Wednesday, September 5, 2007

आकाशनीम

'नही,नही! मैंने कभी इस ओर ध्यान नही दिया, वैसे किसीको चित्र बनाते हुए देखना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन आप खाना तो खा लीजिये, फिर अपना काम शुरू करना। कुछ देर नरेन्द्र से बातें कीजीये, तब तक मैं पूर्णिमा और माजी को खाना खिलवा देती हूँ। "

"चलो, ठीक है,"स्टीव ने कहा और हम दोनो कमरेसे बहार निकल पडे। मैंने पेहेले पूर्णिमा को खाना खिला के सुलाया फिर माजी के कमरे मे उनका खाना ले गयी और अपने हाथोंसे उन्हें खिलाती रही। ये मेरा रोज़ का नियम बन गया था।

जब स्टीव ,नरेन्द्र और मैं मेज़ पे खाने बैठे तो मैंने गौर किया कि नरेन्द्र तो खामोशी से खा रहे थे, लेकिन मेरे और स्टीव के बीच बातों का सिलसिला इसतरह चला मानो हम दो बिछडे दोस्त बरसों बाद मिले हों, जिन्हें एकदूसरे से बोहोत कुछ पूछना हो,जानना हो। नरेन्द्र जल्दीही खाना खत्म करके उठ गए और फिर अपने काम मे लग गए। मैं और स्टीव बैठक मे कुछ देर बातें करने लगे। मुझे महसूस होता रहा कि हम दोनो एक दूसरेसे कितना कुछ कहना चाहते है,एक दूसरेसे किता कुछ जानना चाहते है।

दुसरे दिन मेरी आंख खुलनेसे पहले नरेन्द्र स्टूडियो मे पूरी लगन से काम कर रहे थे। मैंने पूर्णिमा को उठाके तैयार किया और स्कूल भेजा । नाश्ते की तैयारी की और स्टीव के कमरे कि ओर मुड़ गयी। दरवाजा खुला था। दस्तक देकर अन्दर गयी तो वो पिछले बरामदे मे ईज़ल रख कर चित्र अंकित कर रहा था। चित्र देख के मैं बिलकूल स्तब्ध रह गयी। पूरे चित्र पर मानो दो उदास पारदर्शी आंखें छायीं हुई थीं ,जो डूबते सुरजको निहार रही थी। चित्र पूरा नही हुआ था,लेकिन आशय स्पष्ट था। मेरी कविता।

"कैसा लगा चित्र??अभी अधूरा है वैसे,"स्टीव ने मेरी ओर देखते हुए पूछा।

"स्टीव........"मैं आगे बोलना चाह रही थी कि ये चित्र अधूरा ही रहेगा। इन आंखों की उदासी मिटेगी नही, ये आँखें ताउम्र इंतज़ार करेंगी, इसे छोड़ दो,मत पूरा करो। लेकिन मुँह सूख-सा गया। होटोसे अल्फाज़ निकले नही।

"मीना,बताओ ना?"स्टीव ने फिरसे पूछा।

"स्टीव,तुम बोहोत अछे चित्रकार हो,"मैंने धीरेसे कहा।

"बस, इतनाही?"उसने पूछा।

ऐसा लगा मानो ये आदमी मुझे बोहोत गहराई तक जान गया हो, अपनी सीमा मे रहते हुए दूर,दूर तक मेरे अंतर मे पोहोंच गया हो, मेरी तनहाईयों को इसने पूरी तरह भांप लिया हो।

"हाँ! फिलहाल इतनाही। मुझे काफी काम निपटाना है। फिर तुम्हे उस पहाड़ी की दूसरी तरफ,जहाँ रामनगर का किला है ,वहाँ ले चलूँगी। नरेन्द्र ने खास हिदायत दीं है,"मैंने खुदको और वातावरण को सहज बनाने की कोशिश करते हुए कहा और चाय के प्याले वहांसे लेकर चल दीं। पर बड़ी देरतक अपने आप को सहज नही कर पायी। हे भगवान्! मुझे ये क्या हो रहा है? मैं अनायास किस लिए इसलिये खिचती चली जा रही हूँ !

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