Monday, September 10, 2007

आकाशनीम

"घबराओ मत मीनू! ये कोई अदालत नही है। मैनेभी प्यार किया है। अगर तुम्हे स्टीव से प्यार हो गया तो कोई पाप नही है। अपराध तो तुमसे नियातिने किया है। आगे जब भी तुम्हरा दिल घबराए, तुम उदास महसूस करो, मेरे पास चली आना। यकीन मानो, मीनू, मैभी इन आंखों मे ऎसी गहरी उदासी देखता हूँ तो मेरा मन घबरा उठता है। आओ, तुम्हे पूर्णिमाके कमरेमे ले चलता हूँ।"

उस धैर्य और गामभीर्य की प्रतिमूर्ती के प्रती मैं और भी नतमस्तक हो गयी। इतने विशाल र्हिदयी पुरुषकी , इतने महान कलाकार की पत्नी होनेका सौभाग्य नियती ने मुझे दिया था लेकिन मेरे साथ ये विडम्बना भी कर डाली थी के ये रिश्ता केवल नाम मात्र के लिए हो कर रह गया था।

येही नियती का विधान था।

और माजी! वो स्नेह की उमड़ती अविरल धरा, जिसने बार, बार सरोबार किया था, जिसने मुझे दियाही दिया था, माँगा कुछ नही था, उनके बारेमे क्या कहूँ!!उनकी उम्र ज्यादा नही थी। मुझे याद आया, दीदी के विवाह का दिन, जब सब माजी को नरेंद्र की बड़ी बहन समझ रहे थे। तेजस्वी कान्ती,गौरवर्ण , काले घने बाल, फूर्तीली चाल,हँसमुख, शालीन चेहरा, किसेभी मोह ले! दीदीकी मृत्युने उनके जीवनके कई साल छीन लिए थे। वे बुढिया गयी थीं।

उनके मृत्युकी पूर्व संध्या मुझे याद है। बेहद कमजोर हाथोंसे उन्होने मेरे माथेको छुआ था और कहा था," बेटी, मैं तेरी रुणी हूँ। तूने पूर्णिमा और नरेंद्र के लिए, मेरे लिए, इस घरके लिए अपना जीवन अर्पण कर दिया। बदलेमे तूने क्या पाया ये मैं नही जानती, लेकिन क्या खोया ये जानती हूँ। किसी ना किसी रुपमे, कभी ना कभी, तेरा समर्पण तुझे फल देगा। इंतज़ार करना।"

मैं अवाक् सुन रही थी। मैंने उस दुबले पतले शरीरमे अपना मूह छुपाया और अपने आसुओं को राहत देदी। माजीने सूरजकी पहली किरनके साथ आख़री सांस ली थी।

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