी,बड़ी बड़ी आँखें मेरा इंतज़ार कर रही होन। मैंने सोंचा, जो थोडा और समय मेरा हिंदुस्तान मे बचा है, क्यों ना तुम्हारेही साथ बिताऊ?फिर ऐसा अवसर आये ना आये?"कहकर स्टीव ने बड़ी निश्छल निगाहों से मुझे देखा। मैं अन्दर तक सिहर गयी।

सच, स्टीव एक दिन चला जाएगा। फिर वही सूनापन, वही अकेलापन, अबकी बार कुछ ज़्यादाही, क्योंकी अब मुझ से मेरा कोई अत्यंत प्रिय व्यक्ती बिछड़ जाएगा, जी से मैं अपनी मर्यादायों की वजह से कह भी नही पा रही थी कि वो मुझे कितना अधिक प्रिय है। मरे जीवनमे उसका क्या स्थान है। नियति के चक्र मे ये निर्धारित नही था।

फिर रहे सहे दिनों मे हमारी दोस्ती और भी प्रगाढ़ होती चली गयी। एकदूसरेसे कितना कुछ खुलकर बतियाने लगे। स्टीव ने मेरे और कितने सारे स्केचेस बना डाले। पिछले baramade me गुज़री वो जादुई शामें, वही आकाशनीम,वही ढलता सूरज। वही तारोंभारा आसमान, दूर पश्चिम मे दिखती पहाड़ियां। यही दिन मेरे भविष्य का सहारा बन ने वाले थे। मैं इन दिनों का हर पल थाम लेना चाहती थी। हर एक पल को भरपूर जीना चाहती थी, जानती थी, ये लम्हें लौटकर फिर कभी नही आएंगे।

स्टीव जिस दिन लौटने वाला था, उसकी पूर्व संध्या मे हम जब बरमदेमे बैठे तो मेरी हालत अजीब-सी थी। शायद स्टीव की भी रही होगी।कहना इतना कुछ था लेकिन उचित अनुचित के द्वंद्व मे कह नही सकी। तभी स्टीव की निगाहें मुझ पे ठहरी हुई महसूस हुईं। जैसेही मैंने उसकी ओर देखा, उसने कुर्सीकी हत्थे पे रखा मेरा हाथ थमा और कहा,"मीना,जीवन मे कभी कमजोर मत पडा। तुम कमालकी बहादुर औरत हो। मैं ऐसा कुछ नही कहूंगा या कहूंगा जिस से तुम कमजोर पड़ जाओ। लेकिन याद रखना,मैं कभी भी भुला नही पाउंगा।"

उस एक लम्हे को थामकर मुझे सदियोंका सफ़र करना था। वही दो पलका स्पर्श मैं आजतक नही भुला पायी। जाडोंमे मैं रामनगर छोड़कर कभी कहीं नहीं जाती थी। इन्हीं दिनों तो स्टीव आया था। इसी आकाशनीम की गंध तले उसने मुझे वो किरण दीं थी, जिसकी मुझे चाह थी, जिस से मुझे तसल्ली कर लेनी चाहिए थी, लेकिन हुई नही थी। असीम वेदना, विछोह की वेदना, जो स्याही से कागज़ पे उतरती रही, कभी सारे किनारे लांघकर बाढ्की तरह, कभी सयंत , संयमी नववधू की तरह।

स्टीव के जाने के बाद मेहमानों वाला कमरा मैंने अपना लेखन का कमरा बनवा लिया और मेहमानों के लिए घरके पूरब मे बाना एक कमरा ठीक करवा लिया।

स्टीव ने जाने के बाद दो पत्र लिखे जो मेरे और नरेंद्र के नाम पर थे। मैंने मन ही मन कितने जवाब दे डाले लेकिन पता नही क्यों,पत्रोंमे अपनी भावनाओं का प्रदर्शन करते हुए मेरे हाथ हमेशा रूक गए। जिस रास्तेकी कोई मंज़िल ना हो उस पर चलकर फिर लौटना पड़ जाये तो कितनी थकन ,कितना दर्द होता है, ये मैं जान गयी थी। और आगे बढकर लौटनेसे क्या फायदा? अधिक दर्द सहनेकी ताक़त मुझ मे नही थी, वोभी चुपचाप, पूर्णिमा, माजी,नरेंद्र, सबके आगे मुखौटा पहन कर। माँ-बाबूजी को तो मैंने अपने निजी जीवन की थाह कभी लगनेही नही दीं थी। उन्हें मैं कोई तकलीफ पोह्चाना नही चाहती थी।

