Sunday, September 9, 2007

आकाशनीम

रातमे खानेके बाद मैंने पूर्णिमा को लम्बी सी कहानी सुना के सुलाया। नरेन्द्र स्टूडियो मे चले गए। मैं और स्टीव बगीचे मे आकाशनीम के तले कुर्सियां डालकर बैठ गए। कुछ देर की छुप्पी के बाद स्टीव ने कहा,"मीना, तुम वाकई पूर्णिमा की माँ बन गयी हो। ऐसा त्याग हमारी पश्चिम की संस्कृती मे देखने को नही मिलता। "

"स्टीव हमारे देश मे ऐसा कई बार होता है। पहली पत्नी के मृत्यु के बाद अगर अगर उसकी कोई औलाद हो और पत्नी की ग़ैर शादीशुदा बेहेन हो, तो औलाद के खातिर उसकी बेहेन से शादी कर दीं जाती है। कई विवाह सफल भी होते होंगे, कई मुखौटे भी। वैसे भी सफल विवाह का कोई भरोसा तो नही। दो स्वतंत्र जीवोंका कब आपस मे टकराव हो जाय क्या कहा जा सकता है!!हिंदुस्तान मे ऐसे टकराओं को घरकी देहलीज़ के भीतर ही रखा जाता है। वैसे नरेन्द्र और मुझमे कोई टकराव, कोई अनबन नही, लेकिन...."मैं इसी लेकिन पे आके खामोश हो जाती।

"तुम नरेंद्र की माँ कीभी बोहोत सेवा करती हो। इसतरह बहु बूढ़ी, बीमार सास की सेवा करे , हमारी तरफ देखनेको कमही मिलता है। हर कोई अपनी,अपनी ज़िंदगी मे व्यस्त रेहेता है। दूसरों के लिए कुछ करने की फुर्सत नही होती,"स्टीव ने कहा।

"स्टीव,वहाँ समाज का ढांचा ऐसा बन गया है। वहाँ हर किसीको कमाने के लिया बाहर निकलना पड़ता है। देखो,मुझपे ऎसी कोई बंदिश नही और मेरी सासभी निहायत अच्छी औरत है। बेमिसाल अच्छी स्त्री। उन्होने कभी भी दीदी की या मेरी ज़िंदगी मे दखल अंदाजी नही की। चलो माजी जाग रही होंगी, कुछ देर हम उनके पास बैठ जाते हैं," कहके मैं खडी हो गयी और हमलोग माजी के कमरे मे गए।

1 comment:

Shastri JC Philip said...

आज पहली बार आपके चिट्ठे पर आया एवं आपकी रचना का अस्वादन किया. आप स्पष्ट एवं सशक्त लिखते हैं. नियमित रूप से लिखें — शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!