Monday, September 10, 2007

आकाशनीम

पूर्णिमा अपनी दादीकी मृत्युसे हिल गयी थी। मेरा दुःख मैं शब्दोंमे बयाँ नही कर सकती। कहनेको वो स्त्री मेरी सास थी लेकिन मुझे कितनी अच्छी तरह समझा था! मेरी कमजोरी जानकार भी कभी मुझे उलाहना नही दीं थी, बल्कि उसे मेरा समर्पण कहा था। नरेंद्र अन्दरही अन्दर अपना दुःख पी गए। जब माजी की दहन क्रिया के बाद वे घर आये तो मैं उनसे लिपटकर ख़ूब रोई थी। तब ना तो वे मेरे पती थे,केवल एक हितचिन्तक, स्नेही, जो मेरी क्षती को, मेरे अपर दर्द को ख़ूब भली भांती समझते थे। मेरी पीठ पर हाथ फिरकर वे मुझे सांत्वना देते रहे। उनके व्यक्तित्व मे महानता का एक वाले औरभी बढ़ गया। अन्दर ही अन्दर दर्द नरेंद्रनेभी बेहद सहा होगा।

मुझे कई बार महसूस होता जैसे नरेंद्र किसी अपराध-बोध तले दबें हो । माजीकी मृत्युके ठीक छ: साल बाद नरेंद्र को र्हिदय विकारका पहला झटका आया। उसमेसे तो वो बच गए, लेकिन दो साल के बाद जो दूसरा झटका आया उसमे वे नही बच पाए। एक महान कलाकार का, एक महान इन्सान का, जो मेरा पती था , लेकिन मेरी दीदीका प्रेमी था, अंत हो गया।

इतनी बड़ी हवेलीमे नौकरोंके अलावा केवल मैं और पूर्णिमा रह गए। नरेंद्र के बाद्के दो वरषोमे मैं और पूर्णिमा सहिलियाँ-सी बन गयी। पूर्णिमा मुझसे कभी कुछ नही छिपाती, नाही मेरी कोई बात टालती। वैसेभी वो अपनी उम्र से बढकर संजीदा थी। एक दिन उसने मेरा "आकाशनीम" काव्यसंग्रह पढा ,तो मुझ से पूछ बैठी,"मासिमा , तुम्हारी कवितामे इतनी वेदना क्यों है?क्या तुमने इतनी वेदनाका सचमुच अनुभव किया है?"

"पूर्णी, आज मैं तुम्हें अपने अतीतके बारेमे बिलकूल सच,सच बताऊंगी , एक सहेली मानकर,"मैंने कहा और उसे उसकी माके बारेमे,स्टीव के बारेमे और उस स्नेहमयी औरत, जो उसकी दादी थी, सब कुछ बता दिया। बल्कि , नरेंद्र और माजी की प्रेरणा सेही मैंने अपने लेखनको प्रकाशित करना आरम्भ किया था।

पूर्णी मन्त्र मुग्ध-सी सुनती रही। जब मैं रुकी तो बोली," मासीमा! क्या स्टीव का पता तुम्हारे पास नही है?"

"पगली!!उस बात को बारह,तेरह साल बीत गए। ऐसे कोई मेरे इंतज़ार मे बैठा थोडेही होगा ?और फिर तू जो है, तू मेरे लिए क्या है तू खुद नही जानती। ना जाने मैं ऎसी कितनी जिंदगियां तुझ पे वार दूं! सच मान, पूर्णी, मुझे अपनी औलाद ना होनेका एक पलभी कभी दुःख नही हुआ।"

मैंने उसका सर अपनी गोदीमे रखते हुए कहा। अठारह साल की पूर्णी कितनी नीला दीदी जैसी दिखती थी, उतनीही सुन्दर, नाज़ुक,उतनीही स्नेहमयी।

फिर उसेभी दिल्ली होस्टेल्मे जाना पड़ गया पढ़ाई के लिए। जाते समय हम दोनो पहले तो एक दूसरेसे छिपकर,फिर एकदूसरे को गले लगाकर कितना रोये थे! मैं उसे छोड़ने दिल्ली गयी थी,जब लौटी तो वो सफ़र मुझे कितना अंतहीन लगा था!!किसी दिन वो ब्याह के बाद चली जायेगी, तो मैं कितनी अकेली हो जाऊंगी, ये ख़याल कितना असह्य था। फिर वही वेदना, वही दर्द मेरी धमनियोंसे बहकर कागज़ पर उभरता रहा। मेरे प्रकाशित कव्यसंग्रहोने मुझे शोहरत के शिखर पे बिठा दिया,जहाँ उतनीही तनहां हूँ,जितनी के पहले थी।"

इतना लिखके मीनाक्षीने कमरेकी घड़ीमे देखा। सुबह के चार बजने वाले थे। घड़ी के नीचे शीशम की एक लम्बी-सी मेज़ रखी हुई थी। उसे उसपर एक बंद लिफाफा नज़र आया। उसने अचरज से उसे उठाया और उसपे लिखा अपना नाम पढा। कुछ पल उसे विश्वास ही नही हुआ। स्टीव की लिखावट! उसने खोलनेसे पहले लिफाफेको कांपते हाथोंसे कुछ देर पकड़े रखा। कहीं ये भ्रम ना हो!! फिर खोल के उसे पढने लगी,"............

अगली किश्त मे

No comments: