Friday, June 22, 2007

वो घर बुलाता है...

जब,जब पुरानी तस्वीरे
कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!
इक गाँव निगाहोंमे बसता है,
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है...!

उसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था
वो पेड नीमका आंगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!

वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसाकी वो अब नही!
लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हातो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है...!

बरसती बदरीको मै
बंद खिड्कीसे देखती हूँ
भीगनेसे बचती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही।
जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ
अँधेरेसे कतराती हूँ...!

पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था।
खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी
सूखी मोलश्री मिल जाती...

हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों मे भर जाती,
कितना याद दिला जाती ,
नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेके
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी,
यें यादेँ होती हैं कैसी,
कडी धूपमे ताज़ी रहतीं....

ये कैसे नही सूखती?
ये कैसे नही मुरझाती ?
ये क्या चमत्कार है?
पर ठीक ही है जोभी है,
चाहे वो रुला जाती है,
दिलको सुकूनभी पहुँचाती,
बातें पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी...

जब पीली तसवीरें,
मेरे सीनेसे चिपकती हैं,
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है
जब आँखें रिमझिम झरती हैं,
जो खो गया ढूँढे नही मिलेगा,
बात पतेकी मुझहीसे कहती हैं!

2 comments:

रवि रतलामी said...

बढ़िया लिखा है.

Anonymous said...

आपकी लेखनी मै दर्द झलकता है. तडप है