कुछ अरसा हुआ मैंने चंद पढेलिखे लोंगोंको "धरमके" नाम पे बेहेस करते सुना...उस समय मुझे ये पंक्तिया सूझी..इन्हें पहेले इसी ब्लोग्मे लिखनेका प्रयास लिया लेकिन कुछ टेक्नीकल वजह्से लिख नही पायी। ये लोग "धरम"शब्द्का प्रयोग सम्प्रदय्को लेकर कर रहे थे जोकी मेरे विचारसे सही नही था। प्राचीन भारतीय भाषामे "धर्म"शब्द "निसर्ग धर्म" या "स्वभाव धर्मसे "संलग्न रहा है।
बुतपरस्तीसे हमे गिला ,
सजदेसे हमे शिकवा
ज़िन्दगीके चार दिन मिले
वोभी तय करनेमे गुज़ारे,
आख़िर किस नतीजेपे पोहोंचे?
फसादोंमें ना हिंदु मरे
ना मुसलमाही मरे,
वो तो इन्सान थे जो मरे!
उन्हें तो मौतने बचाया
वरना,ज़िंदगी,ज़िंदगी है,
क्या हश्र कर रही है,
हमारा, हम जो बच गए!
देखती हमारीही आँखें
हमाराही तमाशा,
बनती है खुदही
तमाशायी ,हमारेही सामने,
आँखें बंद होनेको है
पर खुली नही हमारी!!
लेखिकाकी तरफसे एक टिपण्णी:मैं जब,जब "धर्म " इस शब्द्का प्रयोग करती हु,मेरा मत्यार्थ "निसर्ग धर्म या स्वभाव धर्मसे"होता है,नाकी
किसी संप्रदायसे.
किसीभी लेखंका उपयोग बिना लेखिकाकी इजाज़त,कहीं और ना करें!!
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2 comments:
कविता के भाव बहुत अच्छे लगे।
bahut acchi rachnaye hain shama ji,chahuga ki aap aage bhi aisi hi kavitaye likha kare jo deshprem se bhari ho,kam se kam aawaj to aati hai kahi se.............
hum hain na ise aage le jane ke liye
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