उन दो पत्रों के बाद स्टीव की ओरसे और कोई पत्र नही आया। मुझे लगा,मेरे जीवनका एक निहायत सुन्दर अध्याय किसी सपनेकी तरह ख़त्म हो गया।

एक दिन देर रात मैं अपने कमरेमे लेखन कर रही थी लेकिन स्टीव की याद इस्कदर सता रही थी कि ना जाने मैं कब वहाँसे उठकर नरेंद्र के स्टूडियो मे चली गयी और अचानक से उनकी पीठ से लिपटकर रो पडी। उन्हों ने मेरी बांह पकड़कर स्टूडियो मे रखी कुर्सी पे बिठाया और हलके,हलके मेरा सिर थपथपाते रहे। वे काफी देर खामोश रहे। जब मेरी सिस्कियां कुछ कम हुई तो बडे प्यारसे बोले,"स्टीव की बोहोत याद आ रही है मीनू?"

मुझे काटो तो ख़ून नही! मैं चौंक कर खडी होने लगी ,"नरेन्द्र!!"

आकाशनीम

रातमे खानेके बाद मैंने पूर्णिमा को लम्बी सी कहानी सुना के सुलाया। नरेन्द्र स्टूडियो मे चले गए। मैं और स्टीव बगीचे मे आकाशनीम के तले कुर्सियां डालकर बैठ गए। कुछ देर की छुप्पी के बाद स्टीव ने कहा,"मीना, तुम वाकई पूर्णिमा की माँ बन गयी हो। ऐसा त्याग हमारी पश्चिम की संस्कृती मे देखने को नही मिलता। "

"स्टीव हमारे देश मे ऐसा कई बार होता है। पहली पत्नी के मृत्यु के बाद अगर अगर उसकी कोई औलाद हो और पत्नी की ग़ैर शादीशुदा बेहेन हो, तो औलाद के खातिर उसकी बेहेन से शादी कर दीं जाती है। कई विवाह सफल भी होते होंगे, कई मुखौटे भी। वैसे भी सफल विवाह का कोई भरोसा तो नही। दो स्वतंत्र जीवोंका कब आपस मे टकराव हो जाय क्या कहा जा सकता है!!हिंदुस्तान मे ऐसे टकराओं को घरकी देहलीज़ के भीतर ही रखा जाता है। वैसे नरेन्द्र और मुझमे कोई टकराव, कोई अनबन नही, लेकिन...."मैं इसी लेकिन पे आके खामोश हो जाती।

"तुम नरेंद्र की माँ कीभी बोहोत सेवा करती हो। इसतरह बहु बूढ़ी, बीमार सास की सेवा करे , हमारी तरफ देखनेको कमही मिलता है। हर कोई अपनी,अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त रेहेता है। दूसरों के लिए कुछ करने की फुर्सत नही होती,"स्टीव ने कहा।

"स्टीव,वहाँ समाज का ढांचा ऐसा बन गया है। वहाँ हर किसीको कमाने के लिया बाहर निकलना पड़ता है। देखो,मुझपे ऎसी कोई बंदिश नही और मेरी सासभी निहायत अच्छी औरत है। बेमिसाल अच्छी स्त्री। उन्होने कभी भी दीदी की या मेरी ज़िंदगी मे दखल अंदाजी नही की। चलो माजी जाग रही होंगी, कुछ देर हम उनके पास बैठ जाते हैं," कहके मैं खडी हो गयी और हमलोग माजी के कमरे मे गए।

Wednesday, September 5, 2007

आकाशनीम

'नही,नही! मैंने कभी इस ओर ध्यान नही दिया, वैसे किसीको चित्र बनाते हुए देखना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन आप खाना तो खा लीजिये, फिर अपना काम शुरू करना। कुछ देर नरेन्द्र से बातें कीजीये, तब तक मैं पूर्णिमा और माजी को खाना खिलवा देती हूँ। "

"चलो, ठीक है,"स्टीव ने कहा और हम दोनो कमरेसे बहार निकल पडे। मैंने पेहेले पूर्णिमा को खाना खिला के सुलाया फिर माजी के कमरे मे उनका खाना ले गयी और अपने हाथोंसे उन्हें खिलाती रही। ये मेरा रोज़ का नियम बन गया था।

जब स्टीव ,नरेन्द्र और मैं मेज़ पे खाने बैठे तो मैंने गौर किया कि नरेन्द्र तो खामोशी से खा रहे थे, लेकिन मेरे और स्टीव के बीच बातों का सिलसिला इसतरह चला मानो हम दो बिछडे दोस्त बरसों बाद मिले हों, जिन्हें एकदूसरे से बोहोत कुछ पूछना हो,जानना हो। नरेन्द्र जल्दीही खाना खत्म करके उठ गए और फिर अपने काम मे लग गए। मैं और स्टीव बैठक मे कुछ देर बातें करने लगे। मुझे महसूस होता रहा कि हम दोनो एक दूसरेसे कितना कुछ कहना चाहते है,एक दूसरेसे किता कुछ जानना चाहते है।

दुसरे दिन मेरी आंख खुलनेसे पहले नरेन्द्र स्टूडियो मे पूरी लगन से काम कर रहे थे। मैंने पूर्णिमा को उठाके तैयार किया और स्कूल भेजा । नाश्ते की तैयारी की और स्टीव के कमरे कि ओर मुड़ गयी। दरवाजा खुला था। दस्तक देकर अन्दर गयी तो वो पिछले बरामदे मे ईज़ल रख कर चित्र अंकित कर रहा था। चित्र देख के मैं बिलकूल स्तब्ध रह गयी। पूरे चित्र पर मानो दो उदास पारदर्शी आंखें छायीं हुई थीं ,जो डूबते सुरजको निहार रही थी। चित्र पूरा नही हुआ था,लेकिन आशय स्पष्ट था। मेरी कविता।

"कैसा लगा चित्र??अभी अधूरा है वैसे,"स्टीव ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।

"स्टीव........"मैं आगे बोलना चाह रही थी कि ये चित्र अधूरा ही रहेगा। इन आंखों की उदासी मिटेगी नही, ये आँखें ताउम्र इंतज़ार करेंगी, इसे छोड़ दो,मत पूरा करो। लेकिन मुँह सूख-सा गया। होटोसे अल्फाज़ निकले नही।

"मीना,बताओ ना?"स्टीव ने फिरसे पूछा।

"स्टीव,तुम बोहोत अछे चित्रकार हो,"मैंने धीरेसे कहा।

"बस, इतनाही?"उसने पूछा।

ऐसा लगा मानो ये आदमी मुझे बोहोत गहराई तक जान गया हो, अपनी सीमा मे रहते हुए दूर,दूर तक मेरे अंतर मे पोहोंच गया हो, मेरी तनहाईयों को इसने पूरी तरह भांप लिया हो।

"हाँ! फिलहाल इतनाही। मुझे काफी काम निपटाना है। फिर तुम्हे उस पहाड़ी की दूसरी तरफ,जहाँ रामनगर का किला है ,वहाँ ले चलूँगी। नरेन्द्र ने खास हिदायत दीं है,"मैंने खुदको और वातावरण को सहज बनाने की कोशिश करते हुए कहा और चाय के प्याले वहांसे लेकर चल दीं। पर बड़ी देरतक अपने आप को सहज नही कर पायी। हे भगवान्! मुझे ये क्या हो रहा है? मैं अनायास किस लिए इसलिये खिचती चली जा रही हूँ !

आकाशनीम

कुछ देर बाद नरेन्द्र ने कहा,"अच्छा,मुझे अब कुछ देर स्टूडियो मे काम करना है। स्टीव, मीना तुम्हे तुम्हारा कमरा दिखा देगी और तुम्हे जहाँ घूमना है, घुमा भी देगी। दोगी ना मीना? दोस्त,तुम ऐसे समय आये हो जब मैं अपनी प्रदर्शनी के काम मे बेहद व्यस्त हूँ। आशा है मुझे माफ़ करोगे। "

"बिलकूल! तुम अपना काम करो मैं अपना!,"स्टीव ने कहा था और हम स्टूडियो से बाहर निकल आये थे। मैंने पेहेले स्टीव को उसका कमरा दिखाया। फिर कुछ देर रसोई मे लगी रही,कुछ देर पूर्णिमा के साथ, कुछ देर माँ जीं के साथ। बाद मे मैंने स्टीव के कमरे पे दस्तक देके पूछना चाहा कि कहीं उसे किसी चीज़ की आवश्यकता तो नही। देखा तो वो बरम्देमे बैठ निस्तब्ध उस दिशामे देख रहा था जहाँ पहडियोंकी ओटमे सूरज बस डूबने ही वाला था। पश्चिम दिशा रंगोंकी होली खेल रही थी।

अनायास मैं कमरा पार करके वहाँ चली गयी और धीमेसे बोली,"मुझेभी यहाँ सूर्यास्त देखना बोहोत अच्छा लगा था, कल इसी आकाशनीम की महक की पार्श्वभूमी मे। तुम्हे जान के हैरत होगी कि तीन साल के वैवाहिक जीवन मे मैं इस तरफ पहेली बार आयी और वो दृश्य इतना मनोरम था कि मैंने एक कविता भी लिख डाली। अपने जीवन की पहली कविता और शायद अन्तिम भी। "

"सच! क्या मैं सुन सकता हू वो कविता?" स्टीव ने बड़ी उत्सुकता और भोलेपन से पूछा।

"अरे! वो तो हिंदी मे है! उसका तो मुझे भाषांतर सुनना होगा, जोकी काफी गद्यमय होगा!,"मैंने कहा।

"कोई बात नही,सुनाओ तो सही,भाषांतर से आशय तो नही ,"स्टीव बोला।

मैंने वहीं रखे बुक शेल्फ परसे डायरी निकाली और उस कविताका भावार्थ सुनाने लगी, 'रौशनी की विदाई का समय कितना खूबसूरत होता है,लेकिन कितना दुखदायी भी।

धीरे,धीरे जब ये मखमली अँधेरा अपनी ओटमे सारा परिसर घेर लेटा है तो लगता है कभी फिर उजाला भी होगा?

क्या यही अँधेरा अन्तिम सच है या या फिर वो लालिमा जिसने पीछे डूबे गरिमामय दिनकी दास्ताँ सुनाई और फिर अँधेरे मे मिट गयी?

शायद हर किसीका सच अपना होता है। उसका अपना नज़रिया, उसका अपना उनुभाव।

मेरे जीवन मे डूबा सूरज फिर से निकला ही नही। मेरे मनके अँधेरे मे किरणों का फिर कहींसे प्रवेश ही नही।

ए शाम! मैं आज अपने मनके सारे द्वार खोल दूंगी ।

तू अपनी लालिमा की सिर्फ एक किरण मेरे लिए छोड़ जा।"

स्टीव की ओर मैंने देखा तो वो अपलक मुझे निहार रहा था। फिर बोला,"काश मैं हिंदी भाषा समझ पाता! खैर! ये तो समझ रहा हूँ कि इस कविताके पीछे सुन्दरता के अलावा असीम दर्द भी छुपा हुआ है, कारण नही जनता, लेकिन इस कविता पर एक चित्र ज़रूर बनाउंगा। अभी,आज रात मे," कह के उसने अपनी चित्र कला का सारा समन निकला, फिर बोला,"मुझे वाटर कलर अधिक अछे लगते है। क्या नरेन्द्र के साथ रहते तुम भी दो चार स्ट्रोक्स मारना सीख गयी हो या नही?"